بسم الله الذي لا يضر مع اسمه شيء في الأرض ولا في السماء وهو السميع العليم अल्लाह के नाम पर, जिसका नाम पृथ्वी या आसमान में कुछ भी नुकसान नहीं पहुँचाता है, और वह सुनने वाला, जानने वाला है
डॉ। वेद प्रकाश उपाध्याय
हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰):अन्तिम’ईशदूत क्यों?
एक बौद्धिक विश्लेषण
इन्सान को ज़िन्दगी जीने के लिए जिस ज्ञान और मालूमात की ज़रूरत होती है, उसमें से काफ़ी हिस्सा उसकी पंचेन्द्रियों [Five Senses–देखना (आंख), सुनना (कान), सूंघना (नाक), चखना (जीभ), छूना (हाथ), के माध्यम से उसे हासिल होता है। इसके साथ उसे बुद्धि-विवेक भी प्राप्त है जिसके द्वारा वह चीज़ों का और अपनी नीतियों, कामों और फ़ैसलों आदि का उचित या अनुचित, लाभप्रद या हानिकारक होना तय करता है। धर्म में विश्वास रखने वाले (और न रखने वाले भी) लोग जानते-मानते हैं कि ये पंचेन्द्रियां (और बुद्धि-विवेक) स्वयं मनुष्य ने अपनी कोशिश, मेहनत, सामर्थ्य, इच्छा और पसन्द से नहीं बनाई हैं, बल्कि धर्म को माननेवाले लोगों का विश्वास है कि इन्हें ईश्वर ने बनाकर मनुष्य को प्रदान किया है। ईश्वर ने मनुष्य का सृजन किया है और पंचेन्द्रियां व बुद्धि-विवेक मनुष्य के व्यक्तित्व के अंग व अंश हैं।
ईशदूत की आवश्यकता
तजुर्बा बताता है और पूरा इतिहास गवाह है कि ज्ञानोपार्जन के सिर्फ़ उपरोक्त साधनों (पंचेन्द्रियों और बुद्धि) पर ही पूरी तरह से निर्भर होकर किए जाने वाले काम और फै़सले कभी बहुत ग़लत और कभी बड़े हानिकारक व घातक भी हो जाते हैं। इससे साबित होता है कि इन्सान को उपरोक्त साधनों के अतिरिक्त भी किसी साधन की परम आवश्यकता है। ऐसा साधन, जो इन्सान को वह ज्ञान और मालूमात दे, जो उसकी पंचेन्द्रियों की पहुंच से बाहर है। यह साधन जिस माध्यम से प्राप्त होता है वह ‘ईशदूत’ है, जिसे ईश-सन्देष्टा, ईश-प्रेषित, रसूल, नबी, पैग़म्बर और Prophet आदि शब्दों से व्यक्त किया जाता है।
कुछ बुनियादी सवाल हैं जिनका इन्सान और समाज से बड़ा गहरा ताल्लुक़ और जो पंचेन्द्रियों से अर्जित ज्ञान के दायरे से बाहर हैं, जैसे:
न्यायसंगत रूप में पूरा या अधूरा या कुछ भी नहीं मिल सका था। क्या ईश्वर महान, दयालु, कृपाशील की यह दुनिया किसी ‘‘चौपट राजा की अन्धेर नगरी’’ समान है?
