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पवित्र क़ुरआन हिंदी में

पवित्र क़ुरआन हिंदी में

 

 

 

 

 

पवित्र क़ुरआन हिंदी में

अनुवाद

अरबी से उर्दू

मौलाना मुहम्मद फ़ारूक़ ख़ा

उर्दू से हिंदी

मुहम्मद अहमद

नज़रसानी (पुनरीक्षण)

नसीम अहमद ग़ाज़ी फ़लाही

 

 

 

  1. अल-फ़ातिहा

(मक्का में उतरी – आयतें 7)

(1) ۞ بِسْمِ اللہِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ۝ [١:١]

अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील, और अत्यन्त दयावान हैं।

اَلْحَمْدُ لِلہِ رَبِّ الْعٰلَمِيْنَ۝۱ۙ

सारी प्रशंसाएँ अल्लाह ही के लिए हैं, जो सारे जगत् का रब (प्रभु, पालनकर्ता) है ॥1॥

الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ۝۲ۙ

बड़ा कृपाशील, अत्यन्त दयावान है ॥2॥

مٰلكِ يَوْمِ الدِّيْنِ۝۳ۭ

बदला दिए जाने के दिन का मालिक है ॥3॥

اِيَّاكَ نَعْبُدُ وَاِيَّاكَ نَسْتَعِيْنُ۝۴ۭ [١:٥]

हम तेरी ही बन्दगी करते हैं और तुझी से मदद माँगते हैं ॥4॥

اِھْدِنَا الصِّرَاطَ الْمُسْتَـقِيْمَ۝۵ۙ

हमें सीधे मार्ग पर चला ॥5॥

صِرَاطَ الَّذِيْنَ اَنْعَمْتَ عَلَيْہِمْ ۥۙ غَيْرِ الْمَغْضُوْبِ عَلَيْہِمْ وَلَاالضَّاۗلِّيْنَ۝۷ۧ

उन लोगों के मार्ग पर, जो तेरे कृपापात्र हुए; जो न प्रकोप के भागी हुए और न पथभ्रष्ट॥7॥

 

 

 

 

  1. अल-बक़रा

(मदीना में उतरी – आयतें 286)

بِسْمِ اللہِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ

अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील, अत्यन्त दयावान है।

الۗمّۗ۝۱ۚ

अलिफ़ – लाम – मीम॥1॥

ذٰلِكَ الْكِتٰبُ لَا رَيْبَ۝۰ۚۖۛ فِيْہِ۝۰ۚۛھُدًى لِّلْمُتَّقِيْنَ۝۲ۙ

वह किताब यही हैं (जिसका वादा किया गया था); जिसमें कोई सन्देह नहीं, मार्गदर्शन हैं डर रखनेवालों के लिए;॥2॥

الَّذِيْنَ يُؤْمِنُوْنَ بِالْغَيْبِ وَيُـقِيْمُوْنَ الصَّلٰوۃَ وَمِمَّا رَزَقْنٰھُمْ يُنْفِقُوْنَ۝۳ۙ

जो अनदेखे ईमान लाते हैं; नमाज़ क़ायम करते हैं और जो कुछ हमने उन्हें दिया हैं उसमें से कुछ खर्च करते हैं; ॥3॥

وَالَّذِيْنَ يُؤْمِنُوْنَ بِمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ وَمَآ اُنْزِلَ مِنْ قَبْلِكَ۝۰ۚ وَبِالْاٰخِرَۃِ ھُمْ يُوْقِنُوْنَ۝۴ۭ

और जो उस पर ईमान लाते हैं जो तुम पर उतरा और जो तुमसे पहले अवतरित हुआ हैं और आख़िरत पर वही लोग विश्वास रखते हैं; ॥4॥

اُولٰۗىِٕكَ عَلٰي ھُدًى مِّنْ رَّبِّہِمْ۝۰ۤوَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الْمُفْلِحُوْنَ۝۵

वही लोग हैं जो अपने रब के सीधे मार्ग पर हैं और वही सफलता प्राप्त करनेवाले हैं॥5॥

اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا سَوَاۗءٌ عَلَيْہِمْ ءَاَنْذَرْتَھُمْ اَمْ لَمْ تُنْذِرْھُمْ لَا يُؤْمِنُوْنَ۝۶

जिन लोगों ने कुफ़्र (इनकार) किया उनके लिए बराबर हैं, चाहे तुमने उन्हें सचेत किया हो या सचेत न किया हो, वे ईमान नहीं ला रहे है॥6॥

خَتَمَ اللہُ عَلٰي قُلُوْبِہِمْ وَعَلٰي سَمْعِہِمْ۝۰ۭ وَعَلٰٓي اَبْصَارِہِمْ غِشَاوَۃٌ۝۰ۡوَّلَھُمْ عَذَابٌ عَظِيْمٌ۝۷ۧ

अल्लाह ने उनके दिलों पर और कानों पर मुहर लगा दी है, और उनकी आँखों पर परदा पड़ा है और उनके लिए बड़ी यातना है॥7॥

وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَّقُوْلُ اٰمَنَّا بِاللہِ وَبِالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَمَا ھُمْ بِمُؤْمِنِيْنَ۝۸ۘ

कुछ लोग ऐसे हैं जो कहते हैं कि हम अल्लाह और अन्तिम दिन (आख़िरत) पर ईमान रखते हैं, हालाँकि वे ईमान नहीं रखते॥8॥

يُخٰدِعُوْنَ اللہَ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا۝۰ۚ وَمَا يَخْدَعُوْنَ اِلَّآ اَنْفُسَھُمْ وَمَا يَشْعُرُوْنَ۝۹ۭ

वे अल्लाह और ईमानवालों के साथ धोखेबाज़ी कर रहे हैं, हालाँकि धोखा वे स्वयं अपने-आपको ही दे रहे हैं, परन्तु वे इसको महसूस नहीं करते॥9॥

فِىْ قُلُوْبِہِمْ مَّرَضٌ۝۰ۙ فَزَادَھُمُ اللہُ مَرَضًا۝۰ۚ وَلَھُمْ عَذَابٌ اَلِـيْمٌۢ۝۰ۥۙ بِمَا كَانُوْا يَكْذِبُوْنَ۝۱۰

उनके दिलों में रोग था, तो अल्लाह ने उनके रोग को और बढ़ा दिया और उनके लिए झूठ बोलते रहने के कारण उनके लिए एक दुखद यातना है॥10॥

وَاِذَا قِيْلَ لَھُمْ لَا تُفْسِدُوْا فِى الْاَرْضِ۝۰ۙ قَالُوْٓا اِنَّمَا نَحْنُ مُصْلِحُوْنَ۝۱۱

और जब उनसे कहा जाता है कि "ज़मीन में बिगाड़ पैदा न करो", तो कहते हैं, "हम तो केवल सुधारक है।"॥11॥"

اَلَآ اِنَّھُمْ ھُمُ الْمُفْسِدُوْنَ وَلٰكِنْ لَّا يَشْعُرُوْنَ۝۱۲

जान लो! वही हैं जो बिगाड़ पैदा करते हैं, परन्तु उन्हें एहसास नहीं होता॥12॥

وَاِذَا قِيْلَ لَھُمْ اٰمِنُوْا كَمَآ اٰمَنَ النَّاسُ قَالُوْٓا اَنُؤْمِنُ كَمَآ اٰمَنَ السُّفَہَاۗءُ۝۰ۭ اَلَآ اِنَّھُمْ ھُمُ السُّفَہَاۗءُ وَلٰكِنْ لَّا يَعْلَمُوْنَ۝۱۳

और जब उनसे कहा जाता है, "ईमान लाओ जैसे लोग ईमान लाए हैं", कहते हैं, "क्या हम ईमान लाए जैसे कमसमझ लोग ईमान लाए हैं?" जान लो, वही कमसमझ हैं परन्तु जानते नहीं॥13॥

وَاِذَا لَقُوا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا قَالُوْٓا اٰمَنَّا۝۰ۚۖ وَاِذَا خَلَوْا اِلٰى شَيٰطِيْنِہِمْ۝۰ۙ قَالُوْٓا اِنَّا مَعَكُمْ۝۰ۙ اِنَّمَا نَحْنُ مُسْتَہْزِءُوْنَ۝۱۴

और जब ईमान लानेवालों से मिलते हैं तो कहते, "हम भी ईमान लाए हैं," और जब एकान्त में अपने शैतानों के पास पहुँचते हैं, तो कहते हैं, "हम तो तुम्हारे साथ हैं और यह तो हम केवल परिहास कर रहे हैं।"॥14॥

اَللہُ يَسْتَہْزِئُ بِہِمْ وَيَمُدُّھُمْ فِىْ طُغْيَانِہِمْ يَعْمَھُوْنَ۝۱۵

अल्लाह उनके साथ परिहास कर रहा है और उन्हें उनकी सरकशी में ढील दिए जाता है, वे भटकते फिर रहे हैं॥15॥

اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ اشْتَرَوُا الضَّلٰلَۃَ بِالْہُدٰى۝۰۠ فَمَا رَبِحَتْ تِّجَارَتُھُمْ وَمَا كَانُوْا مُہْتَدِيْنَ۝۱۶

यही वे लोग हैं जिन्होंने मार्गदर्शन के बदले में गुमराही मोल ली, किन्तु उनके इस व्यापार ने न कोई लाभ पहुँचाया, और न ही वे सीधा मार्ग पा सके॥16॥

مَثَلُھُمْ كَمَثَلِ الَّذِى اسْـتَوْقَدَ نَارًا۝۰ۚ فَلَمَّآ اَضَاۗءَتْ مَا حَوْلَہٗ ذَھَبَ اللہُ بِنُوْرِہِمْ وَتَرَكَھُمْ فِىْ ظُلُمٰتٍ لَّا يُبْصِرُوْنَ۝۱۷

उनकी मिसाल ऐसी हैं जैसे किसी व्यक्ति ने आग जलाई, फिर जब उसने उसके वातावरण को प्रकाशित कर दिया तो अल्लाह ने उसका प्रकाश ही छीन लिया और उन्हें अँधेरों में छोड़ दिया जिससे उन्हें कुछ सुझाई नहीं दे रहा हैं॥17॥

صُمٌّۢ بُكْمٌ عُمْىٌ فَھُمْ لَا يَرْجِعُوْنَ۝۱۸ۙ

वे बहरे हैं, गूँगें हैं, अन्धे हैं, अब वे लौटने के नहीं॥18॥

اَوْ كَصَيِّبٍ مِّنَ السَّمَاۗءِ فِيْہِ ظُلُمٰتٌ وَّرَعْدٌ وَّبَرْقٌ۝۰ۚ يَجْعَلُوْنَ اَصَابِعَھُمْ فِىْٓ اٰذَانِہِمْ مِّنَ الصَّوَاعِقِ حَذَرَ الْمَوْتِ۝۰ۭ وَاللہُ مُحِيْطٌۢ بِالْكٰفِرِيْنَ۝۱۹

या (उनकी मिसाल ऐसी है) जैसे आकाश से वर्षा हो रही हो जिसके साथ अँधेरे हों और गरज और चमक भी हो, वे बिजली की कड़क के कारण मृत्यु के भय से अपने कानों में उँगलियाँ दे ले रहे हों – और अल्लाह ने तो इनकार करनेवालों को घेर रखा हैं॥19॥

يَكَادُ الْبَرْقُ يَخْطَفُ اَبْصَارَھُمْ۝۰ۭ كُلَّمَآ اَضَاۗءَ لَھُمْ مَّشَوْا فِيْہِ۝۰ۤۙوَاِذَآ اَظْلَمَ عَلَيْہِمْ قَامُوْا۝۰ۭ وَلَوْ شَاۗءَ اللہُ لَذَھَبَ بِسَمْعِہِمْ وَاَبْصَارِہِمْ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ عَلٰي كُلِّ شَىْءٍ قَدِيْرٌ۝۲۰ۧ

मानो शीघ्र ही बिजली उनकी आँखों की रौशनी उचक लेने को है; जब भी उन्हें चमक जाती है, उसमे वे चल पड़ते हो और जब उनपर अँधेरा छा जाता हैं तो खड़े हो जाते हो; अगर अल्लाह चाहता तो उनकी सुनने और देखने की शक्ति बिलकुल ही छीन लेता। निस्सन्देह अल्लाह को हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त है॥20॥

يٰٓاَيُّہَا النَّاسُ اعْبُدُوْا رَبَّكُمُ الَّذِىْ خَلَقَكُمْ وَالَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُوْنَ۝۲۱ۙ

ऐ लोगो! बन्दगी करो अपने रब की जिसने तुम्हें और तुमसे पहले के लोगों को पैदा किया, ताकि तुम बच सको;॥21॥

الَّذِىْ جَعَلَ لَكُمُ الْاَرْضَ فِرَاشًا وَّالسَّمَاۗءَ بِنَاۗءً۝۰۠ وَّاَنْزَلَ مِنَ السَّمَاۗءِ مَاۗءً فَاَخْرَجَ بِہٖ مِنَ الثَّمَرٰتِ رِزْقًا لَّكُمْ۝۰ۚ فَلَا تَجْعَلُوْا لِلہِ اَنْدَادًا وَّاَنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ۝۲۲

वही है जिसने तुम्हारे लिए ज़मीन को फर्श और आकाश को छत बनाया, और आकाश से पानी उतारा, फिर उसके द्वारा हर प्रकार की पैदावार की और फल तुम्हारी रोजी के लिए पैदा किए, अतः जब तुम जानते हो तो अल्लाह के समकक्ष न ठहराओ॥22॥

وَاِنْ كُنْتُمْ فِىْ رَيْبٍ مِّـمَّا نَزَّلْنَا عَلٰي عَبْدِنَا فَاْتُوْا بِسُوْرَۃٍ مِّنْ مِّثْلِہٖ۝۰۠ وَادْعُوْا شُہَدَاۗءَكُمْ مِّنْ دُوْنِ اللہِ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ۝۲۳

और अगर उसके विषय में, जो हमने अपने बन्दे पर उतारा हैं, तुम किसी सन्देह में हो तो उस जैसी कोई सूरा ले आओ और अल्लाह से हटकर अपने सहायकों को बुला लो जिनके आ मौजूद होने पर तुम्हें विश्वास हैं, यदि तुम सच्चे हो॥23॥

فَاِنْ لَّمْ تَفْعَلُوْا وَلَنْ تَفْعَلُوْا فَاتَّقُوا النَّارَ الَّتِىْ وَقُوْدُھَا النَّاسُ وَالْحِجَارَۃُ۝۰ۚۖ اُعِدَّتْ لِلْكٰفِرِيْنَ۝۲۴

फिर अगर तुम ऐसा न कर सको और तुम कदापि नहीं कर सकते, तो डरो उस आग से जिसका ईधन इनसान और पत्थर हैं, जो इनकार करनेवालों के लिए तैयार की गई है॥24॥

وَبَشِّرِ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ اَنَّ لَھُمْ جَنّٰتٍ تَجْرِىْ مِنْ تَحْتِہَا الْاَنْہٰرُ۝۰ۭ كُلَّمَا رُزِقُوْا مِنْہَا مِنْ ثَمَرَۃٍ رِّزْقًا۝۰ۙ قَالُوْا ھٰذَا الَّذِىْ رُزِقْنَا مِنْ قَبْلُ۝۰ۙ وَاُتُوْا بِہٖ مُتَشَابِہًا۝۰ۭ وَلَھُمْ فِيْہَآ اَزْوَاجٌ مُّطَہَّرَۃٌ۝۰ۤۙ وَّھُمْ فِيْہَا خٰلِدُوْنَ۝۲۵

जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए उन्हें शुभ सूचना दे दो कि उनके लिए ऐसे बाग़ है जिनके नीचे नहरें बह रहीं होगी; जब भी उनमें से कोई फल उन्हें रोजी के रूप में मिलेगा, तो कहेंगे, "यह तो वही हैं जो पहले हमें मिला था," और उन्हें मिलता-जुलता ही (फल) मिलेगा; उनके लिए वहाँ पाक-साफ़ जोड़े होंगे, और वे वहाँ सदैव रहेंगे॥25॥

۞ اِنَّ اللہَ لَا يَسْتَحْىٖٓ اَنْ يَّضْرِبَ مَثَلًا مَّا بَعُوْضَۃً فَـمَا فَوْقَہَا۝۰ۭ فَاَمَّا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا فَيَعْلَمُوْنَ اَنَّہُ الْحَقُّ مِنْ رَّبِّہِمْ۝۰ۚ وَاَمَّا الَّذِيْنَ كَفَرُوْا فَيَقُوْلُوْنَ مَاذَآ اَرَادَ اللہُ بِہٰذَا مَثَلًا۝۰ۘ يُضِلُّ بِہٖ كَثِيْرًا۝۰ۙ وَّيَہْدِىْ بِہٖ كَثِيْرًا۝۰ۭ وَمَا يُضِلُّ بِہٖٓ اِلَّا الْفٰسِقِيْنَ۝۲۶ۙ

निस्संदेह अल्लाह नहीं शर्माता कि वह कोई मिसाल पेश करे चाहे वह हो मच्छर की, बल्कि उससे भी बढ़कर किसी तुच्छ चीज़ की। फिर जो ईमान लाए है वे तो जानते है कि वह उनके रब की ओर से सत्य हैं; रहे इनकार करनेवाले तो वे कहते है, "इस मिसाल से अल्लाह का अभिप्राय क्या है?" इससे वह बहुतों को भटकने देता है और बहुतों को सीधा मार्ग दिखा देता है, मगर इससे वह केवल अवज्ञाकारियों ही को भटकने देता है॥26॥

الَّذِيْنَ يَنْقُضُوْنَ عَہْدَ اللہِ مِنْۢ بَعْدِ مِيْثَاقِہٖ ۝۰۠ وَيَقْطَعُوْنَ مَآ اَمَرَ اللہُ بِہٖٓ اَنْ يُّوْصَلَ وَيُفْسِدُوْنَ فِى الْاَرْضِ۝۰ۭ اُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الْخٰسِرُوْنَ۝۲۷

जो अल्लाह की प्रतिज्ञा को उसे सुदृढ़ करने के पश्चात भंग कर देते हैं और जिसे अल्लाह ने जोड़ने का आदेश दिया है उसे काट डालते हैं और ज़मीन में बिगाड़ पैदा करते हैं, वही हैं जो घाटे में हैं॥27॥

كَيْفَ تَكْفُرُوْنَ بِاللہِ وَكُنْتُمْ اَمْوَاتًا فَاَحْيَاكُمْ۝۰ۚ ثُمَّ يُمِيْتُكُمْ ثُمَّ يُحْيِيْكُمْ ثُمَّ اِلَيْہِ تُرْجَعُوْنَ۝۲۸

तुम अल्लाह के साथ अविश्वास की नीति कैसे अपनाते हो, जबकि तुम निर्जीव थे तो उसने तुम्हें जीवित किया, फिर वही तुम्हें मौत देता हैं, फिर वही तुम्हें जीवित करेगा, फिर उसी की ओर तुम्हें लौटना हैं?॥28॥

ھُوَالَّذِىْ خَلَقَ لَكُمْ مَّا فِى الْاَرْضِ جَمِيْعًا ۝۰ۤ ثُمَّ اسْتَوٰٓى اِلَى السَّمَاۗءِ فَسَوّٰىھُنَّ سَبْعَ سَمٰوٰتٍ۝۰ۭ وَھُوَبِكُلِّ شَىْءٍ عَلِيْمٌ۝۲۹ۧ

वही तो है जिसने तुम्हारे लिए ज़मीन की सारी चीज़े पैदा की, फिर आकाश की ओर रुख़ किया और ठीक तौर पर सात आकाश बनाए और वह हर चीज़ को जानता है॥29॥

وَاِذْ قَالَ رَبُّكَ لِلْمَلٰۗىِٕكَۃِ اِنِّىْ جَاعِلٌ فِى الْاَرْضِ خَلِيْفَۃً۝۰ۭ قَالُوْٓا اَتَجْعَلُ فِيْہَا مَنْ يُّفْسِدُ فِيْہَا وَيَسْفِكُ الدِّمَاۗءَ۝۰ۚ وَنَحْنُ نُسَبِّحُ بِحَمْدِكَ وَنُقَدِّسُ لَكَ۝۰ۭ قَالَ اِنِّىْٓ اَعْلَمُ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ۝۳۰

और याद करो जब तुम्हारे रब ने फरिश्तों से कहा कि "मैं धरती में (मनुष्य को) खलीफ़ा (सत्ताधारी) बनाने वाला हूँ।" उन्होंने कहा, "क्या उसमें उसको रखेगा, जो उसमें बिगाड़ पैदा करे और रक्तपात करे, और हम तेरा गुणगान करते और तुझे पवित्र कहते हैं?" उसने कहा, "मैं जानता हूँ जो तुम नहीं जानते।"॥30॥

وَعَلَّمَ اٰدَمَ الْاَسْمَاۗءَ كُلَّہَا ثُمَّ عَرَضَھُمْ عَلَي الْمَلٰۗىِٕكَۃِ۝۰ۙ فَقَالَ اَنْۢبِــُٔـوْنِىْ بِاَسْمَاۗءِ ھٰٓؤُلَاۗءِ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ۝۳۱

उसने (अल्लाह ने) आदम को सारे नाम सिखाए, फिर उन्हें फ़रिश्तों के सामने पेश किया और कहा, "अगर तुम सच्चे हो तो मुझे इनके नाम बताओ।"॥31॥

قَالُوْا سُبْحٰــنَكَ لَا عِلْمَ لَنَآ اِلَّا مَا عَلَّمْتَنَا۝۰ۭ اِنَّكَ اَنْتَ الْعَلِيْمُ الْحَكِيْمُ۝۳۲

वे बोले, "महिमावान है तू! तूने जो कुछ हमें बताया उसके सिवा हमें कोई ज्ञान नहीं। निस्संदेह तू सर्वज्ञ, तत्वदर्शी है।"॥32॥

قَالَ يٰٓاٰدَمُ اَنْۢبِئْـھُمْ بِاَسْمَاۗىِٕہِمْ۝۰ۚ فَلَمَّآ اَنْۢبَاَھُمْ بِاَسْمَاۗىِٕہِمْ۝۰ۙ قَالَ اَلَمْ اَقُلْ لَّكُمْ اِنِّىْٓ اَعْلَمُ غَيْبَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ۝۰ۙ وَاَعْلَمُ مَا تُبْدُوْنَ وَمَا كُنْتُمْ تَكْتُمُوْنَ۝۳۳

उसने (अल्लाह ने) कहा, "ऐ आदम! उन्हें उन लोगों के नाम बताओ।" फिर जब उसने उन्हें उनके नाम बता दिए तो (अल्लाह ने) कहा, "क्या मैंने तुमसे कहा न था कि मैं आकाशों और धरती की छिपी बातों को जानता हूँ और मैं जानता हूँ जो कुछ तुम ज़ाहिर करते हो और जो कुछ छिपाते हो।"॥33॥

وَاِذْ قُلْنَا لِلْمَلٰۗىِٕكَۃِ اسْجُدُوْا لِاٰدَمَ فَسَجَدُوْٓا اِلَّآ اِبْلِيْسَ۝۰ۭ اَبٰى وَاسْتَكْبَرَ۝۰ۤۡوَكَانَ مِنَ الْكٰفِرِيْنَ۝۳۴

और याद करो जब हमने फ़रिश्तों से कहा कि "आदम को सजदा करो" तो, उन्होंने सजदा किया सिवाय इबलील के। उसने इनकार कर दिया और लगा बड़ा बनने और अवज्ञाकारी होकर रहा॥34॥

وَقُلْنَا يٰٓاٰدَمُ اسْكُنْ اَنْتَ وَزَوْجُكَ الْجَنَّۃَ وَكُلَا مِنْہَا رَغَدًا حَيْثُ شِـئْتُمَـا۝۰۠ وَلَا تَـقْرَبَا ھٰذِہِ الشَّجَرَۃَ فَتَكُوْنَا مِنَ الظّٰلِــمِيْنَ۝۳۵

और हमने कहा, "ऐ आदम! तुम और तुम्हारी पत्नी जन्नत में रहो और वहाँ जी भर बेरोक-टोक जहाँ से तुम दोनों का जी चाहे खाओ, लेकिन इस वृक्ष के पास न जाना, अन्यथा तुम ज़ालिम ठहरोगे।"॥35॥

فَاَزَلَّہُمَا الشَّيْطٰنُ عَنْہَا فَاَخْرَجَہُمَا مِـمَّا كَانَا فِيْہِ۝۰۠ وَقُلْنَا اھْبِطُوْا بَعْضُكُمْ لِبَعْضٍ عَدُوٌّ۝۰ۚ وَلَكُمْ فِى الْاَرْضِ مُّسْـتَقَرٌّ وَّمَتَاعٌ اِلٰى حِيْنٍ۝۳۶

अन्ततः शैतान ने उन्हें वहाँ से फिसला दिया, फिर उन दोनों को वहाँ से निकलवाकर छोड़ा, जहाँ वे थे। हमने कहा कि "उतरो, तुम एक-दूसरे के शत्रु होगे और तुम्हें एक समय तक धरती में ठहरना और बिसलना है।"॥36॥

فَتَلَـقّٰٓي اٰدَمُ مِنْ رَّبِّہٖ كَلِمٰتٍ فَتَابَ عَلَيْہِ۝۰ۭ اِنَّہٗ ھُوَالتَّوَّابُ الرَّحِيْمُ۝۳۷

फिर आदम ने अपने रब से कुछ शब्द पा लिए, तो अल्लाह ने उसकी तौबा क़बूल कर ली; निस्संदेह वही तौबा क़बूल करने वाला, अत्यन्त दयावान है॥37॥

قُلْنَا اھْبِطُوْا مِنْہَا جَمِيْعًا۝۰ۚ فَاِمَّا يَاْتِيَنَّكُمْ مِّـنِّىْ ھُدًى فَمَنْ تَبِــعَ ھُدَاىَ فَلَا خَوْفٌ عَلَيْہِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ۝۳۸

हमने कहा, "तुम सब यहाँ से उतरो, फिर यदि तुम्हारे पास मेरी ओर से कोई मार्गदर्शन पहुँचे तो जिस किसी ने मेरे मार्गदर्शन का अनुसरण किया, तो ऐसे लोगों को न तो कोई भय होगा और न वे शोकाकुल होंगे।"॥38॥

وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَكَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَآ اُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ۝۰ۚ ھُمْ فِيْہَا خٰلِدُوْنَ۝۳۹ۧ

और जिन लोगों ने इनकार किया और हमारी आयतों को झुठलाया, वहीं आग में पड़नेवाले हैं, वे उसमें सदैव रहेंगे॥39॥

يٰبَنِىْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ اذْكُرُوْا نِعْمَتِىَ الَّتِىْٓ اَنْعَمْتُ عَلَيْكُمْ وَاَوْفُوْا بِعَہْدِىْٓ اُوْفِ بِعَہْدِكُمْ۝۰ۚ وَاِيَّاىَ فَارْھَبُوْنِ۝۴۰

ऐ इसराईल की सन्तान! याद करो मेरे उस अनुग्रह को जो मैंने तुमपर किया था। और मेरी प्रतिज्ञा को पूरा करो, मैं तुमसे की हुई प्रतिज्ञा को पूरा करूँगा, और हाँ, मुझी से डरो॥40॥

وَاٰمِنُوْا بِمَآ اَنْزَلْتُ مُصَدِّقًا لِّمَا مَعَكُمْ وَلَا تَكُوْنُوْٓا اَوَّلَ كَافِرٍؚ بِہٖ۝۰۠ وَلَا تَشْتَرُوْا بِاٰيٰــتِىْ ثَـمَنًا قَلِيْلًا۝۰ۡ وَاِيَّاىَ فَاتَّقُوْنِ۝۴۱

और ईमान लाओ उस चीज़ पर जो मैंने उतारी है, जो उसकी पुष्टि में है, जो तुम्हारे पास है, और सबसे पहले तुम ही उसके इनकार करनेवाले न बनो। और मेरी आयतों को थोड़ा मूल्य प्राप्त करने का साधन न बनाओ, मुझसे ही तुम डरो॥41॥

وَلَا تَلْبِسُوا الْحَقَّ بِالْبَاطِلِ وَتَكْتُمُوا الْحَــقَّ وَاَنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ۝۴۲

और सत्य में असत्य का घाल-मेल न करो और जानते-बुझते सत्य को मत छिपाओ॥42॥

وَاَقِيْمُوا الصَّلٰوۃَ وَاٰتُوا الزَّكٰوۃَ وَارْكَعُوْا مَعَ الرّٰكِعِيْنَ۝۴۳

और नमाज़ क़ायम करो और ज़कात दो और (मेरे समक्ष) झुकनेवालों के साथ झुको॥43॥

۞ اَتَاْمُرُوْنَ النَّاسَ بِالْبِرِّ وَتَنْسَوْنَ اَنْفُسَكُمْ وَاَنْتُمْ تَتْلُوْنَ الْكِتٰبَ۝۰ۭ اَفَلَا تَعْقِلُوْنَ۝۴۴

क्या तुम लोगों को तो नेकी और एहसान का उपदेश देते हो और अपने आपको भूल जाते हो, हालाँकि तुम किताब भी पढ़ते हो? फिर क्या तुम बुद्धि से काम नहीं लेते?॥44॥

وَاسْتَعِيْنُوْا بِالصَّبْرِ وَالصَّلٰوۃِ۝۰ۭ وَاِنَّہَا لَكَبِيْرَۃٌ اِلَّا عَلَي الْخٰشِعِيْنَ۝۴۵ۙ

धैर्य और नमाज़ से मदद लो, और निस्संदेह यह (नमाज) बहुत कठिन है, किन्तु उन लोगों के लिए नहीं जो विनर्म होते है;॥45॥

الَّذِيْنَ يَظُنُّوْنَ اَنَّھُمْ مُّلٰقُوْا رَبِّہِمْ وَاَنَّھُمْ اِلَيْہِ رٰجِعُوْنَ۝۴۶ۧ

जो समझते है कि उन्हें अपने रब से मिलना हैं और उसी की ओर उन्हें पलटकर जाना है॥46॥

يٰبَنِىْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ اذْكُرُوْا نِعْمَتِىَ الَّتِىْٓ اَنْعَمْتُ عَلَيْكُمْ وَاَنِّىْ فَضَّلْتُكُمْ عَلَي الْعٰلَمِيْنَ۝۴۷

ऐ इसराईल की सन्तान ! याद करो मेरे उस अनुग्रह को जो मैंने तुमपर किया था, और इसे भी कि मैंने तुम्हें सारे संसार पर श्रेष्ठता प्रदान की थी;॥47॥

وَاتَّقُوْا يَوْمًا لَّا تَجْزِىْ نَفْسٌ عَنْ نَّفْسٍ شَـيْــــًٔـا وَلَا يُقْبَلُ مِنْہَا شَفَاعَۃٌ وَّلَا يُؤْخَذُ مِنْہَا عَدْلٌ وَّلَا ھُمْ يُنْصَرُوْنَ۝۴۸

और डरो उस दिन से जब न कोई किसी भी ओर से कुछ जु्र्माना (तावान) भरेगा और न किसी की ओर से कोई सिफ़ारिश ही क़बूल की जाएगी और न किसी की ओर से कोई फ़िद्‌या (अर्थदण्डन) लिया जाएगा और न वे सहायता ही पा सकेंगे।॥48॥

وَاِذْ نَجَّيْنٰكُمْ مِّنْ اٰلِ فِرْعَوْنَ يَسُوْمُوْنَكُمْ سُوْۗءَ الْعَذَابِ يُذَبِّحُوْنَ اَبْنَاۗءَكُمْ وَيَسْتَحْيُوْنَ نِسَاۗءَكُمْ۝۰ۭ وَفِىْ ذٰلِكُمْ بَلَاۗءٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ عَظِيْمٌ۝۴۹

और याद करो जब हमने तुम्हें फ़िरऔनियों से छुटकारा दिलाया जो तुम्हें अत्यन्त बुरी यातना देते थे; तुम्हारे बेटों को मार डालते थे और तुम्हारी स्त्रियों को जीवित रहने देते थे; और इसमें तुम्हारे रब की ओर से बड़ी अनुग्रह था॥49॥

وَاِذْ فَرَقْنَا بِكُمُ الْبَحْرَ فَاَنْجَيْنٰكُمْ وَاَغْرَقْنَآ اٰلَ فِرْعَوْنَ وَاَنْتُمْ تَنْظُرُوْنَ۝۵۰

याद करो जब हमने तुम्हें सागर में अलग-अलग चौड़े रास्ते से ले जाकर छुटकारा दिया और फ़िरऔनियों को तुम्हारी आँखों के सामने डूबो दिया॥50॥

وَاِذْ وٰعَدْنَا مُوْسٰٓى اَرْبَعِيْنَ لَيْلَۃً ثُمَّ اتَّخَذْتُمُ الْعِجْلَ مِنْۢ بَعْدِہٖ وَاَنْتُمْ ظٰلِمُوْنَ۝۵۱

और याद करो जब हमने मूसा से चालीस रातों का वादा ठहराया तो उसके पीछे तुम बछड़े को अपना उपास्य बना बैठे, तुम अत्याचारी थे॥51॥

ثُمَّ عَفَوْنَا عَنْكُمْ مِّنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ۝۵۲

फिर इसके पश्चात भी हमने तुम्हें क्षमा किया, ताकि तुम कृतज्ञता दिखालाओ॥52॥

وَاِذْ اٰتَيْنَا مُوْسَى الْكِتٰبَ وَالْفُرْقَانَ لَعَلَّكُمْ تَہْتَدُوْنَ۝۵۳

और याद करो जब मूसा को हमने किताब और कसौटी प्रदान की, ताकि तुम मार्ग पा सको॥53॥

وَاِذْ قَالَ مُوْسٰى لِقَوْمِہٖ يٰقَوْمِ اِنَّكُمْ ظَلَمْتُمْ اَنْفُسَكُمْ بِاتِّخَاذِكُمُ الْعِجْلَ فَتُوْبُوْٓا اِلٰى بَارِىِٕكُمْ فَاقْتُلُوْٓا اَنْفُسَكُمْ۝۰ۭ ذٰلِكُمْ خَيْرٌ لَّكُمْ عِنْدَ بَارِىِٕكُمْ۝۰ۭ فَتَابَ عَلَيْكُمْ۝۰ۭ اِنَّہٗ ھُوَالتَّوَّابُ الرَّحِيْمُ۝۵۴

और जब मूसा ने अपनी क़ौम से कहा, "ऐ मेरी कौम के लोगो! बछड़े को देवता बनाकर तुमने अपने ऊपर ज़ुल्म किया है, तो तुम अपने पैदा करनेवाले की ओर पलटो, अतः अपने लोगों को स्वयं क़त्ल करो। यही तुम्हारे पैदा करनेवाले की दृष्टि में तुम्हारे लिए अच्छा है, फिर उसने तुम्हारी तौबा क़बूल कर ली। निस्संदेह वह बड़ी तौबा क़बूल करनेवाला, अत्यन्त दयावान है।"॥54॥

وَاِذْ قُلْتُمْ يٰمُوْسٰى لَنْ نُّؤْمِنَ لَكَ حَتّٰى نَرَى اللہَ جَہْرَۃً فَاَخَذَتْكُمُ الصّٰعِقَۃُ وَاَنْتُمْ تَنْظُرُوْنَ۝۵۵

और याद करो जब तुमने कहा था, "ऐ मूसा, हम तुमपर ईमान नहीं लाएँगे जब तक अल्लाह को खुल्लम-खुल्ला न देख लें।" फिर एक कड़क ने तुम्हें आ दबोचा, और तुम देखते रहे॥55॥

ثُمَّ بَعَثْنٰكُمْ مِّنْۢ بَعْدِ مَوْتِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ۝۵۶

फिर तुम्हारे निर्जीव हो जाने के पश्चात हमने तुम्हें जिला उठाया, ताकि तुम कृतज्ञता दिखलाओ॥56॥

وَظَلَّلْنَا عَلَيْكُمُ الْغَمَامَ وَاَنْزَلْنَا عَلَيْكُمُ الْمَنَّ وَالسَّلْوٰى۝۰ۭ كُلُوْا مِنْ طَيِّبٰتِ مَا رَزَقْنٰكُمْ۝۰ۭ وَمَا ظَلَمُوْنَا وَلٰكِنْ كَانُوْٓا اَنْفُسَھُمْ يَظْلِمُوْنَ۝۵۷  

और हमने तुमपर बादलों की छाया की और तुमपर 'मन्न्ज' और ' सलवा ' उतारा - "खाओ, जो अच्छी पाक चीजें हमने तुम्हें प्रदान की है।" उन्होंने हमारा तो कुछ भी नहीं बिगाड़ा, बल्कि वे अपने ही ऊपर अत्याचार करते रहे॥57॥

وَاِذْ قُلْنَا ادْخُلُوْا ھٰذِہِ الْقَرْيَۃَ فَكُلُوْا مِنْہَا حَيْثُ شِئْتُمْ رَغَدًا وَّادْخُلُوا الْبَابَ سُجَّدًا وَّقُوْلُوْا حِطَّۃٌ نَّغْفِرْ لَكُمْ خَطٰيٰكُمْ۝۰ۭ وَسَنَزِيْدُ الْمُحْسِـنِيْنَ۝۵۸

और जब हमने कहा था, "इस बस्ती में प्रवेश करो, फिर इसमें से जहाँ से चाहो जी भर खाओ, और दरवाज़े में सजदागुज़ार बनकर प्रवेश करो और कहो, "छूट हैं।" हम तुम्हारी खताओं को क्षमा कर देंगे और अच्छे से अच्छा काम करनेवालों पर हम और अधिक अनुग्रह करेंगे।"॥58॥

فَبَدَّلَ الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا قَوْلًا غَيْرَ الَّذِىْ قِيْلَ لَھُمْ فَاَنْزَلْنَا عَلَي الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا رِجْزًا مِّنَ السَّمَاۗءِ بِمَا كَانُوْا يَفْسُقُوْنَ۝۵۹ۧ

फिर जो बात उनसे कहीं गई थी ज़ालिमों ने उसे दूसरी बात से बदल दिया। अन्ततः ज़ालिमों पर हमने, जो अवज्ञा वे कर रहे थे उसके कारण, आकाश से यातना उतारी॥59॥

۞ وَاِذِ اسْتَسْقٰى مُوْسٰى لِقَوْمِہٖ فَقُلْنَا اضْرِبْ بِّعَصَاكَ الْحَجَرَ۝۰ۭ فَانْفَجَرَتْ مِنْہُ اثْنَتَا عَشْرَۃَ عَيْنًا۝۰ۭ قَدْ عَلِمَ كُلُّ اُنَاسٍ مَّشْرَبَھُمْ۝۰ۭ كُلُوْا وَاشْرَبُوْا مِنْ رِّزْقِ اللہِ وَلَا تَعْثَوْا فِى الْاَرْضِ مُفْسِدِيْنَ۝۶۰

और याद करो जब मूसा ने अपनी क़ौम के लिए पानी की प्रार्थना को तो हमने कहा, "चट्टान पर अपनी लाठी मारो," तो उससे बारह स्रोत फूट निकले और हर गिरोह ने अपना-अपना घाट जान लिया - "खाओ और पियो अल्लाह का दिया और धरती में बिगाड़ फैलाते न फिरो।"॥60॥

وَاِذْ قُلْتُمْ يٰمُوْسٰى لَنْ نَّصْبِرَ عَلٰي طَعَامٍ وَّاحِدٍ فَادْعُ لَنَا رَبَّكَ يُخْرِجْ لَنَا مِـمَّا تُنْۢبِتُ الْاَرْضُ مِنْۢ بَقْلِہَا وَقِثَّـاۗىِٕہَا وَفُوْمِہَا وَعَدَسِہَا وَبَصَلِہَا۝۰ۭ قَالَ اَتَسْتَبْدِلُوْنَ الَّذِىْ ھُوَاَدْنٰى بِالَّذِىْ ھُوَخَيْرٌ۝۰ۭ اِھْبِطُوْا مِصْرًا فَاِنَّ لَكُمْ مَّا سَاَلْتُمْ۝۰ۭ وَضُرِبَتْ عَلَيْہِمُ الذِّلَّۃُ وَالْمَسْكَنَۃُ۝۰ۤ وَبَاۗءُوْ بِغَضَبٍ مِّنَ اللہِ۝۰ۭ ذٰلِكَ بِاَنَّھُمْ كَانُوْا يَكْفُرُوْنَ بِاٰيٰتِ اللہِ وَيَقْتُلُوْنَ النَّـبِيّٖنَ بِغَيْرِ الْحَقِّ۝۰ۭ ذٰلِكَ بِمَا عَصَوْا وَّكَانُوْا يَعْتَدُوْنَ۝۶۱ۧ

और याद करो जब तुमने कहा था, "ऐ मूसा, हम एक ही प्रकार के खाने पर कदापि संतोष नहीं कर सकते, अतः हमारे लिए अपने रब से प्रार्थना करो कि हमारे वास्ते धरती की उपज से साग-पात और ककड़ियाँ और लहसुन और मसूर और प्याज़ निकाले।" (मूसा ने) कहा, "क्या तुम जो घटिया चीज़ है उसको उससे बदलकर लेना चाहते हो जो उत्तम है? किसी नगर में उतरो, फिर जो कुछ तुमने माँगा हैं, तुम्हें मिल जाएगा" - और उनपर अपमान और हीन दशा थोप दी गई, और वे अल्लाह के प्रकोप के भागी हुए। यह इसलिए कि वे अल्लाह की आयतों का इनकार करते रहे और नबियों की अकारण हत्या करते थे। यह इसलिए कि उन्होंने अवज्ञा की और वे सीमा का उल्लंघन करते रहे॥61॥

اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَالَّذِيْنَ ھَادُوْا وَالنَّصٰرٰى وَالصّٰبِـــِٕيْنَ مَنْ اٰمَنَ بِاللہِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَعَمِلَ صَالِحًا فَلَھُمْ اَجْرُھُمْ عِنْدَ رَبِّہِمْ۝۰ۚ۠ وَلَا خَوْفٌ عَلَيْہِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ۝۶۲

निस्संदेह, ईमानवाले और जो यहूदी हुए और ईसाई और साबी, जो भी अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान लाया और अच्छा कर्म किया तो ऐसे लोगों का उनके अपने रब के पास (अच्छा) बदला है, उनको न तो कोई भय होगा और न वे शोकाकुल होंगे -॥62॥

وَاِذْ اَخَذْنَا مِيْثَاقَكُمْ وَرَفَعْنَا فَوْقَكُمُ الطُّوْرَ۝۰ۭ خُذُوْا مَآ اٰتَيْنٰكُمْ بِقُوَّۃٍ وَّاذْكُرُوْا مَا فِيْہِ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُوْنَ۝۶۳

और याद करो जब हमने इस हाल में कि तूर (पर्वत) को तुम्हारे ऊपर ऊँचा कर रखा था, तुमसे दृढ़ वचन लिया था, "जो चीज़ हमने तुम्हें दी हैं उसे मजबूती के साथ पकड़ो और जो कुछ उसमें हैं उसे याद रखो ताकि तुम बच सको।"॥63॥

ثُمَّ تَوَلَّيْتُمْ مِّنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ۝۰ۚ فَلَوْ لَا فَضْلُ اللہِ عَلَيْكُمْ وَرَحْمَتُہٗ لَكُنْتُمْ مِّنَ الْخٰسِرِيْنَ۝۶۴

फिर इसके पश्चात भी तुम फिर गए, तो यदि अल्लाह की कृपा और उसकी दयालुता तुम पर न होती, तो तुम घाटे में पड़ गए होते॥64॥

وَلَقَدْ عَلِمْتُمُ الَّذِيْنَ اعْتَدَوْا مِنْكُمْ فِى السَّبْتِ فَقُلْنَا لَھُمْ كُوْنُوْا قِرَدَۃً خٰسِـــِٕيْنَ۝۶۵ۚ

और तुम उन लोगों के विषय में तो जानते ही हो जिन्होंने तुममें से 'सब्त' के दिन के मामले में मर्यादा का उल्लंघन किया था, तो हमने उनसे कह दिया, "बन्दर हो जाओ, धिक्कारे और फिटकारे हुए!"॥65॥

فَجَــعَلْنٰھَا نَكَالًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْہَا وَمَا خَلْفَہَا وَمَوْعِظَۃً لِّلْمُتَّقِيْنَ۝۶۶

फिर हमने इसे सामनेवालों और बाद के लोगों के लिए शिक्षा-सामग्री और डर रखनेवालों के लिए नसीहत बनाकर छोड़ा॥66॥

وَاِذْ قَالَ مُوْسٰى لِقَوْمِہٖٓ اِنَّ اللہَ يَاْمُرُكُمْ اَنْ تَذْبَحُوْا بَقَرَۃً۝۰ۭ قَالُوْٓا اَتَتَّخِذُنَا ھُزُوًا۝۰ۭ قَالَ اَعُوْذُ بِاللہِ اَنْ اَكُوْنَ مِنَ الْجٰہِلِيْنَ۝۶۷

और याद करो जब मूसा ने अपनी क़ौम से कहा, "निश्चय ही अल्लाह तुम्हें आदेश देता है कि एक गाय जब्ह करो।" कहने लगे, "क्या तुम हमसे परिहास करते हो?" उसने कहा, "मैं इससे अल्लाह की पनाह माँगता हूँ कि जाहिल बनूँ।"॥67॥

قَالُوا ادْعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّنْ لَّنَا مَا ہِىَ۝۰ۭ قَالَ اِنَّہٗ يَقُوْلُ اِنَّہَا بَقَرَۃٌ لَّا فَارِضٌ وَّلَا بِكْرٌ۝۰ۭ عَوَانٌۢ بَيْنَ ذٰلِكَ۝۰ۭ فَافْعَلُوْا مَا تُـؤْمَرُوْنَ۝۶۸

बोले, "हमारे लिए अपने रब से निवेदन करो कि वह हम पर स्पष्ट कर दे कि वह  (गाय)  कौन-सी है?" उसने कहा, "वह कहता है कि वह ऐसी गाय है जो न बूढ़ी है, न बछिया, इनके बीच की रास है; तो जो तुम्हें हुक्म दिया जा रहा है, करो।"॥68॥

قَالُوا ادْعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّنْ لَّنَا مَا لَوْنُہَا۝۰ۭ قَالَ اِنَّہٗ يَقُوْلُ اِنَّہَا بَقَرَۃٌ صَفْرَاۗءُ۝۰ۙ فَاقِعٌ لَّوْنُہَا تَسُرُّ النّٰظِرِيْنَ۝۶۹

कहने लगे, "हमारे लिए अपने रब से निवेदन करो कि वह हमें बता दे कि उसका रंग कैसा हो?" कहा, "वह कहता है कि वह गाय सुनहरी हो, गहरे चटकीले रंग की कि देखनेवालों को प्रसन्न कर देती हो।"॥69॥

قَالُوا ادْعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّنْ لَّنَا مَا ہِىَ۝۰ۙ اِنَّ الْبَقَرَ تَشٰبَہَ عَلَيْنَا۝۰ۭ وَاِنَّآ اِنْ شَاۗءَ اللہُ لَمُہْتَدُوْنَ۝۷۰

बोले, "हमारे लिए अपने रब से निवेदन करो कि वह हमें बता दे कि वह कैसी है, गायों का निर्धारण हमारे लिए संदिग्ध हो रहा है। यदि अल्लाह ने चाहा तो हम अवश्य। पता लगा लेंगे।"॥70॥

قَالَ اِنَّہٗ يَقُوْلُ اِنَّہَا بَقَرَۃٌ لَّا ذَلُوْلٌ تُثِيْرُ الْاَرْضَ وَلَا تَسْقِى الْحَرْثَ۝۰ۚ مُسَلَّمَۃٌ لَّا شِيَۃَ فِيْہَا۝۰ۭ قَالُوا الْـــٰٔنَ جِئْتَ بِالْحَقِّ۝۰ۭ فَذَبَحُوْھَا وَمَا كَادُوْا يَفْعَلُوْنَ۝۷۱ۧ

उसने कहा, " वह कहता हैं कि वह एसी गाय है जो सधाई हुई नहीं है कि भूमि जोतती हो, और न वह खेत को पानी देती है, ठीक-ठाक है, उसमें किसी दूसरे रंग की मिलावट नहीं है।" बोले, "अब तुमने ठीक बात बताई है।" फिर उन्होंने उसे ज़ब्ह किया, जबकि वे करना नहीं चाहते थे॥71॥

وَاِذْ قَتَلْتُمْ نَفْسًا فَادّٰرَءْتُمْ فِيْہَا۝۰ۭ وَاللہُ مُخْرِجٌ مَّا كُنْتُمْ تَكْتُمُوْنَ۝۷۲ۚ

और याद करो जब तुमने एक व्यक्ति की हत्या कर दी, फिर उस सिलसिले में तुमने टाल-मटोल से काम लिया - जबकि जिसको तुम छिपा रहे थे, अल्लाह उसे खोल देनेवाला था॥72॥

فَقُلْنَا اضْرِبُوْہُ بِبَعْضِہَا۝۰ۭ كَذٰلِكَ يُـحْىِ اللہُ الْمَوْتٰى۝۰ۙ وَيُرِيْكُمْ اٰيٰتِہٖ لَعَلَّكُمْ تَعْقِلُوْنَ۝۷۳

तो हमने कहा, "उसे उसके एक हिस्से से मारो।" इस प्रकार अल्लाह मुर्दों को जीवित करता है और तुम्हें अपनी निशानियाँ दिखाता है, ताकि तुम समझो॥73॥

ثُمَّ قَسَتْ قُلُوْبُكُمْ مِّنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ فَہِىَ كَالْحِجَارَۃِ اَوْ اَشَدُّ قَسْوَۃً۝۰ۭ وَاِنَّ مِنَ الْحِجَارَۃِ لَمَا يَتَفَجَّرُ مِنْہُ الْاَنْہٰرُ۝۰ۭ وَاِنَّ مِنْہَا لَمَا يَشَّقَّقُ فَيَخْرُجُ مِنْہُ الْمَاۗءُ۝۰ۭ وَاِنَّ مِنْہَا لَمَا يَہْبِطُ مِنْ خَشْـيَۃِ اللہِ۝۰ۭ وَمَا اللہُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُوْنَ۝۷۴

