सीरत
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जीवनी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम
मुहम्मद इनायतुल्लाह सुब्हानी इस किताब के अध्ययन से अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के जीवन की प्रमुख झलकियाँ आपके सामने आएंगी और इस किताब को पढ़नेवाला ऐसा महसूस करेगा, जैसे वह ख़ुद उस दौर से गुज़र रहा है, जिस दौर से पैग़म्बरे इस्लाम गुज़रे हैं। सलामती और रहमत हो उस पाक नबी पर जिसने मानवता को दुनिया में रहने का सही ढंग और ख़ुदा तक पहुँचने का सच्चा मार्ग दिखाया। मुबारकबाद हो उन लोगों को जो स्वयं अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के मार्ग पर चलें और दुनिया को इस मार्ग पर चलने की दावत दें।

आख़िरी नबी हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)
हमूदा अब्दुल आती अल्लाह तीन प्रकार से इन्सानों को संबोधित करता है:- 1.अन्तः प्रेरणा द्वारा जो अल्लाह धार्मिक व्यक्तियों के मन या मस्तिष्क में सुझाव या विचार के रूप में डाल देता है। 2.किसी पर्दे के पीछे से दृश्य या दर्शन के रूप में जब योग्यतम व्यक्ति नींद या आलमेजज़्ब (आत्मविस्मृति) में हो, और- 3. ईश्वरीय संदेशवाहक हज़रत जिब्रील द्वारा प्रत्यक्ष ईश्वरीय संदेश के साथ, जिन्हें ईश्वर के चुने दूत तक पहुँचाने के लिए अवतरित किया जाता है। (क़ुरआन 42 : 51) यह आख़िरी रूप उच्च कोटि का है और इसी रूप में क़ुरआन हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर अवतरित हुआ। यह सीमित है केवल ईश-दूतों तक, जिनमें हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अन्तिम हैं और ईश दूतत्व की अन्तिम कड़ी हैं।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) कैसे थे?
इरफ़ान ख़लीली नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ज़िन्दगी के गुलदस्ते का हर फूल बेमिसाल, हर एक की ख़ुशबू मेरे दिल के दामन को अपनी ओर खींच रही थी। मैं अजीब कशमकश में पड़ा हुआ था। न छोड़ते बनता था, न पकड़ते। मेरे अल्लाह ने मेरी मदद की। ज़ेहन में एक ख़याल उभरा— "क्यों न नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ज़िन्दगी के उन वाक़िआत को जमा कर दूँ जो हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से सीधा ताल्लुक़ रखते हों।" इस किताब के पढ़नेवालों से गुज़ारिश है कि इसे ग़ौर से पढ़ें और इस की बातों को अपनी ज़िन्दगियों में समोने की कोशिश करें।

क्या पैग़म्बर की फ़रमाँबरदारी ज़रूरी नहीं?
मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी यह किताब अस्ल में मौलाना सैयद अबुल-आला मौदूदी (1903-1979 ई.) के दो लेखों (इत्तिबाअ् व इताअते-रसूल' और 'रिसालत और उसके अह्काम) का हिन्दी तर्जमा है। ये लेख मौलाना के लेखों के उर्दू संग्रह तफ़हीमात, हिस्सा-1 में प्रकाशित हुए हैं। ये लेख उन्होंने सन् 1934 और 1935 ई. में उर्दू पत्रिका 'तर्जुमानुल-क़ुरआन' में कुछ लोगों के सवाल के जवाब में लिखे थे। सवाल पैग़म्बर की फ़रमाँबरदारी करने के बारे में था। मौलाना मौदूदी (रहमतुल्लाहि अलैह) ने बड़े ही प्रभावकारी ढंग से दलीलों के साथ उनका जवाब दिया। आज भी इस तरह के सवाल बहुत से लोगों के दिमाग़ों में आते हैं या दूसरे लोगों के ज़रिए पैदा किए जाते हैं और लोग उन सवालों की ज़ाहिरी शक्ल को देखकर मुतास्सिर हो जाते हैं कि अगर कोई आदमी ख़ुदा को एक मानता है और कुछ अच्छे काम भी करता है तो क्या उसके लिए पैग़म्बर पर ईमान लाना और उसकी फ़रमाँबरदारी ज़रूरी है? और अगर ज़रूरी है तो क्यों? इसलिए ज़रूरत महसूस की गई कि ऐसे क़ीमती लेखों का हिन्दी में तर्जमा प्रकाशित किया जाए।

हमारे रसूले-पाक (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)
तालिब हाशिमी मेरे दिल में भी बहुत दिनों से ख़ाहिश थी कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की एक ऐसी सीरत (जीवनी) लिखूँ— मेरे दिल में भी बहुत दिनों से ख़ाहिश थी कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की एक ऐसी सीरत (जीवनी) लिखूँ— 1. जो मुख़्तसर हो लेकिन उसमें कोई ज़रूरी बात न छूटे। 2. जिसमें जंचे-तुले हालात और आख़िरी हद तक सच्चे वाक़िआत दर्ज हों। 3. जिसकी ज़बान इतनी आसान और सुलझी हुई हो कि उसको छोटी उम्र के लड़के-लड़कियाँ और कम पढ़े-लिखे लोग भी आसानी से समझ सकें। 4. जो स्कूलों और मदरसों के कोर्स में शामिल की जा सके। 5. जिसकी रौशनी में माँ-बाप और उस्ताद (शिक्षक) अपने बच्चों और शागिर्दों को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की पाक ज़िन्दगी के वाक़िआत को आसानी से याद करा सकें। 6. जिसमें नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बेहतरीन अख़लाक़ के अलग-अलग पहलुओं को दिल में उतर जानेवाले तरीक़े से ज़िक्र किया गया हो।