इन और इनसे निकले अनेकानेक अन्य सवालों का सही जवाब पाना मनुष्य की परम आवश्यकता है, क्योंकि इनके सही या ग़लत या भ्रमित होने पर मनुष्य के चरित्र, आचार-विचार, व्यवहार का तथा पूरी सामाजिक व सामूहिक व्यवस्था का अच्छा या बुरा होना निर्भर है। ‘ईशदूत’ इसी आवश्यकता को पूरा करता है। मनुष्य तथा उसका समाज इससे निस्पृह और बेनियाज़ हरगिज़ नहीं हो सकता। ऐसी निस्पृहता बड़ी तबाही का कारक बनती है।
ईशदूत-श्रृंखला और उसकी अन्तिम कड़ी
ईशदूत के महत्व, आवश्यकता व अनिवार्यता के अनुकूल धरती पर इन्सान के वजूद के साथ ही ईशदूतत्व (नुबूवत/रिसालत) का सिलसिला आरंभ हो गया। इस्लामी ज्ञान-स्रोतों के अनुसार हज़ारों वर्ष पर फैले मानव इतिहास में लगभग सवा-डेढ़ लाख ईशदूत हुए। क़ुरआन के अनुसार (13:7) हर क़ौम में पथ-प्रदर्शक (हादी अर्थात् ईशदूत) भेजे गए। कभी एक के बाद दूसरे और कभी एक ही साथ कई ईशदूत, युग, क्षेत्र और जातियों व क़ौमों की आवश्यकताओं, समस्याओं और परिस्थितियों के अनुकूल ईश्वरीय मार्गदर्शन के अन्तर्गत इन्सानों और समाजों का पथ-प्रदर्शन करते, उन्हें विशुद्ध एकेश्वरवाद का आह्वान करते तथा ईश्वरीय आदेशों-निर्देशों और नियमों के अनुसार जीवन बिताने की शिक्षा व प्रशिक्षण देते हुए स्वयं को साक्षात् आदर्श (Role Model) के रूप में पेश करते रहे। उन ईश-सन्देष्टाओं में से कुछ पर ‘ईश-ग्रंथ’ भी अवतरित हुए। हर ईशदूत ने स्वयं को स्पष्ट शैली में ईश्वर का दास (बन्दा, सेवक) और सन्देष्टा व रसूल घोषित किया और सारे ईशदूतों ने लोगों के सामने इस भ्रम की तनिक भी गुंजाइश न रख छोड़ी कि वे स्वयं ईश्वर थे, ईश्वर का अंश थे, ईश्वर का अवतार थे, ईश्वर का बेटा थे या उनमें कुछ दैवी गुण थे, दैवी (ख़ुदाई) शक्ति-सामर्थ्य थी।
हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) इस लंबे सिलसिले की अन्तिम कड़ी थे। यह एक मिथ्या धारणा प्रचलित है कि आप (सल्ल॰) इस्लाम धर्म के संस्थापक थे। सच यह है कि सारे ईशदूत मूल ईश्वरीय धर्म ‘इस्लाम’ के वाहक और प्रचारक थे और हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) सबके आख़िर में ईश्वर की ओर से ‘सत्य धर्म इस्लाम’ के वाहक व प्रचारक-नबी/रसूल/पैग़म्बर थे। आप (सल्ल॰) पर अन्तिम ईशग्रंथ ‘क़ुरआन’ आपके जीवनकाल की 23 वर्षीय अवधि में अवतरित हुआ, जिसमें वही सारा सत्य और मूल-सत्य समाहित था जो पहले के ईशग्रंथों में था। सभी अस्ल ईशग्रंथों की समान (Common) मूल धारणाएं (विशुद्ध एकेश्वरवाद, परलोकवाद और ईशदूतवाद) स्पष्ट व पारदर्शी (Transparent) रूप में ईशग्रंथों के इस अन्तिम संस्करण ‘क़ुरआन’ में अंकित व संग्रहित करके अन्तिम ईश-सन्देष्टा के सुपुर्द कर दी गईं कि अब कोई ईशदूत नहीं आने वाला, आप पूरी मानवजाति के लिए, तथा सदा-सदा के लिए अवतरित यह दिव्य ग्रंथ अल्लाह के बन्दों के सुपुर्द कर दें। आप (सल्ल॰) ने अन्तिम ईशदूत की यह भारी और नाजु़क ज़िम्मेदारी पूरी तरह से निभाकर संसार से परलोक को प्रस्थान किया।
‘अन्तिम’ईशदूत क्यों और कैसे?