फिर इसके पश्चात भी तुम्हारे दिल कठोर हो गए, तो वे पत्थरों की तरह हो गए बल्कि उनसे भी अधिक कठोर; क्योंकि कुछ पत्थर ऐसे भी होते है जिनसे नहरें फूट निकलती है, और उनमें से कुछ ऐसे भी होते है कि फट जाते है तो उनमें से पानी निकलने लगता है, और उनमें से कुछ ऐसे भी होते है जो अल्लाह के भय से गिर जाते है। और जो कुछ तुम कर रहे हो अल्लाह, उससे बेखबर नहीं है॥74॥

۞ اَفَتَطْمَعُوْنَ اَنْ يُّؤْمِنُوْا لَكُمْ وَقَدْ كَانَ فَرِيْقٌ مِّنْھُمْ يَسْمَعُوْنَ كَلٰمَ اللہِ ثُمَّ يُحَرِّفُوْنَہٗ مِنْۢ بَعْدِ مَا عَقَلُوْہُ وَھُمْ يَعْلَمُوْنَ۝۷۵

तो क्या तुम इस लालच में हो कि वे तुम्हारी बात मान लेंगे, जबकि उनमें से कुछ लोग अल्लाह का कलाम सुनते रहे हैं, फिर उसे भली-भाँति समझ लेने के पश्चात जान-बूझकर उसमें परिवर्तन करते रहे?॥75॥

وَاِذَا لَقُوا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا قَالُوْٓا اٰمَنَّا۝۰ۚۖ وَاِذَا خَلَا بَعْضُھُمْ اِلٰى بَعْضٍ قَالُوْٓا اَتُحَدِّثُوْنَھُمْ بِمَا فَتَحَ اللہُ عَلَيْكُمْ لِـيُحَاۗجُّوْكُمْ بِہٖ عِنْدَ رَبِّكُمْ۝۰ۭ اَفَلَا تَعْقِلُوْنَ۝۷۶

और जब वे ईमान लानेवाले से मिलते है तो कहते हैं, "हम भी ईमान रखते हैं", और जब आपस में एक-दूसरे से एकांत में मिलते है तो कहते है, "क्या तुम उन्हें वे बातें, जो अल्लाह ने तुम पर खोली, बता देते हो कि वे उनके द्वारा तुम्हारे रब के यहाँ हुज्जत में तुम्हारा मुक़ाबला करें? तो क्या तुम समझते नहीं!"॥76॥

اَوَلَا يَعْلَمُوْنَ اَنَّ اللہَ يَعْلَمُ مَا يُسِرُّوْنَ وَمَا يُعْلِنُوْنَ۝۷۷

क्या वे जानते नहीं कि अल्लाह वह सब कुछ जानता है, जो कुछ वे छिपाते और जो कुछ ज़ाहिर करते हैं?॥77॥

وَمِنْھُمْ اُمِّيُّوْنَ لَا يَعْلَمُوْنَ الْكِتٰبَ اِلَّآ اَمَانِىَّ وَاِنْ ھُمْ اِلَّا يَظُنُّوْنَ۝۷۸

और उनमें सामान्य बे पढ़े भी हैं जिन्हें किताब का ज्ञान नहीं है, बस कुछ कामनाओं एवं आशाओं को धर्म जानते हैं, और वे तो बस अटकल से काम लेते हैं॥78॥

فَوَيْلٌ لِّلَّذِيْنَ يَكْتُبُوْنَ الْكِتٰبَ بِاَيْدِيْہِمْ۝۰ۤ ثُمَّ يَقُوْلُوْنَ ھٰذَا مِنْ عِنْدِ اللہِ لِــيَشْتَرُوْا بِہٖ ثَــمَنًا قَلِيْلًا۝۰ۭ فَوَيْلٌ لَّھُمْ مِّمَّا كَتَبَتْ اَيْدِيْہِمْ وَوَيْلٌ لَّھُمْ مِّمَّا يَكْسِبُوْنَ۝۷۹

तो विनाश और तबाही है उन लोगों के लिए जो अपने हाथों से किताब लिखते हैं फिर कहते हैं, "यह अल्लाह की ओर से है", ताकि उसके द्वारा थोड़ा मूल्य प्राप्त कर लें। तो तबाही है उनके लिए उसके कारण जो उनके हाथों ने लिखा और तबाही है उनके लिए उसके कारण जो वे कमा रहे हैं॥79॥

وَقَالُوْا لَنْ تَمَسَّـنَا النَّارُ اِلَّآ اَيَّامًا مَّعْدُوْدَۃً۝۰ۭ قُلْ اَتَّخَذْتُمْ عِنْدَ اللہِ عَہْدًا فَلَنْ يُّخْلِفَ اللہُ عَہْدَہٗٓ اَمْ تَقُوْلُوْنَ عَلَي اللہِ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ۝۸۰

वे कहते है, "जहन्नम की आग हमें नहीं छू सकती, हाँ, कुछ गिने-चुने दिनों (सांसारिक कष्टों) की बात और है।" कहो, "क्या तुमने अल्लाह से कोई वचन ले रखा है? फिर तो अल्लाह कदापि अपने वचन के विरुद्ध नहीं जा सकता? या तुम अल्लाह के ज़िम्मे डालकर ऐसी बात कहते हो जिसका तुम्हें ज्ञान नहीं?॥80॥

بَلٰى مَنْ كَسَبَ سَيِّئَۃً وَّاَحَاطَتْ بِہٖ خَطِيْۗــــــــَٔــتُہٗ فَاُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِۚ ھُمْ فِيْہَا خٰلِدُوْنَ۝۸۱

क्यों नहीं; जिसने भी कोई बदी कमाई और उसकी खताकारी ने उसे अपने घरे में ले लिया, तो ऐसे ही लोग आग (जहन्नम) में पड़नेवाले है; वे उसी में सदैव रहेंगे॥81॥

وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ اُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ الْجَنَّۃِ۝۰ۚ ھُمْ فِيْہَا خٰلِدُوْنَ۝۸۲ۧ

रहे वे लोग जो ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए, वही जन्नतवाले हैं, वे सदैव उसी में रहेंगे।"॥82॥

وَاِذْ اَخَذْنَا مِيْثَاقَ بَنِىْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ لَا تَعْبُدُوْنَ اِلَّا اللہَ۝۰ۣ وَبِالْوَالِدَيْنِ اِحْسَانًا وَّذِي الْقُرْبٰى وَالْيَتٰمٰى وَالْمَسٰكِيْنِ وَقُوْلُوْا لِلنَّاسِ حُسْـنًا وَّاَقِيْمُوا الصَّلٰوۃَ وَاٰتُوا الزَّكٰوۃَ۝۰ۭ ثُمَّ تَوَلَّيْتُمْ اِلَّا قَلِيْلًا مِّنْكُمْ وَاَنْتُمْ مُّعْرِضُوْنَ۝۸۳

और याद करो जब इसराईल की सन्तान से हमने वचन लिया, "अल्लाह के अतिरिक्त किसी की बन्दगी न करोगे; और माँ-बाप के साथ और नातेदारों के साथ और अनाथों और मुहताजों के साथ अच्छा व्यवहार करोगे; और यह कि लोगों से भली बात कहो और नमाज़ क़ायम करो और ज़कात दो।" तो तुम फिर गए, बस तुममें से बचे थोड़े ही, और तुम उपेक्षा की नीति ही अपनाए रहे॥83॥

وَاِذْ اَخَذْنَا مِيْثَاقَكُمْ لَا تَسْفِكُوْنَ دِمَاۗءَكُمْ وَلَا تُخْرِجُوْنَ اَنْفُسَكُمْ مِّنْ دِيَارِكُمْ ثُمَّ اَقْــرَرْتُمْ وَاَنْتُمْ تَشْہَدُوْنَ۝۸۴

और याद करो जब हमने तुमसे वचन लिया, "अपने ख़ून न बहाओगे और न अपने लोगों को अपनी बस्तियों से निकालोगे।" फिर तुमने स्थ्रिता  प्राप्तल कि और तुम स्वयं इसके गवाह हो॥84॥

ثُمَّ اَنْتُمْ ھٰٓؤُلَاۗءِ تَقْتُلُوْنَ اَنْفُسَكُمْ وَتُخْرِجُوْنَ فَرِيْـقًا مِّنْكُمْ مِّنْ دِيَارِھِمْ۝۰ۡتَظٰھَرُوْنَ عَلَيْہِمْ بِالْاِثْمِ وَالْعُدْوَانِ۝۰ۭ وَاِنْ يَّاْتُوْكُمْ اُسٰرٰى تُفٰدُوْھُمْ وَھُوَمُحَرَّمٌ عَلَيْكُمْ اِخْرَاجُہُمْ۝۰ۭ اَفَتُؤْمِنُوْنَ بِبَعْضِ الْكِتٰبِ وَتَكْفُرُوْنَ بِبَعْضٍ۝۰ۚ فَمَا جَزَاۗءُ مَنْ يَّفْعَلُ ذٰلِكَ مِنْكُمْ اِلَّا خِزْيٌ فِي الْحَيٰوۃِ الدُّنْيَا۝۰ۚ وَيَوْمَ الْقِيٰمَۃِ يُرَدُّوْنَ اِلٰٓى اَشَدِّ الْعَذَابِ۝۰ۭ وَمَا اللہُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُوْنَ۝۸۵

फिर तुम वही हो कि अपने लोगों की हत्या करते हो और अपने ही एक गिरोह के लोगों को उनकी बस्तियों से निकालते हो; तुम गुनाह और ज़्यादती के साथ उनके विरुद्ध एक-दूसरे के पृष्ठपोषक बन जाते हो; और यदि वे बन्दी बनकर तुम्हारे पास आए तो उनकी रिहाई के लिए फिद्ये (अर्थदण्‍ड) का लेन-देन करो  जबकि यह हराम है। तुम पर उनको रिहा करना अनिवार्य है। तो क्या तुम किताब के एक हिस्से को मानते हो और एक को नहीं मानते? फिर तुममें जो ऐसा करें उसका बदला इसके सिवा और क्या हो सकता है कि सांसारिक जीवन में अपमान हो? और क़यामत के दिन ऐसे लोगों को कठोर से कठोर यातना की ओर फेर दिया जाएगा। अल्लाह उससे बेखबर नहीं है जो कुछ तुम कर रहे हो॥85॥

اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ اشْتَرَوُا الْحَيٰوۃَ الدُّنْيَا بِالْاٰخِرَۃِ۝۰ۡفَلَا يُخَفَّفُ عَنْہُمُ الْعَذَابُ وَلَا ھُمْ يُنْصَرُوْنَ۝۸۶ۧ

यही वे लोग है जो आख़िरत के बदले सांसारिक जीवन के ख़रीदार हुए, तो न उनकी यातना हल्की की जाएगी और न उन्हें कोई सहायता पहुँच सकेगी॥86॥

وَلَقَدْ اٰتَيْنَا مُوْسَى الْكِتٰبَ وَقَفَّيْنَا مِنْۢ بَعْدِہٖ بِالرُّسُلِ۝۰ۡوَاٰتَيْنَا عِيْسَى ابْنَ مَرْيَمَ الْبَيِّنٰتِ وَاَيَّدْنٰہُ بِرُوْحِ الْقُدُسِ۝۰ۭ اَفَكُلَّمَا جَاۗءَكُمْ رَسُوْلٌۢ بِمَا لَا تَہْوٰٓى اَنْفُسُكُمُ اسْتَكْبَرْتُمْ۝۰ۚ فَفَرِيْقًا كَذَّبْتُمْ۝۰ۡوَفَرِيْقًا تَقْتُلُوْنَ۝۸۷

और हमने मूसा को किताब दी थी, और उसके पश्चात आगे-पीछे निरन्तर रसूल भेजते रहे; और मरयम के बेटे ईसा को खुली-खुली निशानियाँ प्रदान की और पवित्र-आत्मा के द्वारा उसे शक्ति प्रदान की; तो यही तो हुआ कि जब भी कोई रसूल तुम्हारे पास वह कुछ लेकर आया जो तुम्हारे जी को पसन्द न था, तो तुम अकड़ बैठे, तो एक गिरोह को तो तुमने झुठलाया और एक गिरोह को क़त्ल करते रहे?॥87॥

وَقَالُوْا قُلُوْبُنَا غُلْفٌ۝۰ۭ بَلْ لَّعَنَہُمُ اللہُ بِكُفْرِھِمْ فَقَلِيْلًا مَّا يُؤْمِنُوْنَ۝۸۸

वे कहते हैं, "हमारे दिलों पर तो प्राकृतिक आवरण चढ़े है" नहीं, बल्कि उनके इनकार के कारण अल्लाह ने उनपर लानत की है; अतः वे ईमान थोड़े ही लाएँगे॥88॥

وَلَمَّا جَاۗءَھُمْ كِتٰبٌ مِّنْ عِنْدِ اللہِ مُصَدِّقٌ لِّمَا مَعَھُمْ۝۰ۙ وَكَانُوْا مِنْ قَبْلُ يَسْتَفْتِحُوْنَ عَلَي الَّذِيْنَ كَفَرُوْا۝۰ۚۖ فَلَمَّا جَاۗءَھُمْ مَّا عَرَفُوْا كَفَرُوْا بِہٖ۝۰ۡفَلَعْنَۃُ اللہِ عَلَي الْكٰفِرِيْنَ۝۸۹

और जब उनके पास एक किताब अल्लाह की ओर से आई है जो उसकी पुष्टि करती है जो उनके पास मौजूद है - और इससे पहले तो वे सत्यब धर्म के विरोधियों पर विजय पाने के इच्छुक रहे है - फिर जब वह चीज़ उनके पास आ गई जिसे वे पहचान भी गए हैं, तो उसका इनकार कर बैठे; तो अल्लाह की फिटकार इनकार करने वालों पर!॥89॥

بِئْسَمَا اشْتَرَوْا بِہٖٓ اَنْفُسَھُمْ اَنْ يَّكْفُرُوْا بِمَآ اَنْزَلَ اللہُ بَغْيًا اَنْ يُّنَزِّلَ اللہُ مِنْ فَضْلِہٖ عَلٰي مَنْ يَّشَاۗءُ مِنْ عِبَادِہٖ۝۰ۚ فَبَاۗءُوْ بِغَضَبٍ عَلٰي غَضَبٍ۝۰ۭ وَلِلْكٰفِرِيْنَ عَذَابٌ مُّہِيْنٌ۝۹۰

क्या ही बुरी चीज़ है जिसके बदले उन्होंने अपनी जानों का सौदा किया, अर्थात जो कुछ अल्लाह ने उतारा है उसे सरकशी और इस अप्रियता के कारण नहीं मानते कि अल्लाह अपना फ़ज़्ल (कृपा) अपने बन्दों में से जिसपर चाहता है क्यों उतारता है, अतः वे प्रकोप पर प्रकोप के अधिकारी हो गए है। और ऐसे इनकार करनेवालों के लिए अपमानजनक यातना है॥90॥

وَاِذَا قِيْلَ لَھُمْ اٰمِنُوْا بِمَآ اَنْزَلَ اللہُ قَالُوْا نُؤْمِنُ بِمَآ اُنْزِلَ عَلَيْنَا وَيَكْفُرُوْنَ بِمَا وَرَاۗءَہٗ۝۰ۤ وَھُوَالْحَقُّ مُصَدِّقًا لِّمَا مَعَھُمْ۝۰ۭ قُلْ فَلِمَ تَقْتُلُوْنَ اَنْۢبِيَاۗءَ اللہِ مِنْ قَبْلُ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ۝۹۱

जब उनसे कहा जाता है, "अल्लाह ने जो कुछ उतारा है उस पर ईमान लाओ", तो कहते है, "हम तो उसपर ईमान रखते है जो हम पर उतरा है," और उसे मानने से इनकार करते हैं जो उसके पीछे है, जबकि वही सत्य है, उसकी पुष्टि करता है जो उसके पास है। कहो, "अच्छा तो इससे पहले अल्लाह  के  पैग़म्बरों के  हत्या क्यों करते रहे हो, यदि तुम ईमानवाले हो?"॥91॥

۞ وَلَقَدْ جَاۗءَكُمْ مُّوْسٰى بِالْبَيِّنٰتِ ثُمَّ اتَّخَذْتُمُ الْعِـجْلَ مِنْۢ بَعْدِہٖ وَاَنْتُمْ ظٰلِمُوْنَ۝۹۲

तुम्हारे पास मूसा खुली-खुली निशानियाँ लेकर आया, फिर भी उसके बाद तुम ज़ालिम बनकर बछड़े को देवता बना बैठे॥92॥

وَاِذْ اَخَذْنَا مِيْثَاقَكُمْ وَرَفَعْنَا فَوْقَكُمُ الطُّوْرَ۝۰ۭ خُذُوْا مَآ اٰتَيْنٰكُمْ بِقُوَّۃٍ وَّاسْمَعُوْا۝۰ۭ قَالُوْا سَمِعْنَا وَعَصَيْنَا۝۰ۤ وَاُشْرِبُوْا فِيْ قُلُوْبِہِمُ الْعِـجْلَ بِكُفْرِھِمْ۝۰ۭ قُلْ بِئْسَمَا يَاْمُرُكُمْ بِہٖٓ اِيْمَانُكُمْ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ۝۹۳

और याद करो जब हमने तुमसे वचन लिया, और तूर को तुम्हािरे  ऊपर उठाए रखा थाखा , जो कुछ हमने तुम्हेस दिया है उसे मजबूती से पकडो और सुनो। वे बोले, हमने सुना, किन्तु। हमने माना नही ।

उनके अविश्वास के कारण उनके दिलो मे बछडा रच-बस गया था । कहो, यदि तुम ईमानवाले हो, तो किताना बुरा वह कर्म है जिसका हुक्मन तुम्हालरा ईमान तुम्हेह देता है ।

कहो, "यदि अल्लाह के निकट आख़िरत का घर सारे इनसानों को छोड़कर केवल तुम्हारे ही लिए है, फिर तो मृत्यु की कामना करो, यदि तुम सच्चे हो।"॥93॥

قُلْ اِنْ كَانَتْ لَكُمُ الدَّارُ الْاٰخِرَۃُ عِنْدَ اللہِ خَالِصَۃً مِّنْ دُوْنِ النَّاسِ فَتَمَنَّوُا الْمَوْتَ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ۝۹۴

अपने हाथों इन्होंने जो कुछ आगे भेजा है उसके कारण वे कदापि उसकी कामना न करेंगे; अल्लाह तो ज़ालिमों को भली-भाँति जानता है॥94॥

وَلَنْ يَّـتَمَنَّوْہُ اَبَدًۢا بِمَا قَدَّمَتْ اَيْدِيْہِمْ۝۰ۭ وَاللہُ عَلِيْمٌۢ بِالظّٰلِــمِيْنَ۝۹۵

अपने हाथों इन्होंने जो कुछ आगे भेजा है उसके कारण वे कदापि उसकी कामना न करेंगे; अल्लाह तो जालिमों को भली-भाँति जानता है॥95॥

وَلَتَجِدَنَّھُمْ اَحْرَصَ النَّاسِ عَلٰي حَيٰوۃٍ۝۰ۚۛ وَمِنَ الَّذِيْنَ اَشْرَكُــوْا۝۰ۚۛ يَوَدُّ اَحَدُ ھُمْ لَوْ يُعَمَّرُ اَلْفَ سَـنَۃٍ۝۰ۚ وَمَا ھُوَبِمُزَحْزِحِہٖ مِنَ الْعَذَابِ اَنْ يُّعَمَّرَ۝۰ۭ وَاللہُ بَصِيْرٌۢ بِمَا يَعْمَلُوْنَ۝۹۶ۧ

तुम उन्हें सब लोगों से बढ़कर जीवन का लोभी पाओगे, यहाँ तक कि वे इस सम्बन्ध में शिर्क करनेवालो से भी बढ़े हुए है। उनका तो प्रत्येक व्यक्ति यह इच्छा रखता है कि क्या ही अच्छा होता कि उसे हज़ार वर्ष की आयु मिले, जबकि यदि उसे यह आयु प्राप्त भी जाए, तो भी वह अपने आपको यातना से नहीं बचा सकता। अल्लाह  देख रहा है, जो कुछ वे कर रहे है॥96॥

قُلْ مَنْ كَانَ عَدُوًّا لِّجِبْرِيْلَ فَاِنَّہٗ نَزَّلَہٗ عَلٰي قَلْبِكَ بِـاِذْنِ اللہِ مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْہِ وَھُدًى وَّبُشْرٰى لِلْمُؤْمِنِيْنَ۝۹۷

कहो, "जो कोई जिबरील का शत्रु हो, (तो वह अल्लाह का शत्रु है) क्योंकि उसने तो उसे अल्लाह ही के हुक्म से तम्हारे दिल पर उतारा है, जो उन (भविष्यवाणियों) के सर्वथा अनुकूल है जो उससे पहले से मौजूद हैं; और ईमानवालों के लिए मार्गदर्शन और शुभ-सूचना है॥97॥

مَنْ كَانَ عَدُوًّا لِّلہِ وَمَلٰۗىِٕكَتِہٖ وَرُسُلِہٖ وَجِبْرِيْلَ وَمِيْكٰىلَ فَاِنَّ اللہَ عَدُوٌّ لِّلْكٰفِرِيْنَ۝۹۸

जो कोई अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसके रसूलों और जिबरील और मीकाईल का शत्रु हो, तो ऐसे इनकार करनेवालों का अल्लाह शत्रु है।"॥98॥

وَلَقَدْ اَنْزَلْنَآ اِلَيْكَ اٰيٰتٍؚبَيِّنٰتٍ۝۰ۚ وَمَا يَكْفُرُ بِہَآ اِلَّا الْفٰسِقُوْنَ۝۹۹

और हमने तुम्हारी ओर खुली-खुली आयतें उतारी है और उनका इनकार तो बस वही लोग करते हैस जो उल्लंघनकारी हैं॥99॥

اَوَكُلَّمَا عٰھَدُوْا عَہْدًا نَّبَذَہٗ فَرِيْقٌ مِّنْھُمْ۝۰ۭ بَلْ اَكْثَرُھُمْ لَا يُؤْمِنُوْنَ۝۱۰۰

क्या यह एक निश्चित नीति है कि जब कि उन्होंने कोई वचन दिया तो उनके एक गिरोह ने उसे उठा फेंका? बल्कि उनमें अधिकतर ईमान ही नहीं रखते॥100॥

وَلَمَّا جَاۗءَھُمْ رَسُوْلٌ مِّنْ عِنْدِ اللہِ مُصَدِّقٌ لِّمَا مَعَھُمْ نَبَذَ فَرِيْـقٌ مِّنَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ۝۰ۤۙ كِتٰبَ اللہِ وَرَاۗءَ ظُہُوْرِھِمْ كَاَنَّھُمْ لَا يَعْلَمُوْنَ۝۱۰۱ۡ

और जब उनके पास अल्लाह की ओर से एक रसूल आया, जिससे उस (भविष्यवाणी) की पुष्टि  हो रही है जो उनके पास थी, तो उनके एक गिरोह ने, जिन्हें किताब मिली थी, अल्लाह की किताब को अपने पीठ पीछे डाल दिया, मानो वे कुछ जानते ही नही॥101॥

وَاتَّبَعُوْا مَا تَتْلُوا الشَّيٰطِيْنُ عَلٰي مُلْكِ سُلَيْمٰنَ۝۰ۚ وَمَا كَفَرَ سُلَيْمٰنُ وَلٰكِنَّ الشَّيٰطِيْنَ كَفَرُوْا يُعَلِّمُوْنَ النَّاسَ السِّحْرَ۝۰ۤ وَمَآ اُنْزِلَ عَلَي الْمَلَكَيْنِ بِبَابِلَ ھَارُوْتَ وَمَارُوْتَ۝۰ۭ وَمَا يُعَلِّمٰنِ مِنْ اَحَدٍ حَتّٰى يَقُوْلَآ اِنَّمَا نَحْنُ فِتْنَۃٌ فَلَا تَكْفُرْ۝۰ۭ فَيَتَعَلَّمُوْنَ مِنْہُمَا مَا يُفَرِّقُوْنَ بِہٖ بَيْنَ الْمَرْءِ وَزَوْجِہٖ۝۰ۭ وَمَا ھُمْ بِضَاۗرِّيْنَ بِہٖ مِنْ اَحَدٍ اِلَّا بِـاِذْنِ اللہِ۝۰ۭ وَيَتَعَلَّمُوْنَ مَا يَضُرُّھُمْ وَلَا يَنْفَعُھُمْ۝۰ۭ وَلَقَدْ عَلِمُوْا لَمَنِ اشْتَرٰىہُ مَا لَہٗ فِي الْاٰخِرَۃِ مِنْ خَلَاقٍ۝۰ۣۭ وَلَبِئْسَ مَا شَرَوْا بِہٖٓ اَنْفُسَھُمْ۝۰ۭ لَوْ كَانُوْا يَعْلَمُوْنَ۝۱۰۲

और जो वे उस चीज़ के पीछे पड़ गए जिसे शैतान सुलैमान की बादशाही पर थोपकर पढ़ते थे - हालाँकि सुलैमान ने कोई कुफ़्र नहीं किया था, बल्कि कुफ़्र तो शैतानों ने किया था; वे लोगों को जादू सिखाते थे – और न ही(ऐसा है जैसा कि वे कहते थे) जो बाबिल में दोनों फ़रिश्तों हारूत और मारूत पर जादू  उतारा गया था । और वे किसी को भी सिखाते न थे जब तक कि कह न देते, "हम तो बस एक परीक्षा है; तो तुम कुफ़्र में न पड़ना।" तो लोग उन दोनों से वह कुछ सीखते है, जिसके द्वारा पति और पत्नी  में अलगाव पैदा कर दे - यद्यपि वे उससे किसी को भी हानि नहीं पहुँचा सकते थे। हाँ, यह और बात है कि अल्लाह के हुक्म से किसी को हानि पहुँचनेवाली ही हो - और वह कुछ सीखते है जो उन्हें हानि ही पहुँचाए और उन्हें कोई लाभ न पहुँचाए। और उन्हें भली-भाँति मालूम है कि जो उसका ग्राहक बना, उसका आखिरत में कोई हिस्सा नहीं। कितनी बुरी चीज़ के बदले उन्होंने अपने प्राणों का सौदा किया, यदि वे जानते (तो ठीक मार्ग अपनाते)॥102॥

وَلَوْ اَنَّھُمْ اٰمَنُوْا وَاتَّقَوْا لَمَثُوْبَۃٌ مِّنْ عِنْدِ اللہِ خَيْرٌ۝۰ۭ لَوْ كَانُوْا يَعْلَمُوْنَ۝۱۰۳ۧ

और यदि वे ईमान लाते और डर रखते, तो अल्लाह के यहाँ से मिलने वाला बदला कहीं अच्छा था, यदि वे जानते (तो इसे समझ सकते)॥103॥

يٰٓاَيُّہَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَقُوْلُوْا رَاعِنَا وَقُوْلُوا انْظُرْنَا وَاسْمَعُوْا۝۰ۭ وَلِلْكٰفِرِيْنَ عَذَابٌ اَلِــيْمٌ۝۱۰۴

ऐ ईमान लानेवालो! 'राइना' न कहा करो, बल्कि 'उनज़ुरना' कहा और सुना करो। और इनकार करनेवालों के लिए दुखद यातना है॥104॥

مَا يَوَدُّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْ اَھْلِ الْكِتٰبِ وَلَا الْمُشْرِكِيْنَ اَنْ يُّنَزَّلَ عَلَيْكُمْ مِّنْ خَيْرٍ مِّنْ رَّبِّكُمْ۝۰ۭ وَاللہُ يَخْتَصُّ بِرَحْمَتِہٖ مَنْ يَّشَاۗءُ۝۰ۭ وَاللہُ ذُو الْفَضْلِ الْعَظِيْمِ۝۱۰۵

इनकार करनेवाले नहीं चाहते, न किताबवाले और न मुशरिक (बहुदेववादी) कि तुम्हारे रब की ओर से तुमपर कोई भलाई उतरे, हालाँकि अल्लाह जिसे चाहे अपनी दयालुता के लिए ख़ास कर ले; अल्लाह बड़ा अनुग्रह करनेवाला है॥105॥

۞ مَا نَنْسَخْ مِنْ اٰيَۃٍ اَوْ نُنْسِہَا نَاْتِ بِخَيْرٍ مِّنْہَآ اَوْ مِثْلِہَا۝۰ۭ اَلَمْ تَعْلَمْ اَنَّ اللہَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ۝۱۰۶

हम जिस आयत ( और निशान) को भी मिटा दें या उसे भुला देते है, तो उससे बेहतर लाते है या उस जैसा दूसरा ही। क्या तुम नहीं जानते हो कि अल्लाह को हर चीज़ का सामर्थ्य प्राप्त है? ॥106॥

اَلَمْ تَعْلَمْ اَنَّ اللہَ لَہٗ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ۝۰ۭ وَمَا لَكُمْ مِّنْ دُوْنِ اللہِ مِنْ وَّلِيٍّ وَّلَا نَصِيْرٍ۝۱۰۷

क्या तुम नहीं जानते कि आकाशों और धरती का राज्य अल्लाह ही का है और अल्लाह से हटकर न तुम्हारा कोई मित्र है और न सहायक?॥107॥

اَمْ تُرِيْدُوْنَ اَنْ تَسْـــَٔـلُوْا رَسُوْلَكُمْ كَـمَا سُىِٕلَ مُوْسٰى مِنْ قَبْلُ۝۰ۭ وَمَنْ يَّتَـبَدَّلِ الْكُفْرَ بِالْاِيْمَانِ فَقَدْ ضَلَّ سَوَاۗءَ السَّبِيْلِ۝۱۰۸

 (ऐ ईमानवालों! तुम अपने रसूल के आदर का ध्यान रखो) या तुम चाहते हो कि अपने रसूल से उसी प्रकार से प्रश्न  और बात करो, जिस प्रकार इससे पहले मूसा से बात की गई है? हालाँकि जिस व्यक्ति ने  ईमान के बदले इनकार की नीति अपनाई, तो वह सीधे रास्ते से भटक गया॥108॥

وَدَّ كَثِيْرٌ مِّنْ اَھْلِ الْكِتٰبِ لَوْ يَرُدُّوْنَكُمْ مِّنْۢ بَعْدِ اِيْمَانِكُمْ كُفَّارًا۝۰ۚۖ حَسَدًا مِّنْ عِنْدِ اَنْفُسِہِمْ مِّنْۢ بَعْدِ مَا تَبَيَّنَ لَہُمُ الْحَقُّ۝۰ۚ فَاعْفُوْا وَاصْفَحُوْا حَتّٰى يَاْتِيَ اللہُ بِاَمْرِہٖ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ۝۱۰۹

बहुत-से किताबवाले अपने भीतर की ईर्ष्या से चाहते है कि किसी प्रकार वे तुम्हारे ईमान लाने के बाद फेरकर तुम्हे इनकार कर देनेवाला बना दें, यद्यपि सत्य उनपर प्रकट हो चुका है, तो तुम दरगुज़र (क्षमा) से काम लो और जाने दो यहाँ तक कि अल्लाह अपना फ़ैसला लागू न कर दे। निस्संदेह अल्लाह को हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त है॥109॥

وَاَقِيْمُوا الصَّلٰوۃَ وَاٰتُوا الزَّكٰوۃَ۝۰ۭ وَمَا تُقَدِّمُوْا لِاَنْفُسِكُمْ مِّنْ خَيْرٍ تَجِدُوْہُ عِنْدَ اللہِ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ بِمَا تَعْمَلُوْنَ بَصِيْرٌ۝۱۱۰

और नमाज़ कायम करो और ज़कात दो और तुम स्वयं अपने लिए जो भलाई भी पेश करोगे, उसे अल्लाह के यहाँ मौजूद पाओगे। निस्संदेह जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह उसे देख रहा है॥110॥

وَقَالُوْا لَنْ يَّدْخُلَ الْجَنَّۃَ اِلَّا مَنْ كَانَ ھُوْدًا اَوْ نَصٰرٰى۝۰ۭ تِلْكَ اَمَانِيُّھُمْ۝۰ۭ قُلْ ھَاتُوْا بُرْھَانَكُمْ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ۝۱۱۱

और उनका कहना है, "कोई व्यक्ति जन्नत में प्रवेश नहीं करता सिवाय उसके जो यहूदी है या ईसाई है।" ये उनकी अपनी निराधार कामनाएँ है। कहो, "यदि तुम सच्चे हो तो अपने प्रमाण पेश करो।" ॥111॥

بَلٰي۝۰ۤ مَنْ اَسْلَمَ وَجْہَہٗ لِلہِ وَھُوَمُحْسِنٌ فَلَہٗٓ اَجْرُہٗ عِنْدَ رَبِّہٖ۝۰۠ وَلَا خَوْفٌ عَلَيْہِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ۝۱۱۲ۧ

क्यों नहीं, जिसने भी अपने-आपको अल्लाह के प्रति समर्पित कर दिया और उसका कर्म भी अच्छे से अच्छा हो तो उसका प्रतिदान उसके रब के पास है और ऐसे लोगो के लिए न तो कोई भय होगा और न वे शोकाकुल होंगे॥112॥

وَقَالَتِ الْيَہُوْدُ لَيْسَتِ النَّصٰرٰى عَلٰي شَيْءٍ۝۰۠ وَّقَالَتِ النَّصٰرٰى لَيْسَتِ الْيَہُوْدُ عَلٰي شَيْءٍ۝۰ۙ وَّھُمْ يَتْلُوْنَ الْكِتٰبَ۝۰ۭ كَذٰلِكَ قَالَ الَّذِيْنَ لَا يَعْلَمُوْنَ مِثْلَ قَوْلِہِمْ۝۰ۚ فَاللہُ يَحْكُمُ بَيْنَھُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَۃِ فِيْمَا كَانُوْا فِيْہِ يَخْتَلِفُوْنَ۝۱۱۳

यहूदियों ने कहा, "ईसाईयों की कोई बुनियाद नहीं।" और ईसाइयों ने कहा, "यहूदियों की कोई बुनियाद नहीं।" हालाँकि वे किताब का पाठ करते है। इसी तरह की बात उन्होंने भी कही है जो ज्ञान से वंचित है। तो अल्लाह क़यामत के दिन उनके बीच उस चीज़ के विषय में निर्णय कर देगा, जिसके विषय में वे विभेद कर रहे है॥113॥

وَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنْ مَّنَعَ مَسٰجِدَ اللہِ اَنْ يُّذْكَرَ فِيْہَا اسْمُہٗ وَسَعٰى فِيْ خَرَابِہَا۝۰ۭ اُولٰۗىِٕكَ مَا كَانَ لَھُمْ اَنْ يَّدْخُلُوْھَآ اِلَّا خَاۗىِٕفِيْنَ۝۰ۥۭ لَھُمْ فِي الدُّنْيَا خِزْيٌ وَّلَھُمْ فِي الْاٰخِرَۃِ عَذَابٌ عَظِيْمٌ۝۱۱۴

और उससे बढ़कर अत्याचारी और कौन होगा जिसने अल्लाह की मस्जिदों को उसके नाम के स्मरण से वंचित रखा और उन्हें उजाडने पर उतारू रहा? ऐसे लोगों को तो बस डरते हुए ही उसमें प्रवेश करना चाहिए था। उनके लिए संसार में रुसवाई (अपमान) है और उनके लिए आख़िरत में बड़ी यातना नियत है॥114॥

وَلِلہِ الْمَشْرِقُ وَالْمَغْرِبُ۝۰ۤ فَاَيْنَـمَا تُوَلُّوْا فَثَمَّ وَجْہُ اللہِ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ وَاسِعٌ عَلِيْمٌ۝۱۱۵

पूरब और पश्चिम अल्लाह ही के है, अतः जिस ओर भी तुम रुख करो उसी ओर अल्लाह का रुख़ है। निस्संदेह अल्लाह बड़ा समाईवाला (सर्वव्यापी) सर्वज्ञ है॥115॥

وَقَالُوا اتَّخَذَ اللہُ وَلَدًا۝۰ۙ سُبْحٰنَہٗ۝۰ۭ بَلْ لَّہٗ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ۝۰ۭ كُلٌّ لَّہٗ قٰنِتُوْنَ۝۱۱۶

कहते है, अल्लाह औलाद रखता है - महिमावाला है वह! (पूरब और पश्चिम हीं नहीं, बल्कि) आकाशों और धरती में जो कुछ भी है, उसी का है। सभी उसके आज्ञाकारी है॥116॥

بَدِيْعُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ۝۰ۭ وَاِذَا قَضٰٓى اَمْرًا فَاِنَّمَا يَقُوْلُ لَہٗ كُنْ فَيَكُوْنُ۝۱۱۷

वह आकाशों और धरती का प्रथमतः पैदा करनेवाला है। वह तो जब किसी काम का निर्णय करता है, तो उसके लिए बस कह देता है कि "हो जा" और वह हो जाता है॥117॥

وَقَالَ الَّذِيْنَ لَا يَعْلَمُوْنَ لَوْ لَا يُكَلِّمُنَا اللہُ اَوْ تَاْتِيْنَآ اٰيَۃٌ۝۰ۭ كَذٰلِكَ قَالَ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِہِمْ مِّثْلَ قَوْلِہِمْ۝۰ۭ تَشَابَہَتْ قُلُوْبُھُمْ۝۰ۭ قَدْ بَيَّنَّا الْاٰيٰتِ لِقَوْمٍ يُّوْقِنُوْنَ۝۱۱۸

जिन्हें ज्ञान नहीं हैं, वे कहते है, "अल्लाह हमसे बात क्यों नहीं करता? या कोई निशानी हमारे पास आ जाए।" इसी प्रकार इनसे पहले के लोग भी कह चुके है। इन सबके दिल एक जैसे है। हम खोल-खोलकर निशानियाँ उन लोगों के लिए बयान कर चुके है जो विश्वास करें॥118॥

اِنَّآ اَرْسَلْنٰكَ بِالْحَقِّ بَشِيْرًا وَّنَذِيْرًا۝۰ۙ وَّلَا تُسْـــَٔـلُ عَنْ اَصْحٰبِ الْجَحِيْمِ۝۱۱۹

निश्चित रूप से हमने तुम्हें हक़ के साथ शुभ-सूचना देनेवाला और डरानेवाला बनाकर भेजा। भड़कती आग में पड़नेवालों के विषय में तुमसे कुछ न पूछा जाएगा॥119॥

وَلَنْ تَرْضٰى عَنْكَ الْيَہُوْدُ وَلَا النَّصٰرٰى حَتّٰى تَتَّبِعَ مِلَّتَھُمْ۝۰ۭ قُلْ اِنَّ ھُدَى اللہِ ھُوَالْہُدٰى۝۰ۭ وَلَىِٕنِ اتَّبَعْتَ اَھْوَاۗءَھُمْ بَعْدَ الَّذِيْ جَاۗءَكَ مِنَ الْعِلْمِ۝۰ۙ مَا لَكَ مِنَ اللہِ مِنْ وَّلِيٍّ وَّلَا نَصِيْرٍ۝۱۲۰ؔ

न यहूदी तुमसे कभी राज़ी होनेवाले है और न ईसाई जब तक कि तुम अनके पंथ पर न चलने लग जाओ। कह दो, "अल्लाह का मार्गदर्शन ही वास्तविक मार्गदर्शन है।" और यदि उस ज्ञान के पश्चात जो तुम्हारे पास आ चुका है, तुमने उनकी इच्छाओं का अनुसरण किया, तो अल्लाह से बचानेवाला न तो तुम्हारा कोई मित्र होगा और न सहायक॥120॥

اَلَّذِيْنَ اٰتَيْنٰھُمُ الْكِتٰبَ يَتْلُوْنَہٗ حَقَّ تِلَاوَتِہٖ۝۰ۭ اُولٰۗىِٕكَ يُؤْمِنُوْنَ بِہٖ۝۰ۭ وَمَنْ يَّكْفُرْ بِہٖ فَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الْخٰسِرُوْنَ۝۱۲۱ۧ

जिन लोगों को हमने किताब दी है उनमें वे लोग जो उसे उस तरह पढ़ते है जैसा कि उसके पढ़ने का हक़ है, वही उसपर ईमान ला रहे है, और जो उसका इनकार करेंगे, वही घाटे में रहनेवाले है॥121॥

يٰبَنِىْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ اذْكُرُوْا نِعْمَتِىَ الَّتِىْٓ اَنْعَمْتُ عَلَيْكُمْ وَاَنِّىْ فَضَّلْتُكُمْ عَلَي الْعٰلَمِيْنَ۝۱۲۲

ऐ इसराईल की सन्तान! मेरी उस कृपा को याद करो जो मैंने तुमपर की थी और यह कि मैंने तुम्हें संसारवालों पर श्रेष्ठता प्रदान की॥122॥

وَاتَّقُوْا يَوْمًا لَّا تَجْزِيْ نَفْسٌ عَنْ نَّفْسٍ شَـيْــــًٔـا وَّلَا يُقْبَلُ مِنْہَا عَدْلٌ وَّلَا تَنْفَعُہَا شَفَاعَۃٌ وَّلَا ھُمْ يُنْصَرُوْنَ۝۱۲۳

और उस दिन से डरो, जब कोई न किसी के काम आएगा, न किसी की ओर से अर्थदण्‍ड स्वीकार किया जाएगा, और न कोई सिफ़ारिश ही उसे लाभ पहुँचा सकेगी, और न उनको कोई सहायता ही पहुँच सकेगी॥123॥

۞ وَاِذِ ابْتَلٰٓى اِبْرٰہٖمَ رَبُّہٗ بِكَلِمٰتٍ فَاَتَـمَّہُنَّ۝۰ۭ قَالَ اِنِّىْ جَاعِلُكَ لِلنَّاسِ اِمَامًا۝۰ۭ قَالَ وَمِنْ ذُرِّيَّتِىْ۝۰ۭ قَالَ لَا يَنَالُ عَہْدِي الظّٰلِــمِيْنَ۝۱۲۴

और याद करो जब इबराहीम की परीक्षा उसके रब ने कुछ बातों में ली तो उसने उसको पूरा कर दिखाया। उसने कहा (रब ने) ,"मैं तुझे सारे इनसानों का पेशवा बनानेवाला हूँ।" उसने निवेदन किया, " और मेरी सन्तान में से  भी।" उसने कहा, (रब ने) "ज़ालिम मेरे इस वादे के अन्तर्गत नहीं आ सकते।"॥124॥

وَاِذْ جَعَلْنَا الْبَيْتَ مَثَابَۃً لِّلنَّاسِ وَاَمْنًا۝۰ۭ وَاتَّخِذُوْا مِنْ مَّقَامِ اِبْرٰہٖمَ مُصَلًّى۝۰ۭ وَعَہِدْنَآ اِلٰٓى اِبْرٰہٖمَ وَاِسْمٰعِيْلَ اَنْ طَہِّرَا بَيْـتِىَ لِلطَّاۗىِٕفِيْنَ وَالْعٰكِفِيْنَ وَالرُّكَّعِ السُّجُوْدِ۝۱۲۵

और याद करो जब हमने इस घर (काबा) को लोगों को लिए केन्द्र और शान्तिस्थल बनाया - और, "इबराहीम के स्थल में से किसी जगह को नमाज़ की जगह बना लो!" - और इबराहीम और इसमाईल को ज़िम्मेदार बनाया। "तुम मेरे इस घर को तवाफ़ करनेवालों और एतिकाफ़ करनेवालों के लिए और रुकू और सजदा करनेवालों के लिए पाक-साफ़ रखो।" ॥125॥

وَاِذْ قَالَ اِبْرٰہٖمُ رَبِّ اجْعَلْ ھٰذَا بَلَدًا اٰمِنًا وَّارْزُقْ اَھْلَہٗ مِنَ الثَّمَرٰتِ مَنْ اٰمَنَ مِنْھُمْ بِاللہِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ۝۰ۭ قَالَ وَمَنْ كَفَرَ فَاُمَتِّعُہٗ قَلِيْلًا ثُمَّ اَضْطَرُّہٗٓ اِلٰى عَذَابِ النَّارِ۝۰ۭ وَبِئْسَ الْمَصِيْرُ۝۱۲۶

और याद करो जब इबराहीम ने कहा, "ऐ मेरे रब! इसे शान्तिमय भू-भाग बना दे और इसके उन निवासियों को फलों की रोज़ी दे जो उनमें से अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान लाएँ।" (रब ने) कहा, "और जो इनकार करेगा थोड़ा फ़ायदा तो उसे भी दूँगा, फिर उसे घसीटकर आग की यातना की ओर पहुँचा दूँगा और वह बहुत-ही बुरा ठिकाना है!"॥126॥

وَاِذْ يَرْفَعُ اِبْرٰھٖمُ الْقَوَاعِدَ مِنَ الْبَيْتِ وَاِسْمٰعِيْلُ۝۰ۭ رَبَّنَا تَقَبَّلْ مِنَّا۝۰ۭ اِنَّكَ اَنْتَ السَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ۝۱۲۷

और याद करो जब इबराहीम और इसमाईल इस घर की बुनियादें उठा रहे थे, (तो उन्होंने प्रार्थना की), "ऐ हमारे रब! हमारी ओर से इसे स्वीकार कर ले, निस्संदेह तू सुनता-जानता है॥127॥

رَبَّنَا وَاجْعَلْنَا مُسْلِمَيْنِ لَكَ وَمِنْ ذُرِّيَّتِنَآ اُمَّۃً مُّسْلِمَۃً لَّكَ۝۰۠ وَاَرِنَا مَنَاسِكَنَا وَتُبْ عَلَيْنَا۝۰ۚ اِنَّكَ اَنْتَ التَّوَّابُ الرَّحِيْمُ۝۱۲۸

ऐ हमारे रब! हम दोनों को अपना आज्ञाकारी बना और हमारी संतान में से अपना एक आज्ञाकारी समुदाय बना; और हमें हमारे इबादत के तरीक़े बता और हमारी तौबा क़बूल कर। निस्संदेह तू तौबा क़बूल करनेवाला, अत्यन्त दयावान है॥128॥

رَبَّنَا وَابْعَثْ فِيْہِمْ رَسُوْلًا مِّنْھُمْ يَتْلُوْا عَلَيْہِمْ اٰيٰـتِكَ وَيُعَلِّمُہُمُ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَۃَ وَيُزَكِّيْہِمْ۝۰ۭ اِنَّكَ اَنْتَ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ۝۱۲۹ۧ

ऐ हमारे रब! उनमें उन्हीं में से एक ऐसा रसूल उठा जो उन्हें तेरी आयतें सुनाए और उनको किताब और तत्वदर्शिता की शिक्षा दे और उन (की आत्मा) को विकसित करे। निस्संदेह तू प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है॥129॥

وَمَنْ يَّرْغَبُ عَنْ مِّلَّۃِ اِبْرٰھٖمَ اِلَّا مَنْ سَفِہَ نَفْسَہٗ۝۰ۭ وَلَقَدِ اصْطَفَيْنٰہُ فِي الدُّنْيَا۝۰ۚ وَاِنَّہٗ فِي الْاٰخِرَۃِ لَمِنَ الصّٰلِحِيْنَ۝۱۳۰

कौन है जो इबराहीम के पंथ से मुँह मोड़े सिवाय उसके जिसने स्वयं को पतित कर लिया? और उसे तो हमने दुनिया में चुन लिया था और निस्संदेह आख़िरत में उसकी गणना योग्य लोगों में होगी॥130॥

اِذْ قَالَ لَہٗ رَبُّہٗٓ اَسْلِمْ۝۰ۙ قَالَ اَسْلَمْتُ لِرَبِّ الْعٰلَمِيْنَ۝۱۳۱

क्योंकि जब उससे रब ने कहा, "मुस्लिम (आज्ञाकारी) हो जा।" उसने कहा, "मैं सारे संसार के रब का मुस्लिम हो गया।"॥131॥

وَوَصّٰى بِہَآ اِبْرٰھٖمُ بَنِيْہِ وَيَعْقُوْبُ۝۰ۭ يٰبَنِىَّ اِنَّ اللہَ اصْطَفٰى لَكُمُ الدِّيْنَ فَلَا تَمُوْتُنَّ اِلَّا وَاَنْتُمْ مُّسْلِمُوْنَ۝۱۳۲ۭ

और इसी की वसीयत इबराहीम ने अपने बेटों को की और याक़ूब ने भी (अपनी सन्तानों को की) कि, "ऐ मेरे बेटों! अल्लाह ने तुम्हारे लिए यही दीन (धर्म) चुना है, तो इस्लाम (ईश-आज्ञापालन) को अतिरिक्त किसी और दशा में तुम्हारी मृत्यु न हो।"॥132॥

اَمْ كُنْتُمْ شُہَدَاۗءَ اِذْ حَضَرَ يَعْقُوْبَ الْمَوْتُ۝۰ۙ اِذْ قَالَ لِبَنِيْہِ مَا تَعْبُدُوْنَ مِنْۢ بَعْدِيْ۝۰ۭ قَالُوْا نَعْبُدُ اِلٰہَكَ وَاِلٰہَ اٰبَاۗىِٕكَ اِبْرٰھٖمَ وَاِسْمٰعِيْلَ وَاِسْحٰقَ اِلٰــہًا وَّاحِدًا۝۰ۚۖ وَّنَحْنُ لَہٗ مُسْلِمُوْنَ۝۱۳۳

क्या तुम इबराहीम के वसीयत करते समय मौजूद थे? या तुम मौजूद थे जब याक़ूब की मृत्यु का समय आया? जब उसने अपने बेटों से कहा, "तुम मेरे पश्चात किसकी इबादत करोगे?" उन्होंने कहा, "हम आपके इष्ट-पूज्य और आपके पूर्वज इबराहीम और इसमाईल और इसहाक़ के इष्ट-पूज्य की बन्दगी करेंगे - जो अकेला इष्ट-पूज्य है, और हम उसी के आज्ञाकारी (मुस्लिम) हैं।"॥133॥

تِلْكَ اُمَّۃٌ قَدْ خَلَتْ۝۰ۚ لَہَا مَا كَسَبَتْ وَلَكُمْ مَّا كَسَبْتُمْ۝۰ۚ وَلَا تُسْـــَٔــلُوْنَ عَمَّا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ۝۱۳۴

वह एक गिरोह था जो गुज़र चुका, जो कुछ उसने कमाया वह उसका है, और जो कुछ तुमने कमाया वह तुम्हारा है। और जो कुछ वे करते रहे उसके विषय में तुमसे कोई पूछताछ न की जाएगी॥134॥