मस्तिष्क में सहज ही यह प्रश्न उठता है कि जब मनुष्य को ईश्वरीय मार्गदर्शन की, अतः मार्गदर्शक ईशदूत की आवश्यकता सदा से चली आ रही है, तो ईशदूत-श्रृंखला का अन्त क्यों हो गया और हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) अन्तिम ईशदूत क्यों हुए? आप (सल्ल॰) के बाद भी यह सिलसिला जारी न रहने में क्या तर्क है? इस प्रश्न का उत्तर समझने में आसानी के लिए पहले इस बात पर विचार कर लेना उचित होगा कि भूतकाल में ईशदूतत्व का सिलसिला ईश्वर ने जारी ही क्यों रखा।
प्राचीनकाल में ईशदूतत्व का सिलसिला जारी रहने के कारण
गुज़रे ज़मानों में परिस्थितियां हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के ज़माने से भिन्न थीं। उनमें स्थायित्व बहुत कम, परिवर्तनशीलता बहुत ज़्यादा तथा काल व क्षेत्र के स्तर पर विविधता व विषमता काफ़ी होती थी। समाज व संस्कृति क्रमविकास (Evolution) के दौर से गुज़र रही थी। स्थितियां कुछ इस प्रकार की थीं:
ईशदूत–श्रृंखला के समापन की परिस्थिति
मानव-समाज और सभ्यता की निरन्तर प्रगतिशीलता, विकास, उन्नति व अग्रसरता का सिलसिला आगे बढ़ते-बढ़ते एक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हुई, जो पहले के ज़मानों से बड़ी हद तक भिन्न भी थी और उत्कृष्ट भी। सभ्यता अपनी परिपक्वता के चरण से काफ़ी क़रीब होने की स्थिति में आ गई।
परिस्थिति की मांग
ऐसी परिस्थिति इस बात की मांग कर रही थी कि अब जो ईशदूत आए उस पर ईशदूतत्व का सिलसिला ख़त्म हो जाए। वह ऐसा ईशदूत हो जिसकी हैसियत, जिसका पैग़ाम, जिसका आह्वान, जिसकी शिक्षाएं, जिसका आदर्श, और जिस पर अवतरित ईशग्रंथ सार्वभौमिक भी हो और सार्वकालिक भी। उसकी शिक्षाओं और ईशवाणी को शुद्धता व सम्पूर्णता के साथ संकलित व सुरक्षित रखने के साधन उपलब्ध हो चुके हैं। पहले अलग-अलग क़ौमों और दूर-दूर, अलग-थलग पड़ी जातियों के लिए अलग-अलग ईशदूतों की आवश्यकता थी तो अब वह आवश्यकता बाक़ी न रही। पहले हर ईशदूत अपनी-अपनी क़ौम को संबोधित करता था। अब एक ईशदूत पूरी मानवजाति को संबोधित कर सकता है। एक ही ईशदूत में अब सारी इन्सानियत के हित और शुभेच्छा के गुण समाहित हों, तो उससे पूरी इन्सानियत लाभान्वित होने की स्थिति में आ गई है। अब ऐसा बिल्कुल संभव है कि उसका आह्वान भी वैश्विक हो और उसका आदर्श भी। उस पर जो ईशग्रंथ अवतरित हो वह पूरी मानवजाति का मार्गदर्शक हो, वह अन्तिम ईशग्रंथ हो और उसमें मानवजाति के स्थाई व संपूर्ण तथा शाश्वत मार्गदर्शन की बहुआयामी, बहुपक्षीय सामग्री इस तरह समाहित हो कि वह हर काल व भू-क्षेत्र के लिए प्रासंगिक (Relevant) हो। मानवजाति के व्यक्तिगत, दाम्पत्य, पारिवारिक, कौटुम्बिक व सामाजिक हर क्षेत्र से संबंधित ऐसे मौलिक नियम हों, उसकी आर्थिक, शैक्षणिक, न्यायिक और राजनीतिक तथा साथ ही नैतिक, आध्यात्मिक व चारित्रिक व्यवस्था के लिए ऐसे बुनियादी उसूल व क़ानून हों जो कभी पुराने न हों, लाभहीन, अनुपयोग्य, अव्यावहारिक न हों।
हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) अन्तिम ईशदूत
परिस्थिति की उपरोक्त मांग के विशाल ख़ाके में सुन्दर रंग भरने के लिए ईश्वर ने हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) को ईशदूत चुना। (आप सल्ल॰ की एक उपाधि ‘मुस्तफ़ा’ है, यानी ‘चुना हुआ’)। आप अन्तिम नबी (‘ख़ातमन्-नबीयीन’ अर्थात् नबियों...ईश सन्देष्टाओं...का सिलसिला ख़त्म करनेवाला) घोषित किए गए (क़ुरआन– 33:40)।
ये मात्र थोड़े से तर्क, सिर्फ़ चन्द दलीलें हैं, जो आप (सल्ल॰) के अन्तिम (सार्वभौमिक व सार्वकालिक) ईशदूत होने की चलती-फिरती, साक्षात् दलीलें हैं। इनके अतिरिक्त आप पर अवतरित ईशग्रंथ ‘क़ुरआन’ के अन्तिम ईशग्रंथ होने के अनेक तर्क व प्रमाण ख़ुद क़ुरआन में और क़ुरआन के बाहर भी बड़ी मात्रा में पाए जाते हैं।
क़ुरआन के पहले अध्याय (सूरह) की पहली आयत में अल्लाह को किसी जाति-विशेष का नहीं, सारे संसारों का पालनकर्ता (रब) कहा गया है। अन्तिम सूरह की पहली तीन आयतों में उसे सारे लोगों का रब, सारे लोगों का स्वामी (मालिक) और सारे लोगों का इष्ट पूज्य-उपास्य (इलाह) कहा गया है। अनेक आयतों में लोगों को ‘ऐ इन्सान’, ‘ऐ आदम की संतान’ और ‘हे लोगो’ कहकर संबोधित किया गया है। इस संबोधनशैली में काल, समय और स्थान (देश, राष्ट्र) की सीमाएं तोड़ दी गई हैं। क़ुरआन के नियमों, आदेशों और क़ानूनों पर आधारित ईश्वरीय व्यवस्था ने आज लगभग डेढ़ हज़ार वर्ष बीत जाने पर भी ऐसी उत्कृष्ट व श्रेष्ठ नैतिक, सामाजिक, प्रशासनिक एवं राजकीय व्यवस्था के नमूने पेश कर रखे हैं, जो इस तथ्य के तर्क व प्रमाण हैं कि अब इस ईशग्रंथ के अतिरिक्त किसी अन्य ईशग्रंथ की आवश्यकता कदापि नहीं है और यही स्थिति भविष्य के लिए भी है। इस प्रकार बिना किसी पूर्वाग्रह और नकारात्मक पक्षपात के देखा जाए तो क़ुरआन का अन्तिम ईशग्रंथ होना और इसके वाहक हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) का अन्तिम ईशदूत होना बौद्धिक विश्लेषण और अक़्ली जायज़े से पुष्ट (Confirm) हो जाता है।
उपरोक्त वस्तुस्थिति हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के संदर्भ में बिल्कुल भिन्न और उत्कृष्ट (Distinctly different) हो गई। आपका जन्म, आपकी पूरी जीवनी, आपका सम्पूर्ण जीवन-आचरण, आपका आह्वान, आपकी शिक्षाएं, आपका मिशन, ईश्वरीय मिशन में आपका संघर्ष, आपका चरित्र और आचार-व्यवहार, आपका व्यक्तिगत, दाम्पत्य, पारिवारिक व सामाजिक जीवन...यहां तक कि आपका बोलना, चुप रहना, मुस्कराना, हंसना, दुखी होना, क्षमा कर देना और बदला का औचित्य होने पर भी बदला न लेना, शान्ति व युद्ध की अवस्था में आपकी नीति व कार्यविधि, आपका सोना, चलना-फिरना, आपका लिबास व परिधान, आपका वुजू़ व स्नान करना, लोगों से दिन-प्रतिदिन के मामले निबटाना, लोगों के अधिकार देना और दिलाना, समाजसेवी, समाज-रचयिता, धर्म-गुरु, उपासक, उपदेशक, न्यायाधीश, शिक्षक-प्रशिक्षक, शासक-प्रशासक, योद्धा व कमांडर आदि की भूमिकाएं निभाना, ईश्वर की उपासना स्वयं करना और अपने अनुयायियों को ईशमान्य उपासना-पद्धति सिखाना तथा एक ईशपरायण समाज और सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था बनाना...अर्थात् आप (सल्ल॰) के सम्पूर्ण (Holistic) आदर्श (23 वर्षीय पैग़म्बरीय जीवन) का प्रारूपण व सृजन इतिहास की पूरी रोशनी में हुआ। इस आदर्श का एक-एक अंग, एक-एक पहलू और एक-एक सूक्षतम अंश आप (सल्ल॰) के जीवन-काल से ही बड़ी शुद्धता, सूक्षमता, प्रामाणिकता व विश्वसनीयता के साथ रिकार्ड किया जाता रहा। इसके लिए पूरा एक विज्ञान विकसित हुआ और एक वृहद, विशाल व विस्तृत ‘हदीसशास्त्र’ अस्तित्व में आया (हदीस=आप (सल्ल॰) की कथनी-करनी का लिखित व प्रमाणिक ब्योरा)। पहले पुस्तकों ने, फिर प्रिंट-मीडिया और फिर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और फिर इन्टरनेट और वर्ल्ड वाइड वेब (www) ने आप (सल्ल॰) के ईशदूतत्व को वैश्वीकृत (Globalised) और सार्वभौमिक व सार्वकालिक बना दिया।
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