وَقَالُوْا كُوْنُوْا ھُوْدًا اَوْ نَصٰرٰى تَہْتَدُوْا۝۰ۭ قُلْ بَلْ مِلَّۃَ اِبْرٰھٖمَ حَنِيْفًا۝۰ۭ وَمَا كَانَ مِنَ الْمُشْرِكِيْنَ۝۱۳۵

वे कहते हैं, "यहूदी या ईसाई हो जाओ तो मार्ग पर लोगे।" कहो, "नहीं, बल्कि इबराहीम का पंथ अपनाओ जो एक (अल्लाह) का हो गया था, और वह बहुदेववादियों में से न था।"॥135॥

قُوْلُوْٓا اٰمَنَّا بِاللہِ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْنَا وَمَآ اُنْزِلَ اِلٰٓى اِبْرٰھٖمَ وَاِسْمٰعِيْلَ وَاِسْحٰقَ وَيَعْقُوْبَ وَالْاَسْـبَاطِ وَمَآ اُوْتِيَ مُوْسٰى وَعِيْسٰى وَمَآ اُوْتِيَ النَّبِيُّوْنَ مِنْ رَّبِّہِمْ۝۰ۚ لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ اَحَدٍ مِّنْھُمْ۝۰ؗۖ وَنَحْنُ لَہٗ مُسْلِمُوْنَ۝۱۳۶

कहो, "हम ईमान लाए अल्लाह पर और उस चीज़ पर जो हमारी ओर से उतरी और जो इबराहीम और इसमाईल और इसहाक़ और याक़ूब और उसकी संतान की ओर उतरी, और जो मूसा और ईसा को मिली, और जो सभी नबियों को उनके रब की ओर से प्रदान की गई। हम उनमें से किसी के बीच अन्तर नहीं करते और हम केवल उसी के आज्ञाकारी हैं।"॥136॥

فَاِنْ اٰمَنُوْا بِمِثْلِ مَآ اٰمَنْتُمْ بِہٖ فَقَدِ اھْتَدَوْا۝۰ۚ وَاِنْ تَوَلَّوْا فَاِنَّمَا ھُمْ فِيْ شِقَاقٍ۝۰ۚ فَسَيَكْفِيْكَہُمُ اللہُ۝۰ۚ وَھُوَالسَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ۝۱۳۷ۭ

फिर यदि वे उसी तरह ईमान लाएँ जिस तरह तुम ईमान लाए हो, तो उन्होंने मार्ग पा लिया। और यदि वे मुँह मोड़े, तो फिर वही विरोध में पड़े हुए है। अतः तुम्हारी जगह स्वयं अल्लाह उनसे निबटने के लिए काफ़ी है; वह सब कुछ सुनता, जानता है॥137॥

صِبْغَۃَ اللہِ۝۰ۚ وَمَنْ اَحْسَنُ مِنَ اللہِ صِبْغَۃً۝۰ۡوَّنَحْنُ لَہٗ عٰبِدُوْنَ۝۱۳۸

(कहो,) "अल्लाह का रंग ग्रहण करो, उसके रंग से अच्छा और किसका रंह हो सकता है? और हम तो उसी की बन्दगी करते हैं।"॥138॥

قُلْ اَتُحَاۗجُّوْنَـــنَا فِي اللہِ وَھُوَرَبُّنَا وَرَبُّكُمْ۝۰ۚ وَلَنَآ اَعْمَالُنَا وَلَكُمْ اَعْمَالُكُمْ۝۰ۚ وَنَحْنُ لَہٗ مُخْلِصُوْنَ۝۱۳۹ۙ

कहो, "क्या तुम अल्लाह के विषय में हमसे झगड़ते हो, हालाँकि वही हमारा रब भी है, और तुम्हारा रब भी? और हमारे लिए हमारे कर्म हैं और तुम्हारे लिए तुम्हारे कर्म। और हम तो बस निरे उसी के है।"॥139॥

اَمْ تَقُوْلُوْنَ اِنَّ اِبْرٰھٖمَ وَاِسْمٰعِيْلَ وَاِسْحٰقَ وَيَعْقُوْبَ وَالْاَسْـبَاطَ كَانُوْا ھُوْدًا اَوْ نَصٰرٰى۝۰ۭ قُلْ ءَ اَنْتُمْ اَعْلَمُ اَمِ اللہُ۝۰ۭ وَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنْ كَتَمَ شَہَادَۃً عِنْدَہٗ مِنَ اللہِ۝۰ۭ وَمَا اللہُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُوْنَ۝۱۴۰

या तुम कहते हो कि इबराहीम और इसमाईल और इसहाक़ और याक़ूब और उनकी संतान सब के सब यहूदी या ईसाई थे? कहो, "तुम अधिक जानते हो या अल्लाह? और उससे बढ़कर ज़ालिम कौन होगा, जिसके पास अल्लाह की ओर से आई हुई कोई गवाही हो, और वह उसे छिपाए? और जो कुछ तुम कर रहे हो, अल्लाह उससे बेखबर नहीं है।"॥140॥

تِلْكَ اُمَّۃٌ قَدْ خَلَتْ۝۰ۚ لَہَا مَا كَسَبَتْ وَلَكُمْ مَّا كَسَبْتُمْ۝۰ۚ وَلَا تُسْـَٔـلُوْنَ عَمَّا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ۝۱۴۱ۧ

वह एक गिरोह थो जो गुज़र चुका, जो कुछ उसने कमाया वह उसके लिए है और जो कुछ तुमने कमाया वह तुम्हारे लिए है। और तुमसे उसके विषय में न पूछा जाएगा, जो कुछ वे करते रहे है॥141॥

(2) ۞ سَيَقُوْلُ السُّفَہَاۗءُ مِنَ النَّاسِ مَا وَلىہُمْ عَنْ قِبْلَتِہِمُ الَّتِىْ كَانُوْا عَلَيْہَا۝۰ۭ قُلْ لِّلہِ الْمَشْرِقُ وَالْمَغْرِبُ۝۰ۭ يَہْدِيْ مَنْ يَّشَاۗءُ اِلٰى صِرَاطٍ مُّسْتَقِيْمٍ۝۱۴۲

मूर्ख लोग अब कहेंगे, "उन्हें उनके उस क़िबले (उपासना-दिशा) से, जिस पर वे थे किस ची़ज़ ने फेर दिया?" कहो, "पूरब और पश्चिम अल्लाह ही के है, वह जिसे चाहता है सीधा मार्ग दिखाता है।"॥142॥

وَكَذٰلِكَ جَعَلْنٰكُمْ اُمَّۃً وَّسَطًا لِّتَكُوْنُوْا شُہَدَاۗءَ عَلَي النَّاسِ وَيَكُـوْنَ الرَّسُوْلُ عَلَيْكُمْ شَہِيْدًا۝۰ۭ وَمَا جَعَلْنَا الْقِبْلَۃَ الَّتِىْ كُنْتَ عَلَيْہَآ اِلَّا لِنَعْلَمَ مَنْ يَّتَّبِــعُ الرَّسُوْلَ مِمَّنْ يَّنْقَلِبُ عَلٰي عَقِبَيْہِ۝۰ۭ وَاِنْ كَانَتْ لَكَبِيْرَۃً اِلَّا عَلَي الَّذِيْنَ ھَدَى اللہُ۝۰ۭ وَمَا كَانَ اللہُ لِـيُضِيْعَ اِيْمَانَكُمْ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ بِالنَّاسِ لَرَءُوْفٌ رَّحِيْمٌ۝۱۴۳

और इसी प्रकार हमने तुम्हें बीच का एक उत्तम समुदाय बनाया है, ताकि तुम सारे मनुष्यों पर गवाह हो, और रसूल तुमपर गवाह हो। और जिस (क़िबले) पर तुम रहे हो उसे तो हमने केवल इसलिए क़िबला बनाया था कि जो लोग पीठ-पीछे फिर जानेवाले है, उनसे हम उनको अलग जान लें जो रसूल का अनुसरण करते है। और यह बात बहुत भारी (अप्रिय) है, किन्तु उन लोगों के लिए नहीं जिन्हें अल्लाह ने मार्ग दिखाया है। और अल्लाह ऐसा नहीं कि वह तुम्हारे ईमान को अकारथ कर दे, अल्लाह तो इनसानों के लिए अत्यन्त करूणामय, दयावान है॥143॥

قَدْ نَرٰى تَـقَلُّبَ وَجْہِكَ فِي السَّمَاۗءِ۝۰ۚ فَلَنُوَلِّيَنَّكَ قِبْلَۃً تَرْضٰىھَا۝۰۠ فَوَلِّ وَجْہَكَ شَطْرَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ۝۰ۭ وَحَيْثُ مَا كُنْتُمْ فَوَلُّوْا وُجُوْھَكُمْ شَطْرَہٗ۝۰ۭ وَاِنَّ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ لَيَعْلَمُوْنَ اَنَّہُ الْحَـقُّ مِنْ رَّبِّہِمْ۝۰ۭ وَمَا اللہُ بِغَافِلٍ عَمَّا يَعْمَلُوْنَ۝۱۴۴

हम आकाश में तुम्हारे मुँह की गर्दिश देख रहे है, तो हम अवश्य ही तुम्हें उसी क़िबले का अधिकारी बना देंगे जिसे तुम पसन्द करते हो। अतः मस्जिदे हराम (काबा) की ओर अपना रूख़ करो। और जहाँ कहीं भी हो अपने मुँह उसी की ओर करो - निश्चय ही जिन लोगों को किताब मिली थी, वे भली-भाँति जानते है कि वही उनके रब की ओर से हक़ है, इसके बावजूद जो कुछ वे कर रहे है अल्लाह उससे बेखबर नहीं है॥144॥

وَلَىِٕنْ اَتَيْتَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ بِكُلِّ اٰيَۃٍ مَّا تَبِعُوْا قِبْلَتَكَ۝۰ۚ وَمَآ اَنْتَ بِتَابِــــعٍ قِبْلَتَہُمْ۝۰ۚ وَمَا بَعْضُہُمْ بِتَابِـــعٍ قِبْلَۃَ بَعْضٍ۝۰ۭ وَلَىِٕنِ اتَّبَعْتَ اَھْوَاۗءَھُمْ مِّنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَكَ مِنَ الْعِلْمِ۝۰ۙ اِنَّكَ اِذًا لَّمِنَ الظّٰلِـمِيْنَ۝۱۴۵ۘ

यदि तुम उन लोगों के पास, जिन्हें किताब दी गई थी, कोई भी निशानी ले आओ, फिर भी वे तुम्हारे क़िबले का अनुसरण नहीं करेंगे और तुम भी उसके क़िबले का अनुसरण करने वाले नहीं हो। और वे स्वयं परस्पर एक-दूसरे के क़िबले का अनुसरण करनेवाले नहीं हैं। और यदि तुमने उस ज्ञान के पश्चात, जो तुम्हारे पास आ चुका है, उनकी इच्छाओं का अनुसरण किया, तो निश्चय ही तुम्हारी गणना ज़ालिमों में होगी॥145॥

اَلَّذِيْنَ اٰتَيْنٰھُمُ الْكِتٰبَ يَعْرِفُوْنَہٗ كَـمَا يَعْرِفُوْنَ اَبْنَاۗءَھُمْ۝۰ۭ وَاِنَّ فَرِيْقًا مِّنْہُمْ لَيَكْتُمُوْنَ الْحَقَّ وَھُمْ يَعْلَمُوْنَ۝۱۴۶ؔ

जिन लोगों को हमने किताब दी है वे उसे पहचानते है, जैसे अपने बेटों को पहचानते है और उनमें से कुछ सत्य को जान-बूझकर छिपा रहे हैं॥146॥

اَلْحَقُّ مِنْ رَّبِّكَ فَلَا تَكُوْنَنَّ مِنَ الْمُمْتَرِيْنَ۝۱۴۷ۧ

सत्य तुम्हारे रब की ओर से है। अतः तुम सन्देह करनेवालों में से कदापि न होना॥147॥

وَلِكُلٍّ وِّجْہَۃٌ ھُوَمُوَلِّيْہَا فَاسْتَبِقُوا الْخَيْرٰتِ۝۰ۭ۬ اَيْنَ مَا تَكُوْنُوْا يَاْتِ بِكُمُ اللہُ جَمِيْعًا۝۰ۭ اِنَّ اللہَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ۝۱۴۸

प्रत्येक की एक ही दिशा है, वह उसी की ओर मुख किेए हुए है, तो तुम भलाईयों में अग्रसरता दिखाओ। जहाँ कहीं भी तुम होगे अल्लाह तुम सबको एकत्र करेगा। निस्संदेह अल्लाह को हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त है॥148॥

وَمِنْ حَيْثُ خَرَجْتَ فَوَلِّ وَجْہَكَ شَطْرَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ۝۰ۭ وَاِنَّہٗ لَلْحَقُّ مِنْ رَّبِّكَ۝۰ۭ وَمَا اللہُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُوْنَ۝۱۴۹

और जहाँ से भी तुम निकलों, 'मस्जिदे हराम' (काबा) की ओर अपना मुँह फेर लिया करो। निस्संदेह यही तुम्हारे रब की ओर से हक़ है। जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह उससे बेख़बर नहीं है॥149॥

وَمِنْ حَيْثُ خَرَجْتَ فَوَلِّ وَجْہَكَ شَطْرَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ۝۰ۭ وَحَيْثُ مَا كُنْتُمْ فَوَلُّوْا وُجُوْھَكُمْ شَطْرَہٗ۝۰ۙ لِئَلَّا يَكُوْنَ لِلنَّاسِ عَلَيْكُمْ حُجَّــۃٌ۝۰ۤۙ اِلَّا الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا مِنْہُمْ۝۰ۤ فَلَا تَخْشَوْھُمْ وَاخْشَوْنِيْ۝۰ۤ وَلِاُتِمَّ نِعْمَتِىْ عَلَيْكُمْ وَلَعَلَّكُمْ تَہْتَدُوْنَ۝۱۵۰ۙۛ

जहाँ से भी तुम निकलो, 'मस्जिदे हराम' की ओर अपना मुँह फेर लिया करो, और जहाँ कहीं भी तुम हो उसी की ओर मुँह कर लिया करो, ताकि लोगों के पास तुम्हारे ख़िलाफ़ कोई ठोस प्रणाम बाक़ी न रहे - सिवाय उन लोगों के जो उनमें ज़ालिम हैं, तुम उनसे न डरो, मुझसे ही डरो - और ताकि मैं तुमपर अपनी नेमत पूरी कर दूँ, और ताकि तुम सीधी राह चलो॥150॥

كَـمَآ اَرْسَلْنَا فِيْكُمْ رَسُوْلًا مِّنْكُمْ يَتْلُوْا عَلَيْكُمْ اٰيٰتِنَا وَيُزَكِّيْكُمْ وَيُعَلِّمُكُمُ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَۃَ وَيُعَلِّمُكُمْ مَّا لَمْ تَكُوْنُوْا تَعْلَمُوْنَ۝۱۵۱ۭۛ

जैसा कि हमने तुम्हारे बीच एक रसूल तुम्हीं में से भेजा जो तुम्हें हमारी आयतें सुनाता है, तुम्हें निखारता है, और तुम्हें किताब और हिकमत (तत्वदर्शिता) की शिक्षा देता है और तुम्हें वह कुछ सिखाता है, जो तुम जानते न थे॥151॥

فَاذْكُرُوْنِيْٓ اَذْكُرْكُمْ وَاشْكُرُوْا لِيْ وَلَا تَكْفُرُوْنِ۝۱۵۲ۧ

अतः तुम मुझे याद रखो, मैं भी तुम्हें याद रखूँगा। और मेरा आभार स्वीकार करते रहना, मेरे प्रति अकृतज्ञता न दिखलाना॥152॥

يٰٓاَيُّہَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اسْتَعِيْنُوْا بِالصَّبْرِ وَالصَّلٰوۃِ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ مَعَ الصّٰبِرِيْنَ۝۱۵۳

ऐ ईमान लानेवालो! धैर्य और नमाज़ से मदद प्राप्त। करो। निस्संदेह अल्लाह उन लोगों के साथ है जो धैर्य और दृढ़ता से काम लेते है॥153॥

وَلَا تَـقُوْلُوْا لِمَنْ يُّقْتَلُ فِيْ سَبِيْلِ اللہِ اَمْوَاتٌ۝۰ۭ بَلْ اَحْيَاۗءٌ وَّلٰكِنْ لَّا تَشْعُرُوْنَ۝۱۵۴

और जो लोग अल्लाह के मार्ग में मारे जाएँ उन्हें मुर्दा न कहो, बल्कि वे जीवित है, परन्तु तुम्हें एहसास (अनुभूति) नहीं होता॥154॥

وَلَنَبْلُوَنَّكُمْ بِشَيْءٍ مِّنَ الْخَوْفِ وَالْجُوْعِ وَنَقْصٍ مِّنَ الْاَمْوَالِ وَالْاَنْفُسِ وَالثَّمَرٰتِ۝۰ۭ وَبَشِّرِ الصّٰبِرِيْنَ۝۱۵۵ۙ

और हम अवश्य ही कुछ भय से, और कुछ भूख से, और कुछ जान-माल और पैदावार की कमी से तुम्हारी परीक्षा लेंगे। और धैर्य से काम लेनेवालों को शुभ-सूचना दे दो॥155॥

الَّذِيْنَ اِذَآ اَصَابَتْہُمْ مُّصِيْبَۃٌ۝۰ۙ قَالُوْٓا اِنَّا لِلہِ وَاِنَّآ اِلَيْہِ رٰجِعُوْنَ۝۱۵۶ۭ

जो लोग उस समय, जबकि उनपर कोई मुसीबत आती है, कहते है, "निस्संदेह हम अल्लाह ही के है और हम उसी की ओर लौटने वाले है।"॥156॥

اُولٰۗىِٕكَ عَلَيْہِمْ صَلَوٰتٌ مِّنْ رَّبِّہِمْ وَرَحْمَۃٌ۝۰ۣ وَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الْمُہْتَدُوْنَ۝۱۵۷

यही लोग है जिनपर उनके रब की विशेष कृपाएँ है और दयालुता भी; और यही लोग है जो सीधे मार्ग पर हैं॥157॥

۞ اِنَّ الصَّفَا وَالْمَرْوَۃَ مِنْ شَعَاۗىِٕرِ اللہِ۝۰ۚ فَمَنْ حَجَّ الْبَيْتَ اَوِ اعْتَمَرَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْہِ اَنْ يَّطَّوَّفَ بِہِمَا۝۰ۭ وَمَنْ تَطَوَّعَ خَيْرًا۝۰ۙ فَاِنَّ اللہَ شَاكِـرٌ عَلِــيْمٌ۝۱۵۸

निस्संदेह सफ़ा और मरवा अल्लाह की विशेष निशानियों में से हैं; अतः जो इस घर (काबा) का हज या उमरा  करे, उसके लिए इसमें कोई दोष नहीं कि वह इन दोनों (पहाडियों ) के बीच फेरा लगाए। और जो कोई स्वेच्छा और रुचि से कोई भलाई का कार्य करे तो अल्लाह भी गुणग्राहक, सर्वज्ञ है॥158॥

اِنَّ الَّذِيْنَ يَكْتُمُوْنَ مَآ اَنْزَلْنَا مِنَ الْبَيِّنٰتِ وَالْہُدٰى مِنْۢ بَعْدِ مَا بَيَّنّٰہُ لِلنَّاسِ فِي الْكِتٰبِ۝۰ۙ اُولٰۗىِٕكَ يَلْعَنُہُمُ اللہُ وَيَلْعَنُہُمُ اللّٰعِنُوْنَ۝۱۵۹ۙ

जो लोग हमारी उतारी हुई खुली निशानियों और मार्गदर्शन को छिपाते है, इसके बाद कि हम उन्हें लोगों के लिए किताब में स्पष्ट कर चुके है; वही है जिन्हें अल्लाह धिक्कारता है - और सभी धिक्कारने वाले भी उन्हें धिक्कारते है॥159॥

اِلَّا الَّذِيْنَ تَابُوْا وَاَصْلَحُوْا وَبَيَّنُوْا فَاُولٰۗىِٕكَ اَتُوْبُ عَلَيْہِمْ۝۰ۚ وَاَنَا التَّوَّابُ الرَّحِيْمُ۝۱۶۰

सिवाय उनके जिन्होंने तौबा कर ली और सुधार कर लिया, और साफ़-साफ़ बयान कर दिया, तो उनकी तौबा मैं क़बूल करूँगा; मैं बड़ा तौबा क़बूल करनेवाला, अत्यन्त दयावान हूँ॥160॥

اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَمَاتُوْا وَھُمْ كُفَّارٌ اُولٰۗىِٕكَ عَلَيْہِمْ لَعْنَۃُ اللہِ وَالْمَلٰۗىِٕكَۃِ وَالنَّاسِ اَجْمَعِيْنَ۝۱۶۱ۙ

जिन लोगों ने कुफ़्र किया और काफ़िर (इनकार करनेवाले) ही रहकर मरे, वही हैं जिनपर अल्लाह की, फ़रिश्तों की और सारे मनुष्यों की, सबकी फिटकार है॥161॥

خٰلِدِيْنَ فِيْہَا۝۰ۚ لَا يُخَفَّفُ عَنْہُمُ الْعَذَابُ وَلَا ھُمْ يُنْظَرُوْنَ۝۱۶۲

इसी दशा में वे सदैव रहेंगे, न उनकी यातना हल्की की जाएगी और न उन्हें मुहलत ही मिलेगी॥162॥

وَاِلٰـہُكُمْ اِلٰہٌ وَّاحِدٌ۝۰ۚ لَآ اِلٰہَ اِلَّا ھُوَالرَّحْمٰنُ الرَّحِيْمُ۝۱۶۳ۧ

तुम्हारा पूज्य-प्रभु अकेला पूज्य-प्रभु है, उस कृपाशील और दयावान के अतिरिक्त कोई पूज्य-प्रभु नहीं॥163॥

اِنَّ فِيْ خَلْقِ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَاخْتِلَافِ الَّيْلِ وَالنَّہَارِ وَالْفُلْكِ الَّتِىْ تَجْرِيْ فِي الْبَحْرِ بِمَا يَنْفَعُ النَّاسَ وَمَآ اَنْزَلَ اللہُ مِنَ السَّمَاۗءِ مِنْ مَّاۗءٍ فَاَحْيَا بِہِ الْاَرْضَ بَعْدَ مَوْتِہَا وَبَثَّ فِيْہَا مِنْ كُلِّ دَاۗبَّۃٍ۝۰۠ وَّتَصْرِيْفِ الرِّيٰحِ وَالسَّحَابِ الْمُسَخَّرِ بَيْنَ السَّمَاۗءِ وَالْاَرْضِ لَاٰيٰتٍ لِّقَوْمٍ يَّعْقِلُوْنَ۝۱۶۴

निस्संदेह आकाशों और धरती की संरचना में, और रात और दिन की अदला-बदली में, और उन नौकाओं में जो लोगों की लाभप्रद चीज़े लेकर समुद्र (और नदी) में चलती है, और उस पानी में जिसे अल्लाह ने आकाश से उतारा, फिर जिसके द्वारा धरती को उसके निर्जीव हो जाने के पश्चाकत जीवित किया और उसमें हर एक (प्रकार के) जीवधारी को फैलाया और हवाओं को गर्दिश देने में और उन बादलों में जो आकाश और धरती के बीच (काम पर) नियुक्त होते है, उन लोगों के लिए कितनी ही निशानियाँ है जो बुद्धि से काम लें॥164॥

وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَّتَّخِذُ مِنْ دُوْنِ اللہِ اَنْدَادًا يُّحِبُّوْنَہُمْ كَحُبِّ اللہِ۝۰ۭ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَشَدُّ حُبًّا لِّلہِ۝۰ۭ وَلَوْ يَرَى الَّذِيْنَ ظَلَمُوْٓا اِذْ يَرَوْنَ الْعَذَابَ۝۰ۙ اَنَّ الْقُوَّۃَ لِلہِ جَمِيْعًا۝۰ۙ وَّاَنَّ اللہَ شَدِيْدُ الْعَذَابِ۝۱۶۵

कुछ लोग ऐसे भी है जो अल्लाह से हटकर दूसरों को उसके समकक्ष ठहराते है, उनसे ऐसा प्रेम करते है जैसा अल्लाह से प्रेम करना चाहिए। और कुछ ईमानवाले है उन्हें सबसे बढ़कर अल्लाह से प्रेम होता है। और ये अत्याचारी (बहुदेववादी) जबकि आजा्ब से दोचार होते है, यदि इस तथ्य को जान लेते कि शक्ति सारी की सारी अल्लाह ही को प्राप्तव हो और यह कि अल्लाह अत्यन्त कठोर यातना देनेवाला है (तो इनकी नीति कुछ और होती)॥165॥

اِذْ تَبَرَّاَ الَّذِيْنَ اتُّبِعُوْا مِنَ الَّذِيْنَ اتَّبَعُوْا وَرَاَوُا الْعَذَابَ وَتَقَطَّعَتْ بِہِمُ الْاَسْـبَابُ۝۱۶۶

जब वे लोग जिनके पीछे वे चलते थे, यातना को देखकर अपने अनुयायियों से विरक्त हो जाएँगे और उनके सम्बन्ध और सम्पर्क टूट जाएँगे॥166॥

وَقَالَ الَّذِيْنَ اتَّبَعُوْا لَوْ اَنَّ لَنَا كَرَّۃً فَنَتَبَرَّاَ مِنْہُمْ كَـمَا تَبَرَّءُوْا مِنَّا۝۰ۭ كَذٰلِكَ يُرِيْہِمُ اللہُ اَعْمَالَہُمْ حَسَرٰتٍ عَلَيْہِمْ۝۰ۭ وَمَا ھُمْ بِخٰرِجِيْنَ مِنَ النَّارِ۝۱۶۷ۧ

वे लोग जो उनके पीछे चले थे कहेंगे, "काश! हमें एक बार (फिर संसार में लौटना होता तो जिस तरह आज ये हमसे विरक्त हो रहे हैं, हम भी इनसे विरक्त हो जाते।" इस प्रकार अल्लाह उनके लिए संताप बनाकर उन्हें कर्म दिखाएगा और वे आग (जहन्नम) से निकल न सकेंगे॥167॥

يٰٓاَيُّہَا النَّاسُ كُلُوْا مِمَّا فِي الْاَرْضِ حَلٰلًا طَيِّبًا۝۰ؗۖ وَلَا تَتَّبِعُوْا خُطُوٰتِ الشَّيْطٰنِ۝۰ۭ اِنَّہٗ لَكُمْ عَدُوٌّ مُّبِيْنٌ۝۱۶۸

ऐ लोगों! धरती में जो हलाल और अच्छी-सुथरी चीज़ें हैं उन्हें खाओ और शैतान के पदचिन्हों पर न चलो। निस्संदेह वह तुम्हारा खुला शत्रु है॥168॥

اِنَّمَا يَاْمُرُكُمْ بِالسُّوْۗءِ وَالْفَحْشَاۗءِ وَاَنْ تَقُوْلُوْا عَلَي اللہِ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ۝۱۶۹

वह तो बस तुम्हें बुराई और अश्लीलता पर उकसाता है और इसपर कि तुम अल्लाह पर थोपकर वे बातें कहो जो तुम नहीं जानते॥169॥

وَاِذَا قِيْلَ لَہُمُ اتَّبِعُوْا مَآ اَنْزَلَ اللہُ قَالُوْا بَلْ نَتَّبِــعُ مَآ اَلْفَيْنَا عَلَيْہِ اٰبَاۗءَنَا۝۰ۭ اَوَلَوْ كَانَ اٰبَاۗؤُھُمْ لَا يَعْقِلُوْنَ شَـيْــــًٔـا وَّلَا يَہْتَدُوْنَ۝۱۷۰

और जब उनसे कहा जाता है, "अल्लाह ने जो कुछ उतारा है उसका अनुसरण करो।" तो कहते है, "नहीं बल्कि हम तो उसका अनुसरण करेंगे जिसपर हमने अपने बाप-दादा को पाया है।" क्या उस दशा में भी जबकि उनके बाप-दादा कुछ भी बुद्धि से काम न लेते रहे हों और न सीधे मार्ग पर रहे हों?॥170॥

وَمَثَلُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا كَمَثَلِ الَّذِيْ يَنْعِقُ بِمَا لَا يَسْمَعُ اِلَّا دُعَاۗءً وَّنِدَاۗءً۝۰ۭ صُمٌّۢ بُكْمٌ عُمْيٌ فَہُمْ لَا يَعْقِلُوْنَ۝۱۷۱

इन इनकार करनेवालों की मिसाल ऐसी है जैसे कोई ऐसी बात को उच्चा्रित कर रहा है जो स्वनयं  उसे भी एक पुकार और आवाज़ के सिवा कुछ और न सुनई दे । ये बहरे हैं, गूँगें हैं, अन्धें हैं; इसलिए ये कुछ भी नहीं समझ सकते॥171॥

يٰٓاَيُّہَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كُلُوْا مِنْ طَيِّبٰتِ مَا رَزَقْنٰكُمْ وَاشْكُرُوْا لِلہِ اِنْ كُنْتُمْ اِيَّاہُ تَعْبُدُوْنَ۝۱۷۲

ऐ ईमान लानेवालो! जो अच्छी-सुथरी चीज़ें हमने तुम्हें प्रदान की हैं उनमें से खाओ और अल्लाह के आगे कृतज्ञता दिखलाओ, यदि तुम उसी की बन्दगी करते हो॥172॥

اِنَّمَا حَرَّمَ عَلَيْكُمُ الْمَيْتَۃَ وَالدَّمَ وَلَحْمَ الْخِنْزِيْرِ وَمَآ اُہِلَّ بِہٖ لِغَيْرِ اللہِ۝۰ۚ فَمَنِ اضْطُرَّ غَيْرَ بَاغٍ وَّلَا عَادٍ فَلَآ اِثْمَ عَلَيْہِ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ۝۱۷۳

उसने तो तुमपर केवल मुर्दार और ख़ून और सूअर का मांस और जिस पर अल्लाह के अतिरिक्त किसी और का नाम लिया गया हो, हराम ठहराया है। इसपर भी जो बहुत मजबूर और विवश हो जाए, वह अवज्ञा करने वाला न हो और न सीमा से आगे बढ़नेवाला हो तो उसपर कोई गुनाह नहीं। निस्संदेह अल्लाह अत्यन्त क्षमाशील, दयावान है॥173॥

اِنَّ الَّذِيْنَ يَكْتُمُوْنَ مَآ اَنْزَلَ اللہُ مِنَ الْكِتٰبِ وَيَشْتَرُوْنَ بِہٖ ثَـمَنًا قَلِيْلًا۝۰ۙ اُولٰۗىِٕكَ مَا يَاْكُلُوْنَ فِيْ بُطُوْنِہِمْ اِلَّا النَّارَ وَلَا يُكَلِّمُہُمُ اللہُ يَوْمَ الْقِيٰمَۃِ وَلَا يُزَكِّيْہِمْ۝۰ۚۖ وَلَہُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ۝۱۷۴

जो लोग उस चीज़ को छिपाते है जो अल्लाह ने अपनी किताब में से उतारी है और उसके बदले थोड़े मूल्य का सौदा करते है, वे तो बस आग खाकर अपने पेट भर रहे है; और क़ियामत के दिन अल्लाह न तो उनसे बात करेगा और न उन्हें निखारेगा; और उनके लिए दुखद यातना है॥174॥

اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ اشْتَرَوُا الضَّلٰلَۃَ بِالْہُدٰى وَالْعَذَابَ بِالْمَغْفِرَۃِ۝۰ۚ فَمَآ اَصْبَرَھُمْ عَلَي النَّارِ۝۱۷۵

यहीं लोग हैं जिन्होंने मार्गदर्शन के बदले पथभ्रष्टका मोल ली; और क्षमा के बदले यातना के ग्राहक बने। तो आग को सहन करने के लिए उनका उत्साह कितना बढ़ा हुआ है!॥175॥

ذٰلِكَ بِاَنَّ اللہَ نَزَّلَ الْكِتٰبَ بِالْحَـقِّ۝۰ۭ وَاِنَّ الَّذِيْنَ اخْتَلَفُوْا فِي الْكِتٰبِ لَفِيْ شِقَاقٍؚبَعِيْدٍ۝۱۷۶ۧ

वह (यातना) इसलिए होगी कि अल्लाह ने तो हक़ के साथ किताब उतारी, किन्तु जिन लोगों ने किताब के मामले में विभेद किया वे हठ और विरोध में बहुत दूर निकल गए॥176॥

۞ لَيْسَ الْبِرَّ اَنْ تُوَلُّوْا وُجُوْھَكُمْ قِـبَلَ الْمَشْرِقِ وَالْمَغْرِبِ وَلٰكِنَّ الْبِرَّ مَنْ اٰمَنَ بِاللہِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَالْمَلٰۗىِٕكَۃِ وَالْكِتٰبِ وَالنَّبِيّٖنَ۝۰ۚ وَاٰتَى الْمَالَ عَلٰي حُبِّہٖ ذَوِي الْقُرْبٰى وَالْيَـتٰمٰى وَالْمَسٰكِيْنَ وَابْنَ السَّبِيْلِ۝۰ۙ وَالسَّاۗىِٕلِيْنَ وَفِي الرِّقَابِ۝۰ۚ وَاَقَامَ الصَّلٰوۃَ وَاٰتَى الزَّكٰوۃَ۝۰ۚ وَالْمُوْفُوْنَ بِعَہْدِہِمْ اِذَا عٰھَدُوْا۝۰ۚ وَالصّٰبِرِيْنَ فِي الْبَاْسَاۗءِ وَالضَّرَّاۗءِ وَحِيْنَ الْبَاْسِ۝۰ۭ اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ صَدَقُوْا۝۰ۭ وَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الْمُتَّقُوْنَ۝۱۷۷

 वफादारी नेकी केवल यह नहीं है कि तुम अपने मुँह पूरब और पश्चिम की ओर कर लो, बल्कि वफादारी तो उसकी वफादारी है जो अल्लाह अन्तिम दिन, फ़रिश्तों, किताब और नबियों पर ईमान लाया और माल, उसके प्रति प्रेम के बावजूद नातेदारों, अनाथों, मुहताजों, मुसाफ़िरों और माँगनेवालों को दिया और गर्दनें छुड़ाने में भी, और नमाज़ क़ायम की और ज़कात दी और अपने वचन को ऐसे लोग पूरा करनेवाले है जब वचन दें; और तंगी और विशेष रूप से शारीरिक कष्टों में और लड़ाई के समय में जमनेवाले हैं, तो ऐसे ही लोग है जो सच्चे सिद्ध हुए और वही लोग डर रखनेवाले हैं॥177॥

يٰٓاَيُّہَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كُتِبَ عَلَيْكُمُ الْقِصَاصُ فِي الْقَتْلٰي۝۰ۭ اَلْحُــرُّ بِالْحُــرِّ وَالْعَبْدُ بِالْعَبْدِ وَالْاُنْـثٰى بِالْاُنْـثٰى۝۰ۭ فَمَنْ عُفِيَ لَہٗ مِنْ اَخِيْہِ شَيْءٌ فَاتِّـبَاعٌۢ بِالْمَعْرُوْفِ وَاَدَاۗءٌ اِلَيْہِ بِـاِحْسَانٍ۝۰ۭ ذٰلِكَ تَخْفِيْفٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ وَرَحْمَـۃٌ۝۰ۭ فَمَنِ اعْتَدٰى بَعْدَ ذٰلِكَ فَلَہٗ عَذَابٌ اَلِيْمٌ۝۱۷۸

ऐ ईमान लानेवालो! मारे जानेवालों के विषय में हत्यादंड (क़िसास) तुमपर अनिवार्य किया गया, स्वतंत्र-स्वतंत्र बराबर है और ग़़ुलाम-ग़ुलाम बराबर है और औरत-औरत बराबर है। फिर यदि किसी को उसके भाई की ओर से कुछ छूट मिल जाए तो सामान्य रीति का पालन करना चाहिए; और भले तरीके से उसे अदा करना चाहिए। यह तुम्हारें रब की ओर से एक छूट और दयालुता है। फिर इसके बाद भी जो ज़्यादती करे तो उसके लिए दुखद यातना है॥178॥

وَلَكُمْ فِي الْقِصَاصِ حَيٰوۃٌ يّٰٓاُولِي الْاَلْبَابِ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُوْنَ۝۱۷۹

ऐ बुद्धि और समझवालों! तुम्हारे लिए हत्यादंड (क़िसास) में जीवन है, ताकि तुम बचो॥179॥

كُتِبَ عَلَيْكُمْ اِذَا حَضَرَ اَحَدَكُمُ الْمَوْتُ اِنْ تَرَكَ خَيْرَۨا۝۰ۚۖ الْوَصِيَّۃُ لِلْوَالِدَيْنِ وَالْاَقْرَبِيْنَ بِالْمَعْرُوْفِ۝۰ۚ حَقًّا عَلَي الْمُتَّقِيْنَ۝۱۸۰ۭ

जब तुममें से किसी की मृत्यु का समय आ जाए, यदि वह कुछ माल छोड़ रहा हो, तो माँ-बाप और नातेदारों को भलाई की वसीयत करना तुमपर अनिवार्य किया गया। यह हक़ है डर रखनेवालों पर॥180॥

فَمَنْۢ بَدَّلَہٗ بَعْدَ مَا سَمِعَہٗ فَاِنَّمَآ اِثْمُہٗ عَلَي الَّذِيْنَ يُبَدِّلُوْنَہٗ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ۝۱۸۱ۭ

तो जो कोई उसके सुनने के पश्चात उसे बदल डाले तो उसका गुनाह उन्हीं लोगों पर होगा जो इसे बदलेंगे। निस्संदेह अल्लाह सब कुछ सुननेवाला और जाननेवाला है॥181॥

فَمَنْ خَافَ مِنْ مُّوْصٍ جَنَفًا اَوْ اِثْمًـا فَاَصْلَحَ بَيْنَہُمْ فَلَآ اِثْمَ عَلَيْہِ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ۝۱۸۲ۧ

फिर जिस किसी वसीयत करनेवाले को न्याय से किसी प्रकार के हटने या हक़़ मारने की आशंका हो, इस कारण उनके (वारिसों के) बीच सुधार की व्यवस्था कर दें, तो उसपर कोई गुनाह नहीं। निस्संदेह अल्लाह क्षमाशील, अत्यन्त दयावान है॥182॥

يٰٓاَيُّہَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كُتِبَ عَلَيْكُمُ الصِّيَامُ كَـمَا كُتِبَ عَلَي الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُوْنَ۝۱۸۳ۙ

ऐ ईमान लानेवालो! तुमपर रोज़े अनिवार्य किए गए, जिस प्रकार तुमसे पहले के लोगों पर किए गए थे, ताकि तुम डर रखनेवाले बन जाओ॥183॥

اَيَّامًا مَّعْدُوْدٰتٍ۝۰ۭ فَمَنْ كَانَ مِنْكُمْ مَّرِيْضًا اَوْ عَلٰي سَفَرٍ فَعِدَّۃٌ مِّنْ اَيَّامٍ اُخَرَ۝۰ۭ وَعَلَي الَّذِيْنَ يُطِيْقُوْنَہٗ فِدْيَۃٌ طَعَامُ مِسْكِيْنٍ۝۰ۭ فَمَنْ تَطَوَّعَ خَيْرًا فَہُوَخَيْرٌ لَّہٗ۝۰ۭ وَاَنْ تَصُوْمُوْا خَيْرٌ لَّكُمْ اِنْ كُنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ۝۱۸۴

गिनती के कुछ दिनों के लिए - इसपर भी तुममें कोई बीमार हो, या सफ़र में हो तो दूसरे दिनों में संख्या पूरी कर ले। और जिन (बीमार और मुसाफ़िरों) को इसकी (मुहताजों को खिलाने की) सामर्थ्य हो, उनके ज़िम्मे बदलें में एक मुहताज का खाना है। फिर जो अपनी ख़ुशी से कुछ और नेकी करे तो यह उसी के लिए अच्छा है और यह कि तुम रोज़ा रखो तो तुम्हारे लिए अधिक उत्तम है, यदि तुम जानो॥184॥

شَہْرُ رَمَضَانَ الَّذِيْٓ اُنْزِلَ فِيْہِ الْقُرْاٰنُ ھُدًى لِّلنَّاسِ وَبَيِّنٰتٍ مِّنَ الْہُدٰى وَالْفُرْقَانِ۝۰ۚ فَمَنْ شَہِدَ مِنْكُمُ الشَّہْرَ فَلْيَصُمْہُ۝۰ۭ وَمَنْ كَانَ مَرِيْضًا اَوْ عَلٰي سَفَرٍ فَعِدَّۃٌ مِّنْ اَيَّامٍ اُخَرَ۝۰ۭ يُرِيْدُ اللہُ بِكُمُ الْيُسْرَ وَلَا يُرِيْدُ بِكُمُ الْعُسْرَ۝۰ۡوَلِتُكْمِلُوا الْعِدَّۃَ وَلِتُكَبِّرُوا اللہَ عَلٰي مَا ھَدٰىكُمْ وَلَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ۝۱۸۵

रमज़ान का महीना जिसमें कुरआन उतारा गया लोगों के मार्गदर्शन के लिए, और मार्गदर्शन और सत्य-असत्य के अन्तर के प्रमाणों के साथा। अतः तुममें जो कोई इस महीने में मौजूद हो उसे चाहिए कि उसके रोज़े रखे और जो बीमार हो या सफ़र में हो तो दूसरे दिनों में गिनती पूरी कर ले। अल्लाह तुम्हारे साथ आसानी चाहता है, वह तुम्हारे साथ सख़्ती और कठिनाई नहीं चाहता, (वह तुम्हेंन लिए हिदायत दे रहा है) और चाहता है कि तुम संख्या पूरी कर लो और जो सीधा मार्ग तुम्हें दिखाया गया है, उस पर अल्लाह की बड़ाई प्रकट करो और ताकि तुम कृतज्ञ बनो॥185॥

وَاِذَا سَاَلَكَ عِبَادِيْ عَـنِّىْ فَاِنِّىْ قَرِيْبٌ۝۰ۭ اُجِيْبُ دَعْوَۃَ الدَّاعِ اِذَا دَعَانِ۝۰ۙ فَلْيَسْتَجِيْبُوْا لِيْ وَلْيُؤْمِنُوْا بِيْ لَعَلَّہُمْ يَرْشُدُوْنَ۝۱۸۶

और जब तुमसे मेरे बन्दे मेरे सम्बन्ध में पूछें, तो मैं तो निकट ही हूँ, पुकारने वाले की पुकार का उत्तर देता हूँ, जब वह मुझे पुकारता है, तो उन्हें चाहिए कि वे मेरा हुक्म मानें और मुझपर ईमान रखें, ताकि वे सीधा मार्ग पा लें॥186॥

اُحِلَّ لَكُمْ لَيْلَۃَ الصِّيَامِ الرَّفَثُ اِلٰى نِسَاۗىِٕكُمْ۝۰ۭ ھُنَّ لِبَاسٌ لَّكُمْ وَاَنْتُمْ لِبَاسٌ لَّہُنَّ۝۰ۭ عَلِمَ اللہُ اَنَّكُمْ كُنْتُمْ تَخْتَانُوْنَ اَنْفُسَكُمْ فَتَابَ عَلَيْكُمْ وَعَفَا عَنْكُمْ۝۰ۚ فَالْئٰنَ بَاشِرُوْھُنَّ وَابْتَغُوْا مَا كَتَبَ اللہُ لَكُمْ۝۰۠ وَكُلُوْا وَاشْرَبُوْا حَتّٰى يَتَبَيَّنَ لَكُمُ الْخَيْطُ الْاَبْيَضُ مِنَ الْخَيْطِ الْاَسْوَدِ مِنَ الْفَجْرِ۝۰۠ ثُمَّ اَتِمُّوا الصِّيَامَ اِلَى الَّيْلِ۝۰ۚ وَلَا تُـبَاشِرُوْھُنَّ وَاَنْتُمْ عٰكِفُوْنَ۝۰ۙ فِي الْمَسٰجِدِ۝۰ۭ تِلْكَ حُدُوْدُ اللہِ فَلَا تَقْرَبُوْھَا۝۰ۭ كَذٰلِكَ يُبَيِّنُ اللہُ اٰيٰتِہٖ لِلنَّاسِ لَعَلَّہُمْ يَتَّقُوْنَ۝۱۸۷

तुम्हारे लिए रोज़ो की रातों में अपनी औरतों के पास जाना जायज़ (वैध) हुआ। वे तुम्हारे परिधान (लिबास) हैं और तुम उनका परिधान हो। अल्लाह को मालूम हो गया कि तुम लोग अपने-आपसे कपट कर रहे थे, तो उसने तुमपर कृपा की और तुम्हें क्षमा कर दिया। तो अब तुम उनसे मिलो-जुलो और अल्लाह ने जो कुछ तुम्हारे लिए लिख रखा है, उसे तलब करो। और खाओ और पियो यहाँ तक कि तुम्हें उषाकाल की सफ़ेद धारी (रात की) काली धारी से स्पष्टा दिखाई दे जाए। फिर रात तक रोज़ा पूरा करो और जब तुम मस्जिदों में 'एतकाफ़' की हालत में हो, तो तुम उनसे (पत्नियों से) न मिलो। ये अल्लाह की सीमाएँ हैं। अतः इनके निकट न जाना। इस प्रकार अल्लाह अपनी आयतें लोगों के लिए खोल-खोलकर बयान करता है, ताकि वे डर रखनेवाले बनें॥187॥

وَلَا تَاْكُلُوْٓا اَمْوَالَكُمْ بَيْنَكُمْ بِالْبَاطِلِ وَتُدْلُوْا بِہَآ اِلَى الْحُكَّامِ لِتَاْكُلُوْا فَرِيْقًا مِّنْ اَمْوَالِ النَّاسِ بِالْاِثْمِ وَاَنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ۝۱۸۸ۧ

और आपस में तुम एक-दूसरे के माल को अवैध रूप से न खाओ, और न उन्हें हाकिमों के आगे ले जाओ कि हक़ मारकर लोगों के कुछ माल जानते-बूझते हड़प सको॥188॥

۞ يَسْــَٔـلُوْنَكَ عَنِ الْاَہِلَّۃِ۝۰ۭ قُلْ ہِىَ مَوَاقِيْتُ لِلنَّاسِ وَالْحَجِّ۝۰ۭ وَلَيْسَ الْبِرُّ بِاَنْ تَاْتُوا الْبُيُوْتَ مِنْ ظُہُوْرِھَا وَلٰكِنَّ الْبِرَّ مَنِ اتَّقٰى۝۰ۚ وَاْتُوا الْبُيُوْتَ مِنْ اَبْوَابِہَا۝۰۠ وَاتَّقُوا اللہَ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ۝۱۸۹

वे तुमसे (प्रतिष्ठित) महीनों के विषय में पूछते है। कहो, "वे तो लोगों के लिए और हज के लिए नियत है। और यह कोई ख़ूबी और नेकी नहीं हैं कि तुम घरों में उनके पीछे से आओ, बल्कि नेकी तो उसकी है जो (अल्लाह का) डर रखे। तुम घरों में उनके दरवाड़ों से आओ और अल्लाह से डरते रहो, ताकि तुम्हें सफलता प्राप्त हो॥189॥

وَقَاتِلُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللہِ الَّذِيْنَ يُقَاتِلُوْنَكُمْ وَلَا تَعْتَدُوْا۝۰ۭ اِنَّ اللہَ لَا يُحِبُّ الْمُعْتَدِيْنَ۝۱۹۰

और अल्लाह के मार्ग में उन लोगों से लड़ो जो तुमसे लड़े, किन्तु ज़्यादती न करो। निस्संदेह अल्लाह ज़्यादती करनेवालों को पसन्द नहीं करता॥190॥

وَاقْتُلُوْھُمْ حَيْثُ ثَقِفْتُمُوْھُمْ وَاَخْرِجُوْھُمْ مِّنْ حَيْثُ اَخْرَجُوْكُمْ وَالْفِتْنَۃُ اَشَدُّ مِنَ الْقَتْلِ۝۰ۚ وَلَا تُقٰتِلُوْھُمْ عِنْدَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ حَتّٰى يُقٰتِلُوْكُمْ فِيْہِ۝۰ۚ فَاِنْ قٰتَلُوْكُمْ فَاقْتُلُوْھُمْ۝۰ۭ كَذٰلِكَ جَزَاۗءُ الْكٰفِرِيْنَ۝۱۹۱

और जहाँ कहीं उनपर क़ाबू पाओ, क़त्ल करो और उन्हें निकालो जहाँ से उन्होंने तुम्हें निकाला है, इसलिए कि फ़ितना (उपद्रव) क़त्ल से भी बढ़कर गम्भीर है। लेकिन मस्जिदे हराम (काबा) के निकट तुम उनसे न लड़ो जब तक कि वे स्वयं तुमसे वहाँ युद्ध न करें। अतः यदि वे तुमसे युद्ध करें तो उन्हें क़त्ल करो - ऐसे विधर्मियो  का ऐसा ही बदला है॥191॥

فَاِنِ انْــتَہَوْا فَاِنَّ اللہَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ۝۱۹۲

फिर यदि वे बाज़ आ जाएँ तो अल्लाह भी क्षमा करनेवाला, अत्यन्त दयावान है॥192॥

وَقٰتِلُوْھُمْ حَتّٰى لَا تَكُوْنَ فِتْنَۃٌ وَّيَكُوْنَ الدِّيْنُ لِلہِ۝۰ۭ فَاِنِ انْتَہَوْا فَلَا عُدْوَانَ اِلَّا عَلَي الظّٰلِـمِيْنَ۝۱۹۳

तुम उनसे लड़ो यहाँ तक कि फ़ितना शेष न रह जाए और दीन (धर्म) अल्लाह के लिए हो जाए। अतः यदि वे बाज़ आ जाएँ तो अत्याचारियों के अतिरिक्त किसी के विरुद्ध कोई क़दम उठाना ठीक नहीं॥193॥

اَلشَّہْرُ الْحَرَامُ بِالشَّہْرِ الْحَرَامِ وَالْحُرُمٰتُ قِصَاصٌ۝۰ۭ فَمَنِ اعْتَدٰى عَلَيْكُمْ فَاعْتَدُوْا عَلَيْہِ بِمِثْلِ مَا اعْتَدٰى عَلَيْكُمْ۝۰۠ وَاتَّقُوا اللہَ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللہَ مَعَ الْمُتَّقِيْنَ۝۱۹۴

प्रतिष्ठित महीना बराबर है प्रतिष्ठित महीने के, और समस्त प्रतिष्ठाओं का भी बराबरी का बदला है। अतः जो तुमपर ज़्यादती करे, तो जैसी ज़्यादती वह तुम पर करे, तुम भी उसी प्रकार उससे ज़्यादती का बदला ले सकते हो । और अल्लाह का डर रखो और जान लो कि अल्लाह डर रखनेवालों के साथ है॥194॥

وَاَنْفِقُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللہِ وَلَا تُلْقُوْا بِاَيْدِيْكُمْ اِلَى التَّہْلُكَۃِ۝۰ۚۖۛ وَاَحْسِنُوْا۝۰ۚۛ اِنَّ اللہَ يُحِبُّ الْمُحْسِـنِيْنَ۝۱۹۵

और अल्लाह के मार्ग में ख़र्च करो और अपने ही हाथों से अपने-आपको तबाही में न डालो, और अच्छे से अच्छा तरीक़ा अपनाओ। निस्संदेह अल्लाह अच्छे से अच्छा काम करनेवालों को पसन्द करता है॥195॥

وَاَتِمُّوا الْحَجَّ وَالْعُمْرَۃَ لِلہِ۝۰ۭ فَاِنْ اُحْصِرْتُمْ فَمَا اسْتَيْسَرَ مِنَ الْہَدْيِ۝۰ۚ وَلَا تَحْلِقُوْا رُءُوْسَكُمْ حَتّٰى يَبْلُغَ الْہَدْيُ مَحِلَّہٗ۝۰ۭ فَمَنْ كَانَ مِنْكُمْ مَّرِيْضًا اَوْ بِہٖٓ اَذًى مِّنْ رَّاْسِہٖ فَفِدْيَۃٌ مِّنْ صِيَامٍ اَوْ صَدَقَۃٍ اَوْ نُسُكٍ۝۰ۚ فَاِذَآ اَمِنْتُمْ۝۰۪ فَمَنْ تَمَتَّعَ بِالْعُمْرَۃِ اِلَى الْحَجِّ فَمَا اسْتَيْسَرَ مِنَ الْہَدْيِ۝۰ۚ فَمَنْ لَّمْ يَجِدْ فَصِيَامُ ثَلٰثَۃِ اَيَّامٍ فِي الْحَجِّ وَسَبْعَۃٍ اِذَا رَجَعْتُمْ۝۰ۭ تِلْكَ عَشَرَۃٌ كَامِلَۃٌ۝۰ۭ ذٰلِكَ لِمَنْ لَّمْ يَكُنْ اَھْلُہٗ حَاضِرِي الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ۝۰ۭ وَاتَّقُوا اللہَ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللہَ شَدِيْدُ الْعِقَابِ۝۱۹۶ۧ

और हज और उमरा जो कि अल्लाह के लिए है, पूरे करो। फिर यदि तुम घिर जाओ, तो जो क़ुरबानी उपलब्ध हो पेश कर दो। और अपने सिर न मूड़ो जब तक कि क़ुरबानी अपने ठिकाने पर न पहुँच जाए, किन्तु जो व्यक्ति तुममें बीमार हो या उसके सिर में कोई तकलीफ़ हो, तो रोज़े या सदक़ा या क़रबानी के रूप में फ़िदया  देना होगा। फिर जब तुम पर से ख़तरा टल जाए, तो जो व्यक्ति हज तक उमरा से लाभान्वित हो, तो जो क़ुरबानी उपलब्ध हो पेश करे, और जिसको उपलब्ध न हो तो हज के दिनों में तीन दिन के रोज़े रखे और सात दिन के रोज़े जब तुम वापस हो, ये पूरे दस हुए। यह उसके लिए है जिसके बाल-बच्चे मस्जिदे हराम के निकट न रहते हों। अल्लाह का डर रखो और भली-भाँति जान लो कि अल्लाह कठोर दण्‍ड देनेवाला है॥196॥

اَلْحَجُّ اَشْہُرٌ مَّعْلُوْمٰتٌ۝۰ۚ فَمَنْ فَرَضَ فِيْہِنَّ الْحَجَّ فَلَا رَفَثَ وَلَا فُسُوْقَ۝۰ۙ وَلَا جِدَالَ فِي الْحَجِّ۝۰ۭ وَمَا تَفْعَلُوْا مِنْ خَيْرٍ يَّعْلَمْہُ اللہُ۝۰ۭؔ وَتَزَوَّدُوْا فَاِنَّ خَيْرَ الزَّادِ التَّقْوٰى۝۰ۡوَاتَّقُوْنِ يٰٓاُولِي الْاَلْبَابِ۝۱۹۷

हज के महीने जाने-पहचाने और निश्चित हैं, तो जो इनमें हज करने का निश्चय करे, तो हज में न तो काम-वासना की बातें हो सकती है और न अवज्ञा और न लड़ाई-झगड़े की कोई बात। और जो भलाई के काम भी तुम करोंगे अल्लाह उसे जानता होगा। और (ईश-भय का ) पाथेय ले लो, क्योंकि सबसे उत्तम पाथेय ईश-भय है। और ऐ बुद्धि और समझवालो! मेरा डर रखो॥197॥

لَيْسَ عَلَيْكُمْ جُنَاحٌ اَنْ تَبْتَغُوْا فَضْلًا مِّنْ رَّبِّكُمْ۝۰ۭ فَاِذَآ اَفَضْتُمْ مِّنْ عَرَفٰتٍ فَاذْكُرُوا اللہَ عِنْدَ الْمَشْعَرِ الْحَرَامِ۝۰۠ وَاذْكُرُوْہُ كَـمَا ھَدٰىكُمْ۝۰ۚ وَاِنْ كُنْتُمْ مِّنْ قَبْلِہٖ لَمِنَ الضَّاۗلِّيْنَ۝۱۹۸

इसमे तुम्हारे लिए कोई गुनाह नहीं कि अपने रब का अनुग्रह तलब करो। फिर जब तुम अरफ़ात से चलो तो 'मशअरे हराम' (मुज़दल्फ़ा) के निकट ठहरकर अल्लाह को याद करो, और उसे याद करो जैसाकि उसने तुम्हें बताया है, और इससे पहले तुम पथभ्रष्ट थे॥198॥

ثُمَّ اَفِيْضُوْا مِنْ حَيْثُ اَفَاضَ النَّاسُ وَاسْتَغْفِرُوا اللہَ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ۝۱۹۹

इसके पश्चात जहाँ से और सब लोग चलें, वहीं से तुम भी चलो, और अल्लाह से क्षमा की प्रार्थना करो। निस्संदेह अल्लाह अत्यन्त क्षमाशील, दयावान है॥199॥

فَاِذَا قَضَيْتُمْ مَّنَاسِكَكُمْ فَاذْكُرُوا اللہَ كَذِكْرِكُمْ اٰبَاۗءَكُمْ اَوْ اَشَدَّ ذِكْرًا۝۰ۭ فَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَّقُوْلُ رَبَّنَآ اٰتِنَا فِي الدُّنْيَا وَمَا لَہٗ فِي الْاٰخِرَۃِ مِنْ خَلَاقٍ۝۲۰۰

फिर जब तुम अपनी हज सम्बन्धी रीतियों को पूरा कर चुको तो अल्लाह को याद करो जैसे अपने बाप-दादा को याद करते रहे हो, बल्कि उससे भी बढ़कर याद करो। फिर लोगों सें कोई तो ऐसा है जो कहता है, "हमारे रब! हमें दुनिया में दे दो।" ऐसी हालत में आख़िरत में उसका कोई हिस्सा नहीं॥200॥

وَمِنْہُمْ مَّنْ يَّقُوْلُ رَبَّنَآ اٰتِنَا فِي الدُّنْيَا حَسَنَۃً وَّفِي الْاٰخِرَۃِ حَسَـنَۃً وَّقِنَا عَذَابَ النَّارِ۝۲۰۱

और उनमें कोई ऐसा है जो कहता है, "हमारे रब! हमें प्रदान कर दुनिया में भी अच्छी दशा और, आख़िरत में भी अच्छा दशा, और हमें आग (जहन्नम) की यातना से बचा ले।"॥201॥

اُولٰۗىِٕكَ لَہُمْ نَصِيْبٌ مِّمَّا كَسَبُوْا۝۰ۭ وَاللہُ سَرِيْعُ الْحِسَابِ۝۲۰۲

ऐसे ही लोग है कि उन्होंने जो कुछ कमाया है उसकी जिंन का हिस्सा उनके लिए नियत है। और अल्लाह जल्द ही हिसाब चुकानेवाला है॥202॥

۞ وَاذْكُرُوا اللہَ فِيْٓ اَيَّامٍ مَّعْدُوْدٰتٍ۝۰ۭ فَمَنْ تَعَـجَّلَ فِيْ يَوْمَيْنِ فَلَآ اِثْمَ عَلَيْہِ۝۰ۚ وَمَنْ تَاَخَّرَ فَلَآ اِثْمَ عَلَيْہِ۝۰ۙ لِمَنِ اتَّقٰى۝۰ۭ وَاتَّقُوا اللہَ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّكُمْ اِلَيْہِ تُحْشَرُوْنَ۝۲۰۳

और अल्लाह की याद में गिनती के ये कुछ दिन व्यतीत करो। फिर जो कोई जल्दी करके दो ही दिन में कूच करे तो इसमें उसपर कोई गुनाह नहीं। और जो ठहरा रहे तो इसमें भी उसपर कोई गुनाह नहीं। यह उसके लिेए है जो अल्लाह का डर रखे। और अल्लाह का डर रखो और जान रखो कि उसी के पास तुम इकट्ठा होगे॥203॥

وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يُّعْجِبُكَ قَوْلُہٗ فِي الْحَيٰوۃِ الدُّنْيَا وَيُشْہِدُ اللہَ عَلٰي مَا فِيْ قَلْبِہٖ۝۰ۙ وَھُوَاَلَدُّ الْخِصَامِ۝۲۰۴

लोगों में कोई तो ऐसा है कि इस सांसारिक जीवन के विषय में उसकी बाते तुम्हें बहुत भाती है, उस (खोट) के बावजूद जो उसके दिल में होती है, वह अल्लाह को गवाह ठहराता है और झगड़े में वह बड़ा हठी है॥204॥

وَاِذَا تَوَلّٰى سَعٰى فِي الْاَرْضِ لِيُفْسِدَ فِيْہَا وَيُہْلِكَ الْحَرْثَ وَالنَّسْلَ۝۰ۭ وَاللہُ لَا يُحِبُّ الْفَسَادَ۝۲۰۵

और जब वह लौटता है, तो धरती में इसलिए दौड़-धूप करता है कि इसमें बिगाड़ पैदा करे और खेती और नस्ल को तबाह करे, जबकि अल्लाह बिगाड़ को पसन्द नहीं करता॥205॥

وَاِذَا قِيْلَ لَہُ اتَّقِ اللہَ اَخَذَتْہُ الْعِزَّۃُ بِالْاِثْمِ فَحَسْـبُہٗ جَہَنَّمُ۝۰ۭ وَلَبِئْسَ الْمِہَادُ۝۲۰۶

और जब उससे कहा जाता है, "अल्लाह से डर", तो अहंकार उसे और गुनाह पर जमा देता है। अतः उसके लिए तो जहन्नम ही काफ़ी है, और वह बहुत-ही बुरा ठिकाना है! ॥206॥

وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَّشْرِيْ نَفْسَہُ ابْـتِغَاۗءَ مَرْضَاتِ اللہِ۝۰ۭ وَاللہُ رَءُوْفٌۢ بِالْعِبَادِ۝۲۰۷

और लोगों में वह भी है जो अल्लाह की प्रसन्नता के संसाधन की चाह में अपनी जान खपा देता है। अल्लाह भी अपने ऐसे बन्दों के प्रति अत्यन्त करुणाशील है॥207॥

يٰٓاَيُّہَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا ادْخُلُوْا فِي السِّلْمِ كَاۗفَّۃً۝۰۠ وَّلَا تَتَّبِعُوْا خُطُوٰتِ الشَّيْطٰنِ۝۰ۭ اِنَّہٗ لَكُمْ عَدُوٌّ مُّبِيْنٌ۝۲۰۸

ऐ ईमान लाने वालो! तुम सब सुलह और शान्ति  में दाख़िल हो जाओ और शैतान के पदचिन्हो पर न चलो। वह तो तुम्हारा खुला हुआ शत्रु है॥208॥

فَاِنْ زَلَلْتُمْ مِّنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَتْكُمُ الْبَيِّنٰتُ فَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللہَ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ۝۲۰۹

फिर यदि तुम उन स्पष्ट दलीलों के पश्चात भी, जो तुम्हारे पास आ चुकी है, फिसल गए, तो भली-भाँति जान रखो कि अल्लाह अत्यन्त प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है॥209॥

ھَلْ يَنْظُرُوْنَ اِلَّآ اَنْ يَّاْتِيَہُمُ اللہُ فِيْ ظُلَلٍ مِّنَ الْغَمَامِ وَالْمَلٰۗىِٕكَۃُ وَقُضِيَ الْاَمْرُ۝۰ۭ وَاِلَى اللہِ تُرْجَعُ الْاُمُوْرُ۝۲۱۰ۧ

क्या वे (इसराईल की सन्तान) बस इसकी प्रतीक्षा कर रहे है कि अल्लाह स्वयं बादलों की छायों में उनके सामने आ जाए और फ़रिश्ते भी, हालाँकि बात तय कर दी गई है? मामले तो अल्लाह ही की ओर लौटते है॥210॥

سَلْ بَـنِىْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ كَمْ اٰتَيْنٰھُمْ مِّنْ اٰيَۃٍؚبَيِّنَۃٍ۝۰ۭ وَمَنْ يُّبَدِّلْ نِعْمَۃَ اللہِ مِنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَتْہُ فَاِنَّ اللہَ شَدِيْدُ الْعِقَابِ۝۲۱۱

इसराईल की सन्तान से पूछो, हमने उन्हें कितनी खुली-खुली निशानियाँ प्रदान की। और जो अल्लाह की नेमत को इसके बाद कि वह उसे पहुँच चुकी हो बदल डाले, तो निस्संदेह अल्लाह भी कठोर दण्‍ड देनेवाला है॥211॥

زُيِّنَ لِلَّذِيْنَ كَفَرُوا الْحَيٰوۃُ الدُّنْيَا وَيَسْخَرُوْنَ مِنَ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا۝۰ۘ وَالَّذِيْنَ اتَّقَوْا فَوْقَہُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَۃِ۝۰ۭ وَاللہُ يَرْزُقُ مَنْ يَّشَاۗءُ بِغَيْرِ حِسَابٍ۝۲۱۲

इनकार करनेवाले सांसारिक जीवन पर रीझे हुए है और ईमानवालों का उपहास करते है, जबकि जो लोग अल्लाह का डर रखते है, वे क़ियामत के दिन उनसे ऊपर होंगे। अल्लाह जिसे चाहता है बेहिसाब देता है॥212॥

كَانَ النَّاسُ اُمَّۃً وَّاحِدَۃً۝۰ۣ فَبَعَثَ اللہُ النَّبِيّٖنَ مُبَشِّرِيْنَ وَمُنْذِرِيْنَ۝۰۠ وَاَنْزَلَ مَعَہُمُ الْكِتٰبَ بِالْحَقِّ لِــيَحْكُمَ بَيْنَ النَّاسِ فِـيْمَا اخْتَلَفُوْا فِيْہِ۝۰ۭ وَمَا اخْتَلَفَ فِيْہِ اِلَّا الَّذِيْنَ اُوْتُوْہُ مِنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَتْہُمُ الْبَيِّنٰتُ بَغْيًۢا بَيْنَہُمْ۝۰ۚ فَہَدَى اللہُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لِمَا اخْتَلَفُوْا فِيْہِ مِنَ الْحَقِّ بِـاِذْنِہٖ۝۰ۭ وَاللہُ يَہْدِيْ مَنْ يَّشَاۗءُ اِلٰى صِرَاطٍ مُّسْتَـقِيْمٍ۝۲۱۳

सारे मनुष्य एक ही समुदाय थे (उन्होंने विभेद किया) तो अल्लाह ने नबियों को भेजा, जो शुभ-सूचना देनेवाले और डरानवाले थे; और उनके साथ हक़ पर आधारित किताब उतारी, ताकि लोगों में उन बातों का, जिनमें वे विभेद कर रहे है, फ़ैसला कर दे। इसमें विभेद तो बस उन्हीं लोगों ने, जिन्हें वह मिली थी, परस्पर ज़्यादती करने के लिए इसके पश्चात किया, जबकि खुली निशानियाँ उनके पास आ चुकी थी। अतः ईमानवालों का अल्लाह ने अपनी अनूज्ञा से उस सत्य के विषय में मार्गदर्शन किया, जिसमें उन्होंने विभेद किया था। अल्लाह जिसे चाहता है, सीधे मार्ग पर चलाता है॥213॥

اَمْ حَسِبْتُمْ اَنْ تَدْخُلُوا الْجَنَّۃَ وَلَمَّا يَاْتِكُمْ مَّثَلُ الَّذِيْنَ خَلَوْا مِنْ قَبْلِكُمْ۝۰ۭ مَسَّتْہُمُ الْبَاْسَاۗءُ وَالضَّرَّاۗءُ وَزُلْزِلُوْا حَتّٰى يَقُوْلَ الرَّسُوْلُ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مَعَہٗ مَتٰى نَصْرُ اللہِ۝۰ۭ اَلَآ اِنَّ نَصْرَ اللہِ قَرِيْبٌ۝۲۱۴

क्या (तुम सीधे रास्तेत नर जमे रहोगे या) तुमने यह समझ रखा है कि जन्नत में प्रवेश पा जाओगे, जबकि अभी तुम पर वह सब कुछ नहीं बीता है जो तुमसे पहले के लोगों पर बीत चुका? उनपर तंगियाँ और तकलीफ़े आई और उन्हें हिला मारा गया यहाँ तक कि रसूल और उनके साथ के ईमानवाले भी बोल उठे कि अल्लाह की सहायता कब आएगी? जान लो! अल्लाह की सहायता निकट है॥214॥

يَسْــَٔـلُوْنَكَ مَاذَا يُنْفِقُوْنَ۝۰ۥۭ قُلْ مَآ اَنْفَقْتُمْ مِّنْ خَيْرٍ فَلِلْوَالِدَيْنِ وَالْاَقْرَبِيْنَ وَالْيَتٰمٰى وَالْمَسٰكِيْنِ وَابْنِ السَّبِيْلِ۝۰ۭ وَمَا تَفْعَلُوْا مِنْ خَيْرٍ فَاِنَّ اللہَ بِہٖ عَلِيْمٌ۝۲۱۵

वे तुमसे पूछते है, "कितना ख़र्च करें?" कहो, "(पहले यह समझ लो कि) जो माल भी तुमने ख़र्च किया है, वह तो माँ-बाप, नातेदारों और अनाथों, और मुहताजों और मुसाफ़िरों के लिए ख़र्च हुआ है। और जो भलाई भी तुम करो, निस्संदेह अल्लाह उसे भली-भाँति जान लेगा।॥215॥

كُتِبَ عَلَيْكُمُ الْقِتَالُ وَھُوَكُرْہٌ لَّكُمْ۝۰ۚ وَعَسٰٓى اَنْ تَكْرَھُوْا شَـيْـــًٔـا وَّھُوَخَيْرٌ لَّكُمْ۝۰ۚ وَعَسٰٓى اَنْ تُحِبُّوْا شَـيْـــــًٔـا وَّھُوَشَرٌّ لَّكُمْ۝۰ۭ وَاللہُ يَعْلَمُ وَاَنْتُمْ لَا تَعْلَمُوْنَ۝۲۱۶ۧ

तुम पर युद्ध अनिवार्य किया गया और वह तुम्हें अप्रिय है, और बहुत सम्भव है कि कोई चीज़ तुम्हें अप्रिय हो और वह तुम्हारे लिए अच्छी हो। और बहुत सम्भव है कि कोई चीज़ तुम्हें प्रिय हो और वह तुम्हारे लिए बुरी हो। और जानता अल्लाह है, और तुम नहीं जानते।"॥216॥

يَسْــَٔـلُوْنَكَ عَنِ الشَّہْرِ الْحَرَامِ قِتَالٍ فِيْہِ۝۰ۭ قُلْ قِتَالٌ فِيْہِ كَبِيْرٌ۝۰ۭ وَصَدٌّ عَنْ سَبِيْلِ اللہِ وَكُفْرٌۢ بِہٖ وَالْمَسْجِدِ الْحَرَامِ۝۰ۤ وَاِخْرَاجُ اَھْلِہٖ مِنْہُ اَكْبَرُ عِنْدَ اللہِ۝۰ۚ وَالْفِتْنَۃُ اَكْبَرُ مِنَ الْقَتْلِ۝۰ۭ وَلَا يَزَالُوْنَ يُقَاتِلُوْنَكُمْ حَتّٰى يَرُدُّوْكُمْ عَنْ دِيْنِكُمْ اِنِ اسْتَطَاعُوْا۝۰ۭ وَمَنْ يَّرْتَدِدْ مِنْكُمْ عَنْ دِيْنِہٖ فَيَمُتْ وَھُوَكَافِرٌ فَاُولٰۗىِٕكَ حَبِطَتْ اَعْمَالُہُمْ فِي الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَۃِ۝۰ۚ وَاُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ۝۰ۚ ھُمْ فِيْہَا خٰلِدُوْنَ۝۲۱۷

वे तुमसे आदरणीय महीने में युद्ध के विषय में पूछते है। कहो, "उसमें लड़ना बड़ी गम्भीर बात है, परन्तु अल्लाह के मार्ग से रोकना, उसके साथ अविश्वातस करना, मस्जिदे हराम (काबा) से रोकना और उसके लोगों को उससे निकालना, अल्लाह की द्रष्टि में इससे भी अधिक गम्भीर है और फ़ितना (उत्पीड़न), रक्तपात से भी बुरा है।" और उसका बस चले तो वे तो तुमसे बराबर लड़ते रहे, ताकि तुम्हें तुम्हारे दीन (धर्म) से फेर दें। और तुममे से जो कोई अपने दीन से फिर जाए और अविश्वासी होकर मरे, तो ऐसे ही लोग है जिनके कर्म दुनिया और आख़िरत में वबाल और आपदा है, और वही आग (जहन्नम) में पड़नेवाले है, वे उसी में सदैव रहेंगे॥217॥

اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَالَّذِيْنَ ھَاجَرُوْا وَجٰہَدُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللہِ۝۰ۙ اُولٰۗىِٕكَ يَرْجُوْنَ رَحْمَتَ اللہِ۝۰ۭ وَاللہُ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ۝۲۱۸

रहे वे लोग जो ईमान लाए और जिन्होंने हिजरत की और अल्लाह के मार्ग में जिहाद किया, वहीं अल्लाह की दयालुता की आशा रखते है। निस्संदेह अल्लाह अत्यन्त क्षमाशील, दयावान है॥218॥

۞ يَسْــَٔـلُوْنَكَ عَنِ الْخَــمْرِ وَالْمَيْسِرِ۝۰ۭ قُلْ فِيْہِمَآ اِثْمٌ كَبِيْرٌ وَّمَنَافِعُ لِلنَّاسِ۝۰ۡوَاِثْـمُہُمَآ اَكْبَرُ مِنْ نَّفْعِہِمَا۝۰ۭ وَيَسْــَٔـلُوْنَكَ مَاذَا يُنْفِقُوْنَ۝۰ۥۭ قُلِ الْعَفْوَ۝۰ۭ كَذٰلِكَ يُـبَيِّنُ اللہُ لَكُمُ الْاٰيٰتِ لَعَلَّكُمْ تَتَفَكَّرُوْنَ۝۲۱۹ۙ

तुमसे मदिरा और जुए के विषय में पूछते है। कहो, "उन दोनों चीज़ों में बड़ा गुनाह है, यद्यपि लोगों के लिए कुछ फ़ायदे भी है, परन्तु उनका गुनाह उनके फ़ायदे से कहीं बढकर है।" और वे तुमसे पूछते है, "कितना ख़र्च करें?" कहो, "जो आवश्यकता से अधिक हो।" इस प्रकार अल्लाह दुनिया और आख़िरत के विषय में तुम्हारे लिए अपनी आयते खोल-खोलकर बयान करता है, ताकि तुम सोच-विचार करो। ॥219॥

فِى الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَۃِ۝۰ۭ وَيَسْــَٔـلُوْنَكَ عَنِ الْيَتٰمٰي۝۰ۭ قُلْ اِصْلَاحٌ لَّھُمْ خَيْرٌ۝۰ۭ وَاِنْ تُخَالِطُوْھُمْ فَاِخْوَانُكُمْ۝۰ۭ وَاللہُ يَعْلَمُ الْمُفْسِدَ مِنَ الْمُصْلِحِ۝۰ۭ وَلَوْ شَاۗءَ اللہُ لَاَعْنَتَكُمْ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ۝۲۲۰

और वे तुमसे अनाथों के विषय में पूछते है। कहो, "उनके सुधार की जो रीति अपनाई जाए अच्छी है। और यदि तुम उन्हें अपने साथ सम्मिलित कर लो तो वे तुम्हारे भाई-बन्धु ही हैं। और अल्लाह बिगाड़ पैदा करनेवाले को बनाव पैदा करनेवाले से अलग पहचानता है। और यदि अल्लाह चाहता तो तुमको ज़हमत (कठिनाई) में डाल देता। निस्संदेह अल्लाह प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है।"॥220॥

وَلَا تَنْكِحُوا الْمُشْرِكٰتِ حَتّٰى يُؤْمِنَّ۝۰ۭ وَلَاَمَۃٌ مُّؤْمِنَۃٌ خَيْرٌ مِّنْ مُّشْرِكَۃٍ وَّلَوْ اَعْجَبَـتْكُمْ۝۰ۚ وَلَا تُنْكِحُوا الْمُشْرِكِيْنَ حَتّٰى يُؤْمِنُوْا۝۰ۭ وَلَعَبْدٌ مُّؤْمِنٌ خَيْرٌ مِّنْ مُّشْرِكٍ وَّلَوْ اَعْجَبَكُمْ۝۰ۭ اُولٰۗىِٕكَ يَدْعُوْنَ اِلَى النَّارِ۝۰ۚۖ وَاللہُ يَدْعُوْٓا اِلَى الْجَنَّۃِ وَالْمَغْفِرَۃِ بِـاِذْنِہٖ۝۰ۚ وَيُبَيِّنُ اٰيٰتِہٖ لِلنَّاسِ لَعَلَّہُمْ يَــتَذَكَّرُوْنَ۝۲۲۱ۧ

और मुशरिक (बहुदेववादी) स्त्रियों से विवाह न करो जब तक कि वे ईमान न लाएँ। एक ईमानदारी बांदी (दासी), मुशरिक स्त्री से कहीं उत्तम है; चाहे वह तुम्हें कितनी ही अच्छी क्यों न लगे। और न (ईमानवाली स्त्रियों का) मुशरिक पुरुषों से विवाह करो, जब तक कि वे ईमान न लाएँ। एक ईमानवाला गुलाम आज़ाद मुशरिक से कहीं उत्तम है, चाहे वह तुम्हें कितना ही अच्छा क्यों न लगे। ऐसे लोग आग (जहन्नम) की ओर बुलाते है और अल्लाह अपनी अनुज्ञा से जन्नत और क्षमा की ओर बुलाता है। और वह अपनी आयतें लोगों के सामने खोल-खोलकर बयान करता है, ताकि वे चेतें॥221॥

وَيَسْــَٔـلُوْنَكَ عَنِ الْمَحِيْضِ۝۰ۭ قُلْ ھُوَاَذًى۝۰ۙ فَاعْتَزِلُوا النِّسَاۗءَ فِي الْمَحِيْضِ۝۰ۙ وَلَا تَقْرَبُوْھُنَّ حَتّٰى يَطْہُرْنَ۝۰ۚ فَاِذَا تَطَہَّرْنَ فَاْتُوْھُنَّ مِنْ حَيْثُ اَمَرَكُمُ اللہُ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ يُحِبُّ التَّـوَّابِيْنَ وَيُحِبُّ الْمُتَطَہِّرِيْنَ۝۲۲۲

और वे तुमसे मासिक-धर्म के विषय में पूछते है। कहो, "वह एक तकलीफ़ और गन्दगी की चीज़ है। अतः मासिक-धर्म के दिनों में स्त्रियों से अलग रहो और उनके पास न जाओ, जबतक कि वे पाक-साफ़ न हो जाएँ। फिर जब वे भली-भाँति पाक-साफ़ हो जाए, तो जिस प्रकार अल्लाह ने तुम्हें बताया है, उनके पास आओ। निस्संदेह अल्लाह बहुत तौबा करनेवालों को पसन्द करता है और वह उन्हें पसन्द करता है जो स्वच्छता को पसन्द करते है॥222॥

نِسَاۗؤُكُمْ حَرْثٌ لَّكُمْ۝۰۠ فَاْتُوْا حَرْثَكُمْ اَنّٰى شِئْتُمْ۝۰ۡوَقَدِّمُوْا لِاَنْفُسِكُمْ۝۰ۭ وَاتَّقُوا اللہَ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّكُمْ مُّلٰقُوْہُ۝۰ۭ وَبَشِّرِ الْمُؤْمِنِيْنَ۝۲۲۳

तुम्हारी स्त्रियों तुम्हारी खेती है। अतः जिस प्रकार चाहो तुम अपनी खेती में आओ और अपने लिए आगे भेजो; और अल्लाह से डरते रहो; भली-भाँति जान ले कि तुम्हें उससे मिलना है; और ईमान लानेवालों को शुभ-सूचना दे दो॥223॥

وَلَا تَجْعَلُوا اللہَ عُرْضَۃً لِّاَيْمَانِكُمْ اَنْ تَبَرُّوْا وَتَـتَّقُوْا وَتُصْلِحُوْا بَيْنَ النَّاسِ۝۰ۭ وَاللہُ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ۝۲۲۴

अपने नेक और धर्मपरायण होने और लोगों के मध्य सुधारक होने के सिलसिले में अपनी क़समों के द्वारा अल्लाह को आड़ और निशाना न बनाओ कि इन कामों को छोड़ दो। अल्लाह सब कुछ सुनता, जानता है॥224॥

لَا يُؤَاخِذُكُمُ اللہُ بِاللَّغْوِ فِيْٓ اَيْمَانِكُمْ وَلٰكِنْ يُّؤَاخِذُكُمْ بِمَا كَسَبَتْ قُلُوْبُكُمْ۝۰ۭ وَاللہُ غَفُوْرٌ حَلِيْمٌ۝۲۲۵

अल्लाह तुम्हें तुम्हारी ऐसी कसमों पर नहीं पकड़ेगा जो यूँ ही मुँह से निकल गई हो, लेकिन उन क़समों पर वह तुम्हें अवश्य पकड़ेगा जो तुम्हारे दिल के इरादे का नतीजा हों। अल्लाह बहुत क्षमा करनेवाला, सहनशील है॥225॥

لِلَّذِيْنَ يُؤْلُوْنَ مِنْ نِّسَاۗىِٕہِمْ تَرَبُّصُ اَرْبَعَۃِ اَشْہُرٍ۝۰ۚ فَاِنْ فَاۗءُوْ فَاِنَّ اللہَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ۝۲۲۶

जो लोग अपनी स्त्रियों से अलग रहने की क़सम खा बैठें, उनके लिए चार महीने की प्रतिक्षा है। फिर यदि वे पलट आएँ, तो अल्लाह अत्यन्त क्षमाशील, दयावान है॥226॥

وَاِنْ عَزَمُوا الطَّلَاقَ فَاِنَّ اللہَ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ۝۲۲۷

और यदि वे तलाक़ ही की ठान लें, तो अल्लाह भी सुननेवाला भली-भाँति जाननेवाला है॥227॥

وَالْمُطَلَّقٰتُ يَتَرَبَّصْنَ بِاَنْفُسِہِنَّ ثَلٰثَۃَ قُرُوْۗءٍ۝۰ۭ وَلَا يَحِلُّ لَہُنَّ اَنْ يَّكْتُمْنَ مَا خَلَقَ اللہُ فِيْٓ اَرْحَامِہِنَّ اِنْ كُنَّ يُؤْمِنَّ بِاللہِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ۝۰ۭ وَبُعُوْلَــتُہُنَّ اَحَقُّ بِرَدِّھِنَّ فِيْ ذٰلِكَ اِنْ اَرَادُوْٓا اِصْلَاحًا۝۰ۭ وَلَہُنَّ مِثْلُ الَّذِيْ عَلَيْہِنَّ بِالْمَعْرُوْفِ۝۰۠ وَلِلرِّجَالِ عَلَيْہِنَّ دَرَجَۃٌ۝۰ۭ وَاللہُ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ۝۲۲۸ۧ

और तलाक़ पाई हुई स्त्रियाँ तीन हैज़ (मासिक-धर्म) गुज़रने तक अपने-आप को रोके रखे, और यदि वे अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान रखती है तो उनके लिए यह वैध न होगा कि अल्लाह ने उनके गर्भाशयों में जो कुछ पैदा किया हो उसे छिपाएँ। इस बीच उनके पति, यदि सम्बन्धों को ठीक कर लेने का इरादा रखते हों, तो वे उन्हें लौटा लेने के ज़्यादा हक़दार है। और उन पत्नियों के भी सामान्य नियम के अनुसार वैसे ही अधिकार हैं, जैसी उन पर ज़िम्मेदारियाँ डाली गई है। और पतियों को उनपर एक दर्जा प्राप्त है। अल्लाह अत्यन्त प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है॥228॥

اَلطَّلَاقُ مَرَّتٰنِ۝۰۠ فَاِمْسَاكٌۢ بِمَعْرُوْفٍ اَوْ تَسْرِيْحٌۢ بِـاِحْسَانٍ۝۰ۭ وَلَا يَحِلُّ لَكُمْ اَنْ تَاْخُذُوْا مِمَّآ اٰتَيْتُمُوْھُنَّ شَـيْـــًٔـا اِلَّآ اَنْ يَّخَافَآ اَلَّا يُقِيْمَا حُدُوْدَ اللہِ۝۰ۭ فَاِنْ خِفْتُمْ اَلَّا يُقِيْمَا حُدُوْدَ اللہِ۝۰ۙ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْھِمَا فِـيْمَا افْتَدَتْ بِہٖ۝۰ۭ تِلْكَ حُدُوْدُ اللہِ فَلَا تَعْتَدُوْھَا۝۰ۚ وَمَنْ يَّتَعَدَّ حُدُوْدَ اللہِ فَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الظّٰلِمُوْنَ۝۲۲۹

तलाक़ दो बार है। फिर सामान्य नियम के अनुसार (स्त्री को) रोक लिया जाए या भले तरीक़े से विदा कर दिया जाए। और तुम्हारे लिए वैध नहीं है कि जो कुछ तुम उन्हें दे चुके हो, उसमें से कुछ ले लो, सिवाय इस स्थिति के कि दोनों को डर हो कि अल्लाह की (निर्धारित) सीमाओं पर क़ायम न रह सकेंगे तो यदि तुमको यह डर हो कि वे अल्लाह की सीमाओ पर क़ायम न रहेंगे तो स्त्री जो कुछ देकर छुटकारा प्राप्त करना चाहे उसमें उन दोनो के लिए कोई गुनाह नहीं। ये अल्लाह की सीमाएँ है। अतः इनका उल्लंघन न करो। और जो कोई अल्लाह की सीमाओं का उल्लंघन करे तो ऐसे लोग अत्याचारी है॥229॥

فَاِنْ طَلَّقَھَا فَلَا تَحِلُّ لَہٗ مِنْۢ بَعْدُ حَتّٰي تَنْكِحَ زَوْجًا غَيْرَہٗ۝۰ۭ فَاِنْ طَلَّقَھَا فَلَا جُنَاحَ عَلَيْھِمَآ اَنْ يَّتَرَاجَعَآ اِنْ ظَنَّآ اَنْ يُّقِيْمَا حُدُوْدَ اللہِ۝۰ۭ وَتِلْكَ حُدُوْدُ اللہِ يُبَيِّنُھَا لِقَوْمٍ يَّعْلَمُوْنَ۝۲۳۰

(दो तलाक़ो के पश्चात) फिर यदि वह उसे तलाक़ दे दे, तो इसके पश्चात वह उसके लिए वैध न होगी, जब तक कि वह उसके अतिरिक्त किसी दूसरे पति से निकाह न कर ले। अतः यदि वह उसे तलाक़ दे दे तो फिर उन दोनों के लिए एक-दूसरे को पलट आने में कोई गुनाह न होगा, यदि वे समझते हो कि अल्लाह की सीमाओं पर क़ायम रह सकते है। और ये अल्लाह कि निर्धारित की हुई सीमाएँ है, जिन्हें वह उन लोगों के लिए बयान कर रहा है जो जानना चाहते हो॥230॥

وَاِذَا طَلَّقْتُمُ النِّسَاۗءَ فَبَلَغْنَ اَجَلَھُنَّ فَاَمْسِكُوْھُنَّ بِمَعْرُوْفٍ اَوْ سَرِّحُوْھُنَّ بِمَعْرُوْفٍ۝۰۠ وَلَا تُمْسِكُوْھُنَّ ضِرَارًا لِّتَعْتَدُوْا۝۰ۚ وَمَنْ يَّفْعَلْ ذٰلِكَ فَقَدْ ظَلَمَ نَفْسَہٗ۝۰ۭ وَلَا تَتَّخِذُوْٓا اٰيٰتِ اللہِ ھُزُوًا۝۰ۡ وَّاذْكُرُوْا نِعْمَتَ اللہِ عَلَيْكُمْ وَمَآ اَنْزَلَ عَلَيْكُمْ مِّنَ الْكِتٰبِ وَالْحِكْمَۃِ يَعِظُكُمْ بِہٖ۝۰ۭ وَاتَّقُوا اللہَ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللہَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمٌ۝۲۳۱ۧ

और यदि जब तुम स्त्रियों को तलाक़ दे दो और वे अपनी निश्चित अवधि (इद्दत) को पहुँच जाएँ, जो सामान्य नियम के अनुसार उन्हें रोक लो या सामान्य नियम के अनुसार उन्हें विदा कर दो। और तुम उन्हें नुक़सान पहुँचाने के ध्येय से न रोको कि ज़्यादती करो। और जो ऐसा करेगा, तो उसने स्वयं अपने ही ऊपर ज़ुल्म किया। और अल्लाह की आयतों को परिहास का विषय न बनाओ, और अल्लाह की कृपा जो तुम पर हुई है उसे याद रखो और उस किताब और तत्वदर्शिता (हिकमत) को याद रखो जो उसने तुम पर उतारी है, जिसके द्वारा वह तुम्हें नसीहत करता है। और अल्लाह का डर रखो और भली-भाँति जान लो कि अल्लाह हर चीज को जाननेवाला है॥231॥

وَاِذَا طَلَّقْتُمُ النِّسَاۗءَ فَبَلَغْنَ اَجَلَہُنَّ فَلَا تَعْضُلُوْھُنَّ اَنْ يَّنْكِحْنَ اَزْوَاجَہُنَّ اِذَا تَرَاضَوْا بَيْنَہُمْ بِالْمَعْرُوْفِ۝۰ۭ ذٰلِكَ يُوْعَظُ بِہٖ مَنْ كَانَ مِنْكُمْ يُؤْمِنُ بِاللہِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ۝۰ۭ ذٰلِكُمْ اَزْكٰى لَكُمْ وَاَطْہَرُ۝۰ۭ وَاللہُ يَعْلَمُ وَاَنْتُمْ لَا تَعْلَمُوْنَ۝۲۳۲

और जब तुम स्त्रियों को तलाक़ दे दो और वे अपनी निर्धारित अवधि (इद्दत) को पहुँच जाएँ, तो उन्हें अपने होनेवाले दूसरे पतियों से विवाह करने से न रोको, जबकि वे सामान्य नियम के अनुसार परस्पर रज़ामन्दी से मामला तय करें। यह नसीहत तुममें से उसको की जा रही है जो अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान रखता है। यही तुम्हारे लिए ज़्यादा बरकतवाला और सुथरा तरीक़ा है। और अल्लाह जानता है, तुम नहीं जानते॥232॥

۞ وَالْوَالِدٰتُ يُرْضِعْنَ اَوْلَادَھُنَّ حَوْلَيْنِ كَامِلَيْنِ لِمَنْ اَرَادَ اَنْ يُّـتِمَّ الرَّضَاعَۃَ۝۰ۭ وَعَلَي الْمَوْلُوْدِ لَہٗ رِزْقُہُنَّ وَكِسْوَتُہُنَّ بِالْمَعْرُوْفِ۝۰ۭ لَا تُكَلَّفُ نَفْسٌ اِلَّا وُسْعَہَا۝۰ۚ لَا تُضَاۗرَّ وَالِدَۃٌۢ بِوَلَدِھَا وَلَا مَوْلُوْدٌ لَّہٗ بِوَلَدِہٖ۝۰ۤ وَعَلَي الْوَارِثِ مِثْلُ ذٰلِكَ۝۰ۚ فَاِنْ اَرَادَا فِصَالًا عَنْ تَرَاضٍ مِّنْہُمَا وَتَشَاوُرٍ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْہِمَا۝۰ۭ وَاِنْ اَرَدْتُّمْ اَنْ تَسْتَرْضِعُوْٓا اَوْلَادَكُمْ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ اِذَا سَلَّمْتُمْ مَّآ اٰتَيْتُمْ بِالْمَعْرُوْفِ۝۰ۭ وَاتَّقُوا اللہَ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللہَ بِمَا تَعْمَلُوْنَ بَصِيْرٌ۝۲۳۳

और जो कोई पूरी अवधि तक (बच्चे को) दूध पिलवाना चाहे, तो माएँ अपने बच्चों को पूरे दो वर्ष तक दूध पिलाएँ। और वह जिसका बच्चा है, सामान्य नियम के अनुसार उनके खाने और उनके कपड़े का ज़िम्मेदार है। किसी पर बस उसकी अपनी समाई भर ही ज़िम्मेदारी है, न तो कोई माँ अपने बच्चे के कारण (बच्चे के बाप को) नुक़सान पहुँचाए और न बाप अपने बच्चे के कारण (बच्चे की माँ को) नुक़सान पहुँचाए। और इसी प्रकार की ज़िम्मेदारी उसके वारिस पर भी आती है। फिर यदि दोनों पारस्परिक स्वेच्छा और परामर्श से दूध छुड़ाना चाहें तो उनपर कोई गुनाह नहीं। और यदि तुम अपनी संतान को किसी अन्य स्त्री से दूध पिलवाना चाहो तो इसमें भी तुम पर कोई गुनाह नहीं, जबकि तुमने जो कुछ बदले में देने का वादा किया हो, सामान्य नियम के अनुसार उसे चुका दो। और अल्लाह का डर रखो और भली-भाँति जान लो कि जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह उसे देख रहा है॥233॥

وَالَّذِيْنَ يُتَوَفَّوْنَ مِنْكُمْ وَيَذَرُوْنَ اَزْوَاجًا يَّتَرَبَّصْنَ بِاَنْفُسِہِنَّ اَرْبَعَۃَ اَشْہُرٍ وَّعَشْرًا۝۰ۚ فَاِذَا بَلَغْنَ اَجَلَہُنَّ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ فِيْمَا فَعَلْنَ فِيْٓ اَنْفُسِہِنَّ بِالْمَعْرُوْفِ۝۰ۭ وَاللہُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ خَبِيْرٌ۝۲۳۴

और तुममें से जो लोग मर जाएँ और अपने पीछे पत्नियों छोड़ जाएँ, तो वे पत्नियों अपने-आपको चार महीने और दस दिन तक रोके रखें। फिर जब वे अपनी निर्धारित अवधि (इद्दत) को पहुँच जाएँ, तो सामान्य नियम के अनुसार वे अपने लिए जो कुछ करें, उसमें तुमपर कोई गुनाह नहीं। जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह उसकी ख़बर रखता है॥234॥

وَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ فِـيْمَا عَرَّضْتُمْ بِہٖ مِنْ خِطْبَۃِ النِّسَاۗءِ اَوْ اَكْنَنْتُمْ فِيْٓ اَنْفُسِكُمْ۝۰ۭ عَلِمَ اللہُ اَنَّكُمْ سَتَذْكُرُوْنَہُنَّ وَلٰكِنْ لَّا تُوَاعِدُوْھُنَّ سِرًّا اِلَّآ اَنْ تَقُوْلُوْا قَوْلًا مَّعْرُوْفًا۝۰ۥۭ وَلَا تَعْزِمُوْا عُقْدَۃَ النِّكَاحِ حَتّٰي يَبْلُغَ الْكِتٰبُ اَجَلَہٗ۝۰ۭ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللہَ يَعْلَمُ مَا فِىْٓ اَنْفُسِكُمْ فَاحْذَرُوْہُ۝۰ۚ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللہَ غَفُوْرٌ حَلِيْمٌ۝۲۳۵ۧ

और इसमें भी तुम पर कोई गुनाह नहीं जो तुम उन औरतों को विवाह के सन्देश सांकेतिक रूप से दो या अपने मन में छिपाए रखो। अल्लाह जानता है कि तुम उन्हें याद करोगे, परन्तु छिपकर उन्हें वचन न देना, सिवाय इसके कि सामान्य नियम के अनुसार कोई बात कह दो। और जब तक निर्धारित अवधि (इद्दत) पूरी न हो जाए, विवाह का नाता जोड़ने का निश्चय न करो। जान रखो कि अल्लाह तुम्हारे मन की बात भी जानता है। अतः उससे सावधान रहो और अल्लाह अत्यन्त क्षमा करनेवाला, सहनशील है॥235॥

لَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ اِنْ طَلَّقْتُمُ النِّسَاۗءَ مَا لَمْ تَمَسُّوْھُنَّ اَوْ تَفْرِضُوْا لَھُنَّ فَرِيْضَۃً۝۰ۚۖ وَّمَتِّعُوْھُنَّ ۝۰ۚ عَلَي الْمُوْسِعِ قَدَرُہٗ وَعَلَي الْمُقْتِرِ قَدَرُہٗ ۝۰ۚ مَتَاعًۢا بِالْمَعْرُوْفِ۝۰ۚ حَقًّا عَلَي الْمُحْسِـنِيْنَ۝۲۳۶

यदि तुम स्त्रियों को इस स्थिति मे तलाक़ दे दो कि यह नौबत पेश न आई हो कि तुमने उन्हें हाथ लगाया हो और उनका कुछ हक़ (मह्रर) निश्चित किया हो, तो तुमपर कोई भार नहीं। हाँ, सामान्य नियम के अनुसार उन्हें कुछ ख़र्च दो - समाई रखनेवाले पर उसकी अपनी हैसियत के अनुसार और तंगदस्त पर उसकी अपनी हैसियत के अनुसार अनिवार्य है - यह अच्छे लोगों पर एक हक़ है॥236॥

وَاِنْ طَلَّقْتُمُوْھُنَّ مِنْ قَبْلِ اَنْ تَمَسُّوْھُنَّ وَقَدْ فَرَضْتُمْ لَھُنَّ فَرِيْضَۃً فَنِصْفُ مَا فَرَضْتُمْ اِلَّآ اَنْ يَّعْفُوْنَ اَوْ يَعْفُوَا الَّذِيْ بِيَدِہٖ عُقْدَۃُ النِّكَاحِ۝۰ۭ وَاَنْ تَعْفُوْٓا اَقْرَبُ لِلتَّقْوٰى۝۰ۭ وَلَا تَنْسَوُا الْفَضْلَ بَيْنَكُمْ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ بِمَا تَعْمَلُوْنَ بَصِيْرٌ۝۲۳۷

और यदि तुम उन्हें हाथ लगाने से पहले तलाक़ दे दो, किन्तु उसका मह्रर निश्चित कर चुके हो, तो जो मह्रर तुमने निश्चित किया है उसका आधा अदा करना होगा, यह और बात है कि वे स्वयं छोड़ दे या पुरुष जिसके हाथ में विवाह का सूत्र है, वह नर्मी से काम ले ( और मह्रर पूरा अदा कर दे) । और यह कि तुम नर्मी से काम लो तो यह परहेज़गारी से ज़्यादा क़रीब है और तुम एक-दूसरे को हक़ से बढ़कर देना न भूलो। निश्चय ही अल्लाह उसे देख रहा है, जो तुम करते हो॥237॥

حٰفِظُوْا عَلَي الصَّلَوٰتِ وَالصَّلٰوۃِ الْوُسْطٰى۝۰ۤ وَقُوْمُوْا لِلہِ قٰنِتِيْنَ۝۲۳۸

सदैव नमाज़ो की और अच्छी नमाज़ों की पाबन्दी करो, और अल्लाह के आगे पूरे विनीत और शान्तभाव से खड़े हुआ करो॥238॥

فَاِنْ خِفْتُمْ فَرِجَالًا اَوْ رُكْبَانًا۝۰ۚ فَاِذَآ اَمِنْتُمْ فَاذْكُرُوا اللہَ كَـمَا عَلَّمَكُمْ مَّا لَمْ تَكُوْنُوْا تَعْلَمُوْنَ۝۲۳۹

फिर यदि तुम्हें (शत्रु आदि का) भय हो, तो पैदल या सवार जिस तरह सम्भव हो नमाज़ पढ़ लो। फिर जब निश्चिन्त हो तो अल्लाह को उस प्रकार याद करो जैसा कि उसने तुम्हें सिखाया है, जिसे तुम नहीं जानते थे॥239॥

وَالَّذِيْنَ يُتَوَفَّوْنَ مِنْكُمْ وَيَذَرُوْنَ اَزْوَاجًا۝۰ۚۖ وَّصِيَّۃً لِّاَزْوَاجِہِمْ مَّتَاعًا اِلَى الْحَوْلِ غَيْرَ اِخْرَاجٍ۝۰ۚ فَاِنْ خَرَجْنَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ فِيْ مَا فَعَلْنَ فِيْٓ اَنْفُسِہِنَّ مِنْ مَّعْرُوْفٍ۝۰ۭ وَاللہُ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ۝۲۴۰

और तुममें से जिन लोगों की मृत्यु हो जाए और अपने पीछे पत्नियों छोड़ जाए, अर्थात अपनी पत्नियों के हक़ में यह वसीयत छोड़ जाए कि घर से निकाले बिना एक वर्ष तक उन्हें ख़र्च दिया जाए, तो यदि वे निकल जाएँ तो अपने लिए सामान्य नियम के अनुसार वे जो कुछ भी करें उसमें तुम्हारे लिए कोई दोष नहीं। अल्लाह अत्यन्त प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है॥240॥

وَلِلْمُطَلَّقٰتِ مَتَاعٌۢ بِالْمَعْرُوْفِ۝۰ۭ حَقًّا عَلَي الْمُتَّقِيْنَ۝۲۴۱

और तलाक़ पाई हुई स्त्रियों को सामान्य नियम के अनुसार (इद्दत की अवधि में ) ख़र्च भी मिलना चाहिए। यह डर रखनेवालो पर एक हक़ है॥241॥

كَذٰلِكَ يُبَيِّنُ اللہُ لَكُمْ اٰيٰتِہٖ لَعَلَّكُمْ تَعْقِلُوْنَ۝۲۴۲ۧ

इस प्रकार अल्लाह तुम्हारे लिए अपनी आयतें खोलकर बयान करता है, ताकि तुम समझ से काम लो॥242॥

۞ اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ خَرَجُوْا مِنْ دِيَارِھِمْ وَھُمْ اُلُوْفٌ حَذَرَ الْمَوْتِ۝۰۠ فَقَالَ لَہُمُ اللہُ مُوْتُوْا۝۰ۣ ثُمَّ اَحْيَاھُمْ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ لَذُوْ فَضْلٍ عَلَي النَّاسِ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَ النَّاسِ لَا يَشْكُرُوْنَ۝۲۴۳

क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जो हज़ारों की संख्या में होने पर भी मृत्यु के भय से अपने घर-बार छोड़कर निकले थे? तो अल्लाह ने उनसे कहा, "मृत प्राय हो जाओ तुम।" फिर उसने उन्हें जीवन प्रदान किया। अल्लाह तो लोगों के लिए उदार अनुग्राही है, किन्तु अधिकतर लोग कृतज्ञता नहीं दिखलाते॥243॥

وَقَاتِلُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللہِ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللہَ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ۝۲۴۴

और अल्लाह के मार्ग में युद्ध करो और जान लो कि अल्लाह सब कुछ सुननेवाला, जाननेवाले है॥244॥

مَنْ ذَا الَّذِيْ يُقْرِضُ اللہَ قَرْضًا حَسَـنًا فَيُضٰعِفَہٗ لَہٗٓ اَضْعَافًا كَثِيْرَۃً۝۰ۭ وَاللہُ يَـقْبِضُ وَيَبْصُۜطُ۝۰۠ وَاِلَيْہِ تُرْجَعُوْنَ۝۲۴۵

कौन है जो अल्लाह को अच्छा ऋण दे कि अल्लाह उसे उसके लिए कई गुना बढ़ा दे? और अल्लाह ही तंगी भी देता है और कुशादगी भी प्रदान करता है, और उसी की ओर तुम्हें लौटना है॥245॥

اَلَمْ تَرَ اِلَى الْمَلَاِ مِنْۢ بَنِىْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ مِنْۢ بَعْدِ مُوْسٰى۝۰ۘ اِذْ قَالُوْا لِنَبِىٍّ لَّہُمُ ابْعَثْ لَنَا مَلِكًا نُّقَاتِلْ فِيْ سَبِيْلِ اللہِ۝۰ۭ قَالَ ھَلْ عَسَيْتُمْ اِنْ كُتِبَ عَلَيْكُمُ الْقِتَالُ اَلَّا تُقَاتِلُوْا۝۰ۭ قَالُوْا وَمَا لَنَآ اَلَّا نُقَاتِلَ فِيْ سَبِيْلِ اللہِ وَقَدْ اُخْرِجْنَا مِنْ دِيَارِنَا وَاَبْنَاۗىِٕنَا۝۰ۭ فَلَمَّا كُتِبَ عَلَيْہِمُ الْقِتَالُ تَوَلَّوْا اِلَّا قَلِيْلًا مِّنْہُمْ۝۰ۭ وَاللہُ عَلِيْمٌۢ بِالظّٰلِـمِيْنَ۝۲۴۶

क्या तुमने मूसा के पश्चात इसराईल की सन्तान के सरदारों को नहीं देखा, जब उन्होंने अपने एक नबी से कहा, "हमारे लिए एक सम्राट नियुक्त कर दो ताकि हम अल्लाह के मार्ग में युद्ध करें?" उसने कहा, "यदि तुम्हें लड़ाई का आदेश दिया जाए तो क्या तुम्हारे बारे में यह सम्भावना नहीं है कि तुम न लड़ो?"  वे कहने लगे, "हम अल्लाह के मार्ग में क्यों न लड़े, जबकि हम अपने घरों से निकाल दिए गए है और अपने बाल-बच्चों से भी अलग कर दिए गए है?" - फिर जब उनपर युद्ध अनिवार्य कर दिया गया तो उनमें से थोड़े लोगों के सिवा सब फिर गए। और अल्लाह ज़ालिमों को भली-भाँति जानता है। -॥246॥

وَقَالَ لَہُمْ نَبِيُّہُمْ اِنَّ اللہَ قَدْ بَعَثَ لَكُمْ طَالُوْتَ مَلِكًا۝۰ۭ قَالُوْٓا اَنّٰى يَكُوْنُ لَہُ الْمُلْكُ عَلَيْنَا وَنَحْنُ اَحَقُّ بِالْمُلْكِ مِنْہُ وَلَمْ يُؤْتَ سَعَۃً مِّنَ الْمَالِ۝۰ۭ قَالَ اِنَّ اللہَ اصْطَفٰىہُ عَلَيْكُمْ وَزَادَہٗ بَسْطَۃً فِي الْعِلْمِ وَالْجِسْمِ۝۰ۭ وَاللہُ يُؤْتِيْ مُلْكَہٗ مَنْ يَّشَاۗءُ۝۰ۭ وَاللہُ وَاسِعٌ عَلِيْمٌ۝۲۴۷

उनके नबी ने उनसे कहा, "अल्लाह ने तुम्हारे लिए तालूत को सम्राट नियुक्त किया है।" बोले, "उसकी बादशाही हम पर कैसे हो सकती है, जबकि हम उसके मुक़ाबले में बादशाही के ज़्यादा हक़दार है और जबकि उसे माल की कुशादगी भी प्राप्त नहीं है?" उसने कहा, "अल्लाह ने तुम्हारे मुक़ाबले में उसको ही चुना है और उसे ज्ञान में और शारीरिक क्षमता में ज़्यादा कुशादगी प्रदान की है। अल्लाह जिसको चाहे अपना राज्य प्रदान करे। और अल्लाह बड़ी समाईवाला, सर्वज्ञ है।"॥247॥

وَقَالَ لَہُمْ نَبِيُّہُمْ اِنَّ اٰيَۃَ مُلْكِہٖٓ اَنْ يَّاْتِــيَكُمُ التَّابُوْتُ فِيْہِ سَكِيْنَۃٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ وَبَقِيَّۃٌ مِّمَّا تَرَكَ اٰلُ مُوْسٰى وَاٰلُ ھٰرُوْنَ تَحْمِلُہُ الْمَلٰۗىِٕكَۃُ۝۰ۭ اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيَۃً لَّكُمْ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ۝۲۴۸ۧ

उनके नबी ने उनसे कहा, "उसकी बादशाही की निशानी यह है कि वह संदूक तुम्हारे पास आ जाएगा, जिसमें तुम्हारे रब की ओर से सकीनत (प्रशान्ति) और मूसा के लोगों और हारून के लोगों की छोड़ी हुई यादगारें हैं, जिसको फ़रिश्ते उठाए हुए होंगे। यदि तुम ईमानवाले हो तो, निस्संदेह इसमें तुम्हारे लिए बड़ी निशानी है।"॥248॥

فَلَمَّا فَصَلَ طَالُوْتُ بِالْجُـنُوْدِ۝۰ۙ قَالَ اِنَّ اللہَ مُبْتَلِيْكُمْ بِنَہَرٍ۝۰ۚ فَمَنْ شَرِبَ مِنْہُ فَلَيْسَ مِنِّىْ۝۰ۚ وَمَنْ لَّمْ يَطْعَمْہُ فَاِنَّہٗ مِنِّىْٓ اِلَّا مَنِ اغْتَرَفَ غُرْفَۃًۢ بِيَدِہٖ۝۰ۚ فَشَرِبُوْا مِنْہُ اِلَّا قَلِيْلًا مِّنْہُمْ۝۰ۭ فَلَمَّا جَاوَزَہٗ ھُوَوَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مَعَہٗ۝۰ۙ قَالُوْا لَا طَاقَۃَ لَنَا الْيَوْمَ بِجَالُوْتَ وَجُنُوْدِہٖ۝۰ۭ قَالَ الَّذِيْنَ يَظُنُّوْنَ اَنَّہُمْ مُّلٰقُوا اللہِ۝۰ۙ كَمْ مِّنْ فِئَۃٍ قَلِيْلَۃٍ غَلَبَتْ فِئَۃً كَثِيْرَۃًۢ بِـاِذْنِ اللہِ۝۰ۭ وَاللہُ مَعَ الصّٰبِرِيْنَ۝۲۴۹

फिर जब तालूत सेनाएँ लेकर चला तो उनने कहा, "अल्लाह निश्चित रूप से एक नदी द्वारा तुम्हारी परीक्षा लेनेवाला है। तो जिसने उसका पानी पी लिया, वह मुझमें से नहीं है और जिसने उसको नहीं चखा, वही मुझमें से है। यह और बात है कि कोई अपने हाथ से एक चुल्लू भर ले ले।" फिर उनमें से थोड़े लोगों के सिवा सभी ने उसका पानी पी लिया, फिर जब तालूत और ईमानवाले जो उसके साथ थे नदी पार कर गए तो कहने लगे, "आज हममें जालूत और उसकी सेनाओं का मुक़ाबला करने की शक्ति नहीं हैं।" इस पर लोगों ने, जो समझते थे कि उन्हें अल्लाह से मिलना है, कहा, "कितनी ही बार एक छोटी-सी टुकड़ी ने अल्लाह की अनुज्ञा से एक बड़े गिरोह पर विजय पाई है। अल्लाह तो जमनेवालो के साथ है।"॥249॥

وَلَمَّا بَرَزُوْا لِجَالُوْتَ وَجُنُوْدِہٖ قَالُوْا رَبَّنَآ اَفْرِغْ عَلَيْنَا صَبْرًا وَّثَبِّتْ اَقْدَامَنَا وَانْصُرْنَا عَلَي الْقَوْمِ الْكٰفِرِيْنَ۝۲۵۰ۭ

और जब वे जालूत और उसकी सेनाओं के मुक़ाबले पर आए तो कहा, "ऐ हमारे रब! हमपर धैर्य उडेल दे और हमारे क़दम जमा दे और इनकार करनेवाले लोगों पर हमें विजय प्रदान कर।"॥250॥

فَہَزَمُوْھُمْ بِـاِذْنِ اللہِ۝۰ۣۙ وَقَتَلَ دَاوٗدُ جَالُوْتَ وَاٰتٰىہُ اللہُ الْمُلْكَ وَالْحِكْمَۃَ وَعَلَّمَہٗ مِمَّا يَشَاۗءُ۝۰ۭ وَلَوْ لَا دَفْعُ اللہِ النَّاسَ بَعْضَہُمْ بِبَعْضٍ۝۰ۙ لَّفَسَدَتِ الْاَرْضُ وَلٰكِنَّ اللہَ ذُوْ فَضْلٍ عَلَي الْعٰلَمِيْنَ۝۲۵۱

अन्ततः अल्लाह की अनुज्ञा से उन्होंने उनको पराजित कर दिया और दाऊद ने जालूत को क़त्ल कर दिया, और अल्लाह ने उसे राज्य और तत्वदर्शिता (हिकमत) प्रदान की, जो कुछ वह (दाऊद) चाहे, उससे उसको अवगत कराया। और यदि अल्लाह मनुष्यों के एक गिरोह को दूसरे गिरोह के द्वारा हटाता न रहता तो धरती की व्यवस्था बिगड़ जाती, किन्तु अल्लाह संसारवालों के लिए उदार अनुग्राही है॥251॥

تِلْكَ اٰيٰتُ اللہِ نَتْلُوْھَا عَلَيْكَ بِالْحَقِّ۝۰ۭ وَاِنَّكَ لَمِنَ الْمُرْسَلِيْنَ۝۲۵۲

ये अल्लाह की सच्ची आयतें है जो हम तुम्हें (सोद्देश्य) सुना रहे है और निश्चय ही तुम उन लोगों में से हो, जो रसूस बनाकर भेजे गए है॥252॥

(3) ۞ تِلْكَ الرُّسُلُ فَضَّلْنَا بَعْضَھُمْ عَلٰي بَعْضٍ۝۰ۘ مِنْھُمْ مَّنْ كَلَّمَ اللہُ وَرَفَعَ بَعْضَھُمْ دَرَجٰتٍ۝۰ۭ وَاٰتَيْنَا عِيْسَى ابْنَ مَرْيَمَ الْبَيِّنٰتِ وَاَيَّدْنٰہُ بِرُوْحِ الْقُدُسِ۝۰ۭ وَلَوْ شَاۗءَ اللہُ مَا اقْتَتَلَ الَّذِيْنَ مِنْۢ بَعْدِھِمْ مِّنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَتْھُمُ الْبَيِّنٰتُ وَلٰكِنِ اخْتَلَفُوْا فَمِنْھُمْ مَّنْ اٰمَنَ وَمِنْھُمْ مَّنْ كَفَرَ۝۰ۭ وَلَوْ شَاۗءَ اللہُ مَا اقْتَتَلُوْا۝۰ۣ وَلٰكِنَّ اللہَ يَفْعَلُ مَا يُرِيْدُ۝۲۵۳ۧ

ये रसूल ऐसे हुए है कि इनमें हमने कुछ को कुछ पर श्रेष्ठता प्रदान की। इनमें कुछ से तो अल्लाह ने बातचीत की और इनमें से कुछ को दर्जों की स्पष्ट से उच्चता प्रदान की। और मरयम के बेटे ईसा को हमने खुली निशानियाँ दी और पवित्र आत्मा से उसकी सहायता की। और यदि अल्लाह चाहता तो वे लोग, जो उनके पश्चात हुए, खुली निशानियाँ पा लेने के बाद परस्पर न लड़ते। किन्तु वे विभेद में पड़ गए तो उनमें से कोई तो ईमान लाया और उनमें से किसी ने इनकार की नीति अपनाई। और यदि अल्लाह चाहता तो वे परस्पर न लड़ते, परन्तु अल्लाह जो चाहता है, करता है॥253॥

يٰٓاَيُّہَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَنْفِقُوْا مِمَّا رَزَقْنٰكُمْ مِّنْ قَبْلِ اَنْ يَّاْتِيَ يَوْمٌ لَّا بَيْعٌ فِيْہِ وَلَا خُلَّۃٌ وَّلَا شَفَاعَۃٌ۝۰ۭ وَالْكٰفِرُوْنَ ھُمُ الظّٰلِمُوْنَ۝۲۵۴

ऐ ईमान लानेवालो! हमने जो कुछ तुम्हें प्रदान किया है उसमें से (नेक कामो मे) खर्च करो, इससे पहले कि वह दिन आ जाए जिसमें न कोई क्रय-विक्रय होगा और न कोई मित्रता होगी और न कोई सिफ़ारिश। ज़ालिम वही है, जिन्होंने इनकार की नीति अपनाई है॥254॥

اَللہُ لَآ اِلٰہَ اِلَّا ھُوَ۝۰ۚ اَلْـحَيُّ الْقَيُّوْمُ۝۰ۥۚ لَا تَاْخُذُہٗ سِـنَۃٌ وَّلَا نَوْمٌ۝۰ۭ لَہٗ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ۝۰ۭ مَنْ ذَا الَّذِيْ يَشْفَعُ عِنْدَہٗٓ اِلَّا بِـاِذْنِہٖ۝۰ۭ يَعْلَمُ مَا بَيْنَ اَيْدِيْہِمْ وَمَا خَلْفَھُمْ۝۰ۚ وَلَا يُحِيْطُوْنَ بِشَيْءٍ مِّنْ عِلْمِہٖٓ اِلَّا بِمَا شَاۗءَ۝۰ۚ وَسِعَ كُرْسِـيُّہُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ۝۰ۚ وَلَا يَـــــُٔـــوْدُہٗ حِفْظُہُمَا۝۰ۚ وَھُوَالْعَلِيُّ الْعَظِيْمُ۝۲۵۵

अल्लाह कि जिसके सिवा कोई पूज्य-प्रभु नहीं, वह जीवन्त-सत्ता है, सबको सँभालने और क़ायम रखनेवाला है। उसे न ऊँघ लगती है और न निद्रा। उसी का है जो कुछ आकाशों में है और जो कुछ धरती में है। कौन है जो उसके यहाँ उसकी अनुमति के बिना सिफ़ारिश कर सके? वह जानता है जो कुछ उनके आगे है और जो कुछ उनके पीछे है। और वे उसके ज्ञान में से किसी चीज़ पर हावी नहीं हो सकते, सिवाय उसके जो उसने चाहा। उसकी कुर्सी (प्रभुता) आकाशों और धरती को व्याप्त है और उनकी सुरक्षा उसके लिए तनिक भी भारी नहीं और वह उच्च, महान है॥255॥

لَآ اِكْرَاہَ فِي الدِّيْنِ۝۰ۣۙ قَدْ تَّبَيَّنَ الرُّشْدُ مِنَ الْغَيِّ۝۰ۚ فَمَنْ يَّكْفُرْ بِالطَّاغُوْتِ وَيُؤْمِنْۢ بِاللہِ فَقَدِ اسْتَمْسَكَ بِالْعُرْوَۃِ الْوُثْقٰى۝۰ۤ لَاانْفِصَامَ لَہَا۝۰ۭ وَاللہُ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ۝۲۵۶

धर्म के विषय में कोई ज़बरदस्ती नहीं। सही बात नासमझी की बात से अलग होकर स्पष्ट हो गई है। तो अब जो कोई बढ़े हुए सरकश को ठुकरा दे और अल्लाह पर ईमान लाए, उसने ऐसा मज़बूत सहारा थाम लिया जो कभी टूटनेवाला नहीं। अल्लाह सब कुछ सुनने, जाननेवाला है॥256॥

اَللہُ وَلِيُّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا۝۰ۙ يُخْرِجُہُمْ مِّنَ الظُّلُمٰتِ اِلَى النُّوْرِ۝۰ۥۭ وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اَوْلِيٰۗــــُٔــھُمُ الطَّاغُوْتُ۝۰ۙ يُخْرِجُوْنَـھُمْ مِّنَ النُّوْرِ اِلَى الظُّلُمٰتِ۝۰ۭ اُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ۝۰ۚ ھُمْ فِيْہَا خٰلِدُوْنَ۝۲۵۷ۧ

जो लोग ईमान लाते है, अल्लाह उनका रक्षक और सहायक है। वह उन्हें अँधेरों से निकालकर प्रकाश की ओर ले जाता है। रहे वे लोग जिन्होंने इनकार किया तो उनके संरक्षक बढ़े हुए सरकश है। वे उन्हें प्रकाश से निकालकर अँधेरों की ओर ले जाते है। वही आग (जहन्नम) में पड़नेवाले है। वे उसी में सदैव रहेंगे॥257॥

اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْ حَاۗجَّ اِبْرٰھٖمَ فِيْ رَبِّہٖٓ اَنْ اٰتٰىہُ اللہُ الْمُلْكَ۝۰ۘ اِذْ قَالَ اِبْرٰھٖمُ رَبِّيَ الَّذِيْ يُـحْيٖ وَيُمِيْتُ۝۰ۙ قَالَ اَنَا اُحْيٖ وَاُمِيْتُ۝۰ۭ قَالَ اِبْرٰھٖمُ فَاِنَّ اللہَ يَاْتِيْ بِالشَّمْسِ مِنَ الْمَشْرِقِ فَاْتِ بِہَا مِنَ الْمَغْرِبِ فَبُہِتَ الَّذِيْ كَفَرَ۝۰ۭ وَاللہُ لَا يَہْدِي الْقَوْمَ الظّٰلِـمِيْنَ۝۲۵۸ۚ

क्या तुमने उनको नहीं देखा, जिसने इबराहीम से उसके 'रब' के सिलसिले में झगड़ा किया था, इस कारण कि अल्लाह ने उसको राज्य दे रखा था? जब इबराहीम ने कहा, "मेरा 'रब' वह है जो जिलाता और मारता है।" उसने कहा, "मैं भी तो जिलाता और मारता हूँ।" इबराहीम ने कहा, "अच्छा तो अल्लाह सूर्य को पूरब से लाता है, तो तू उसे पश्चिम से ले आ।" इसपर वह विधर्मी चकित रह गया। अल्लाह ज़ालिम लोगों को सीधा मार्ग नहीं दिखाता॥258॥

اَوْ كَالَّذِيْ مَرَّ عَلٰي قَرْيَۃٍ وَّہِيَ خَاوِيَۃٌ عَلٰي عُرُوْشِہَا۝۰ۚ قَالَ اَنّٰى يُـحْيٖ ھٰذِہِ اللہُ بَعْدَ مَوْتِہَا۝۰ۚ فَاَمَاتَہُ اللہُ مِائَـۃَ عَامٍ ثُمَّ بَعَثَہٗ۝۰ۭ قَالَ كَمْ لَبِثْتَ۝۰ۭ قَالَ لَبِثْتُ يَوْمًا اَوْ بَعْضَ يَوْمٍ۝۰ۭ قَالَ بَلْ لَّبِثْتَ مِائَۃَ عَامٍ فَانْظُرْ اِلٰى طَعَامِكَ وَشَرَابِكَ لَمْ يَتَسَـنَّہْ۝۰ۚ وَانْظُرْ اِلٰى حِمَارِكَ وَلِنَجْعَلَكَ اٰيَۃً لِّلنَّاسِ وَانْظُرْ اِلَى الْعِظَامِ كَيْفَ نُنْشِزُھَا ثُمَّ نَكْسُوْھَا لَحْــمًا۝۰ۭ فَلَمَّا تَبَيَّنَ لَہٗ۝۰ۙ قَالَ اَعْلَمُ اَنَّ اللہَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ۝۲۵۹

या उस जैसे (व्यक्ति) को नहीं देखा, जिसका एक ऐसी बस्ती पर से गुज़र हुआ, जो अपनी छतों के बल गिरी हुई थी। उसने कहा, "अल्लाह इसके विनष्ट  हो जाने के पश्चात इसे किस प्रकार जीवन प्रदान करेगा?" तो अल्लाह ने उसे सौ वर्ष की मृत्यु दे दी, फिर उसे उठा खड़ा किया। कहा, "तू कितनी अवधि तक इस अवस्था नें रहा।" उसने कहा, "मैं एक या दिन का कुछ हिस्सा रहा।" कहा, "नहीं, बल्कि तू सौ वर्ष रहा है। अब अपने खाने और पीने की चीज़ों को देख ले, उन पर समय का कोई प्रभाव नहीं, और अपने गधे को भी देख, और यह इसलिए कह रहे है ताकि हम तुझे लोगों के लिए एक निशानी बना दें और हड्डियों को देख कि किस प्रकार हम उन्हें उभारते है, फिर, उनपर माँस चढ़ाते है।" तो जब वास्तविकता उस पर प्रकट हो गई तो वह पुकार उठा, " मैं जानता हूँ कि अल्लाह को हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त है।"॥259॥

وَاِذْ قَالَ اِبْرٰھٖمُ رَبِّ اَرِنِيْ كَيْفَ تُـحْيِ الْمَوْتٰى۝۰ۭ قَالَ اَوَلَمْ تُؤْمِنْ۝۰ۭ قَالَ بَلٰي وَلٰكِنْ لِّيَطْمَىِٕنَّ قَلْبِىْ۝۰ۭ قَالَ فَخُـذْ اَرْبَعَۃً مِّنَ الطَّيْرِ فَصُرْھُنَّ اِلَيْكَ ثُمَّ اجْعَلْ عَلٰي كُلِّ جَبَلٍ مِّنْہُنَّ جُزْءًا ثُمَّ ادْعُہُنَّ يَاْتِيْنَكَ سَعْيًا۝۰ۭ وَاعْلَمْ اَنَّ اللہَ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ۝۲۶۰ۧ

और याद करो जब इबराहीम ने कहा, "ऐ मेरे रब! मुझे दिखा दे, तू मुर्दों को कैसे जीवित करेगा?" कहा,"(रब ने) क्या तुझे विश्वास नहीं?" उसने कहा,"क्यों नहीं, किन्तु निवेदन इसलिए है कि मेरा दिल संतुष्ट हो जाए।" (रब ने)  कहा, "अच्छा, तो चार पक्षी ले, फिर उन्हें अपने साथ भली-भाँति हिला-मिला ले, फिर उनमें से प्रत्येक को एक-एक पर्वत पर रख दे, फिर उनको पुकार, वे तेरे पास लपककर आएँगे। और जान ले कि अल्लाह अत्यन्त प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है।"॥260॥

مَثَلُ الَّذِيْنَ يُنْفِقُوْنَ اَمْوَالَھُمْ فِيْ سَبِيْلِ اللہِ كَمَثَلِ حَبَّۃٍ اَنْۢبَتَتْ سَـبْعَ سَـنَابِلَ فِيْ كُلِّ سُنْۢبُلَۃٍ مِّائَۃُ حَبَّۃٍ۝۰ۭ وَاللہُ يُضٰعِفُ لِمَنْ يَّشَاۗءُ۝۰ۭ وَاللہُ وَاسِعٌ عَلِيْمٌ۝۲۶۱

जो लोग अपने माल अल्लाह के मार्ग में ख़र्च करते है, उनकी उपमा ऐसी है, जैसे एक दाना हो, जिससे सात बालें निकलें और प्रत्येक बाल में सौ दाने हो। अल्लाह जिसे चाहता है बढ़ोतरी प्रदान करता है। अल्लाह बड़ी समाईवाला, जाननेवाला है॥261॥

اَلَّذِيْنَ يُنْفِقُوْنَ اَمْوَالَھُمْ فِيْ سَبِيْلِ اللہِ ثُمَّ لَا يُتْبِعُوْنَ مَآ اَنْفَقُوْا مَنًّا وَّلَآ اَذًى۝۰ۙ لَّھُمْ اَجْرُھُمْ عِنْدَ رَبِّہِمْ۝۰ۚ وَلَا خَوْفٌ عَلَيْہِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ۝۲۶۲

जो लोग अपने माल अल्लाह के मार्ग में ख़र्च करते है, फिर ख़र्च करके उसका न एहसान जताते है और न दिल दुखाते है, उनका बदला उनके अपने रब के पास है। और न तो उनके लिए कोई भय होगा और न वे दुखी होंगे॥262॥

۞ قَوْلٌ مَّعْرُوْفٌ وَّمَغْفِرَۃٌ خَيْرٌ مِّنْ صَدَقَۃٍ يَّتْبَعُہَآ اَذًى۝۰ۭ وَاللہُ غَنِىٌّ حَلِيْمٌ۝۲۶۳

एक भली बात कहनी और क्षमा से काम लेना उस सदक़े से अच्छा है, जिसके पीछे दुख हो। और अल्लाह अत्यन्त  निस्पृह (बेनियाज़), सहनशील है॥263॥

يٰٓاَيُّہَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تُبْطِلُوْا صَدَقٰتِكُمْ بِالْمَنِّ وَالْاَذٰى۝۰ۙ كَالَّذِيْ يُنْفِقُ مَا لَہٗ رِئَاۗءَ النَّاسِ وَلَا يُؤْمِنُ بِاللہِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ۝۰ۭ فَمَثَلُہٗ كَمَثَلِ صَفْوَانٍ عَلَيْہِ تُرَابٌ فَاَصَابَہٗ وَابِلٌ فَتَرَكَہٗ صَلْدًا۝۰ۭ لَا يَـقْدِرُوْنَ عَلٰي شَيْءٍ مِّمَّا كَسَبُوْا۝۰ۭ وَاللہُ لَا يَہْدِي الْقَوْمَ الْكٰفِرِيْنَ۝۲۶۴

ऐ ईमानवालो! अपने सदक़ो को एहसान जताकर और दुख देकर उस व्यक्ति की तरह नष्ट न करो जो लोगों को दिखाने के लिए अपना माल ख़र्च करता है और अल्लाह और अंतिम दिन पर ईमान नहीं रखता। तो उसकी हालत उस चट्टान जैसी है जिसपर कुछ मिट्टी पड़ी हुई थी, फिर उस पर ज़ोर की वर्षा हुई और उसे साफ़ चट्टान की दशा में छोड़ गई। ऐसे लोग अपनी कमाई कुछ भी प्राप्त नहीं करते। और अल्लाह इनकार की नीति अपनानेवालों को मार्ग नहीं दिखाता॥264॥

وَمَثَلُ الَّذِيْنَ يُنْفِقُوْنَ اَمْوَالَھُمُ ابْتِغَاۗءَ مَرْضَاتِ اللہِ وَتَثْبِيْتًا مِّنْ اَنْفُسِہِمْ كَمَثَلِ جَنَّۃٍؚبِرَبْوَۃٍ اَصَابَہَا وَابِلٌ فَاٰتَتْ اُكُلَہَا ضِعْفَيْنِ۝۰ۚ فَاِنْ لَّمْ يُصِبْہَا وَابِلٌ فَطَلٌّ۝۰ۭ وَاللہُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ بَصِيْرٌ۝۲۶۵

और जो लोग अपने माल अल्लाह की प्रसन्नता के संसाधनों की तलब में और अपने दिलों को जमाव प्रदान करने के कारण ख़र्च करते है उनकी हालत उस बाग़़ की तरह है जो किसी अच्छी और उर्वर भूमि पर हो। उस पर घोर वर्षा हुई तो उसमें दुगुने फल आए। फिर यदि घोर वर्षा उस पर नहीं हुई, तो फुहार ही पर्याप्त  होगी। तुम जो कुछ भी करते हो अल्लाह उसे देख रहा है॥265॥

اَيَوَدُّ اَحَدُكُمْ اَنْ تَكُوْنَ لَہٗ جَنَّۃٌ مِّنْ نَّخِيْلٍ وَّاَعْنَابٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِہَا الْاَنْہٰرُ۝۰ۙ لَہٗ فِيْہَا مِنْ كُلِّ الثَّمَرٰتِ۝۰ۙ وَاَصَابَہُ الْكِبَرُ وَلَہٗ ذُرِّيَّۃٌ ضُعَفَاۗءُ ۝۰۠ۖ فَاَصَابَہَآ اِعْصَارٌ فِيْہِ نَارٌ فَاحْتَرَقَتْ۝۰ۭ كَذٰلِكَ يُبَيِّنُ اللہُ لَكُمُ الْاٰيٰتِ لَعَلَّكُمْ تَتَفَكَّرُوْنَ۝۲۶۶ۧ

क्या तुममें से कोई यह चाहेगा कि उसके पास ख़जूरों और अंगूरों का एक बाग़ हो, जिसके नीचे नहरें बह रही हो, वहाँ उसे हर प्रकार के फल प्राप्त हो और उसका बुढ़ापा आ गया हो और उसके बच्चे अभी कमज़ोर ही हों कि उस बाग़ पर एक आग भरा बगूला आ गया, और वह जलकर रह गया? इस प्रकार अल्लाह तुम्हारे सामने आयतें खोल-खोलकर बयान करता है, ताकि सोच-विचार करो॥266॥

يٰٓاَيُّہَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَنْفِقُوْا مِنْ طَيِّبٰتِ مَا كَسَبْتُمْ وَمِمَّآ اَخْرَجْنَا لَكُمْ مِّنَ الْاَرْضِ۝۰۠ وَلَا تَـيَمَّمُوا الْخَبِيْثَ مِنْہُ تُنْفِقُوْنَ وَلَسْتُمْ بِاٰخِذِيْہِ اِلَّآ اَنْ تُغْمِضُوْا فِيْہِ۝۰ۭ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللہَ غَنِىٌّ حَمِيْدٌ۝۲۶۷

ऐ ईमान लानेवालो! अपनी कमाई को पाक और अच्छी चीज़ों में से ख़र्च करो और उन चीज़ों में से भी जो हमने धरती से तुम्हारे लिए निकाली है। और देने के लिए उसके ख़राब हिस्से (के देने) का इरादा न करो, जबकि तुम स्वयं उसे कभी न लोगे। यह और बात है कि उसकी कीमत कम करा के लो। और जान लो कि अल्लाह निस्पृह, प्रशंसनीय है॥267॥

اَلشَّيْطٰنُ يَعِدُكُمُ الْفَقْرَ وَيَاْمُرُكُمْ بِالْفَحْشَاۗءِ۝۰ۚ وَاللہُ يَعِدُكُمْ مَّغْفِرَۃً مِّنْہُ وَفَضْلًا۝۰ۭ وَاللہُ وَاسِعٌ عَلِيْمٌ۝۲۶۸ۖۙ

शैतान तुम्हें निर्धनता से डराता है और निर्लज्जता के कामों पर उभारता है, जबकि अल्लाह अपनी क्षमा और उदार कृपा का तुम्हें वचन देता है। अल्लाह बड़ी समाईवाला, सर्वज्ञ है॥268॥

يُؤْتِي الْحِكْمَۃَ مَنْ يَّشَاۗءُ۝۰ۚ وَمَنْ يُّؤْتَ الْحِكْمَۃَ فَقَدْ اُوْتِيَ خَيْرًا كَثِيْرًا۝۰ۭ وَمَا يَذَّكَّرُ اِلَّآ اُولُوا الْاَلْبَابِ۝۲۶۹

वह जिसे चाहता है तत्वदर्शिता प्रदान करता है और जिसे तत्वदर्शिता प्राप्त हुई उसे बड़ी दौलत मिल गई। किन्तु चेतते वही है जो बुद्धि और समझवाले है॥269॥

وَمَآ اَنْفَقْتُمْ مِّنْ نَّفَقَۃٍ اَوْ نَذَرْتُمْ مِّنْ نَّذْرٍ فَاِنَّ اللہَ يَعْلَمُہٗ۝۰ۭ وَمَا لِلظّٰلِـمِيْنَ مِنْ اَنْصَارٍ۝۲۷۰

और तुमने जो कुछ भी ख़र्च किया और जो कुछ भी नज़र (मन्नत) की हो, निस्सन्देह अल्लाह उसे भली-भाँति जानता है। और अत्याचारियों का कोई सहायक न होगा॥270॥

اِنْ تُبْدُوا الصَّدَقٰتِ فَنِعِمَّا ہِىَ۝۰ۚ وَاِنْ تُخْفُوْھَا وَتُؤْتُوْھَا الْفُقَرَاۗءَ فَھُوَخَيْرٌ لَّكُمْ۝۰ۭ وَيُكَفِّرُ عَنْكُمْ مِّنْ سَيِّاٰتِكُمْ۝۰ۭ وَاللہُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ خَبِيْرٌ۝۲۷۱

यदि तुम खुले रूप मे सदक़े दो तो यह भी अच्छा है और यदि उनको छिपाकर मुहताजों को दो तो यह तुम्हारे लिए अधिक अच्छा है। और यह तुम्हारे कितने ही गुनाहों को मिटा देगा। और अल्लाह को उसकी पूरी ख़बर है, जो कुछ तुम करते हो॥271॥

۞ لَيْسَ عَلَيْكَ ھُدٰىھُمْ وَلٰكِنَّ اللہَ يَہْدِيْ مَنْ يَّشَاۗءُ۝۰ۭ وَمَا تُنْفِقُوْا مِنْ خَيْرٍ فَلِاَنْفُسِكُمْ۝۰ۭ وَمَا تُنْفِقُوْنَ اِلَّا ابْتِغَاۗءَ وَجْہِ اللہِ۝۰ۭ وَمَا تُنْفِقُوْا مِنْ خَيْرٍ يُّوَفَّ اِلَيْكُمْ وَاَنْتُمْ لَا تُظْلَمُوْنَ۝۲۷۲

उन्हें मार्ग पर ला देने का दायित्व तुम पर नहीं है, बल्कि अल्लाह ही जिसे चाहता है मार्ग दिखाता है। और जो कुछ भी माल तुम ख़र्च करोगे, वह तुम्हारे अपने ही भले के लिए होगा और तुम अल्लाह के (बताए हुए) उद्देश्य के अतिरिक्त किसी और उद्देश्य से ख़र्च न करो। और जो माल भी तुम (नेक कामो) ख़र्च करोगे, वह पूरा-पूरा तुम्हें चुका दिया जाएगा और तुम्हारा हक़ न मारा जाएगा॥272॥

لِلْفُقَرَاۗءِ الَّذِيْنَ اُحْصِرُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللہِ لَا يَسْتَطِيْعُوْنَ ضَرْبًا فِي الْاَرْضِ۝۰ۡيَحْسَبُھُمُ الْجَاہِلُ اَغْنِيَاۗءَ مِنَ التَّعَفُّفِ۝۰ۚ تَعْرِفُھُمْ بِسِيْمٰھُمْ۝۰ۚ لَا يَسْــَٔـلُوْنَ النَّاسَ اِلْحَافًا۝۰ۭ وَمَا تُنْفِقُوْا مِنْ خَيْرٍ فَاِنَّ اللہَ بِہٖ عَلِيْمٌ۝۲۷۳ۧ

यह उन मुहताजों के लिए है जो अल्लाह के मार्ग में घिर गए कि धरती में (जीविकोपार्जन के लिए) कोई दौड़-धूप नहीं कर सकते। उनके स्वाभिमान के कारण अपरिचित व्यक्ति उन्हें धनवान समझता है। तुम उन्हें उनके लक्षणो से पहचान सकते हो। वे लिपटकर लोगों से नहीं माँगते। जो माल भी तुम ख़र्च करोगे, वह अल्लाह को ज्ञात होगा॥273॥

اَلَّذِيْنَ يُنْفِقُوْنَ اَمْوَالَھُمْ بِالَّيْلِ وَالنَّہَارِ سِرًّا وَّعَلَانِيَۃً فَلَھُمْ اَجْرُھُمْ عِنْدَ رَبِّہِمْ۝۰ۚ وَلَا خَوْفٌ عَلَيْہِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ۝۲۷۴ؔ

जो लोग अपने माल रात-दिन छिपे और खुले ख़र्च करें, उनका बदला तो उनके रब के पास है, और न उन्हें कोई भय है और न वे शोकाकुल होंगे॥274॥

اَلَّذِيْنَ يَاْكُلُوْنَ الرِّبٰوا لَايَقُوْمُوْنَ اِلَّا كَـمَا يَقُوْمُ الَّذِيْ يَتَخَبَّطُہُ الشَّيْطٰنُ مِنَ الْمَسِّ۝۰ۭ ذٰلِكَ بِاَنَّھُمْ قَالُوْٓا اِنَّمَا الْبَيْعُ مِثْلُ الرِّبٰوا۝۰ۘ وَاَحَلَّ اللہُ الْبَيْعَ وَحَرَّمَ الرِّبٰوا۝۰ۭ فَمَنْ جَاۗءَہٗ مَوْعِظَۃٌ مِّنْ رَّبِّہٖ فَانْــتَہٰى فَلَہٗ مَا سَلَـفَ۝۰ۭ وَاَمْرُہٗٓ اِلَى اللہِ۝۰ۭ وَمَنْ عَادَ فَاُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ۝۰ۚ ھُمْ فِيْہَا خٰلِدُوْنَ۝۲۷۵

और लोग ब्याज खाते है, वे बस इस प्रकार उठते है जिस प्रकार वह क्यक्ति उठता है जिसे शैतान ने छूकर बावला कर दिया हो और यह इसलिए कि उनका कहना है, "व्यापार भी तो ब्याज के सदृश है," जबकि अल्लाह ने व्यापार को वैध और ब्याज को अवैध ठहराया है। अतः जिसको उसके रब की ओर से नसीहत पहुँची और वह बाज़ आ गया, तो जो कुछ पहले ले चुका वह उसी का रहा और मामला उसका अल्लाह के हवाले है। और जिसने फिर यही कर्म किया तो ऐसे ही लोग आग (जहन्नम) में पड़नेवाले है। उसमें वे सदैव रहेंगे॥275॥

يَمْحَقُ اللہُ الرِّبٰوا وَيُرْبِي الصَّدَقٰتِ۝۰ۭ وَاللہُ لَا يُحِبُّ كُلَّ كَفَّارٍ اَثِيْمٍ۝۲۷۶

अल्लाह ब्याज को घटाता और मिटाता है और सदक़ों को बढ़ाता है। और अल्लाह किसी अकृतज्ञ, हक़ मारनेवाले को पसन्द नहीं करता॥276॥

اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ وَاَقَامُوا الصَّلٰوۃَ وَاٰتَوُا الزَّكٰوۃَ لَھُمْ اَجْرُھُمْ عِنْدَ رَبِّہِمْ۝۰ۚ وَلَا خَوْفٌ عَلَيْہِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ۝۲۷۷

निस्संदेह जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए और नमाज़ क़ायम की और ज़कात दी, उनके लिए उनका बदला उनके रब के पास है, और उन्हें न कोई भय हो और न वे शोकाकुल होंगे॥277॥

يٰٓاَيُّہَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اتَّقُوا اللہَ وَذَرُوْا مَا بَقِيَ مِنَ الرِّبٰٓوا اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ۝۲۷۸

ऐ ईमान लानेवालो! अल्लाह का डर रखो और जो कुछ ब्याज बाक़ी रह गया है उसे छोड़ दो, यदि तुम ईमानवाले हो॥278॥

فَاِنْ لَّمْ تَفْعَلُوْا فَاْذَنُوْا بِحَرْبٍ مِّنَ اللہِ وَرَسُوْلِہٖ۝۰ۚ وَاِنْ تُبْتُمْ فَلَكُمْ رُءُوْسُ اَمْوَالِكُمْ۝۰ۚ لَاتَظْلِمُوْنَ وَلَا تُظْلَمُوْنَ۝۲۷۹

फिर यदि तुमने ऐसा न किया तो अल्लाह और उसके रसूल से युद्ध के लिए ख़बरदार हो जाओ। और यदि तौबा कर लो तो अपना मूलधन लेने का तुम्हें अधिकार है। न तुम अन्याय करो और न तुम्हारे साथ अन्याय किया जाए॥279॥

وَاِنْ كَانَ ذُوْ عُسْرَۃٍ فَنَظِرَۃٌ اِلٰى مَيْسَرَۃٍ۝۰ۭ وَاَنْ تَصَدَّقُوْا خَيْرٌ لَّكُمْ اِنْ كُنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ۝۲۸۰

और यदि कोई तंगी में हो तो हाथ खुलने तक मुहलत देनी होगी; और सदक़ा कर दो ( अर्थात मूलधन भी न लो) तो यह तुम्हारे लिए अधिक उत्तम है, यदि तुम जान सको॥280॥

وَاتَّقُوْا يَوْمًا تُرْجَعُوْنَ فِيْہِ اِلَى اللہِ۝۰ۣۤ ثُمَّ تُوَفّٰى كُلُّ نَفْسٍ مَّا كَسَبَتْ وَھُمْ لَا يُظْلَمُوْنَ۝۲۸۱ۧ

और उस दिन का डर रखो जबकि तुम अल्लाह की ओर लौटोगे, फिर प्रत्येक व्यक्ति को जो कुछ उसने कमाया पूरा-पूरा मिल जाएगा और उनके साथ कदापि कोई अन्याय न होगा॥281॥

يٰٓاَيُّہَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِذَا تَدَايَنْتُمْ بِدَيْنٍ اِلٰٓى اَجَلٍ مُّسَمًّى فَاكْتُبُوْہُ۝۰ۭ وَلْيَكْتُبْ بَّيْنَكُمْ كَاتِبٌۢ بِالْعَدْلِ۝۰۠ وَلَا يَاْبَ كَاتِبٌ اَنْ يَّكْتُبَ كَـمَا عَلَّمَہُ اللہُ فَلْيَكْتُبْ۝۰ۚ وَلْيُمْلِلِ الَّذِيْ عَلَيْہِ الْحَـقُّ وَلْيَتَّقِ اللہَ رَبَّہٗ وَلَا يَبْخَسْ مِنْہُ شَـيْــــًٔـا۝۰ۭ فَاِنْ كَانَ الَّذِيْ عَلَيْہِ الْحَـقُّ سَفِيْہًا اَوْ ضَعِيْفًا اَوْ لَا يَسْتَطِيْعُ اَنْ يُّـمِلَّ ھُوَفَلْيُمْلِلْ وَلِــيُّہٗ بِالْعَدْلِ۝۰ۭ وَاسْتَشْہِدُوْا شَہِيْدَيْنِ مِنْ رِّجَالِكُمْ۝۰ۚ فَاِنْ لَّمْ يَكُوْنَا رَجُلَيْنِ فَرَجُلٌ وَّامْرَاَتٰنِ مِمَّنْ تَرْضَوْنَ مِنَ الشُّہَدَاۗءِ اَنْ تَضِلَّ اِحْدٰىھُمَا فَتُذَكِّرَ اِحْدٰىہُمَا الْاُخْرٰى۝۰ۭ وَلَا يَاْبَ الشُّہَدَاۗءُ اِذَا مَا دُعُوْا۝۰ۭ وَلَا تَسْــَٔـــمُوْٓا اَنْ تَكْتُبُوْہُ صَغِيْرًا اَوْ كَبِيْرًا اِلٰٓى اَجَلِہٖ۝۰ۭ ذٰلِكُمْ اَقْسَطُ عِنْدَ اللہِ وَاَقْوَمُ لِلشَّہَادَۃِ وَاَدْنٰٓى اَلَّاتَرْتَابُوْٓا اِلَّآ اَنْ تَكُـوْنَ تِجَارَۃً حَاضِرَۃً تُدِيْرُوْنَہَا بَيْنَكُمْ فَلَيْسَ عَلَيْكُمْ جُنَاحٌ اَلَّا تَكْتُبُوْھَا۝۰ۭ وَاَشْہِدُوْٓا اِذَا تَبَايَعْتُمْ۝۰۠ وَلَا يُضَاۗرَّ كَاتِبٌ وَّلَا شَہِيْدٌ۝۰ۥۭ وَاِنْ تَفْعَلُوْا فَاِنَّہٗ فُسُوْقٌۢ بِكُمْ۝۰ۭ وَاتَّقُوا اللہَ۝۰ۭ وَيُعَلِّمُكُمُ اللہُ۝۰ۭ وَاللہُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمٌ۝۲۸۲

ऐ ईमान लानेवालो! जब किसी निश्चित अवधि के लिए आपस में ऋण का लेन-देन करो तो उसे लिख लिया करो और चाहिए कि कोई लिखनेवाला तुम्हारे बीच न्यायपूर्वक (दस्तावेज़) लिख दे। और लिखनेवाला लिखने से इनकार न करे; जिस प्रकार अल्लाह ने उसे सिखाया है, उसी प्रकार वह दूसरों के लिए लिखने के काम आए और बोलकर वह लिखाए जिसके ज़िम्मे हक़ की अदायगी हो। और उसे अल्लाह का, जो उसका रब है, डर रखना चाहिए और उसमें कोई कमी न करनी चाहिए। फिर यदि वह व्यक्ति जिसके ज़िम्मे हक़ की अदायगी हो, कम समझ या कमज़ोर हो या वह बोलकर न लिखा सकता हो तो उसके संरक्षक को चाहिए कि न्यायपूर्वक बोलकर लिखा दे। और अपने पुरुषों में से दो गवाहो को गवाह बना लो और यदि दो पुरुष न हों तो एक पुरुष और दो स्त्रियाँ, जिन्हें तुम गवाह के लिए पसन्द करो, गवाह हो जाएँ ( दो स्त्रियाँ इसलिए रखी गई है) ताकि यदि एक भूल जाए तो दूसरी उसे याद दिला दे। और गवाहों को जब बुलाया जाए तो आने से इनकार न करें। मामला चाहे छोटा हो या बड़ा एक निर्धारित अवधि तक के लिए है, तो उसे लिखने में सुस्ती से काम न लो। यह अल्लाह की दृष्टि मे अधिक न्यायसंगत बात है और इससे गवाही भी अधिक ठीक रहती है। और इससे अधिक संभावना है कि तुम किसी संदेह में नहीं पड़ोगे। हाँ, यदि कोई सौदा नक़द हो, जिसका लेन-देन तुम आपस में कर रहे हो, तो तुम्हारे उसके न लिखने में तुम्हारे लिए कोई दोष नहीं। और जब आपम में क्रय-विक्रय का मामला करो तो उस समय भी गवाह कर लिया करो, और न किसी लिखनेवाले को हानि पहुँचाए जाए और न किसी गवाह को। और यदि ऐसा करोगे तो यह तुम्हारे लिए अवज्ञा की बात होगी। और अल्लाह का डर रखो। अल्लाह तुम्हें शिक्षा दे रहा है। और अल्लाह हर चीज़ को जानता है॥282॥

۞ وَاِنْ كُنْتُمْ عَلٰي سَفَرٍ وَّلَمْ تَجِدُوْا كَاتِبًا فَرِھٰنٌ مَّقْبُوْضَۃٌ۝۰ۭ فَاِنْ اَمِنَ بَعْضُكُمْ بَعْضًا فَلْيُؤَدِّ الَّذِي اؤْتُمِنَ اَمَانَــتَہٗ وَلْيَتَّقِ اللہَ رَبَّہٗ۝۰ۭ وَلَا تَكْتُمُوا الشَّہَادَۃَ۝۰ۭ وَمَنْ يَّكْتُمْہَا فَاِنَّہٗٓ اٰثِمٌ قَلْبُہٗ۝۰ۭ وَاللہُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ عَلِيْمٌ۝۲۸۳ۧ

और यदि तुम किसी सफ़र में हो और किसी लिखनेवाले को न पा सको, तो गिरवी रखकर मामला करो। फिर यदि तुममें से एक-दूसरे पर भरोसा के, तो जिस पर भरोसा किया है उसे चाहिए कि वह यह सच कर दिखाए कि वह विश्वासपात्र है और अल्लाह का, जो उसका रब है, डर रखे। और गवाही को न छिपाओ। जो उसे छिपाता है तो निश्चय ही उसका दिल गुनाहगार है, और तुम जो कुछ करते हो अल्लाह उसे भली-भाँति जानता है॥283॥

لِلہِ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ۝۰ۭ وَاِنْ تُبْدُوْا مَا فِيْٓ اَنْفُسِكُمْ اَوْ تُخْفُوْہُ يُحَاسِبْكُمْ بِہِ اللہُ۝۰ۭ فَيَغْفِرُ لِمَنْ يَّشَاۗءُ وَيُعَذِّبُ مَنْ يَّشَاۗءُ۝۰ۭ وَاللہُ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ۝۲۸۴

अल्लाह ही का है जो कुछ आकाशों में है और जो कुछ धरती में है। और जो कुछ तुम्हारे मन है, यदि तुम उसे व्यक्त करो या छिपाओं, अल्लाह तुमसे उसका हिसाब लेगा। फिर वह जिसे चाहे क्षमा कर दे और जिसे चाहे यातना दे। अल्लाह को हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त  है॥284॥

اٰمَنَ الرَّسُوْلُ بِمَآ اُنْزِلَ اِلَيْہِ مِنْ رَّبِّہٖ وَالْمُؤْمِنُوْنَ۝۰ۭ كُلٌّ اٰمَنَ بِاللہِ وَمَلٰۗىِٕكَتِہٖ وَكُتُبِہٖ وَرُسُلِہٖ۝۰ۣ لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ اَحَدٍ مِّنْ رُّسُلِہٖ۝۰ۣ وَقَالُوْا سَمِعْنَا وَاَطَعْنَا۝۰ۤۡ غُفْرَانَكَ رَبَّنَا وَاِلَيْكَ الْمَصِيْرُ۝۲۸۵

रसूल उसपर, जो कुछ उसके रब की ओर से उसकी ओर उतरा, ईमान लाया और ईमानवाले भी, प्रत्येक, अल्लाह पर, उसके फ़रिश्तों पर, उसकी किताबों पर और उसके रसूलों पर ईमान लाऐ। (और उनका कहना यह है,) "हम उसके रसूलों में से किसी को दूसरे रसूलों से अलग नहीं करते।" और उनका कहना है, "हमने सुना और आज्ञाकारी हुए। हमारे रब! हम तेरी क्षमा के इच्छुक है और तेरी ही ओर लौटना है।"॥285॥

لَا يُكَلِّفُ اللہُ نَفْسًا اِلَّا وُسْعَہَا۝۰ۭ لَہَا مَا كَسَبَتْ وَعَلَيْہَا مَااكْتَسَبَتْ۝۰ۭ رَبَّنَا لَا تُؤَاخِذْنَآ اِنْ نَّسِيْنَآ اَوْ اَخْطَاْنَا۝۰ۚ رَبَّنَا وَلَا تَحْمِلْ عَلَيْنَآ اِصْرًا كَـمَا حَمَلْتَہٗ عَلَي الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِنَا۝۰ۚ رَبَّنَا وَلَا تُحَمِّلْنَا مَا لَا طَاقَۃَ لَنَا بِہٖ۝۰ۚ وَاعْفُ عَنَّا۝۰۪ وَاغْفِرْ لَنَا۝۰۪ وَارْحَمْنَا۝۰۪ اَنْتَ مَوْلٰىنَا فَانْصُرْنَا عَلَي الْقَوْمِ الْكٰفِرِيْنَ۝۲۸۶ۧ

अल्लाह किसी जीव पर बस उसकी सामर्थ्य और समाई के अनुसार ही दायित्व का भार डालता है। उसका है जो उसने कमाया और उसी पर उसका वबाल (आपदा) भी है जो उसने किया। "हमारे रब! यदि हम भूलें या चूक जाएँ तो हमें न पकड़ना। हमारे रब! और हम पर ऐसा बोझ न डाल जैसा तूने हमसे पहले के लोगों पर डाला था। हमारे रब! और हमसे वह बोझ न उठवा, जिसकी हमें शक्ति नहीं। और हमें क्षमा कर और हमें ढाँक ले, और हम पर दया कर। तू ही हमारा संरक्षक है, अतएव इनकार करनेवालों के मुक़ाबले में हमारी सहायता कर।"॥286॥

 

 

 

  1. अल-ए-इमरान

(मदीना में उतरी – आयतें 200)

بِسْمِ اللہِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ

अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील, अत्यन्त दयावान है।

الۗمَّۗ۝۱ۙ

अलि‍फ़–लाम–मीम॰॥1॥

اللہُ لَآ اِلٰہَ اِلَّا ھُوَ۝۰ۙالْـحَيُّ الْقَيُّوْمُ۝۲ۭ

अल्लाह ही पूज्य हैं, उसके सिवा कोई पूज्य नहीं। वह जीवन्त हैं, सबको सँभालने और क़ायम रखनेवाला॥2॥

نَزَّلَ عَلَيْكَ الْكِتٰبَ بِالْحَقِّ مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْہِ وَاَنْزَلَ التَّوْرٰىۃَ وَالْاِنْجِيْلَ۝۳ۙ

उसने तुम पर हक़ के साथ किताब उतारी जो अपने से पहले की (किताबों की) पुष्टि करती हैं, और उसने तौरात और इंजील उतारी॥3॥

مِنْ قَبْلُ ھُدًى لِّلنَّاسِ وَاَنْزَلَ الْفُرْقَانَ۝۰ۥۭ اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا بِاٰيٰتِ اللہِ لَھُمْ عَذَابٌ شَدِيْدٌ۝۰ۭ وَاللہُ عَزِيْزٌ ذُو انْتِقَامٍ۝۴

इससे पहले लोगों के मार्गदर्शन के लिए और उसने कसौटी भी उतारी। निस्संदेह जिन लोगों ने अल्लाह की आयतों का इनकार किया उनके लिए कठोर यातना हैं और अल्लाह प्रभुत्वशाली भी हैं और (बुराई का) बदला लेनेवाला भी॥4॥

اِنَّ اللہَ لَا يَخْفٰى عَلَيْہِ شَيْءٌ فِي الْاَرْضِ وَلَا فِي السَّمَاۗءِ۝۵ۭ

निस्संदेह अल्लाह से कोई चीज़ न धरती में छिपी हैं और न आकाश में॥5॥

ھُوَالَّذِيْ يُصَوِّرُكُمْ فِي الْاَرْحَامِ كَيْفَ يَشَاۗءُ۝۰ۭ لَآ اِلٰہَ اِلَّا ھُوَالْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ۝۶

वही हैं जो गर्भाशयों में, जैसा चाहता हैं, तुम्हारा रूप देता हैं। उस प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी के अतिरिक्त कोई पूज्य-प्रभु नहीं ॥6॥

ھُوَالَّذِيْٓ اَنْزَلَ عَلَيْكَ الْكِتٰبَ مِنْہُ اٰيٰتٌ مُّحْكَمٰتٌ ھُنَّ اُمُّ الْكِتٰبِ وَاُخَرُ مُتَشٰبِہٰتٌ۝۰ۭ فَاَمَّا الَّذِيْنَ فِيْ قُلُوْبِہِمْ زَيْـغٌ فَيَتَّبِعُوْنَ مَا تَشَابَہَ مِنْہُ ابْتِغَاۗءَ الْفِتْنَۃِ وَابْتِغَاۗءَ تَاْوِيْلِہٖ۝۰ۚ۬ وَمَا يَعْلَمُ تَاْوِيْلَہٗٓ اِلَّا اللہُ۝۰ۘؔ وَالرّٰسِخُوْنَ فِي الْعِلْمِ يَقُوْلُوْنَ اٰمَنَّا بِہٖ۝۰ۙ كُلٌّ مِّنْ عِنْدِ رَبِّنَا۝۰ۚ وَمَا يَذَّكَّرُ اِلَّآ اُولُوا الْاَلْبَابِ۝۷

वही हैं जिसने तुमपर अपनी ओर से किताब उतारी, वे सुदृढ़ आयतें हैं जो किताब का मूल और सारगर्भित रूप हैं और दूसरी (कि‍ताबें)सन्दिग्धर , तो जिन लोगों के दिलों में टेढ़ हैं वे फ़ितना (गुमराही) की तलाश और उसके आशय और परिणाम की चाह में उसका अनुसरण करते हैं जो सन्दिग्धद हैं। जबकि उनका परिणाम बस अल्लाह ही जानता हैं, और वे जो ज्ञान में पक्के हैं, वे कहते हैं, "हम उसपर ईमान लाए, जो हर एक हमारे रब ही की ओर से हैं।" और चेतते तो केवल वही हैं जो बुद्धि और समझ रखते हैं॥7॥

رَبَّنَا لَا تُزِغْ قُلُوْبَنَا بَعْدَ اِذْ ھَدَيْتَنَا وَھَبْ لَنَا مِنْ لَّدُنْكَ رَحْمَۃً۝۰ۚ اِنَّكَ اَنْتَ الْوَھَّابُ۝۸

हमारे रब! जब तू हमें सीधे मार्ग पर लगा चुका है तो इसके पश्चात हमारे दिलों में टेढ़ न पैदा कर और हमें अपने पास से दयालुता प्रदान कर। निश्चय ही तू बड़ा दाता है॥8॥

رَبَّنَآ اِنَّكَ جَامِعُ النَّاسِ لِـيَوْمٍ لَّا رَيْبَ فِيْہِ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ لَا يُخْلِفُ الْمِيْعَادَ۝۹ۧ

हमारे रब! तू लोगों को एक दिन इकट्ठा करने वाला है, जिसमें कोई संदेह नही। निस्सन्देह अल्लाह अपने वचन के विरुद्ध जाने वाला नही है॥9॥

اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَنْ تُغْنِىَ عَنْھُمْ اَمْوَالُھُمْ وَلَآ اَوْلَادُھُمْ مِّنَ اللہِ شَـيْـــــًٔـا۝۰ۭ وَاُولٰۗىِٕكَ ھُمْ وَقُوْدُ النَّارِ۝۱۰ۙ

जिन लोगों ने इनकार की नीति अपनाई है अल्लाह के मुकाबले में तो न उसके माल उनके कुछ काम आएँगे और न उनकी संतान ही। और वही हैं जो आग ( जहन्नम) का ईधन बनकर रहेंगे॥10॥

كَدَاْبِ اٰلِ فِرْعَوْنَ۝۰ۙ وَالَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِہِمْ۝۰ۭ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا۝۰ۚ فَاَخَذَھُمُ اللہُ بِذُنُوْبِہِمْ۝۰ۭ وَاللہُ شَدِيْدُ الْعِقَابِ۝۱۱

जैसे फ़िरऔन के लोगों और उनसे पहले के लोगों का हाल हुआ। उन्होंने हमारी आयतों को झुठलाया तो अल्लाह ने उन्हें उनके गुनाहों पर पकड़ लिया। और अल्लाह कठोर दण्‍ड देनेवाला है॥11॥

قُلْ لِّـلَّذِيْنَ كَفَرُوْا سَـتُغْلَبُوْنَ وَتُحْشَرُوْنَ اِلٰى جَہَنَّمَ۝۰ۭ وَبِئْسَ الْمِہَادُ۝۱۲

इनकार करनेवालों से कह दो, "शीघ्र ही तुम पराभूत होगे और जहन्नम की ओर हाँके जाओगं। और वह क्या ही बुरा ठिकाना है।" ॥12॥

قَدْ كَانَ لَكُمْ اٰيَۃٌ فِيْ فِئَتَيْنِ الْتَقَتَا۝۰ۭ فِئَۃٌ تُقَاتِلُ فِيْ سَبِيْلِ اللہِ وَاُخْرٰى كَافِرَۃٌ يَّرَوْنَھُمْ مِّثْلَيْہِمْ رَاْيَ الْعَيْنِ۝۰ۭ وَاللہُ يُـؤَيِّدُ بِنَصْرِہٖ مَنْ يَّشَاۗءُ۝۰ۭ اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَعِبْرَۃً لِّاُولِي الْاَبْصَارِ۝۱۳

तुम्हारे लिए उन दोनों गिरोहों में एक निशानी है जो (बद्र की) लड़ाई में एक-दूसरे के मुक़ाबिल हुए। एक गिरोह अल्लाह के मार्ग में लड़ रहा था, जबकि दूसरा विधर्मी था। ये अपनी आँखों देख रहे थे कि वे उनसे दुगने है। अल्लाह अपनी सहायता से जिसे चाहता है, शक्ति प्रदान करता है। दृष्टिवान लोगों के लिए इसमें बड़ी शिक्षा-सामग्री है॥13॥

زُيِّنَ لِلنَّاسِ حُبُّ الشَّہَوٰتِ مِنَ النِّسَاۗءِ وَالْبَنِيْنَ وَالْقَنَاطِيْرِ الْمُقَنْطَرَۃِ مِنَ الذَّھَبِ وَالْفِضَّۃِ وَالْخَيْلِ الْمُسَوَّمَۃِ وَالْاَنْعَامِ وَالْحَرْثِ۝۰ۭ ذٰلِكَ مَتَاعُ الْحَيٰوۃِ الدُّنْيَا۝۰ۚ وَاللہُ عِنْدَہٗ حُسْنُ الْمَاٰبِ۝۱۴

मनुष्यों को चाहत की चीजों से प्रेम शोभायमान प्रतीत होता है कि वे स्त्रिमयाँ, बेटे, सोने-चाँदी के ढेर और निशान लगे (चुने हुए) घोड़े हैं और चौपाए और खेती। यह सब सांसारिक जीवन की सामग्री है और अल्लाह के पास ही अच्छा ठिकाना है॥14॥

۞ قُلْ اَؤُنَبِّئُكُمْ بِخَيْرٍ مِّنْ ذٰلِكُمْ۝۰ۭ لِلَّذِيْنَ اتَّقَوْا عِنْدَ رَبِّہِمْ جَنّٰتٌ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِہَا الْاَنْہٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْہَا وَاَزْوَاجٌ مُّطَہَّرَۃٌ وَّرِضْوَانٌ مِّنَ اللہِ۝۰ۭ وَاللہُ بَصِيْرٌۢ بِالْعِبَادِ۝۱۵ۚ

कहो, "क्या मैं तुम्हें इनसे उत्तम चीज का पता दूँ?" जो लोग अल्लाह का डर रखेंगे उनके लिए उनके रब के पास बाग़ है, जिनके नीचे नहरें बह रहीं होगी। उनमें वे सदैव रहेंगे। वहाँ पाक-साफ़ जोड़े होंगे और अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त  होगी। और अल्लाह अपने बन्दों पर नज़र रखता है॥15॥

اَلَّذِيْنَ يَقُوْلُوْنَ رَبَّنَآ اِنَّنَآ اٰمَنَّا فَاغْفِرْ لَنَا ذُنُوْبَنَا وَقِنَا عَذَابَ النَّارِ۝۱۶ۚ

ये वे लोग है जो कहते है, "हमारे रब हम ईमान लाए है। अतः हमारे गुनाहों को क्षमा कर दे और हमें आग (जहन्नम) की यातना से बचा ले।"॥16॥

اَلصّٰبِرِيْنَ وَالصّٰدِقِيْنَ وَالْقٰنِـتِيْنَ وَالْمُنْفِقِيْنَ وَالْمُسْـتَغْفِرِيْنَ بِالْاَسْحَارِ۝۱۷

ये लोग धैर्य से काम लेनेवाले, सत्यवान और अत्यन्त आज्ञाकारी है, ये ((अल्लाह के मार्ग में) खर्च करते और रात की अंतिम घड़ियों में क्षमा की प्रार्थनाएँ करते हैं॥17॥

شَہِدَ اللہُ اَنَّہٗ لَآ اِلٰہَ اِلَّا ھُوَ۝۰ۙ وَالْمَلٰۗىِٕكَۃُ وَاُولُوا الْعِلْمِ قَاۗىِٕمًۢا بِالْقِسْطِ۝۰ۭ لَآ اِلٰہَ اِلَّا ھُوَالْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ۝۱۸ۭ

अल्लाह ने गवाही दी कि उसके सिवा कोई पूज्य नहीं; और फ़रिश्तों ने और उन लोगों ने भी जो न्याय और संतुलन स्थापित करनेवाली एक सत्ता को जानते है। उस प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी के सिवा कोई पूज्य नहीं॥18॥

اِنَّ الدِّيْنَ عِنْدَ اللہِ الْاِسْلَامُ۝۰ۣ وَمَا اخْتَلَـفَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ اِلَّا مِنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَھُمُ الْعِلْمُ بَغْيًۢا بَيْنَھُمْ۝۰ۭ وَمَنْ يَّكْفُرْ بِاٰيٰتِ اللہِ فَاِنَّ اللہَ سَرِيْعُ الْحِسَابِ۝۱۹

दीन (धर्म) तो अल्लाह की दृष्टि में इस्लाम ही है। जिन्हें किताब दी गई थी, उन्होंने तो इसमें इसके पश्चात विभेद किया कि ज्ञान उनके पास आ चुका था। ऐसा उन्होंने परस्पर दुराग्रह के कारण किया। जो अल्लाह की आयतों का इनकार करेगा तो अल्लाह भी जल्द हिसाब लेनेवाला है॥19॥

فَاِنْ حَاۗجُّوْكَ فَقُلْ اَسْلَمْتُ وَجْہِيَ لِلہِ وَمَنِ اتَّبَعَنِ۝۰ۭ وَقُلْ لِّلَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ وَالْاُمِّيّٖنَ ءَاَسْلَمْتُمْ۝۰ۭ فَاِنْ اَسْلَمُوْا فَقَدِ اھْتَدَوْا۝۰ۚ وَاِنْ تَوَلَّوْا فَاِنَّمَا عَلَيْكَ الْبَلٰغُ۝۰ۭ وَاللہُ بَصِيْرٌۢ بِالْعِبَادِ۝۲۰ۧ

अब यदि वे तुमसे झगड़े तो कह दो, "मैंने और मेरे अनुयायियों ने तो अपने आपको अल्लाह के हवाले कर दिया हैं।" और जिन्हें किताब मिली थी और जिनके पास किताब नहीं है, उनसे कहो, "क्या तुम भी इस्लाम को अपनाते हो?" यदि वे इस्लाम को अंगीकार कर लें तो सीधा मार्ग पर गए। और यदि मुँह मोड़े तो तुमपर केवल (संदेश) पहुँचा देने की ज़िम्मेदारी है। और अल्लाह स्वयं बन्दों को देख रहा है॥20॥

اِنَّ الَّذِيْنَ يَكْفُرُوْنَ بِاٰيٰتِ اللہِ وَيَقْتُلُوْنَ النَّـبِيّٖنَ بِغَيْرِ حَقٍّ۝۰ۙ وَّيَقْتُلُوْنَ الَّذِيْنَ يَاْمُرُوْنَ بِالْقِسْطِ مِنَ النَّاسِ۝۰ۙ فَبَشِّرْھُمْ بِعَذَابٍ اَلِيْمٍ۝۲۱

जो लोग अल्लाह की आयतों का इनकार करें और नबियों को नाहक क़त्ल करने के दरपे (उतारू) हों और उन लोगों का क़ल्त करें जो न्याय के पालन करने को कहें, उनको दुखद यातना की मंगल सूचना दे दो॥21॥

اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ حَبِطَتْ اَعْمَالُھُمْ فِي الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَۃِ۝۰ۡوَمَا لَھُمْ مِّنْ نّٰصِرِيْنَ۝۲۲

यही लोग हैं, जिनके कर्म दुनिया और आख़िरत में उनके लिए वबाल बने और उनका सहायक कोई भी नहीं॥22॥

اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ اُوْتُوْا نَصِيْبًا مِّنَ الْكِتٰبِ يُدْعَوْنَ اِلٰى كِتٰبِ اللہِ لِيَحْكُمَ بَيْنَھُمْ ثُمَّ يَتَوَلّٰى فَرِيْقٌ مِّنْھُمْ وَھُمْ مُّعْرِضُوْنَ۝۲۳

क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जिन्हें सौभाग्ये, अर्थात किताब प्रदान कि गई। उन्हें अल्लाह की किताब की ओर बुलाया जाता है कि वह उनके बीच निर्णय करे, फिर भी उनका एक गिरोह (उसकी) उपेक्षा करते हुए मुँह फेर लेता है?॥23॥

ذٰلِكَ بِاَنَّھُمْ قَالُوْا لَنْ تَمَــسَّـنَا النَّارُ اِلَّآ اَيَّامًا مَّعْدُوْدٰتٍ۝۰۠ وَغَرَّھُمْ فِيْ دِيْــنِہِمْ مَّا كَانُوْا يَفْتَرُوْنَ۝۲۴

यह इसलिए कि वे कहते, "आग हमें नहीं छू सकती। हाँ, कुछ गिने-चुने दिनों (के कष्टों ) की बात और है।" उनकी मनघड़ंत बातों ने, जो वे घड़ते रहे हैं, उन्हें अपने दीन के बारे मे धोखे में डाल रखा है॥24॥

فَكَيْفَ اِذَا جَمَعْنٰھُمْ لِيَوْمٍ لَّا رَيْبَ فِيْہِ۝۰ۣ وَوُفِّيَتْ كُلُّ نَفْسٍ مَّا كَسَبَتْ وَھُمْ لَا يُظْلَمُوْنَ۝۲۵

फिर क्या हाल होगा, जब हम उन्हें उस दिन इकट्ठा करेंगे, जिसके आने में कोई संदेह नहीं और प्रत्येक व्यक्ति को, जो कुछ उसने कमाया होगा, पूरा-पूरा मिल जाएगा; और उनके साथ कोई अन्याय न होगा॥25॥

قُلِ اللّٰہُمَّ مٰلِكَ الْمُلْكِ تُؤْتِي الْمُلْكَ مَنْ تَشَاۗءُ وَتَنْزِعُ الْمُلْكَ مِمَّنْ تَشَاۗءُ۝۰ۡوَتُعِزُّ مَنْ تَشَاۗءُ وَتُذِلُّ مَنْ تَشَاۗءُ۝۰ۭ بِيَدِكَ الْخَيْرُ۝۰ۭ اِنَّكَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ۝۲۶

कहो, "ऐ अल्लाह, राज्य के स्वामी! तू जिसे चाहे राज्य दे और जिससे चाहे राज्य छीन ले, और जिसे चाहे इज़्ज़त (प्रभुत्व) प्रदान करे और जिसको चाहे अपमानित कर दे। तेरे ही हाथ में भलाई है। निस्संदेह तुझे हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त है॥26॥

تُوْلِجُ الَّيْلَ فِي النَّہَارِ وَتُوْلِجُ النَّہَارَ فِي الَّيْلِ۝۰ۡوَتُخْرِجُ الْـحَيَّ مِنَ الْمَيِّتِ وَتُخْرِجُ الْمَيِّتَ مِنَ الْحَيِّ۝۰ۡوَتَرْزُقُ مَنْ تَشَاۗءُ بِغَيْرِ حِسَابٍ۝۲۷

"तू रात को दिन में पिरोता है और दिन को रात में पिरोता है। तू निर्जीव से सजीव को निकालता है और सजीव से निर्जीव को निकालता है, और जिसे चहाता है, बेहिसाब देता है।" ॥27॥

لَا يَتَّخِذِ الْمُؤْمِنُوْنَ الْكٰفِرِيْنَ اَوْلِيَاۗءَ مِنْ دُوْنِ الْمُؤْمِنِيْنَ۝۰ۚ وَمَنْ يَّفْعَلْ ذٰلِكَ فَلَيْسَ مِنَ اللہِ فِيْ شَيْءٍ اِلَّآ اَنْ تَتَّقُوْا مِنْھُمْ تُقٰىۃً۝۰ۭ وَيُحَذِّرُكُمُ اللہُ نَفْسَہٗ۝۰ۭ وَاِلَى اللہِ الْمَصِيْرُ۝۲۸

ईमानवालों को चाहिए कि वे ईमानवालों से हटकर इनकार करने वालों को अपना मित्र (राज़दार) न बनाएँ, और जो ऐसा करेगा, उसका अल्लाह से कोई सम्बन्ध नहीं, क्योंकि उससे सम्बन्धे यही बात है कि तुम उनसे बचो, जिस प्रकार वे तुमसे बचते है। और अल्लाह तुम्हें अपने आपसे डराता है, और अल्लाह ही की ओर लौटना है॥28॥

قُلْ اِنْ تُخْفُوْا مَا فِيْ صُدُوْرِكُمْ اَوْ تُبْدُوْہُ يَعْلَمْہُ اللہُ۝۰ۭ وَيَعْلَمُ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ۝۰ۭ وَاللہُ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ۝۲۹

कह दो, "यदि तुम अपने दिलों की बात छिपाओ या उसे प्रकट करो, प्रत्येक दशा में अल्लाह उसे जान लेगा। और वह उसे भी जानता है, जो कुछ आकाशों में है और जो कुछ धरती में है। और अल्लाह को हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त है।"॥29॥

يَوْمَ تَجِدُ كُلُّ نَفْسٍ مَّا عَمِلَتْ مِنْ خَيْرٍ مُّحْضَرًا۝۰ۚۖۛ وَّمَا عَمِلَتْ مِنْ سُوْۗءٍ۝۰ۚۛ تَوَدُّ لَوْ اَنَّ بَيْنَہَا وَبَيْنَہٗٓ اَمَدًۢا بَعِيْدًا۝۰ۭ وَيُحَذِّرُكُمُ اللہُ نَفْسَہٗ۝۰ۭ وَاللہُ رَءُوْفٌۢ بِالْعِبَادِ۝۳۰ۧ

जिस दिन प्रत्येक व्यक्ति अपनी की हुई भलाई और अपनी की हुई बुराई को सामने मौजूद पाएगा, वह कामना करेगा कि काश! उसके और उस दिन के बीच बहुत दूर का फ़ासला होता। और अल्लाह तुम्हें अपना भय दिलाता है, और वह अपने बन्दों के लिए अत्यन्त करुणामय है॥30॥

قُلْ اِنْ كُنْتُمْ تُحِبُّوْنَ اللہَ فَاتَّبِعُوْنِيْ يُحْبِبْكُمُ اللہُ وَيَغْفِرْ لَكُمْ ذُنُوْبَكُمْ۝۰ۭ وَاللہُ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ۝۳۱

कह दो, "यदि तुम अल्लाह से प्रेम करते हो तो मेरा अनुसरण करो, अल्लाह भी तुमसे प्रेम करेगा और तुम्हारे गुनाहों को क्षमा कर देगा। अल्लाह बड़ा क्षमाशील, दयावान है।"॥31॥

قُلْ اَطِيْعُوا اللہَ وَالرَّسُوْلَ۝۰ۚ فَاِنْ تَوَلَّوْا فَاِنَّ اللہَ لَا يُحِبُّ الْكٰفِرِيْنَ۝۳۲

कह दो, "अल्लाह और रसूल का आज्ञापालन करो।" फिर यदि वे मुँह मोड़े तो अल्लाह भी इनकार करनेवालों से प्रेम नहीं करता॥32॥

۞ اِنَّ اللہَ اصْطَفٰٓي اٰدَمَ وَنُوْحًا وَّاٰلَ اِبْرٰہِيْمَ وَاٰلَ عِمْرٰنَ عَلَي الْعٰلَمِيْنَ۝۳۳ۙ

अल्लाह ने आदम, नूह, इबराहीम की सन्तान और इमरान की सन्तान को सारे संसार की अपेक्षा प्राथमिकता देकर चुना॥33॥

ذُرِّيَّۃًۢ بَعْضُہَا مِنْۢ بَعْضٍ۝۰ۭ وَاللہُ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ۝۳۴ۚ

एक नस्त के रूप में, उसमें से एक पीढ़ी, दूसरी पीढ़ी से पैदा हुई। अल्लाह सब कुछ सुनता, जानता है॥34॥

اِذْ قَالَتِ امْرَاَتُ عِمْرٰنَ رَبِّ اِنِّىْ نَذَرْتُ لَكَ مَا فِيْ بَطْنِىْ مُحَرَّرًا فَتَقَبَّلْ مِنِّىْ۝۰ۚ اِنَّكَ اَنْتَ السَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ۝۳۵

याद करो जब इमरान की स्त्री ने कहा, "मेरे रब! जो बच्चा मेरे पेट में है उसे मैंने हर चीज़ से छुड़ाकर भेंट स्वरूप तुझे अर्पित किया। अतः तू उसे मेरी ओर से स्वीकार कर। निस्संदेह तू सब कुछ सुनता, जानता है।"॥35॥

فَلَمَّا وَضَعَتْہَا قَالَتْ رَبِّ اِنِّىْ وَضَعْتُہَآ اُنْثٰى۝۰ۭ وَاللہُ اَعْلَمُ بِمَا وَضَعَتْ۝۰ۭ وَلَيْسَ الذَّكَرُ كَالْاُنْثٰى۝۰ۚ وَاِنِّىْ سَمَّيْتُہَا مَرْيَمَ وَاِنِّىْٓ اُعِيْذُھَا بِكَ وَذُرِّيَّــتَہَا مِنَ الشَّيْطٰنِ الرَّجِيْمِ۝۳۶

फिर जब उसके यहाँ बच्ची पैदा हुई तो उसने कहा, "मेरे रब! मेरे यहाँ तो लड़की पैदा हुई है।" - अल्लाह तो जानता ही था जो कुछ उसके यहाँ पैदा हुआ था। और वह लड़का उस लडकी की तरह नहीं हो सकता - "और मैंने उसका नाम मरयम रखा है और मैं उसे और उसकी सन्तान को तिरस्कृत शैतान (के उपद्रव) से सुरक्षित रखने के लिए तेरी शरण में देती हूँ।"॥36॥

فَتَقَبَّلَہَا رَبُّہَا بِقَبُوْلٍ حَسَنٍ وَّاَنْۢبَتَہَا نَبَاتًا حَسَـنًا۝۰ۙ وَّكَفَّلَہَا زَكَرِيَّا۝۰ۭۚ كُلَّمَا دَخَلَ عَلَيْہَا زَكَرِيَّا الْمِحْرَابَ۝۰ۙ وَجَدَ عِنْدَھَا رِزْقًا۝۰ۚ قَالَ يٰمَرْيَـمُ اَنّٰى لَكِ ھٰذَا۝۰ۭ قَالَتْ ھُوَمِنْ عِنْدِ اللہِ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ يَرْزُقُ مَنْ يَّشَاۗءُ بِغَيْرِ حِسَابٍ۝۳۷

अतः उसके रब ने उसका अच्छी स्वीकृति के साथ स्वागत किया और उत्तम रूप में उसे परवान चढ़ाया; और ज़करिया को उसका संरक्षक बनाया। जब कभी ज़करिया उसके पास मेहराब (इबादतगाह) में जाता, तो उसके पास कुछ रोज़ी पाता। उसने कहा, "ऐ मरयम! ये चीज़े तुझे कहाँ से मिलती है?" उसने कहा, "यह अल्लाह के पास से है।" निस्संदेह अल्लाह जिसे चाहता है, बेहिसाब रोजी देता है॥37॥

ھُنَالِكَ دَعَا زَكَرِيَّا رَبَّہٗ۝۰ۚ قَالَ رَبِّ ھَبْ لِيْ مِنْ لَّدُنْكَ ذُرِّيَّۃً طَيِّبَۃً۝۰ۚ اِنَّكَ سَمِيْعُ الدُّعَاۗءِ۝۳۸

वही ज़करिया ने अपने रब को पुकारा, कहा, "मेरे रब! मुझे तू अपने पास से अच्छी सन्तान (अनुयायी) प्रदान कर। तू ही प्रार्थना का सुननेवाला है।"॥38॥

فَنَادَتْہُ الْمَلٰۗىِٕكَۃُ وَھُوَقَاۗىِٕمٌ يُّصَلِّيْ فِي الْمِحْرَابِ۝۰ۙ اَنَّ اللہَ يُبَشِّرُكَ بِيَحْيٰي مُصَدِّقًۢـا بِكَلِمَۃٍ مِّنَ اللہِ وَسَيِّدًا وَّحَصُوْرًا وَّنَبِيًّا مِّنَ الصّٰلِحِيْنَ۝۳۹

तो फ़रिश्तों ने उसे आवाज़ दी, जबकि वह मेहराब में खड़ा नमाज़ पढ़ रहा था, "अल्लाह, तुझे यहया यकी शुभ-सूचना देता है, जो अल्लाह के एक कलिमें की पुष्टि करनेवाला, सरदार, अत्यन्त संयमी और अच्छे लोगो में से एक नबी होगा।"॥39॥

قَالَ رَبِّ اَنّٰى يَكُوْنُ لِيْ غُلٰمٌ وَّقَدْ بَلَغَنِىَ الْكِبَرُ وَامْرَاَتِيْ عَاقِرٌ۝۰ۭ قَالَ كَذٰلِكَ اللہُ يَفْعَلُ مَا يَشَاۗءُ۝۴۰

उसने कहा, "मेरे रब! मेरे यहाँ लड़का कैसे पैदा होगा, जबकि मुझे बुढापा आ गया है और मेरी पत्ऩी बाँझ है?" कहा, "इसी प्रकार अल्लाह जो चाहता है, करता है।"॥40॥

قَالَ رَبِّ اجْعَلْ لِّيْٓ اٰيَۃً۝۰ۭ قَالَ اٰيَتُكَ اَلَّا تُكَلِّمَ النَّاسَ ثَلٰــثَۃَ اَيَّامٍ اِلَّا رَمْزًا۝۰ۭ وَاذْكُرْ رَّبَّكَ كَثِيْرًا وَّسَبِّحْ بِالْعَشِيِّ وَالْاِبْكَارِ۝۴۱ۧ

उसने कहा, "मेरे रब! मेरे लिए कोई आदेश निश्चित कर दे।" कहा, "तुम्हारे लिए आदेश यह है कि तुम लोगों से तीन दिन तक संकेत के सिवा कोई बातचीत न करो। अपने रब को बहुत अधिक याद करो और सायंकाल और प्रातः समय उसकी तसबीह (महिमागान) करते रहो।"॥41॥

وَاِذْ قَالَتِ الْمَلٰۗىِٕكَۃُ يٰمَرْيَمُ اِنَّ اللہَ اصْطَفٰىكِ وَطَہَّرَكِ وَاصْطَفٰىكِ عَلٰي نِسَاۗءِ الْعٰلَمِيْنَ۝۴۲

और जब फ़रिश्तों ने कहा, "ऐ मरयम! अल्लाह ने तुझे चुन लिया और तुझे पवित्रता प्रदान की और तुझे संसार की स्त्रियों के मुक़ाबले मे चुन लिया॥42॥

يٰمَرْيَمُ اقْنُتِىْ لِرَبِّكِ وَاسْجُدِيْ وَارْكَعِيْ مَعَ الرّٰكِعِيْنَ۝۴۳

"ऐ मरयम! पूरी निष्ठा  के साथ अपने रब की आज्ञा का पालन करती रह, और सजदा कर और झुकनेवालों के साथ तू भी झूकती रह।"॥43॥

ذٰلِكَ مِنْ اَنْۢبَاۗءِ الْغَيْبِ نُوْحِيْہِ اِلَيْكَ۝۰ۭ وَمَا كُنْتَ لَدَيْہِمْ اِذْ يُلْقُوْنَ اَقْلَامَھُمْ اَيُّھُمْ يَكْفُلُ مَرْيَمَ۝۰۠ وَمَا كُنْتَ لَدَيْہِمْ اِذْ يَخْتَصِمُوْنَ۝۴۴

यह परोक्ष की सूचनाओं में से है, जिसकी वहय  हम तुम्हारी ओर कर रहे है। तुम तो उस समय उनके पास नहीं थे, जब वे अपनी क़लमों को फेंक रहे थे कि उनमें कौन मरयम का संरक्षक है,  और न उस समय उनके पास थे, जब वे आपस में झगड़ रहे थे॥44॥

اِذْ قَالَتِ الْمَلٰۗىِٕكَۃُ يٰمَرْيَمُ اِنَّ اللہَ يُبَشِّرُكِ بِكَلِمَۃٍ مِّنْہُ ۝۰ۤۖ اسْمُہُ الْمَسِيْحُ عِيْسَى ابْنُ مَرْيَمَ وَجِيْہًا فِي الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَۃِ وَمِنَ الْمُقَرَّبِيْنَ۝۴۵ۙ

ओर याद करो जब फ़रिश्तों ने कहा, "ऐ मरयम! अल्लाह तुझे अपने एक कलिमे (बात) की शुभ-सूचना देता है, जिसका नाम मसीह, मरयम का बेटा, ईसा होगा। वह दुनिया और आख़िरत मे आबरूवाला होगा और अल्लाह के निकटवर्ती लोगों में से होगा॥45॥

وَيُكَلِّمُ النَّاسَ فِي الْمَہْدِ وَكَہْلًا وَّمِنَ الصّٰلِحِيْنَ۝۴۶

वह लोगों से पालने में भी बात करेगा और बड़ी आयु को पहुँचकर भी। और वह नेक व्यक्ति होगा। -॥46॥

قَالَتْ رَبِّ اَنّٰى يَكُوْنُ لِيْ وَلَدٌ وَّلَمْ يَمْسَسْنِىْ بَشَرٌ۝۰ۭ قَالَ كَذٰلِكِ اللہُ يَخْلُقُ مَا يَشَاۗءُ۝۰ۭ اِذَا قَضٰٓى اَمْرًا فَاِنَّمَا يَقُوْلُ لَہٗ كُنْ فَيَكُوْنُ۝۴۷

वह बोली, "मेरे रब! मेरे यहाँ लड़का कहाँ से होगा, जबकि मुझे किसी आदमी ने छुआ तक नहीं?" कहा, "ऐसा ही होगा, अल्लाह जो चाहता है, पैदा करता है। जब वह किसी कार्य का निर्णय करता है तो उसको बस यही कहता है 'हो जा' तो वह हो जाता है॥47॥

وَيُعَلِّمُہُ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَۃَ وَالتَّوْرٰىۃَ وَالْاِنْجِيْلَ۝۴۸ۚ

"और उसको किताब, हिकमत, तौरात और इंजील का भी ज्ञान देगा॥48॥

وَرَسُوْلًا اِلٰى بَنِىْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ۝۰ۥۙ اَنِّىْ قَدْ جِئْتُكُمْ بِاٰيَۃٍ مِّنْ رَّبِّكُمْ۝۰ۙ اَنِّىْٓ اَخْلُقُ لَكُمْ مِّنَ الطِّيْنِ كَہَيْــــَٔــۃِ الطَّيْرِ فَاَنْفُخُ فِيْہِ فَيَكُوْنُ طَيْرًۢا بِـاِذْنِ اللہِ۝۰ۚ وَاُبْرِئُ الْاَكْمَہَ وَالْاَبْرَصَ وَاُحْىِ الْمَوْتٰى بِـاِذْنِ اللہِ۝۰ۚ وَاُنَبِّئُكُمْ بِمَا تَاْكُلُوْنَ وَمَا تَدَّخِرُوْنَ۝۰ۙ فِيْ بُيُوْتِكُمْ۝۰ۭ اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيَۃً لَّكُمْ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ۝۴۹ۚ

"और उसे इसराईल की संतान की ओर रसूल बनाकर भेजेगा। (वह कहेगा) कि मैं तुम्हारे पास तुम्हारे रब की ओर से एक निशाली लेकर आया हूँ कि मैं तुम्हारे लिए मिट्टी से पक्षी के रूप जैसी आकृति बनाता हूँ, फिर उसमें फूँक मारता हूँ, तो वह अल्लाह के आदेश से उड़ने लगती है। और मैं अल्लाह के आदेश से अंधे और कोढ़ी को अच्छा कर देता हूँ और मुर्दे को जीवित कर देता हूँ। और मैं तुम्हें बता देता हूँ जो कुछ तुम खाते हो और जो कुछ अपने घरों में इकट्ठा करके रखते हो। निस्संदेह इसमें तुम्हारे लिए एक निशानी है, यदि तुम माननेवाले हो॥49॥

وَمُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيَّ مِنَ التَّوْرٰىۃِ وَلِاُحِلَّ لَكُمْ بَعْضَ الَّذِيْ حُرِّمَ عَلَيْكُمْ وَجِئْتُكُمْ بِاٰيَۃٍ مِّنْ رَّبِّكُمْ۝۰ۣ فَاتَّقُوا اللہَ وَاَطِيْعُوْنِ۝۵۰

"और मैं तौरात की, जो मेरे आगे है, पुष्टि करता हूँ और इसलिए आया हूँ कि तुम्हारे लिए कुछ उन चीज़ों को हलाल कर दूँ जो तुम्हारे लिए हराम थी। और मैं तुम्हारे पास तुम्हारे रब की ओर से एक निशानी लेकर आया हूँ। अतः अल्लाह का डर रखो और मेरी आज्ञा का पालन करो॥50॥ 

اِنَّ اللہَ رَبِّيْ وَرَبُّكُمْ فَاعْبُدُوْہُ۝۰ۭ ھٰذَا صِرَاطٌ مُّسْتَقِيْمٌ۝۵۱

"निस्संदेह अल्लाह मेरा भी रब है और तुम्हारा रब भी, अतः तुम उसी की बन्दगी करो। यही सीधा मार्ग है।"॥51॥

۞ فَلَمَّآ اَحَسَّ عِيْسٰى مِنْھُمُ الْكُفْرَ قَالَ مَنْ اَنْصَارِيْٓ اِلَى اللہِ۝۰ۭ قَالَ الْحَوَارِيُوْنَ نَحْنُ اَنْصَارُ اللہِ۝۰ۚ اٰمَنَّا بِاللہِ۝۰ۚ وَاشْہَدْ بِاَنَّا مُسْلِمُوْنَ۝۵۲

फिर जब ईसा को उनके अविश्वास और इनकार का आभास हुआ तो उसने कहा, "कौन अल्लाह की ओर बढ़ने में मेरा सहायक होता है?" हवारियों (साथियों) ने कहा, "हम अल्लाह के सहायक हैं। हम अल्लाह पर ईमान लाए और गवाह रहिए कि हम मुस्लिम (आज्ञाकारी) है ॥52॥

رَبَّنَآ اٰمَنَّا بِمَآ اَنْزَلْتَ وَاتَّبَعْنَا الرَّسُوْلَ فَاكْتُبْنَا مَعَ الشّٰہِدِيْنَ۝۵۳

"हमारे रब! तूने जो कुछ उतारा है, हम उसपर ईमान लाए और इस रसूल का अनुसरण स्वीकार किया। अतः तू हमें गवाही देनेवालों में लिख ले।"॥53॥

وَمَكَرُوْا وَمَكَرَ اللہُ۝۰ۭ وَاللہُ خَيْرُ الْمٰكِرِيْنَ۝۵۴ۧ

और वे गुप्ता चाल चले तो अल्लाह ने भी उसका तोड़ किया और अल्लाह उत्तम तोड़ करनेवाला है॥54॥

اِذْ قَالَ اللہُ يٰعِيْسٰٓى اِنِّىْ مُتَوَفِّيْكَ وَرَافِعُكَ اِلَيَّ وَمُطَہِرُكَ مِنَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَجَاعِلُ الَّذِيْنَ اتَّبَعُوْكَ فَوْقَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اِلٰى يَوْمِ الْقِيٰمَۃِ۝۰ۚ ثُمَّ اِلَيَّ مَرْجِعُكُمْ فَاَحْكُمُ بَيْنَكُمْ فِيْمَا كُنْتُمْ فِيْہِ تَخْتَلِفُوْنَ۝۵۵

जब अल्लाह ने कहा, "ऐ ईसा! मैं तुझे अपने क़ब्जे में ले लूँगा और तुझे अपनी ओर उठा लूँगा और अविश्वासियों (की कुचेष्टाओं) से तुझे पाक कर दूँगा और तेरे अनुयायियों को क़ियामत के दिन तक उन लोगों के ऊपर रखूँगा, जिन्होंने इनकार किया। फिर मेरी ओर तुम्हें लौटना है। फिर मैं तुम्हारे बीच उन चीज़ों का फ़ैसला कर दूँगा, जिनके विषय में तुम विभेद करते रहे हो॥55॥

فَاَمَّا الَّذِيْنَ كَفَرُوْا فَاُعَذِّبُھُمْ عَذَابًا شَدِيْدًا فِي الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَۃِ۝۰ۡوَمَا لَھُمْ مِّنْ نّٰصِرِيْنَ۝۵۶

"तो जिन लोगों ने इनकार की नीति अपनाई, उन्हें दुनिया और आख़िरत में कड़ी यातना दूँगा। उनका कोई सहायक न होगा।"॥56॥

وَاَمَّا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ فَيُوَفِّيْہِمْ اُجُوْرَھُمْ۝۰ۭ وَاللہُ لَا يُحِبُّ الظّٰلِـمِيْنَ۝۵۷

रहे वे लोग जो ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए उन्हें वह उनका पूरा-पूरा बदला देगा। अल्लाह अत्याचारियों से प्रेम नहीं करता॥57॥

ذٰلِكَ نَتْلُوْہُ عَلَيْكَ مِنَ الْاٰيٰتِ وَالذِّكْرِ الْحَكِيْمِ۝۵۸

ये आयतें है और हिक़मत (तत्वज्ञान) से परिपूर्ण अनुस्मारक, जो हम तुम्हें सुना रहे हैं॥58॥

اِنَّ مَثَلَ عِيْسٰى عِنْدَ اللہِ كَمَثَلِ اٰدَمَ۝۰ۭ خَلَقَہٗ مِنْ تُرَابٍ ثُمَّ قَالَ لَہٗ كُنْ فَيَكُوْنُ۝۵۹

निस्संदेह अल्लाह की दृष्टि में ईसा की मिसाल आदम जैसी है कि उसे मिट्टी से बनाया, फिर उससे कहा, "हो जा", तो वह हो जाता है॥59॥

اَلْحَقُّ مِنْ رَّبِّكَ فَلَا تَكُنْ مِّنَ الْمُمْتَرِيْنَ۝۶۰

यह हक़ तुम्हारे रब की ओर से हैं, तो तुम संदेह में न पड़ना॥60॥

فَمَنْ حَاۗجَّكَ فِيْہِ مِنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَكَ مِنَ الْعِلْمِ فَقُلْ تَعَالَوْا نَدْعُ اَبْنَاۗءَنَا وَاَبْنَاۗءَكُمْ وَنِسَاۗءَنَا وَنِسَاۗءَكُمْ وَاَنْفُسَـنَا وَاَنْفُسَكُمْ۝۰ۣ ثُمَّ نَبْتَہِلْ فَنَجْعَلْ لَّعْنَتَ اللہِ عَلَي الْكٰذِبِيْنَ۝۶۱

अब इसके पश्चात कि तुम्हारे पास ज्ञान आ चुका है, कोई तुमसे इस विषय में कुतर्क करे तो कह दो, "आओ, हम अपने बेटों को बुला लें और तुम भी अपने बेटों को बुला लो, और हम अपनी स्रि ूयों को बुला लें और तुम भी अपनी स्त्रियों को बुला लो, और हम अपने को और तुम अपने को ले आओ, फिर मिलकर प्रार्थना करें और झूठों पर अल्लाह की लानत भेजे।"॥61॥

اِنَّ ھٰذَا لَھُوَالْقَصَصُ الْحَقُّ۝۰ۚ وَمَا مِنْ اِلٰہٍ اِلَّا اللہُ۝۰ۭ وَاِنَّ اللہَ لَھُوَالْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ۝۶۲

निस्संदेह यही सच्चा बयान है और अल्लाह के अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं। और अल्लाह ही प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है॥62॥

فَاِنْ تَوَلَّوْا فَاِنَّ اللہَ عَلِيْمٌۢ بِالْمُفْسِدِيْنَ۝۶۳ۧ

फिर यदि वे लोग मुँह मोड़े तो अल्लाह फ़सादियों को भली-भाँति जानता है॥63॥

قُلْ يٰٓاَھْلَ الْكِتٰبِ تَعَالَوْا اِلٰى كَلِمَۃٍ سَوَاۗءٍؚبَيْنَنَا وَبَيْنَكُمْ اَلَّا نَعْبُدَ اِلَّا اللہَ وَلَا نُشْرِكَ بِہٖ شَـيْـــًٔـا وَّلَا يَتَّخِذَ بَعْضُنَا بَعْضًا اَرْبَابًا مِّنْ دُوْنِ اللہِ۝۰ۭ فَاِنْ تَوَلَّوْا فَقُوْلُوا اشْہَدُوْا بِاَنَّا مُسْلِمُوْنَ۝۶۴

कहो, "ऐ किताबवालो! आओ एक ऐसी बात की ओर जिसे हमारे और तुम्हारे बीच समान मान्यता प्राप्त है; यह कि हम अल्लाह के अतिरिक्त किसी की बन्दगी न करें और न उसके साथ किसी चीज़ को साझी ठहराएँ और न परस्पर हममें से कोई एक-दूसरे को अल्लाह से हटकर रब बनाए।" फिर यदि वे मुँह मोड़े तो कह दो, "गवाह रहो, हम तो मुस्लिम (आज्ञाकारी) है।"॥64॥

يٰٓاَھْلَ الْكِتٰبِ لِمَ تُحَاۗجُّوْنَ فِيْٓ اِبْرٰہِيْمَ وَمَآ اُنْزِلَتِ التَّوْرٰىۃُ وَالْاِنْجِيْلُ اِلَّا مِنْۢ بَعْدِہٖ۝۰ۭ اَفَلَا تَعْقِلُوْنَ۝۶۵

"ऐ किताबवालो! तुम इबराहीम के विषय में हमसे क्यों झगड़ते हो? जबकि तौरात और इंजील तो उसके पश्चात उतारी गई है, तो क्या तुम समझ से काम नहीं लेते?॥65॥

ھٰٓاَنْتُمْ ھٰٓؤُلَاۗءِ حَاجَجْتُمْ فِـيْمَا لَكُمْ بِہٖ عِلْمٌ فَلِمَ تُحَاۗجُّوْنَ فِيْمَا لَيْسَ لَكُمْ بِہٖ عِلْمٌ۝۰ۭ وَاللہُ يَعْلَمُ وَاَنْتُمْ لَا تَعْلَمُوْنَ۝۶۶

"ये तुम लोग हो कि उसके विषय में वाद-विवाद कर चुके जिसका तुम्हें कुछ ज्ञान था। अब उसके विषय में क्यों वाद-विवाद करते हो, जिसके विषय में तुम्हें कुछ भी ज्ञान नहीं? अल्लाह जानता है, तुम नहीं जानते"॥66॥

مَا كَانَ اِبْرٰہِيْمُ يَہُوْدِيًّا وَّلَا نَصْرَانِيًّا وَّلٰكِنْ كَانَ حَنِيْفًا مُّسْلِمًا۝۰ۭ وَمَا كَانَ مِنَ الْمُشْرِكِيْنَ۝۶۷

इबराहीम न यहूदी था और न ईसाई, बल्कि वह तो एक ओर को होकर रहनेवाला मुस्लिम (आज्ञाकारी) था। वह कदापि मुशरिकों में से न था॥67॥

اِنَّ اَوْلَى النَّاسِ بِـاِبْرٰہِيْمَ لَلَّذِيْنَ اتَّبَعُوْہُ وَھٰذَا النَّبِىُّ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْاۭ وَاللہُ وَلِيُّ الْمُؤْمِنِيْنَ۝۶۸

निस्संदेह इबराहीम से सबसे अधिक निकटता का सम्बन्ध रखनेवाले वे लोग है जिन्होंने उसका अनुसरण किया, और यह नबी और ईमानवाले लोग। और अल्लाह ईमानवालों को समर्थक एवं सहायक है॥68॥

وَدَّتْ طَّاۗىِٕفَۃٌ مِّنْ اَھْلِ الْكِتٰبِ لَوْ يُضِلُّوْنَكُمْ۝۰ۭ وَمَا يُضِلُّوْنَ اِلَّآ اَنْفُسَھُمْ وَمَا يَشْعُرُوْنَ۝۶۹

किताबवालों में से एक गिरोह के लोगों की कामना है कि काश! वे तुम्हें पथभ्रष्ट  कर सकें, जबकि वे केवल अपने-आपकों पथभ्रष्ट  कर रहे है! किन्तु उन्हें इसका एहसास नहीं॥69॥

يٰٓاَھْلَ الْكِتٰبِ لِمَ تَكْفُرُوْنَ بِاٰيٰتِ اللہِ وَاَنْتُمْ تَشْہَدُوْنَ۝۷۰

ऐ किताबवालों! तुम अल्लाह की आयतों का इनकार क्यों करते हो, जबकि तुम स्वयं गवाह हो?॥70॥

يٰٓاَھْلَ الْكِتٰبِ لِمَ تَلْبِسُوْنَ الْحَقَّ بِالْبَاطِلِ وَتَكْتُمُوْنَ الْحَقَّ وَاَنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ۝۷۱ۧ

ऐ किताबवालो! सत्य को असत्य के साथ क्यों गड्ड-मड्ड करते और जानते-बूझते हुए सत्य को छिपाते हो?॥71॥

وَقَالَتْ طَّاۗىِٕفَۃٌ مِّنْ اَھْلِ الْكِتٰبِ اٰمِنُوْا بِالَّذِيْٓ اُنْزِلَ عَلَي الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَجْہَ النَّہَارِ وَاكْفُرُوْٓا اٰخِرَہٗ لَعَلَّھُمْ يَرْجِعُوْنَ۝۷۲ۚۖ

किताबवालों में से एक गिरोह कहता है, "ईमानवालो पर जो कुछ उतरा है, उस पर प्रातःकाल ईमान लाओ और संध्या समय उसका इनकार कर दो, ताकि वे फिर जाएँ॥72॥

وَلَا تُؤْمِنُوْٓا اِلَّا لِمَنْ تَبِــعَ دِيْنَكُمْ۝۰ۭ قُلْ اِنَّ الْہُدٰى ھُدَى اللہِ۝۰ۙ اَنْ يُّؤْتٰٓى اَحَدٌ مِّثْلَ مَآ اُوْتِيْتُمْ اَوْ يُحَاۗجُّوْكُمْ عِنْدَ رَبِّكُمْ۝۰ۭ قُلْ اِنَّ الْفَضْلَ بِيَدِ اللہِ۝۰ۚ يُؤْتِيْہِ مَنْ يَّشَاۗءُ۝۰ۭ وَاللہُ وَاسِعٌ عَلِيْمٌ۝۷۳ۚۙ

"और तुम अपने धर्म के अनुयायियों के अतिरिक्त किसी पर विश्वास न करो। कह दो, वास्तविक मार्गदर्शन तो अल्लाह का मार्गदर्शन है - कि कहीं जो चीज़ तुम्हें प्राप्त है ,उस जैसी चीज़ किसी और को प्राप्त हो जाए, या वे तुम्हारे रब की दृष्टि मे तुम्हारे समकक्ष्ाज हो जाए। " कह दो, "बढ़-चढ़कर प्रदान करना तो अल्लाह के हाथ में है, जिसे चाहता है प्रदान करता है। और अल्लाह बड़ी समाईवाला, सब कुछ जाननेवाला है॥73॥

يَّخْتَصُّ بِرَحْمَتِہٖ مَنْ يَّشَاۗءُ۝۰ۭ وَاللہُ ذُو الْفَضْلِ الْعَظِيْمِ۝۷۴

"वह जिसे चाहता है अपनी रहमत (दयालुता) के लिए ख़ास कर लेता है। और अल्लाह बड़ी उदारता दर्शानेवाला है।"॥74॥

۞ وَمِنْ اَھْلِ الْكِتٰبِ مَنْ اِنْ تَاْمَنْہُ بِقِنْطَارٍ يُّؤَدِّہٖٓ اِلَيْكَ۝۰ۚ وَمِنْھُمْ مَّنْ اِنْ تَاْمَنْہُ بِدِيْنَارٍ لَّا يُؤَدِّہٖٓ اِلَيْكَ اِلَّا مَا دُمْتَ عَلَيْہِ قَاۗىِٕمًا۝۰ۭ ذٰلِكَ بِاَنَّھُمْ قَالُوْا لَيْسَ عَلَيْنَا فِي الْاُمِّيّٖنَ سَبِيْلٌ۝۰ۚ وَيَقُوْلُوْنَ عَلَي اللہِ الْكَذِبَ وَھُمْ يَعْلَمُوْنَ۝۷۵

और किताब वालों में कोई तो ऐसा है कि यदि तुम उसके पास धन-दौलत का एक ढेर भी अमानत रख दो तो वह उसे तुम्हें लौटा देगा। और उनमें कोई ऐसा है कि यदि तुम एक दीनार भी उसकी अमानत में रखों, तो जब तक कि तुम उसके सिर पर सवार न हो, वह उसे तुम्हें अदा नहीं करेगा। यह इसलिए कि वे कहते है, "उन लोगों के विषय में जो किताबवाले नहीं हैं हमारी कोई पकड़ नहीं।" और वे जानते-बूझते अल्लाह पर झूठ मढ़ते है॥75॥

بَلٰي مَنْ اَوْفٰى بِعَہْدِہٖ وَاتَّقٰى فَاِنَّ اللہَ يُحِبُّ الْمُتَّقِيْنَ۝۷۶

क्यों नहीं, जो कोई अपनी प्रतिज्ञा पूरी करेगा और डर रखेगा, तो अल्लाह भी डर रखनेवालों से प्रेम करता है॥76॥

اِنَّ الَّذِيْنَ يَشْتَرُوْنَ بِعَہْدِ اللہِ وَاَيْـمَانِہِمْ ثَــمَنًا قَلِيْلًا اُولٰۗىِٕكَ لَا خَلَاقَ لَھُمْ فِي الْاٰخِرَۃِ وَلَا يُكَلِّمُھُمُ اللہُ وَلَا يَنْظُرُ اِلَيْہِمْ يَوْمَ الْقِيٰمَۃِ وَلَا يُزَكِّـيْہِمْ۝۰۠ وَلَھُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ۝۷۷

रहे वे लोग जो अल्लाह की प्रतिज्ञा और अपनी क़समों का थोड़े मूल्य पर सौदा करते हैं, उनका आख़िरत में कोई हिस्सा नहीं। अल्लाह न तो उनसे बात करेगा और न क़ियामत के दिन उनकी ओर देखेगा, और न ही उन्हें निखारेगा। उनके लिए तो दुखद यातना है॥77॥

وَاِنَّ مِنْھُمْ لَفَرِيْقًا يَّلْوٗنَ اَلْسِنَـتَھُمْ بِالْكِتٰبِ لِتَحْسَبُوْہُ مِنَ الْكِتٰبِ وَمَا ھُوَمِنَ الْكِتٰبِ۝۰ۚ وَيَقُوْلُوْنَ ھُوَمِنْ عِنْدِ اللہِ وَمَا ھُوَمِنْ عِنْدِ اللہِ۝۰ۚ وَيَـقُوْلُوْنَ عَلَي اللہِ الْكَذِبَ وَھُمْ يَعْلَمُوْنَ۝۷۸

उनमें कुछ लोग ऐसे है जो किताब पढ़ते हुए अपनी ज़बानों का इस प्रकार उलट-फेर करते है कि तुम समझों कि वह किताब ही में से है, जबकि वह किताब में से नहीं होता। और वे कहते है, "यह अल्लाह की ओर से है।" जबकि वह अल्लाह की ओर से नहीं होता। और वे जानते-बूझते झूठ गढ़कर अल्लाह पर थोपते है॥78॥

مَا كَانَ لِبَشَرٍ اَنْ يُّؤْتِيَہُ اللہُ الْكِتٰبَ وَالْحُكْمَ وَالنُّبُوَّۃَ ثُمَّ يَقُوْلَ لِلنَّاسِ كُوْنُوْا عِبَادًا لِّيْ مِنْ دُوْنِ اللہِ وَلٰكِنْ كُوْنُوْا رَبّٰـنِيّٖنَ بِمَا كُنْتُمْ تُعَلِّمُوْنَ الْكِتٰبَ وَبِمَا كُنْتُمْ تَدْرُسُوْنَ۝۷۹ۙ

किसी मनुष्य के लिए यह सम्भव न था कि अल्लाह उसे किताब और हिकमत (तत्वदर्शिता) और पैग़म्बरी प्रदान करे और वह लोगों से कहने लगे, "तुम अल्लाह को छोड़कर मेरे उपासक बनो।" बल्कि वह तो यही कहेगा कि, "तुम ईश–भयवाले (रबवाले) बनो, इसलिए कि तुम किताब की शिक्षा देते हो और इसलिए कि तुम स्वयं भी पढ़ते हो।"॥79॥

وَلَا يَاْمُرَكُمْ اَنْ تَتَّخِذُوا الْمَلٰۗىِٕكَۃَ وَالنَّبِيّٖنَ اَرْبَابًا۝۰ۭ اَيَاْمُرُكُمْ بِالْكُفْرِ بَعْدَ اِذْ اَنْتُمْ مُّسْلِمُوْنَ۝۸۰ۧ

और न वह तुम्हें इस बात का हुक्म देगा कि तुम फ़रिश्तों और नबियों को अपना रब बना लो। क्या वह तुम्हें अधर्म का हुक्म देगा, जबकि तुम (उसके) आज्ञाकारी हो?॥80॥

وَاِذْ اَخَذَ اللہُ مِيْثَاقَ النَّبِيّٖنَ لَمَآ اٰتَيْتُكُمْ مِّنْ كِتٰبٍ وَّحِكْمَۃٍ ثُمَّ جَاۗءَكُمْ رَسُوْلٌ مُّصَدِّقٌ لِّمَا مَعَكُمْ لَتُؤْمِنُنَّ بِہٖ وَلَتَنْصُرُنَّہٗ۝۰ۭ قَالَ ءَ اَقْرَرْتُمْ وَاَخَذْتُمْ عَلٰي ذٰلِكُمْ اِصْرِيْ۝۰ۭ قَالُوْٓا اَقْرَرْنَا۝۰ۭ قَالَ فَاشْہَدُوْا وَاَنَا مَعَكُمْ مِّنَ الشّٰہِدِيْنَ۝۸۱

और याद करो जब अल्लाह ने नबियों के सम्बन्ध में वचन लिया था, "मैंने तुम्हें जो कुछ किताब और हिकमत प्रदान की, इसके पश्चात तुम्हारे पास कोई रसूल उसकी पुष्टि करता हुआ आए जो तुम्हारे पास मौजूद है, तो तुम अवश्य उस पर ईमान लाओगे और निश्चय ही उसकी सहायता करोगे।" कहा, "क्या तुमने इक़रार किया? और इसपर मेरी ओर से डाली हुई जिम्मेदारी को बोझ उठाया?" उन्होंने कहा, "हमने इक़रार किया।" कहा, "अच्छा तो गवाह रहो और मैं भी तुम्हारे साथ गवाह हूँ।"॥81॥

فَمَنْ تَوَلّٰى بَعْدَ ذٰلِكَ فَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الْفٰسِقُوْنَ۝۸۲

फिर इसके बाद जो फिर गए, तो ऐसे ही लोग अवज्ञाकारी है॥82॥

اَفَغَيْرَ دِيْنِ اللہِ يَبْغُوْنَ وَلَہٗٓ اَسْلَمَ مَنْ فِي السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ طَوْعًا وَّكَرْھًا وَّاِلَيْہِ يُرْجَعُوْنَ۝۸۳

अब क्या इन लोगों को अल्लाह के दीन (धर्म) के सिवा किसी और दीन की तलब है, हालाँकि आकाशों और धरती में जो कोई भी है, स्वेच्छापूर्वक या विवश होकर उसी के आगे झुका हुआ है। और उसी की ओर सबको लौटना है?॥83॥

قُلْ اٰمَنَّا بِاللہِ وَمَآ اُنْزِلَ عَلَيْنَا وَمَآ اُنْزِلَ عَلٰٓى اِبْرٰہِيْمَ وَاِسْمٰعِيْلَ وَاِسْحٰقَ وَيَعْقُوْبَ وَالْاَسْـبَاطِ وَمَآ اُوْتِيَ مُوْسٰى وَعِيْسٰى وَالنَّبِيُّوْنَ مِنْ رَّبِّہِمْ۝۰۠ لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ اَحَدٍ مِّنْھُمْ۝۰ۡوَنَحْنُ لَہٗ مُسْلِمُوْنَ۝۸۴

कहो, "हम तो अल्लाह पर और उस चीज़ पर ईमान लाए जो हम पर उतरी है, और जो इबराहीम, इसमाईल, इसहाक़ और याकूब़ और उनकी सन्तान पर उतरी उसपर भी, और जो मूसा और ईसा और दूसरे नबियो को उनके रब की ओर से प्रदान हुई (उसपर भी हम ईमान रखते है)। हम उनमें से किसी को उस सम्ब न्धइ से अलग नही करते जो उनके बीच पाया जाता है, और हम उसी के आज्ञाकारी (मुस्लिम) है।"॥84॥

وَمَنْ يَّبْتَـغِ غَيْرَ الْاِسْلَامِ دِيْنًا فَلَنْ يُّقْبَلَ مِنْہُ۝۰ۚ وَھُوَفِي الْاٰخِرَۃِ مِنَ الْخٰسِرِيْنَ۝۸۵

जो इस्लाम के अतिरिक्त कोई और दीन (धर्म) तलब करेगा तो उसकी ओर से कुछ भी स्वीकार न किया जाएगा। और आख़िरत में वह घाटा उठानेवालों में से होगा॥85॥

كَيْفَ يَہْدِي اللہُ قَوْمًا كَفَرُوْا بَعْدَ اِيْمَانِہِمْ وَشَہِدُوْٓا اَنَّ الرَّسُوْلَ حَقٌّ وَّجَاۗءَھُمُ الْبَيِّنٰتُ۝۰ۭ وَاللہُ لَا يَہْدِي الْقَوْمَ الظّٰلِـمِيْنَ۝۸۶

अल्लाह उन लोगों को कैसे मार्ग दिखाएगा, जिन्होंने अपने ईमान के पश्चात अधर्म और इनकार की नीति अपनाई, जबकि वे स्वयं इस बात की गवाही दे चुके हैं कि यह रसूल सच्चा है और उनके पास स्पष्ट  निशानियाँ भी आ चुकी हैं? अल्लाह अत्याचारी लोगों को मार्ग नहीं दिखाया करता॥86॥

اُولٰۗىِٕكَ جَزَاۗؤُھُمْ اَنَّ عَلَيْہِمْ لَعْنَۃَ اللہِ وَالْمَلٰۗىِٕكَۃِ وَالنَّاسِ اَجْمَعِيْنَ۝۸۷ۙ

उन लोगों का बदला यही है कि उनपर अल्लाह और फ़रिश्तों और सारे मनुष्यों की लानत है॥87॥

خٰلِدِيْنَ فِيْہَا۝۰ۚ لَا يُخَفَّفُ عَنْھُمُ الْعَذَابُ وَلَا ھُمْ يُنْظَرُوْنَ۝۸۸ۙ

इसी दशा में वे सदैव रहेंगे, न उनकी यातना हल्की होगी और न उन्हें मुहलत ही दी जाएगी॥88॥

اِلَّا الَّذِيْنَ تَابُوْا مِنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ وَاَصْلَحُوْا۝۰ۣ فَاِنَّ اللہَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ۝۸۹

हाँ, जिन लोगों ने इसके पश्चात तौबा कर ली और अपनी नीति को सुधार लिया तो निस्संदेह अल्लाह बड़ा क्षमाशील, दयावान है॥89॥

اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا بَعْدَ اِيْمَانِہِمْ ثُمَّ ازْدَادُوْا كُفْرًا لَّنْ تُقْبَلَ تَوْبَتُھُمْ۝۰ۚ وَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الضَّاۗلُّوْنَ۝۹۰

रहे वे लोग जिन्होंने अपने ईमान के पश्चात इनकार किया और अपने इनकार में बढ़ते ही गए, उनकी तौबा कदापि स्वीकार न होगी। वास्तव में वही पथभ्रष्ट  हैं॥90॥

اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَمَاتُوْا وَھُمْ كُفَّارٌ فَلَنْ يُّقْبَلَ مِنْ اَحَدِھِمْ مِّلْءُ الْاَرْضِ ذَھَبًا وَّلَوِ افْتَدٰى بِہٖ۝۰ۭ اُولٰۗىِٕكَ لَھُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ وَّمَا لَھُمْ مِّنْ نّٰصِرِيْنَ۝۹۱ۧ

निस्संदेह जिन लोगों ने इनकार किया और इनकार ही की दशा में मरे, तो उनमें किसी से धरती के बराबर सोना भी, यदि उसने प्राण-मुक्ति के लिए दिया हो, तो कदापि स्वीकार नहीं किया जाएगा। ऐसे लोगों के लिए दुखद यातना है और उनका कोई सहायक न होगा॥91॥

لَنْ تَنَالُوا الْبِرَّ حَتّٰى تُنْفِقُوْا مِمَّا تُحِبُّوْنَ۝۰ۥۭ وَمَا تُنْفِقُوْا مِنْ شَيْءٍ فَاِنَّ اللہَ بِہٖ عَلِيْمٌ۝۹۲

तुम नेकी और वफ़ादारी के दर्जे को नहीं पहुँच सकते, जब तक कि उन चीज़ो को (अल्लाह के मार्ग में) ख़र्च न करो, जो तुम्हें प्रिय है। और जो चीज़ भी तुम ख़र्च करोगे, निश्चय ही अल्लाह को उसका ज्ञान होगा॥92॥

(4) ۞ كُلُّ الطَّعَامِ كَانَ حِلًّا لِّبَنِىْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ اِلَّا مَا حَرَّمَ اِسْرَاۗءِيْلُ عَلٰي نَفْسِہٖ مِنْ قَبْلِ اَنْ تُنَزَّلَ التَّوْرٰىۃُ۝۰ۭ قُلْ فَاْتُوْا بِالتَّوْرٰىۃِ فَاتْلُوْھَآ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ۝۹۳

खाने की सारी चीज़े इसराईल की संतान के लिए हलाल थी, सिवाय उन चीज़ों के जिन्हें तौरात के उतरने से पहले इसराईल ने स्वयं अपने लिए हराम कर लिया था। कहो, "यदि तुम सच्चे हो तो तौरात लाओ और उसे पढ़ो।"॥93॥

فَمَنِ افْتَرٰى عَلَي اللہِ الْكَذِبَ مِنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ فَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الظّٰلِمُوْنَ۝۹۴۬

अब इसके पश्चात भी जो व्यक्ति झूठी बातें अल्लाह से जोड़े, तो ऐसे ही लोग अत्याचारी है॥94॥

قُلْ صَدَقَ اللہُ۝۰ۣ فَاتَّبِعُوْا مِلَّــۃَ اِبْرٰہِيْمَ حَنِيْفًا۝۰ۭ وَمَا كَانَ مِنَ الْمُشْرِكِيْنَ۝۹۵

कहो, "अल्लाह ने सच कहा है; अतः इबराहीम के तरीक़े का अनुसरण करो, जो हर ओर से कटकर एक का हो गया था और मुशरिकों में से न था॥95॥

اِنَّ اَوَّلَ بَيْتٍ وُّضِــعَ لِلنَّاسِ لَلَّذِيْ بِبَكَّۃَ مُبٰرَكًا وَّھُدًى لِّـلْعٰلَمِيْنَ۝۹۶ۚ

"निस्ंसदेह इबादत के लिए पहला घर जो 'मानव के लिए' बनाया गया वहीं है जो मक्का में है, बरकतवाला और सर्वथा मार्गदर्शन, संसारवालों के लिए॥96॥

فِيْہِ اٰيٰتٌۢ بَيِّنٰتٌ مَّقَامُ اِبْرٰہِيْمَ۝۰ۥۚ وَمَنْ دَخَلَہٗ كَانَ اٰمِنًا۝۰ۭ وَلِلہِ عَلَي النَّاسِ حِجُّ الْبَيْتِ مَنِ اسْـتَـطَاعَ اِلَيْہِ سَبِيْلًا۝۰ۭ وَمَنْ كَفَرَ فَاِنَّ اللہَ غَنِىٌّ عَنِ الْعٰلَمِيْنَ۝۹۷

"उसमें स्पष्ट निशानियाँ है, वह इबराहीम का स्थल है। और जिसने उसमें प्रवेश किया, वह निश्चिन्त हो गया। लोगों पर अल्लाह का हक़ है कि जिसको वहाँ तक पहुँचने की सामर्थ्य प्राप्त हो, वह इस घर का हज करे, और जिसने इनकार किया तो (इस इनकार से अल्लाह का कुछ नहीं बिगड़ता) अल्लाह तो सारे संसार से निरपेक्ष है।"॥97॥

قُلْ يٰٓاَھْلَ الْكِتٰبِ لِمَ تَكْفُرُوْنَ بِاٰيٰتِ اللہِ۝۰ۤۖ وَاللہُ شَہِيْدٌ عَلٰي مَا تَعْمَلُوْنَ۝۹۸

कहो, "ऐ किताबवालों! तुम अल्लाह की आयतों का इनकार क्यों करते हो, जबकि जो कुछ तुम कर रहे हो, अल्लाह की दृष्टि में है?"॥98॥

قُلْ يٰٓاَھْلَ الْكِتٰبِ لِمَ تَصُدُّوْنَ عَنْ سَبِيْلِ اللہِ مَنْ اٰمَنَ تَبْغُوْنَھَا عِوَجًا وَّاَنْتُمْ شُہَدَاۗءُ۝۰ۭ وَمَا اللہُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُوْنَ۝۹۹

कहो, "ऐ किताबवालो! तुम ईमान लानेवालों को अल्लाह के मार्ग से क्यो रोकते हो, तुम्हें उसमें किसी टेढ़ की तलाश रहती है, जबकि तुम भली-भाँति वास्तविकता से अवगत हो और जो कुछ तुम कर रहे हो, अल्लाह उससे बेख़बर नहीं है।"॥99॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِنْ تُطِيْعُوْا فَرِيْقًا مِّنَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ يَرُدُّوْكُمْ بَعْدَ اِيْمَانِكُمْ كٰفِرِيْنَ۝۱۰۰

ऐ ईमान लानेवालो! यदि तुमने उनके किसी गिरोह की बात माल ली, जिन्हें किताब मिली थी, तो वे तुम्हारे ईमान लाने के पश्चात फिर तुम्हें अधर्मी बना देंगे॥100॥

وَكَيْفَ تَكْفُرُوْنَ وَاَنْتُمْ تُتْلٰى عَلَيْكُمْ اٰيٰتُ اللہِ وَفِيْكُمْ رَسُوْلُہٗ۝۰ۭ وَمَنْ يَّعْتَصِمْ بِاللہِ فَقَدْ ھُدِيَ اِلٰى صِرَاطٍ مُّسْتَـقِيْمٍ۝۱۰۱ۧ

अब तुम इनकार कैसे कर सकते हो, जबकि तुम्हें अल्लाह की आयतें पढ़कर सुनाई जा रही है और उसका रसूल तुम्हारे बीच मौजूद है? जो कोई अल्लाह को मज़बूती से पकड़ ले, वह सीधे मार्ग पर आ गया॥101॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اتَّقُوا اللہَ حَقَّ تُقٰتِہٖ وَلَا تَمُوْتُنَّ اِلَّا وَاَنْتُمْ مُّسْلِمُوْنَ۝۱۰۲

ऐ ईमान लानेवालो! अल्लाह का डर रखो, जैसा कि उसका डर रखने का हक़ है। और तुम्हारी मृत्यु बस इस दशा में आए कि तुम मुस्लिम (आज्ञाकारी) हो॥102॥

وَاعْتَصِمُوْا بِحَبْلِ اللہِ جَمِيْعًا وَّلَا تَفَرَّقُوْا۝۰۠ وَاذْكُرُوْا نِعْمَتَ اللہِ عَلَيْكُمْ اِذْ كُنْتُمْ اَعْدَاۗءً فَاَلَّفَ بَيْنَ قُلُوْبِكُمْ فَاَصْبَحْتُمْ بِنِعْمَتِہٖٓ اِخْوَانًا۝۰ۚ وَكُنْتُمْ عَلٰي شَفَا حُفْرَۃٍ مِّنَ النَّارِ فَاَنْقَذَكُمْ مِّنْھَا۝۰ۭ كَذٰلِكَ يُبَيِّنُ اللہُ لَكُمْ اٰيٰتِہٖ لَعَلَّكُمْ تَھْتَدُوْنَ۝۱۰۳

और सब मिलकर अल्लाह की रस्सी को मज़बूती से पकड़ लो और विभेद में न पड़ो। और अल्लाह की उस कृपा को याद करो जो तुमपर हुई। जब तुम आपस में एक-दूसरे के शत्रु थे तो उसने तुम्हारे दिलों को परस्पर जोड़ दिया और तुम उसकी कृपा से भाई-भाई बन गए। तुम आग के एक गड्ढे के किनारे खड़े थे, तो अल्लाह ने उससे तुम्हें बचा लिया। इस प्रकार अल्लाह तुम्हारे लिए अपनी आयते खोल-खोलकर बयान करता है, ताकि तुम मार्ग पा लो॥103॥

وَلْتَكُنْ مِّنْكُمْ اُمَّۃٌ يَّدْعُوْنَ اِلَى الْخَيْرِ وَيَاْمُرُوْنَ بِالْمَعْرُوْفِ وَيَنْہَوْنَ عَنِ الْمُنْكَرِۭ وَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الْمُفْلِحُوْنَ۝۱۰۴

और तुम्हें एक ऐसे समुदाय का रूप धारण कर लेना चाहिए जो नेकी की ओर बुलाए और भलाई का आदेश दे और बुराई से रोके। यही सफलता प्राप्त  करनेवाले लोग है॥104॥

وَلَا تَكُوْنُوْا كَالَّذِيْنَ تَفَرَّقُوْا وَاخْتَلَفُوْا مِنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَھُمُ الْبَيِّنٰتُ۝۰ۭ وَاُولٰۗىِٕكَ لَھُمْ عَذَابٌ عَظِيْمٌ۝۱۰۵ۙ

तुम उन लोगों की तरह न हो जाना जो फुट का शीकार हो गए, और इसके पश्चात कि उनके पास खुली निशानियाँ आ चुकी थी, वे विभेद में पड़ गए। ये वही लोग है, जिनके लिए बड़ी (घोर) यातना है। (यह यातना उस दिन होगी)॥105॥

يَّوْمَ تَبْيَضُّ وُجُوْہٌ وَّتَسْوَدُّ وُجُوْہٌ۝۰ۚ فَاَمَّا الَّذِيْنَ اسْوَدَّتْ وُجُوْھُھُمْ۝۰ۣ اَكَفَرْتُمْ بَعْدَ اِيْمَانِكُمْ فَذُوْقُوا الْعَذَابَ بِمَا كُنْتُمْ تَكْفُرُوْنَ۝۱۰۶

जिस दिन कितने ही चेहरे उज्ज्वल होंगे और कितने ही चेहरे काले पड़ जाएँगे, तो जिनके चेहेर काले पड़ गए होंगे ( वे सदा यातना में ग्रस्त रहेंगे। खुली निशानियाँ आने के बाद जिन्होंने विभेद किया) उनसे कहा जाएगा, "क्या तुमने ईमान के पश्चात इनकार की नीति अपनाई? तो लो अब उस इनकार के बदले में जो तुम करते रहे हो, यातना का मज़ा चखो।"॥106॥

وَاَمَّا الَّذِيْنَ ابْيَضَّتْ وُجُوْھُھُمْ فَفِيْ رَحْمَۃِ اللہِ۝۰ۭ ھُمْ فِيْھَا خٰلِدُوْنَ۝۱۰۷

रहे वे लोग जिनके चेहरे उज्ज्वल होंगे, वे अल्लाह की दयालुता की छाया में होंगे। वे उसी में सदैव रहेंगे॥107॥

تِلْكَ اٰيٰتُ اللہِ نَتْلُوْھَا عَلَيْكَ بِالْحَـقِّ۝۰ۭ وَمَا اللہُ يُرِيْدُ ظُلْمًا لِّلْعٰلَمِيْنَ۝۱۰۸

ये अल्लाह की आयतें है, जिन्हें हम हक़ के साथ तुम्हें सुना रहे है। अल्लाह संसारवालों पर किसी प्रकार का अत्याचार नहीं करना चाहता॥108॥

وَلِلہِ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ۝۰ۭ وَاِلَى اللہِ تُرْجَعُ الْاُمُوْرُ۝۱۰۹ۧ

आकाशों और धरती मे जो कुछ है अल्लाह ही का है, और सारे मामले अल्लाह ही की ओर लौटाए जाते है॥109॥

كُنْتُمْ خَيْرَ اُمَّۃٍ اُخْرِجَتْ لِلنَّاسِ تَاْمُرُوْنَ بِالْمَعْرُوْفِ وَتَنْہَوْنَ عَنِ الْمُنْكَرِ وَتُؤْمِنُوْنَ بِاللہِ۝۰ۭ وَلَوْ اٰمَنَ اَھْلُ الْكِتٰبِ لَكَانَ خَيْرًا لَّھُمْ۝۰ۭ مِنْھُمُ الْمُؤْمِنُوْنَ وَاَكْثَرُھُمُ الْفٰسِقُوْنَ۝۱۱۰

तुम एक उत्तम समुदाय हो, जो लोगों के समक्ष लाया गया है। तुम नेकी का हुक्म देते हो और बुराई से रोकते हो और अल्लाह पर ईमान रखते हो। और यदि किताबवाले भी ईमान लाते तो उनके लिए यह अच्छा होता। उनमें ईमानवाले भी हैं, किन्तु उनमें अधिकतर लोग अवज्ञाकारी ही हैं॥110॥

لَنْ يَّضُرُّوْكُمْ اِلَّآ اَذًى۝۰ۭ وَاِنْ يُّقَاتِلُوْكُمْ يُوَلُّوْكُمُ الْاَدْبَار۝۰ۣ ثُمَّ لَا يُنْصَرُوْنَ۝۱۱۱

थोड़ा दुख पहुँचाने के अतिरिक्त वे तुम्हारा कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते। और यदि वे तुमसे लड़ेंगे, तो तुम्हें पीठ दिखा जाएँगे, फिर उन्हें कोई सहायता भी न मिलेगी॥111॥

ضُرِبَتْ عَلَيْہِمُ الذِّلَّـۃُ اَيْنَ مَا ثُـقِفُوْٓا اِلَّا بِحَبْلٍ مِّنَ اللہِ وَحَبْلٍ مِّنَ النَّاسِ وَبَاۗءُوْ بِغَضَبٍ مِّنَ اللہِ وَضُرِبَتْ عَلَيْہِمُ الْمَسْكَنَۃُ۝۰ۭ ذٰلِكَ بِاَنَّھُمْ كَانُوْا يَكْفُرُوْنَ بِاٰيٰتِ اللہِ وَيَقْتُلُوْنَ الْاَنْۢبِيَاۗءَ بِغَيْرِ حَقٍّ۝۰ۭ ذٰلِكَ بِمَا عَصَوْا وَّكَانُوْا يَعْتَدُوْنَ۝۱۱۲ۤ

वे जहाँ कहीं भी पाए गए उनपर ज़िल्लत (अपमान) थोप दी गई। किन्तु अल्लाह की रस्सी थामें या लोगों की  रस्सी, तो और बात है। वे ल्लाह के प्रकोप के पात्र हुए और उनपर मुहताजी थोप दी गई। यह इसलिए कि वे अल्लाह की आयतों का इनकार और नबियों को नाहक़ क़त्ल के दरपे  है। और यह इसलिए कि उन्होंने अवज्ञा की और सीमोल्लंघन करते रहे॥112॥

۞ لَيْسُوْا سَوَاۗءً۝۰ۭ مِنْ اَھْلِ الْكِتٰبِ اُمَّۃٌ قَاۗىِٕمَۃٌ يَّتْلُوْنَ اٰيٰتِ اللہِ اٰنَاۗءَ الَّيْلِ وَھُمْ يَسْجُدُوْنَ۝۱۱۳

ये सब एक जैसे नहीं है। किताबवालों में से कुछ ऐसे लोग भी है जो सीधे मार्ग पर है और रात की घड़ियों में अल्लाह की आयतें पढ़ते है और वे सजदा करते रहनेवाले है॥113॥

يُؤْمِنُوْنَ بِاللہِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَيَاْمُرُوْنَ بِالْمَعْرُوْفِ وَيَنْہَوْنَ عَنِ الْمُنْكَرِ وَيُسَارِعُوْنَ فِي الْخَيْرٰتِ۝۰ۭ وَاُولٰۗىِٕكَ مِنَ الصّٰلِحِيْنَ۝۱۱۴

वे अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान रखते है और नेकी का हुक्म देते और बुराई से रोकते है और नेक कामों में अग्रसर रहते है, और वे अच्छे लोगों में से है॥114॥

وَمَا يَفْعَلُوْا مِنْ خَيْرٍ فَلَنْ يُّكْفَرُوْہُ۝۰ۭ وَاللہُ عَلِيْمٌۢ بِالْمُتَّقِيْنَ۝۱۱۵

जो नेकी भी वे करेंगे, उसकी अवमानना न होगी। अल्लाह डर रखनेवालो से भली-भाँति परिचित है॥115॥

اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَنْ تُغْنِىَ عَنْھُمْ اَمْوَالُھُمْ وَلَآ اَوْلَادُھُمْ مِّنَ اللہِ شَـيْــــًٔـا۝۰ۭ وَاُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ۝۰ۚ ھُمْ فِيْھَا خٰلِدُوْنَ۝۱۱۶

रहे वे लोग जिन्होंने इनकार किया, तो अल्लाह के मुक़ाबले में न उनके माल उनके कुछ काम आ सकेंगे और न उनकी सन्तान ही। वे तो आग में जानेवाले लोग है, उसी में वे सदैव रहेंगे॥116॥

مَثَلُ مَا يُنْفِقُوْنَ فِيْ ھٰذِہِ الْحَيٰوۃِ الدُّنْيَا كَمَثَلِ رِيْحٍ فِيْھَا صِرٌّ اَصَابَتْ حَرْثَ قَوْمٍ ظَلَمُوْٓا اَنْفُسَھُمْ فَاَھْلَكَتْہُ۝۰ۭ وَمَا ظَلَمَھُمُ اللہُ وَلٰكِنْ اَنْفُسَھُمْ يَظْلِمُوْنَ۝۱۱۷

इस सांसारिक जीवन के लिए जो कुछ भी वे ख़र्च करते है, उसकी मिसाल उस वायु जैसी है जिसमें पाला हो और वह उन लोगों की खेती पर चल जाए, जिन्होंने अपने ऊपर अत्याचार किया है और उसे विनष्ट1 करके रख दे ।अल्लालह ने उन पर कोई अत्यांचार नही किया, अपितु वे तो स्वयं अपने ऊपर अत्याचार कर रहे है॥117॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَتَّخِذُوْا بِطَانَۃً مِّنْ دُوْنِكُمْ لَا يَاْلُوْنَكُمْ خَبَالًا۝۰ۭ وَدُّوْا مَا عَنِتُّمْ۝۰ۚ قَدْ بَدَتِ الْبَغْضَاۗءُ مِنْ اَفْوَاہِھِمْ۝۰ۚۖ وَمَا تُخْفِيْ صُدُوْرُھُمْ اَكْبَرُ۝۰ۭ قَدْ بَيَّنَّا لَكُمُ الْاٰيٰتِ اِنْ كُنْتُمْ تَعْقِلُوْنَ۝۱۱۸

ऐ ईमान लानेवालो! अपनों को छोड़कर दूसरों को अपना अंतरंग मित्र न बनाओ, वे तुम्हें नुक़सान पहुँचाने में कोई कमी नहीं करते। जितनी भी तुम कठिनाई में पड़ो, वही उनको प्रिय है। उनका द्वेष तो उनके मुँह से व्यक्त हो चुका है और जो कुछ उनके सीने छिपाए हुए है, वह तो इससे भी बढ़कर है। यदि तुम बुद्धि से काम लो, तो हमने तुम्हारे लिए निशानियाँ खोलकर बयान कर दी हैं॥118॥

ھٰٓاَنْتُمْ اُولَاۗءِ تُحِبُّوْنَھُمْ وَلَا يُحِبُّوْنَكُمْ وَتُؤْمِنُوْنَ بِالْكِتٰبِ كُلِّہٖ۝۰ۚ وَاِذَا لَقُوْكُمْ قَالُوْٓااٰمَنَّا۝۰ۚۤۖ وَاِذَا خَلَوْا عَضُّوْا عَلَيْكُمُ الْاَنَامِلَ مِنَ الْغَيْظ۝۰ۭ قُلْ مُوْتُوْا بِغَيْظِكُمْ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ عَلِيْمٌۢ بِذَاتِ الصُّدُوْرِ۝۱۱۹

ये तो तुम हो जो उनसे प्रेम करते हो और वे तुमसे प्रेम नहीं करते, जबकि तुम समस्त किताबों पर ईमान रखते हो। और वे जब तुमसे मिलते है तो कहने को तो कहते है कि "हम ईमान लाए है।" किन्तु जब वे अलग होते है तो तुमपर क्रोध के मारे दाँतों से उँगलियाँ काटने लगते है। कह दो, "तुम अपने क्रोध में आप मरो। निस्संदेह अल्लाह दिलों के भेद को जानता है।"॥119॥

اِنْ تَمْسَسْكُمْ حَسَـنَۃٌ تَـسُؤْھُمْ۝۰ۡوَاِنْ تُصِبْكُمْ سَيِّئَۃٌ يَّفْرَحُوْا بِھَا۝۰ۭ وَاِنْ تَصْبِرُوْا وَتَتَّقُوْا لَا يَضُرُّكُمْ كَيْدُھُمْ شَـيْـــًٔـا۝۰ۭ اِنَّ اللہَ بِمَا يَعْمَلُوْنَ مُحِيْطٌ۝۱۲۰ۧ

यदि तुम्हारा कोई भला होता है तो उन्हें बुरा लगता है। परन्तु यदि तुम्हें कोई अप्रिय बात पेश आती है तो उससे वे प्रसन्न हो जाते है। यदि तुमने धैर्य से काम लिया और (अल्लाह का) डर रखा, तो उनकी कोई चाल तुम्हें नुक़सान नहीं पहुँचा सकती। जो कुछ वे कर रहे है, अल्लाह ने उसे अपने धेरे में ले रखा है॥120॥

وَاِذْ غَدَوْتَ مِنْ اَھْلِكَ تُبَوِّئُ الْمُؤْمِنِيْنَ مَقَاعِدَ لِلْقِتَالِ۝۰ۭ وَاللہُ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ۝۱۲۱ۙ

याद करो जब तुम सवेरे अपने घर से निकलकर ईमानवालों को युद्ध के मोर्चों पर लगा रहे थे। - अल्लाह तो सब कुछ सुनता, जानता है॥121॥

اِذْ ھَمَّتْ طَّاۗىِٕفَتٰنِ مِنْكُمْ اَنْ تَفْشَلَا۝۰ۙ وَاللہُ وَلِيُّہُمَا۝۰ۭ وَعَلَي اللہِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُؤْمِنُوْنَ۝۱۲۲

जब तुम्हारे दो गिरोहों ने साहस छोड़ देना चाहा, जबकि अल्लाह उनका संरक्षक मौजूद था - और ईमानवालों को तो अल्लाह ही पर भरोसा करना चाहिए॥122॥

وَلَقَدْ نَصَرَكُمُ اللہُ بِبَدْرٍ وَّاَنْتُمْ اَذِلَّــۃٌ۝۰ۚ فَاتَّقُوا اللہَ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ۝۱۲۳

और बद्र (की लडाई) में अल्लाह तुम्हारी सहायता कर भी चुका था, जबकि तुम बहुत कमज़ोर हालत में थे। अतः अल्लाह ही का डर रखो, ताकि तुम कृतज्ञ बनो॥123॥

اِذْ تَقُوْلُ لِلْمُؤْمِنِيْنَ اَلَنْ يَّكْفِيَكُمْ اَنْ يُـمِدَّكُمْ رَبُّكُمْ بِثَلٰثَۃِ اٰلٰفٍ مِّنَ الْمَلٰۗىِٕكَۃِ مُنْزَلِيْنَ۝۱۲۴ۭ

जब तुम ईमानवालों से कह रहे थे, "क्या यह तुम्हारे लिए काफ़ी नही हैं कि तुम्हारा रब तीन हज़ार फ़रिश्ते उतारकर तुम्हारी सहायता करे?"॥124॥

بَلٰٓى۝۰ۙ اِنْ تَصْبِرُوْا وَتَتَّقُوْا وَيَاْتُوْكُمْ مِّنْ فَوْرِھِمْ ھٰذَا يُمْدِدْكُمْ رَبُّكُمْ بِخَمْسَۃِ اٰلٰفٍ مِّنَ الْمَلٰۗىِٕكَۃِ مُسَوِّمِيْنَ۝۱۲۵

हाँ, क्यों नहीं। यदि तुम धैर्य से काम लो और डर रखो, फिर शत्रु सहसा तुमपर चढ़ आएँ, उसी क्षण तुम्हारा रब पाँच हज़ार विध्वंशकारी फ़रिश्तों से तुम्हारी सहायता करेगा॥125॥

وَمَا جَعَلَہُ اللہُ اِلَّا بُشْرٰى لَكُمْ وَلِتَطْمَىِٕنَّ قُلُوْبُكُمْ بِہٖ۝۰ۭ وَمَا النَّصْرُ اِلَّا مِنْ عِنْدِ اللہِ الْعَزِيْزِ الْحَكِيْمِ۝۱۲۶ۙ

अल्लाह ने तो इसे तुम्हारे लिए एक शुभ-सूचना बनाया और (ऐसा इसलिए किया कि ) तुम्हारे दिल सन्तुष्ट हो जाएँ - सहायता तो बस अल्लाह ही के यहाँ से आती है जो अत्यन्त प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है॥126॥

لِيَقْطَعَ طَرَفًا مِّنَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اَوْ يَكْبِتَھُمْ فَيَنْقَلِبُوْا خَاۗىِٕــبِيْنَ۝۱۲۷

ताकि इनकार करनेवालों के एक हिस्से को काट डाले या उन्हें बुरी पराजित और अपमानित कर दे कि वे असफल होकर लौटें॥127॥

لَيْسَ لَكَ مِنَ الْاَمْرِ شَيْءٌ اَوْ يَتُوْبَ عَلَيْھِمْ اَوْ يُعَذِّبَھُمْ فَاِنَّھُمْ ظٰلِمُوْنَ۝۱۲۸

तुम्हें इस मामले में कोई अधिकार नहीं - चाहे वह उसकी तौबा क़बूल करे या उन्हें यातना दे, क्योंकि वे अत्याचारी है॥128॥

وَلِلہِ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ۝۰ۭ يَغْفِرُ لِمَنْ يَّشَاۗءُ وَيُعَذِّبُ مَنْ يَّشَاۗءُ۝۰ۭ وَاللہُ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ۝۱۲۹ۧ

आकाशों और धरती में जो कुछ भी है, अल्लाह ही का है। वह जिसे चाहे क्षमा कर दे और जिसे चाहे यातना दे। और अल्लाह अत्यन्त क्षमाशील, दयावान है॥129॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَاْكُلُوا الرِّبٰٓوا اَضْعَافًا مُّضٰعَفَۃً۝۰۠ وَاتَّقُوا اللہَ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ۝۱۳۰ۚ

ऐ ईमान लानेवालो! बढ़ोत्तरी के ध्येय से ब्याज न खाओ, जो कई गुना अधिक हो सकता है। और अल्लाह का डर रखो, ताकि तुम्हें सफलता प्राप्त हो॥130॥

وَاتَّقُوا النَّارَ الَّتِىْٓ اُعِدَّتْ لِلْكٰفِرِيْنَ۝۱۳۱ۚ

और उस आग से बचो जो इनकार करनेवालों के लिए तैयार है॥131॥

وَاَطِيْعُوا اللہَ وَالرَّسُوْلَ لَعَلَّكُمْ تُرْحَمُوْنَ۝۱۳۲ۚ

और अल्लाह और रसूल के आज्ञाकारी बनो, ताकि तुमपर दया की जाए॥132॥

۞ وَسَارِعُوْٓا اِلٰى مَغْفِرَۃٍ مِّنْ رَّبِّكُمْ وَجَنَّۃٍ عَرْضُھَا السَّمٰوٰتُ وَالْاَرْضُ۝۰ۙ اُعِدَّتْ لِلْمُتَّقِيْنَ۝۱۳۳ۙ

और अपने रब की क्षमा और उस जन्नत की ओर बढ़ो, जिसका विस्तार आकाशों और धरती जैसा है। वह उन लोगों के लिए तैयार है जो डर रखते है॥133॥

الَّذِيْنَ يُنْفِقُوْنَ فِي السَّرَّاۗءِ وَالضَّرَّاۗءِ وَالْكٰظِمِيْنَ الْغَيْظَ وَالْعَافِيْنَ عَنِ النَّاسِ۝۰ۭ وَاللہُ يُحِبُّ الْمُحْسِـنِيْنَ۝۱۳۴ۚ

वे लोग जो ख़ुशहाली और तंगी की प्रत्येक अवस्था में ख़र्च करते रहते है और क्रोध को रोकते है और लोगों को क्षमा करते है - और अल्लाह को भी ऐसे लोग प्रिय है, जो अच्छे से अच्छा कर्म करते है॥134॥

وَالَّذِيْنَ اِذَا فَعَلُوْا فَاحِشَۃً اَوْ ظَلَمُوْٓا اَنْفُسَھُمْ ذَكَرُوا اللہَ فَاسْتَغْفَرُوْا لِذُنُوْبِھِمْ۝۰۠ وَمَنْ يَّغْفِرُ الذُّنُوْبَ اِلَّا اللہُ۝۰ۣ۠ وَلَمْ يُصِرُّوْا عَلٰي مَا فَعَلُوْا وَھُمْ يَعْلَمُوْنَ۝۱۳۵

और जिनका हाल यह है कि जब वे कोई खुला गुनाह कर बैठते है या अपने आप पर ज़ुल्म करते है तो तत्काल अल्लाह उन्हें याद आ जाता है और वे अपने गुनाहों की क्षमा चाहने लगते हैं - और अल्लाह के अतिरिक्त कौन है, जो गुनाहों को क्षमा कर सके? और जानते-बूझते वे अपने किए पर अड़े नहीं रहते॥135॥

اُولٰۗىِٕكَ جَزَاۗؤُھُمْ مَّغْفِرَۃٌ مِّنْ رَّبِّھِمْ وَجَنّٰتٌ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِھَا الْاَنْھٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْھَا۝۰ۭ وَنِعْمَ اَجْرُ الْعٰمِلِيْنَ۝۱۳۶ۭ

उनका बदला उनके रब की ओर से क्षमादान है और ऐसे बाग़ है जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। उनमें वे सदैव रहेंगे। और क्या ही अच्छा बदला है अच्छे कर्म करनेवालों का॥136॥

قَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلِكُمْ سُنَنٌ۝۰ۙ فَسِيْرُوْا فِي الْاَرْضِ فَانْظُرُوْا كَيْفَ كَانَ عَاقِبَۃُ الْمُكَذِّبِيْنَ۝۱۳۷

तुमसे पहले (धर्मविरोधियों के साथ अल्लाह की) रीति के कितने ही नमूने गुज़र चुके है, तो तुम धरती में चल-फिरकर देखो कि झुठलानेवालों का क्याअ परिणाम हुआ है॥137॥

ھٰذَا بَيَانٌ لِّلنَّاسِ وَھُدًى وَّمَوْعِظَۃٌ لِّلْمُتَّقِيْنَ۝۱۳۸

यह लोगों के लिए स्पष्ट बयान और डर रखनेवालों के लिए मार्गदर्शन और उपदेश है॥138॥

وَلَا تَہِنُوْا وَلَا تَحْزَنُوْا وَاَنْتُمُ الْاَعْلَوْنَ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ۝۱۳۹

हताश न हो और दुखी न हो, यदि तुम ईमानवाले हो, (जबकि) स्थिति यह है कि तुम्हीं प्रभावी रहोगे॥139॥

اِنْ يَّمْسَسْكُمْ قَرْحٌ فَقَدْ مَسَّ الْقَوْمَ قَرْحٌ مِّثْلُہٗ۝۰ۭ وَتِلْكَ الْاَيَّامُ نُدَاوِلُھَا بَيْنَ النَّاسِ۝۰ۚ وَلِيَعْلَمَ اللہُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَيَتَّخِذَ مِنْكُمْ شُہَدَاۗءَ۝۰ۭ وَاللہُ لَا يُحِبُّ الظّٰلِـمِيْنَ۝۱۴۰ۙ

यदि तुम्हें आघात पहुँचे तो उन लोगों को भी ऐसा ही आघात पहुँच चुका है। ये युद्ध के दिन हैं, जिन्हें हम लोगों के बीच डालते ही रहते है और ऐसा इसलिए हुआ कि अल्लाह ईमानवालों को जान ले और तुममें से कुछ लोगों को गवाह बनाए - और अत्याचारी अल्लाह को प्रिय नहीं है॥140॥

وَلِيُمَحِّصَ اللہُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَيَمْحَقَ الْكٰفِرِيْنَ۝۱۴۱

और ताकि अल्लाह ईमानवालों को निखार दे और इनकार करनेवालों को मिटा दे॥141॥

اَمْ حَسِبْتُمْ اَنْ تَدْخُلُوا الْجَنَّۃَ وَلَمَّا يَعْلَمِ اللہُ الَّذِيْنَ جٰہَدُوْا مِنْكُمْ وَيَعْلَمَ الصّٰبِرِيْنَ۝۱۴۲

(क्या तुम जिहाद नही करोगे) क्या  तुमने यह समझ रखा है कि जन्नत में यूँ ही प्रवेश करोगे, जबकि अल्लाह ने अभी उन्हें परखा ही नहीं जो तुममें जिहाद (सत्य-मार्ग में जानतोड़ कोशिश) करनेवाले है। - और दृढ़तापूर्वक जमें रहनेवालो को प्रथक प्रकट कर दे ॥142॥

وَلَقَدْ كُنْتُمْ تَـمَنَّوْنَ الْمَوْتَ مِنْ قَبْلِ اَنْ تَلْقَوْہُ۝۰۠ فَقَدْ رَاَيْتُمُوْہُ وَاَنْتُمْ تَنْظُرُوْنَ۝۱۴۳ۧ

और तुम तो मृत्यु की कामनाएँ कर रहे थे, जब तक कि वह तुम्हारे सामने नहीं आई थी। लो, अब तो वह तुम्हारे सामने आ गई और तुमने उसे अपनी आँखों से देख लिया॥143॥

وَمَا مُحَمَّدٌ اِلَّا رَسُوْلٌ۝۰ۚ قَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلِہِ الرُّسُلُ۝۰ۭ اَفَا۟ىِٕنْ مَّاتَ اَوْ قُتِلَ انْقَلَبْتُمْ عَلٰٓى اَعْقَابِكُمْ۝۰ۭ وَمَنْ يَّنْقَلِبْ عَلٰي عَقِبَيْہِ فَلَنْ يَّضُرَّ اللہَ شَـيْـــًٔـا۝۰ۭ وَسَيَجْزِي اللہُ الشّٰكِرِيْنَ۝۱۴۴

मुहम्मद तो बस एक रसूल है। उनसे पहले भी रसूल गुज़र चुके है। तो क्या यदि उनकी मृत्यु हो जाए या उनकी हत्या कर दी जाए तो तुम उल्टे पाँव फिर जाओगे? जो कोई उल्टे पाँव फिरेगा, वह अल्लाह का कुछ नहीं बिगाडेगा। और कृतज्ञ लोगों को अल्लाह बदला देगा॥144॥

وَمَا كَانَ لِنَفْسٍ اَنْ تَمُـوْتَ اِلَّا بِـاِذْنِ اللہِ كِتٰبًا مُّؤَجَّلًا۝۰ۭ وَمَنْ يُّرِدْ ثَوَابَ الدُّنْيَا نُؤْتِہٖ مِنْھَا۝۰ۚ وَمَنْ يُّرِدْ ثَوَابَ الْاٰخِرَۃِ نُؤْتِہٖ مِنْھَا۝۰ۚ وَسَنَجْزِي الشّٰكِرِيْنَ۝۱۴۵

और अल्लाह की अनुज्ञा के बिना कोई व्यक्ति मर नहीं सकता। हर व्यक्ति एक लिखित निश्चित समय का अनुपालन कर रहा है। और जो कोई दुनिया का बदला चाहेगा, उसे हम इस दुनिया में से देंगे, जो आख़िरत का बदला चाहेगा, उसे हम उसमें से देंगे और जो कृतज्ञता दिखलाएँगे, उन्हें तो हम बदला देंगे ही॥145॥

وَكَاَيِّنْ مِّنْ نَّبِيٍّ قٰتَلَ۝۰ۙ مَعَہٗ رِبِّيُّوْنَ كَثِيْرٌ۝۰ۚ فَمَا وَہَنُوْا لِمَآ اَصَابَھُمْ فِيْ سَبِيْلِ اللہِ وَمَا ضَعُفُوْا وَمَا اسْتَكَانُوْا۝۰ۭ وَاللہُ يُحِبُّ الصّٰبِرِيْنَ۝۱۴۶

कितने ही नबी ऐसे गुज़रे है जिनके साथ होकर बहुत-से ईश भक्तों ने युद्ध किया, तो अल्लाह के मार्ग में जो मुसीबत उन्हें पहुँची उससे वे न तो हताश हुए और न उन्होंने कमज़ोरी दिखाई और न ऐसा हुआ कि वे दबे हो। और अल्लाह दृढ़तापूर्वक जमे रहनेवालों से प्रेम करता है॥146॥

وَمَا كَانَ قَوْلَھُمْ اِلَّآ اَنْ قَالُوْا رَبَّنَا اغْفِرْ لَنَا ذُنُوْبَنَا وَاِسْرَافَنَا فِيْٓ اَمْرِنَا وَثَبِّتْ اَقْدَامَنَا وَانْصُرْنَا عَلَي الْقَوْمِ الْكٰفِرِيْنَ۝۱۴۷

उन्होंने कुछ नहीं कहा सिवाय इसके कि "ऐ हमारे रब! तू हमारे गुनाहों को और हमारे अपने मामले में जो ज़्यादती हमसे हो गई हो, उसे क्षमा कर दे और हमारे क़दम जमाए रख, और इनकार करनेवाले लोगों के मुक़ाबले में हमारी सहायता कर।"॥147॥

فَاٰتٰىھُمُ اللہُ ثَوَابَ الدُّنْيَا وَحُسْنَ ثَوَابِ الْاٰخِرَۃِ۝۰ۭ وَاللہُ يُحِبُّ الْمُحْسِـنِيْنَ۝۱۴۸ۧ

अतः अल्लाह ने उन्हें दुनिया का भी बदला दिया और आख़िरत का अच्छा बदला भी। और सत्कर्मी लोगों से अल्लाह प्रेम करता है॥148॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِنْ تُطِيْعُوا الَّذِيْنَ كَفَرُوْا يَرُدُّوْكُمْ عَلٰٓي اَعْقَابِكُمْ فَتَنْقَلِبُوْا خٰسِرِيْنَ۝۱۴۹

ऐ ईमान लानेवालो! यदि तुम उन लोगों के कहने पर चलोगे जिन्होंने इनकार का मार्ग अपनाया है, तो वे तुम्हें उल्टे पाँव फेर ले जाएँगे। फिर तुम घाटे में पड़ जाओगे॥149॥

بَلِ اللہُ مَوْلٰىكُمْ۝۰ۚ وَھُوَخَيْرُ النّٰصِرِيْنَ۝۱۵۰

बल्कि अल्लाह ही तुम्हारा संरक्षक है; और वह सबसे अच्छा सहायक है॥150॥

سَـنُلْقِيْ فِيْ قُلُوْبِ الَّذِيْنَ كَفَرُوا الرُّعْبَ بِمَآ اَشْرَكُوْا بِاللہِ مَا لَمْ يُنَزِّلْ بِہٖ سُلْطٰنًا۝۰ۚ وَمَاْوٰىھُمُ النَّارُ۝۰ۭ وَبِئْسَ مَثْوَى الظّٰلِــمِيْنَ۝۱۵۱

हम शीघ्र ही इनकार करनेवालों के दिलों में धाक बिठा देंगे, इसलिए कि उन्होंने ऐसी चीज़ो को अल्लाह का साक्षी ठहराया है जिनसे साथ उसने कोई सनद नहीं उतारी, और उनका ठिकाना आग (जहन्नम) है। और अत्याचारियों का क्या ही बुरा ठिकाना है॥151॥

وَلَقَدْ صَدَقَكُمُ اللہُ وَعْدَہٗٓ اِذْ تَحُسُّوْنَھُمْ بِـاِذْنِہٖ۝۰ۚ حَتّٰٓي اِذَا فَشِلْتُمْ وَتَنَازَعْتُمْ فِي الْاَمْرِ وَعَصَيْتُمْ مِّنْۢ بَعْدِ مَآ اَرٰىكُمْ مَّا تُحِبُّوْنَ۝۰ۭ مِنْكُمْ مَّنْ يُّرِيْدُ الدُّنْيَا وَمِنْكُمْ مَّنْ يُّرِيْدُ الْاٰخِرَۃَ۝۰ۚ ثُمَّ صَرَفَكُمْ عَنْھُمْ لِـيَبْتَلِيَكُمْ۝۰ۚ وَلَقَدْ عَفَا عَنْكُمْ۝۰ۭ وَاللہُ ذُوْ فَضْلٍ عَلَي الْمُؤْمِنِيْنَ۝۱۵۲

और अल्लाह ने तो तुम्हें अपना वादा सच्चा कर दिखाया, जबकि तुम उसकी अनुज्ञा से उन्हें क़त्ल कर रहे थे। यहाँ तक कि जब तुम स्वयं ढीले पड़ गए और काम में झगड़ा डाल दिया और अवज्ञा की, जबकि अल्लाह ने तुम्हें वह चीज़ दिखा दी थी जिसकी तुम्हें चाह थी। तुममें कुछ लोग दुनिया चाहते थे और कुछ आख़िरत के इच्छुक थे। फिर अल्लाह ने तुम्हें उनके मुक़ाबले से हटा दिया, ताकि वह तुम्हारी परीक्षा ले। फिर भी उसने तुम्हें क्षमा कर दिया, क्योंकि अल्लाह ईमानवालों के लिए बड़ा अनुग्राही है॥152॥

۞ اِذْ تُصْعِدُوْنَ وَلَا تَلْوٗنَ عَلٰٓي اَحَدٍ وَّالرَّسُوْلُ يَدْعُوْكُمْ فِيْٓ اُخْرٰىكُمْ فَاَثَابَكُمْ غَمًّۢا بِغَمٍّ لِّكَيْلَا تَحْزَنُوْا عَلٰي مَا فَاتَكُمْ وَلَا مَآ اَصَابَكُمْ۝۰ۭ وَاللہُ خَبِيْرٌۢ بِمَا تَعْمَلُوْنَ۝۱۵۳

जब तुम लोग दूर भागे चले जा रहे थे और किसी को मुड़कर देखते तक न थे और रसूल तुम्हें पुकार रहा था, जबकि वह तुम्हारी दूसरी टुकड़ी के साथ था (जो भागी नहीं), तो अल्लाह ने तुम्हें शोक पर शोक दिया, ताकि तुम्हारे हाथ से कोई चीज़ निकल जाए या तुमपर कोई मुसीबत आए तो तुम शोकाकुल न हो। और जो कुछ भी तुम करते हो, अल्लाह उसकी भली-भाँति ख़बर रखता है॥153॥

ثُمَّ اَنْزَلَ عَلَيْكُمْ مِّنْۢ بَعْدِ الْغَمِّ اَمَنَۃً نُّعَاسًا يَّغْشٰى طَاۗىِٕفَۃً مِّنْكُمْ۝۰ۙ وَطَاۗىِٕفَۃٌ قَدْ اَہَمَّـتْھُمْ اَنْفُسُھُمْ يَظُنُّوْنَ بِاللہِ غَيْرَ الْحَـقِّ ظَنَّ الْجَاہِلِيَّۃِ۝۰ۭ يَقُوْلُوْنَ ھَلْ لَّنَا مِنَ الْاَمْرِ مِنْ شَيْءٍ۝۰ۭ قُلْ اِنَّ الْاَمْرَ كُلَّہٗ لِلہِ۝۰ۭ يُخْفُوْنَ فِيْٓ اَنْفُسِھِمْ مَّا لَا يُبْدُوْنَ لَكَ۝۰ۭ يَقُوْلُوْنَ لَوْ كَانَ لَنَا مِنَ الْاَمْرِ شَيْءٌ مَّا قُتِلْنَا ھٰہُنَا۝۰ۭ قُلْ لَّوْ كُنْتُمْ فِيْ بُيُوْتِكُمْ لَبَرَزَ الَّذِيْنَ كُتِبَ عَلَيْہِمُ الْقَتْلُ اِلٰى مَضَاجِعِھِمْ۝۰ۚ وَلِــيَـبْتَلِيَ اللہُ مَا فِيْ صُدُوْرِكُمْ وَلِـيُمَحِّصَ مَا فِيْ قُلُوْبِكُمْ۝۰ۭ وَاللہُ عَلِيْمٌۢ بِذَاتِ الصُّدُوْرِ۝۱۵۴

फिर इस शोक के पश्चात उसने तुमपर एक शान्ति उतारी - एक निद्रा, जो तुममें से कुछ लोगों को घेर रही थी और कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्हें अपने प्राणों की चिन्ता थी। वे अल्लाह के विषय में ऐसा ख़याल कर रहे थे, जो सत्य के सर्वथा प्रतिकूल, अज्ञान (काल) का ख़याल था। वे कहते थे, "इन मामलों में क्या हमारा भी कुछ अधिकार है?" कह दो, "मामले तो सबके सब अल्लाह के (हाथ में) हैं।" वे जो कुछ अपने दिलों में छिपाए रखते है, तुमपर ज़ाहिर नहीं करते। कहते है, "यदि इस मामले में हमारा भी कुछ अधिकार होता तो हम यहाँ मारे न जाते।" कह दो, "यदि तुम अपने घरों में भी होते, तो भी जिन लोगों का क़त्ल होना तय था, वे निकलकर अपने अन्तिम शयन-स्थलों कर पहुँचकर रहते।" और यह इसलिए भी था कि जो कुछ तुम्हारे सीनों में है, अल्लाह उसे परख ले और जो कुछ तुम्हारे दिलों में है उसे साफ़ कर दे। और अल्लाह दिलों का हाल भली-भाँति जानता है॥154॥

اِنَّ الَّذِيْنَ تَوَلَّوْا مِنْكُمْ يَوْمَ الْتَقَى الْجَمْعٰنِ۝۰ۙ اِنَّمَا اسْتَزَلَّھُمُ الشَّـيْطٰنُ بِبَعْضِ مَا كَسَبُوْا۝۰ۚ وَلَقَدْ عَفَا اللہُ عَنْھُمْ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ غَفُوْرٌ حَلِيْمٌ۝۱۵۵ۧ

तुममें से जो लोग दोनों गिरोहों की मुठभेड़ के दिन पीठ दिखा गए, उन्हें तो शैतान ही ने उनकी कुछ कमाई (कर्म) का कारण विचलित कर दिया था। और अल्लाह तो उन्हें क्षमा कर चुका है। निस्संदेह अल्लाह बड़ा क्षमा करनेवाला, सहनशील है॥155॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَكُوْنُوْا كَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَقَالُوْا لِاِخْوَانِھِمْ اِذَا ضَرَبُوْا فِي الْاَرْضِ اَوْ كَانُوْا غُزًّى لَّوْ كَانُوْا عِنْدَنَا مَا مَاتُوْا وَمَا قُتِلُوْا۝۰ۚ لِيَجْعَلَ اللہُ ذٰلِكَ حَسْرَۃً فِيْ قُلُوْبِھِمْ۝۰ۭ وَاللہُ يُحْيٖ وَيُمِيْتُ۝۰ۭ وَاللہُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ بَصِيْرٌ۝۱۵۶

ऐ ईमान लानेवालो! उन लोगों की तरह न हो जाना जिन्होंने इनकार किया और अपने भाईयों के विषय में, जबकि वे सफ़र में गए हों या युद्ध में हो (और उनकी वहाँ मृत्यु हो जाए तो) कहते है, "यदि वे हमारे पास होते तो न मरते और न क़त्ल होते।" (ऐसी बातें तो इसलिए होती है) ताकि अल्लाह उनको उनके दिलों में घर करनेवाला पछतावा और सन्ताप बना दे। अल्लाह ही जीवन प्रदान करने और मृत्यु देनेवाला है। और तुम जो कुछ भी कर रहे हो वह अल्लाह की दृष्टि में है॥156॥

وَلَىِٕنْ قُتِلْتُمْ فِيْ سَبِيْلِ اللہِ اَوْ مُتُّمْ لَمَغْفِرَۃٌ مِّنَ اللہِ وَرَحْمَۃٌ خَيْرٌ مِّمَّا يَجْمَعُوْنَ۝۱۵۷

और यदि तुम अल्लाह के मार्ग में मारे गए या मर गए, तो अल्लाह का क्षमादान और उसकी दयालुता तो उससे कहीं उत्तम है, जिसके बटोरने में वे लगे हुए है॥157॥

وَلَىِٕنْ مُّتُّمْ اَوْ قُتِلْتُمْ لَاِالَى اللہِ تُحْشَرُوْنَ۝۱۵۸

हाँ, यदि तुम मर गए या मारे गए, तो प्रत्येक दशा में तुम अल्लाह ही के पास इकट्ठा किए जाओगे॥158॥

فَبِمَا رَحْمَۃٍ مِّنَ اللہِ لِنْتَ لَھُمْ۝۰ۚ وَلَوْ كُنْتَ فَظًّا غَلِيْظَ الْقَلْبِ لَانْفَضُّوْا مِنْ حَوْلِكَ۝۰۠ فَاعْفُ عَنْھُمْ وَاسْتَغْفِرْ لَھُمْ وَشَاوِرْھُمْ فِي الْاَمْرِ۝۰ۚ فَاِذَا عَزَمْتَ فَتَوَكَّلْ عَلَي اللہِ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ يُحِبُّ الْمُتَوَكِّلِيْنَ۝۱۵۹

(तुमने तो अपनी दयालुता से उन्हें क्षमा कर दिया) तो अल्लाह की ओर से ही बड़ी दयालुता है जिसके कारण तुम उनके लिए नर्म रहे हो, यदि कहीं तुम स्वभाव के क्रूर और कठोर हृदय होते तो ये सब तुम्हारे पास से छँट जाते। अतः उन्हें क्षमा कर दो और उनके लिए क्षमा की प्रार्थना करो। और मामलों में उनसे परामर्श कर लिया करो। फिर जब तुम्हारे संकल्प किसी सम्मति पर सुदृढ़ हो जाएँ तो अल्लाह पर भरोसा करो। निस्संदेह अल्लाह को वे लोग प्रिय है जो उसपर भरोसा करते है॥159॥

اِنْ يَّنْصُرْكُمُ اللہُ فَلَا غَالِبَ لَكُمْ۝۰ۚ وَاِنْ يَّخْذُلْكُمْ فَمَنْ ذَا الَّذِيْ يَنْصُرُكُمْ مِّنْۢ بَعْدِہٖ۝۰ۭ وَعَلَي اللہِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُؤْمِنُوْنَ۝۱۶۰

यदि अल्लाह तुम्हारी सहायता करे, तो कोई तुमपर प्रभावी नहीं हो सकता। और यदि वह तुम्हें छोड़ दे, तो फिर कौन हो जो उसके पश्चात तुम्हारी सहायता कर सके। अतः ईमानवालों को अल्लाह ही पर भरोसा रखना चाहिए॥160॥

وَمَا كَانَ لِنَبِيٍّ اَنْ يَّغُلَّ۝۰ۭ وَمَنْ يَّغْلُلْ يَاْتِ بِمَا غَلَّ يَوْمَ الْقِيٰمَۃِ۝۰ۚ ثُمَّ تُوَفّٰي كُلُّ نَفْسٍ مَّا كَسَبَتْ وَھُمْ لَا يُظْلَمُوْنَ۝۱۶۱

यह किसी नबी के लिए सम्भब नहीं कि वह दिल में कीना-कपट रखे, और जो कोई कीना-कपट रखेगा तो वह क़ियामत के दिन अपने द्वेष समेत हाज़िर होगा। और प्रत्येक व्यक्ति को उसकी कमाई का पूरा-पूरा बदला दे दिया जाएँगा और उनपर कुछ भी ज़ुल्म न होगा॥161॥

اَفَمَنِ اتَّبَعَ رِضْوَانَ اللہِ كَمَنْۢ بَاۗءَ بِسَخَطٍ مِّنَ اللہِ وَمَاْوٰىہُ جَہَنَّمُ۝۰ۭ وَبِئْسَ الْمَصِيْرُ۝۱۶۲

भला क्या जो व्यक्ति अल्लाह की इच्छा पर चले वह उस जैसा हो सकता है जो अल्लाह के प्रकोप का भागी हो चुका हो और जिसका ठिकाना जहन्नम है? और वह क्या ही बुरा ठिकाना है॥162॥

ھُمْ دَرَجٰتٌ عِنْدَ اللہِ۝۰ۭ وَاللہُ بَصِيْرٌۢ بِمَا يَعْمَلُوْنَ۝۱۶۳

अल्लाह के यहाँ उनके विभिन्न दर्जे है और जो कुछ वे कर रहे है, अल्लाह की दृष्टि में है॥163॥

لَقَدْ مَنَّ اللہُ عَلَي الْمُؤْمِنِيْنَ اِذْ بَعَثَ فِيْھِمْ رَسُوْلًا مِّنْ اَنْفُسِھِمْ يَتْلُوْا عَلَيْھِمْ اٰيٰتِہٖ وَيُزَكِّيْھِمْ وَيُعَلِّمُھُمُ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَۃَ۝۰ۚ وَاِنْ كَانُوْا مِنْ قَبْلُ لَفِيْ ضَلٰلٍ مُّبِيْنٍ۝۱۶۴

निस्संदेह अल्लाह ने ईमानवालों पर बड़ा उपकार किया, जबकि स्वयं उन्हीं में से एक ऐसा रसूल उठाया जो उन्हें उसकी आयतें सुनाता है और उन्हें निखारता है, और उन्हें किताब और हिक़मत (तत्वदर्शिता) की शिक्षा देता है, अन्यथा इससे पहले वे लोग खुली गुमराही में पड़े हुए थे॥164॥

اَوَلَمَّآ اَصَابَتْكُمْ مُّصِيْبَۃٌ قَدْ اَصَبْتُمْ مِّثْلَيْھَا۝۰ۙ قُلْتُمْ اَنّٰى ہٰذَا۝۰ۭ قُلْ ھُوَ مِنْ عِنْدِ اَنْفُسِكُمْ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ۝۱۶۵

यह क्या कि जब तुम्हें एक मुसीबत पहुँची, जिसकी दो गुनी तुमने पहुँचाई, तो तुम कहने लगे कि, "यह कहाँ से आ गई?" कह दो, "यह तो तुम्हारी अपनी ओर से है, अल्लाह को हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त  है।"॥165॥

وَمَآ اَصَابَكُمْ يَوْمَ الْتَقَى الْجَمْعٰنِ فَبِـاِذْنِ اللہِ وَلِيَعْلَمَ الْمُؤْمِنِيْنَ۝۱۶۶ۙ

और दोनों गिरोह की मुठभेड़ के दिन जो कुछ तुम्हारे सामने आया वह अल्लाह ही की अनुज्ञा से आया और इसलिए कि वह जान ले कि ईमानवाले कौन है॥166॥

وَلِيَعْلَمَ الَّذِيْنَ نَافَقُوْا۝۰ۚۖ وَقِيْلَ لَھُمْ تَعَالَوْا قَاتِلُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللہِ اَوِ ادْفَعُوْا۝۰ۭ قَالُوْا لَوْ نَعْلَمُ قِتَالًا لَّااتَّبَعْنٰكُمْ۝۰ۭ ھُمْ لِلْكُفْرِ يَوْمَىِٕذٍ اَقْرَبُ مِنْھُمْ لِلْاِيْمَانِ۝۰ۚ يَقُوْلُوْنَ بِاَفْوَاہِھِمْ مَّا لَيْسَ فِيْ قُلُوْبِھِمْ۝۰ۭ وَاللہُ اَعْلَمُ بِمَا يَكْتُمُوْنَ۝۱۶۷ۚ

और इसलिए कि वह कपटाचारियों को भी जान ले जिनसे कहा गया कि "आओ, अल्लाह के मार्ग में युद्ध करो या दुश्मनों को हटाओ।" उन्होंने कहा, "यदि हम जानते कि लड़ाई होगी तो हम अवश्य तुम्हारे साथ हो लेते।" उस दिन वे ईमान की अपेक्षा अधर्म के अधिक निकट थे। वे अपने मुँह से वे बातें कहते है, जो उनके दिलों में नहीं होती। और जो कुछ वे छिपाते है, अल्लाह उसे भली-भाँति जानता है॥167॥

اَلَّذِيْنَ قَالُوْا لِاِخْوَانِھِمْ وَقَعَدُوْا لَوْ اَطَاعُوْنَا مَا قُتِلُوْا۝۰ۭ قُلْ فَادْرَءُوْا عَنْ اَنْفُسِكُمُ الْمَوْتَ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ۝۱۶۸

ये वही लोग है जो स्वयं तो बैठे रहे और अपने भाइयों के विषय में कहने लगे, "यदि वे हमारी बात मान लेते तो मारे न जाते।" कह तो, "अच्छा, यदि तुम सच्चे हो, तो अब तुम अपने ऊपर से मृत्यु को टाल देना।"॥168॥

وَلَا تَحْسَبَنَّ الَّذِيْنَ قُتِلُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللہِ اَمْوَاتًا۝۰ۭ بَلْ اَحْيَاۗءٌ عِنْدَ رَبِّھِمْ يُرْزَقُوْنَ۝۱۶۹ۙ

तुम उन लोगों को जो अल्लाह के मार्ग में मारे गए है, मुर्दा न समझो, बल्कि वे अपने रब के पास जीवित हैं, रोज़ी पा रहे हैं॥169॥

فَرِحِيْنَ بِمَآ اٰتٰىھُمُ اللہُ مِنْ فَضْلِہٖ۝۰ۙ وَيَسْـتَبْشِرُوْنَ بِالَّذِيْنَ لَمْ يَلْحَقُوْا بِھِمْ مِّنْ خَلْفِھِمْ۝۰ۙ اَلَّا خَوْفٌ عَلَيْھِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ۝۱۷۰ۘ

अल्लाह ने अपनी उदार कृपा से जो कुछ उन्हें प्रदान किया है, वे उसपर बहुत प्रसन्न है और उन लोगों के लिए भी ख़ुश हो रहे है जो उनके पीछे रह गए है, अभी उनसे मिले नहीं है कि उन्हें भी न कोई भय होगा और न वे दुखी होंगे॥170॥

۞ يَسْتَبْشِرُوْنَ بِنِعْمَۃٍ مِّنَ اللہِ وَفَضْلٍ۝۰ۙ وَّاَنَّ اللہَ لَا يُضِيْعُ اَجْرَ الْمُؤْمِنِيْنَ۝۱۷۱ۚۛۧ

वे अल्लाह के अनुग्रह और उसकी उदार कृपा से प्रसन्न हो रहे है और इससे कि अल्लाह ईमानवालों का बदला नष्ट  नहीं करता॥171॥

اَلَّذِيْنَ اسْتَجَابُوْا لِلہِ وَالرَّسُوْلِ مِنْۢ بَعْدِ مَآ اَصَابَھُمُ الْقَرْحُ۝۰ۭۛ لِلَّذِيْنَ اَحْسَنُوْا مِنْھُمْ وَاتَّقَوْا اَجْرٌ عَظِيْمٌ۝۱۷۲ۚ

जिन लोगों ने अल्लाह और रसूल की पुकार को स्वीकार किया, इसके पश्चात कि उन्हें आघात पहुँच चुका था। इन सत्कर्मियो और (अल्लाह का) डर रखनेवालों के लिए बड़ा प्रतिदान है॥172॥

اَلَّذِيْنَ قَالَ لَھُمُ النَّاسُ اِنَّ النَّاسَ قَدْ جَمَعُوْا لَكُمْ فَاخْشَوْھُمْ فَزَادَھُمْ اِيْمَانًا۝۰ۤۖ وَّقَالُوْا حَسْبُنَا اللہُ وَنِعْمَ الْوَكِيْلُ۝۱۷۳

ये वही लोग है जिनसे लोगों ने कहा, "तुम्हारे विरुद्ध लोग इकट्ठा हो गए है, अतः उनसे डरो।" तो इस चीज़ ने उनके ईमान को और बढ़ा दिया। और उन्होंने कहा, "हमारे लिए तो बस अल्लाह काफ़ी है और वही सबसे अच्छा कार्य-साधक है।"॥173॥

فَانْقَلَبُوْا بِنِعْمَۃٍ مِّنَ اللہِ وَفَضْلٍ لَّمْ يَمْسَسْھُمْ سُوْۗءٌ۝۰ۙ وَّاتَّبَعُوْا رِضْوَانَ اللہِ۝۰ۭ وَاللہُ ذُوْ فَضْلٍ عَظِيْمٍ۝۱۷۴

तो वे अल्लाह की ओर से प्राप्त  होनेवाली नेमत और उदार कृपा के साथ लौटे। उन्हें कोई तकलीफ़ छू भी नहीं सकी और वे अल्लाह की इच्छा पर चले भी, और अल्लाह बड़ी ही उदार कृपावाला है॥174॥

اِنَّمَا ذٰلِكُمُ الشَّيْطٰنُ يُخَوِّفُ اَوْلِيَاۗءَہٗ۝۰۠ فَلَا تَخَافُوْھُمْ وَخَافُوْنِ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ۝۱۷۵

वह तो शैतान है जो अपने मित्रों को डराता है। अतः तुम उनसे न डरो, बल्कि मुझी से डरो, यदि तुम ईमानवाले हो॥175॥

وَلَا يَحْزُنْكَ الَّذِيْنَ يُسَارِعُوْنَ فِي الْكُفْرِ۝۰ۚ اِنَّھُمْ لَنْ يَّضُرُّوا اللہَ شَـيْــــًٔـا۝۰ۭ يُرِيْدُ اللہُ اَلَّا يَجْعَلَ لَھُمْ حَظًّا فِي الْاٰخِرَۃِ۝۰ۚ وَلَھُمْ عَذَابٌ عَظِيْمٌ۝۱۷۶

जो लोग अधर्म और इनकार में जल्दी दिखाते है, उनके कारण तुम दुखी न हो। वे अल्लाह का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। अल्लाह चाहता है कि उनके लिए आख़िरत में कोई हिस्सा न रखे, उनके लिए तो बड़ी यातना है॥176॥

اِنَّ الَّذِيْنَ اشْتَرَوُا الْكُفْرَ بِالْاِيْمَانِ لَنْ يَّضُرُّوا اللہَ شَـيْـــًٔـا۝۰ۚ وَلَھُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ۝۱۷۷

जो लोग ईमान की क़ीमत पर इनकार और अधर्म के ग्राहक हुए, वे अल्लाह का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते, उनके लिए तो दुखद यातना है॥177॥

وَلَا يَحْسَبَنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اَنَّمَا نُمْلِيْ لَھُمْ خَيْرٌ لِّاَنْفُسِھِمْ۝۰ۭ اِنَّمَا نُمْلِيْ لَھُمْ لِيَزْدَادُوْٓا اِثْمًا۝۰ۚ وَلَھُمْ عَذَابٌ مُّہِيْنٌ۝۱۷۸

और यह ढ़ील जो हम उन्हें दिए जाते है, इसे अधर्मी लोग अपने लिए अच्छा न समझे। यह ढील तो हम उन्हें सिर्फ़ इसलिए दे रहे है कि वे गुनाहों में और अधिक बढ़ जाएँ, और उनके लिए तो अत्यन्त अपमानजनक यातना है॥178॥

مَا كَانَ اللہُ لِيَذَرَ الْمُؤْمِنِيْنَ عَلٰي مَآ اَنْتُمْ عَلَيْہِ حَتّٰى يَمِيْزَ الْخَبِيْثَ مِنَ الطَّيِّبِ۝۰ۭ وَمَا كَانَ اللہُ لِيُطْلِعَكُمْ عَلَي الْغَيْبِ وَلٰكِنَّ اللہَ يَجْتَبِىْ مِنْ رُّسُلِہٖ مَنْ يَّشَاۗءُ۝۰۠ فَاٰمِنُوْا بِاللہِ وَرُسُلِہٖ۝۰ۚ وَاِنْ تُؤْمِنُوْا وَتَتَّقُوْا فَلَكُمْ اَجْرٌ عَظِيْمٌ۝۱۷۹

अल्लाह ईमानवालों को इस दशा में नहीं रहने देगा, जिसमें तुम हो। यह तो उस समय तक की बात है जब तक कि वह अपवित्र को पवित्र से पृथक नहीं कर देता। और अल्लाह ऐसा नहीं है कि वह तुम्हें परोक्ष की सूचना दे दे। किन्तु अल्लाह इस काम के लिए जिसको चाहता है चुन लेता है, और वे उसके रसूल होते है। अतः अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाओ। और यदि तुम ईमान लाओगे और (अल्लाह का) डर रखोगे तो तुमको बड़ा प्रतिदान मिलेगा॥179॥

وَلَا يَحْسَبَنَّ الَّذِيْنَ يَبْخَلُوْنَ بِمَآ اٰتٰىھُمُ اللہُ مِنْ فَضْلِہٖ ھُوَخَيْرًا لَّھُمْ۝۰ۭ بَلْ ھُوَشَرٌّ لَّھُمْ۝۰ۭ سَيُطَوَّقُوْنَ مَا بَخِلُوْا بِہٖ يَوْمَ الْقِيٰمَۃِ۝۰ۭ وَلِلہِ مِيْرَاثُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ۝۰ۭ وَاللہُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ خَبِيْرٌ۝۱۸۰ۧ

जो लोग उस चीज़ में कृपणता से काम लेते है, जो अल्लाह ने अपनी उदार कृपा से उन्हें प्रदान की है, वे यह न समझे कि यह उनके हित में अच्छा है, बल्कि यह उनके लिए बुरा है। जिस चीज़ में उन्होंने कृपणता से काम लिया होगा, वही आगे कियामत के दिन उनके गले का तौक़ बन जाएगा। और ये आकाश और धरती अंत में अल्लाह ही के लिए रह जाएँगे। तुम जो कुछ भी करते हो, अल्लाह उसकी ख़बर रखता है॥180॥

لَقَدْ سَمِعَ اللہُ قَوْلَ الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّ اللہَ فَقِيْرٌ وَّنَحْنُ اَغْنِيَاۗءُ۝۰ۘ سَنَكْتُبُ مَا قَالُوْا وَقَتْلَھُمُ الْاَنْۢبِيَاۗءَ بِغَيْرِ حَقٍّ۝۰ۙ وَّنَقُوْلُ ذُوْقُوْا عَذَابَ الْحَرِيْقِ۝۱۸۱

अल्लाह उन लोगों की बात सुन चुका है जिनका कहना है कि "अल्लाह तो निर्धन है और हम धनवान है।" उनकी बात हम लिख लेंगे और नबियों को जो वे नाहक क़त्ल करने के दरपे रहे है उसे भी। और हम कहेंगे, "लो, (अब) जलने की यातना का मज़ा चखो।"॥181॥

ذٰلِكَ بِمَا قَدَّمَتْ اَيْدِيْكُمْ وَاَنَّ اللہَ لَيْسَ بِظَلَّامٍ لِّلْعَبِيْدِ۝۱۸۲ۚ

यह उसका बदला है जो तुम्हारे हाथों ने आगे भेजा। अल्लाह अपने बन्दों पर तनिक भी ज़ुल्म नहीं करता॥182॥

اَلَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّ اللہَ عَہِدَ اِلَيْنَآ اَلَّا نُؤْمِنَ لِرَسُوْلٍ حَتّٰى يَاْتِيَنَا بِقُرْبَانٍ تَاْكُلُہُ النَّارُ۝۰ۭ قُلْ قَدْ جَاۗءَكُمْ رُسُلٌ مِّنْ قَبْلِيْ بِالْبَيِّنٰتِ وَبِالَّذِيْ قُلْتُمْ فَلِمَ قَتَلْتُمُوْھُمْ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ۝۱۸۳

ये वही लोग है जिनका कहना है कि "अल्लाह ने हमें ताकीद की है कि हम किसी रसूल पर ईमान न लाएँ, जब तक कि वह हमारे सामने ऐसी क़ुरबानी न पेश करे जिसे आग खा जाए।" कहो, "तुम्हारे पास मुझसे पहले कितने ही रसूल खुली निशानियाँ लेकर आ चुके है, और वे वह चीज़ भी लाए थे जिसके लिए तुम कह रहे हो। फिर यदि तुम सच्चे हो तो तुमने उन्हें क़त्ल क्यों किया?"॥183॥

فَاِنْ كَذَّبُوْكَ فَقَدْ كُذِّبَ رُسُلٌ مِّنْ قَبْلِكَ جَاۗءُوْ بِالْبَيِّنٰتِ وَالزُّبُرِ وَالْكِتٰبِ الْمُنِيْرِ۝۱۸۴

फिर यदि वे तुम्हें झुठलाते ही रहें, तो तुमसे पहले भी कितने ही रसूल झुठलाए जा चुके है, जो खुली निशानियाँ, 'ज़बूरें' और प्रकाशमान किताब लेकर आए थे॥184॥

كُلُّ نَفْسٍ ذَاۗىِٕقَۃُ الْمَوْتِ۝۰ۭ وَاِنَّمَا تُوَفَّوْنَ اُجُوْرَكُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَۃِ۝۰ۭ فَمَنْ زُحْزِحَ عَنِ النَّارِ وَاُدْخِلَ الْجَنَّۃَ فَقَدْ فَازَ۝۰ۭ وَمَا الْحَيٰوۃُ الدُّنْيَآ اِلَّا مَتَاعُ الْغُرُوْرِ۝۱۸۵

प्रत्येक जीव मृत्यु का मज़ा चखनेवाला है, और तुम्हें तो क़ियामत के दिन पूरा-पूरा बदला दे दिया जाएगा। अतः जिसे आग (जहन्नम) से हटाकर जन्नत में दाख़िल कर दिया गया, वह सफल रहा। रहा सांसारिक जीवन, तो वह माया-सामग्री के सिवा कुछ भी नहीं॥185॥

۞ لَتُبْلَوُنَّ فِيْٓ اَمْوَالِكُمْ وَاَنْفُسِكُمْ۝۰ۣ وَلَتَسْمَعُنَّ مِنَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ مِنْ قَبْلِكُمْ وَمِنَ الَّذِيْنَ اَشْرَكُوْٓا اَذًى كَثِيْرًا۝۰ۭ وَاِنْ تَصْبِرُوْا وَتَتَّقُوْا فَاِنَّ ذٰلِكَ مِنْ عَزْمِ الْاُمُوْرِ۝۱۸۶

तुम्हारें माल और तुम्हारे प्राण में तुम्हारी परीक्षा होकर रहेगी और तुम्हें उन लोगों से जिन्हें तुमसे पहले किताब प्रदान की गई थी और उन लोगों से जिन्होंने 'शिर्क' किया, बहुत-सी कष्टप्रद बातें सुननी पड़ेगी। परन्तु यदि तुम जमें रहे और (अल्लाह का) डर रखा, तो यह उन कर्मों में से है जो आवश्यक ठहरा दिया गया है॥186॥

وَاِذْ اَخَذَ اللہُ مِيْثَاقَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ لَتُبَيِّنُنَّہٗ لِلنَّاسِ وَلَا تَكْتُمُوْنَہٗ۝۰ۡفَنَبَذُوْہُ وَرَاۗءَ ظُہُوْرِھِمْ وَاشْتَرَوْا بِہٖ ثَمَنًا قَلِيْلًا۝۰ۭ فَبِئْسَ مَا يَشْتَرُوْنَ۝۱۸۷

याद करो जब अल्लाह ने उन लोगों से, जिन्हें किताब प्रदान की गई थी, वचन लिया था कि "उसे लोगों के सामने भली-भाँति स्पष्टी करोगे, उसे छिपाओगे नहीं।" किन्तु उन्होंने उसे पीठ पीछे डाल दिया और तुच्छ मूल्य पर उसका सौदा किया। कितना बुरा सौदा है जो ये कर रहे है॥187॥

لَا تَحْسَبَنَّ الَّذِيْنَ يَفْرَحُوْنَ بِمَآ اَتَوْا وَّيُحِبُّوْنَ اَنْ يُّحْمَدُوْا بِمَا لَمْ يَفْعَلُوْا فَلَا تَحْسَبَنَّھُمْ بِمَفَازَۃٍ مِّنَ الْعَذَابِ۝۰ۚ وَلَھُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ۝۱۸۸

तुम उन्हें कदापि यह न समझना, जो अपने किए पर ख़ुश हो रहे है और जो काम उन्होंने नहीं किए, चाहते है कि उनपर भी उनकी प्रशंसा की जाए - तो तुम उन्हें यह न समझाना कि वे यातना से बच जाएँगे, उनके लिए तो दुखद यातना है॥188॥

وَلِلہِ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ۝۰ۭ وَاللہُ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ۝۱۸۹ۧ

आकाशों और धरती का राज्य अल्लाह ही का है, और अल्लाह को हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त है॥189॥

اِنَّ فِيْ خَلْقِ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَاخْتِلَافِ الَّيْلِ وَالنَّھَارِ لَاٰيٰتٍ لِّاُولِي الْاَلْبَابِ۝۱۹۰ۚۙ

निस्सदेह आकाशों और धरती की रचना में और रात और दिन के आगे पीछे बारी-बारी आने में उन बुद्धिमानों के लिए निशानियाँ है॥190॥

الَّذِيْنَ يَذْكُرُوْنَ اللہَ قِيٰمًا وَّقُعُوْدًا وَّعَلٰي جُنُوْبِھِمْ وَيَتَفَكَّرُوْنَ فِيْ خَلْقِ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ۝۰ۚ رَبَّنَا مَا خَلَقْتَ ہٰذَا بَاطِلًا۝۰ۚ سُبْحٰنَكَ فَقِنَا عَذَابَ النَّارِ۝۱۹۱

जो खड़े, बैठे और अपने पहलुओं पर लेटे अल्लाह को याद करते है और आकाशों और धरती की रचना में सोच-विचार करते है। (वे पुकार उठते है,) "हमारे रब! तूने यह सब व्यर्थ नहीं बनाया है। महान है तू, अतः हमें आग की यातना से बचा ले॥191॥

رَبَّنَآ اِنَّكَ مَنْ تُدْخِلِ النَّارَ فَقَدْ اَخْزَيْتَہٗ۝۰ۭ وَمَا لِلظّٰلِمِيْنَ مِنْ اَنْصَارٍ۝۱۹۲

"हमारे रब, तूने जिसे आग में डाला, उसे रुसवा कर दिया। और ऐसे ज़ालिमों का कोई सहायक न होगा॥192॥

رَبَّنَآ اِنَّنَا سَمِعْنَا مُنَادِيًا يُّنَادِيْ لِلْاِيْمَانِ اَنْ اٰمِنُوْا بِرَبِّكُمْ فَاٰمَنَّا۝۰ۤۖ رَبَّنَا فَاغْفِرْ لَنَا ذُنُوْبَنَا وَكَفِّرْ عَنَّا سَيِّاٰتِنَا وَتَوَفَّنَا مَعَ الْاَبْرَارِ۝۱۹۳ۚ

"हमारे रब! हमने एक पुकारने वाले को ईमान की ओर बुलाते सुना कि अपने रब पर ईमान लाओ। तो हम ईमान ले आए। हमारे रब! तो अब तू हमारे गुनाहों को क्षमा कर दे और हमारी बुराइयों को हमसे दूर कर दे और हमें नेक और वफ़़ादार लोगों के साथ (दुनिया से) उठा॥193॥

رَبَّنَا وَاٰتِنَا مَا وَعَدْتَّنَا عَلٰي رُسُلِكَ وَلَا تُخْزِنَا يَوْمَ الْقِيٰمَۃِ۝۰ۭ اِنَّكَ لَا تُخْلِفُ الْمِيْعَادَ۝۱۹۴

"हमारे रब! जिस चीज़ का वादा तूने अपने रसूलों के द्वारा किया वह हमें प्रदान कर और क़ियामत के दिन हमें रुसवा न करना। निस्संदेह तू अपने वादे के विरुद्ध जानेवाला नहीं है।"॥194॥

فَاسْتَجَابَ لَھُمْ رَبُّھُمْ اَنِّىْ لَآ اُضِيْعُ عَمَلَ عَامِلٍ مِّنْكُمْ مِّنْ ذَكَرٍ اَوْ اُنْثٰى۝۰ۚ بَعْضُكُمْ مِّنْۢ بَعْضٍ۝۰ۚ فَالَّذِيْنَ ھَاجَرُوْا وَاُخْرِجُوْا مِنْ دِيَارِھِمْ وَاُوْذُوْا فِيْ سَبِيْلِيْ وَقٰتَلُوْا وَقُتِلُوْا لَاُكَفِّرَنَّ عَنْھُمْ سَيِّاٰتِھِمْ وَلَاُدْخِلَنَّھُمْ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِھَا الْاَنْھٰرُ۝۰ۚ ثَوَابًا مِّنْ عِنْدِ اللہِ۝۰ۭ وَاللہُ عِنْدَہٗ حُسْنُ الثَّوَابِ۝۱۹۵

तो उनके रब ने उनकी पुकार सुन ली कि "मैं तुममें से किसी कर्म करनेवाले के कर्म को अकारथ नहीं करूँगा, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री। तुम सब आपस में एक-दूसरे से हो। अतः जिन लोगों ने (अल्लाह के मार्ग में) घरबार छोड़ा और अपने घरों से निकाले गए और मेरे मार्ग में सताए गए, और लड़े और मारे गए, मैं उनसे उनकी बुराइयाँ दूर कर दूँगा और उन्हें ऐसे बाग़ों में प्रवेश कराऊँगा जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी।" यह अल्लाह के पास से उनका बदला होगा और सबसे अच्छा बदला अल्लाह ही के पास है॥195॥

لَا يَغُرَّنَّكَ تَقَلُّبُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا فِي الْبِلَادِ۝۱۹۶ۭ

बस्तियों में इनकार करनेवालों की चलत-फिरत तुम्हें किसी धोखे में न डाले॥196॥

مَتَاعٌ قَلِيْلٌ۝۰ۣ ثُمَّ مَاْوٰىھُمْ جَہَنَّمُ۝۰ۭ وَبِئْسَ الْمِھَادُ۝۱۹۷

यह तो थोड़ी सुख-सामग्री है फिर तो उनका ठिकाना जहन्नम है, और वह बहुत ही बुरा ठिकाना है॥197॥

لٰكِنِ الَّذِيْنَ اتَّقَوْا رَبَّھُمْ لَھُمْ جَنّٰتٌ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِھَا الْاَنْھٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْھَا نُزُلًا مِّنْ عِنْدِ اللہِ۝۰ۭ وَمَا عِنْدَ اللہِ خَيْرٌ لِّلْاَبْرَارِ۝۱۹۸

किन्तु जो लोग अपने रब से डरते रहे उनके लिए ऐसे बाग़ होंगे जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी। वे उसमें सदैव रहेंगे। यह अल्लाह की ओर से पहला आतिथ्य-सत्कार होगा और जो कुछ अल्लाह के पास है वह नेक और वफ़ादार लोगों के लिए सबसे अच्छा है॥198॥

وَاِنَّ مِنْ اَھْلِ الْكِتٰبِ لَمَنْ يُّؤْمِنُ بِاللہِ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكُمْ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْھِمْ خٰشِعِيْنَ لِلہِ۝۰ۙ لَا يَشْتَرُوْنَ بِاٰيٰتِ اللہِ ثَـمَنًا قَلِيْلًا۝۰ۭ اُولٰۗىِٕكَ لَھُمْ اَجْرُھُمْ عِنْدَ رَبِّھِمْ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ سَرِيْعُ الْحِسَابِ۝۱۹۹

और किताबवालों में से कुछ ऐसे भी है, जो इस हाल में कि उनके दिल अल्लाह के आगे झुके हुए होते है, अल्लाह पर ईमान रखते है और उस चीज़ पर भी जो तुम्हारी ओर उतारी गई है, और उस चीज़ पर भी जो स्वयं उनकी ओर उतरी। वे अल्लाह की आयतों का 'तुच्छ मूल्य पर सौदा' नहीं करते, उनके लिए उनके रब के पास उनका प्रतिदान है। अल्लाह हिसाब भी जल्द ही कर देगा॥199॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اصْبِرُوْا وَصَابِرُوْا وَرَابِطُوْا ۝۰ۣ وَاتَّقُوا اللہَ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ۝۲۰۰ۧ

ऐ ईमान लानेवालो! धैर्य से काम लो और (मुक़ाबले में) बढ़-चढ़कर धैर्य दिखाओ और जुटे और डटे रहो और अल्लाह से डरते रहो, ताकि तुम सफल हो सको॥200॥

 

 

 

  1. अन-निसा

(मदीना में उतरी – आयतें 176)

بِسْمِ اللہِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ

अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील, अत्यन्त दयावान है।

۞ يٰٓاَيُّھَا النَّاسُ اتَّقُوْا رَبَّكُمُ الَّذِيْ خَلَقَكُمْ مِّنْ نَّفْسٍ وَّاحِدَۃٍ وَّخَلَقَ مِنْھَا زَوْجَہَا وَبَثَّ مِنْہُمَا رِجَالًا كَثِيْرًا وَّنِسَاۗءً۝۰ۚ وَاتَّقُوا اللہَ الَّذِيْ تَسَاۗءَلُوْنَ بِہٖ وَالْاَرْحَامَ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ كَانَ عَلَيْكُمْ رَقِيْبًا۝۱

ऐ लोगों! अपने रब का डर रखों, जिसने तुमको एक जीव से पैदा किया और उसी जाति का उसके लिए जोड़ा पैदा किया और उन दोनों से बहुत-से पुरुष और स्त्रियाँ फैला दी। अल्लाह का डर रखो, जिसका वास्ता देकर तुम एक-दूसरे के सामने माँगें रखते हो। और नाते-रिश्तों का भी तुम्हें ख़याल रखना हैं। निश्चय ही अल्लाह तुम्हारी निगरानी कर रहा हैं॥1॥

وَاٰتُوا الْيَــتٰمٰٓى اَمْوَالَھُمْ وَلَا تَتَبَدَّلُوا الْخَبِيْثَ بِالطَّيِّبِ۝۰۠ وَلَا تَاْكُلُوْٓا اَمْوَالَھُمْ اِلٰٓى اَمْوَالِكُمْ۝۰ۭ اِنَّہٗ كَانَ حُوْبًا كَبِيْرًا۝۲

और अनाथों को उनका माल दे दो और बुरी चीज़ को अच्छी चीज़ से न बदलो, और न उनके माल को अपने माल के साथ मिलाकर खा जाओ। यह बहुत बड़ा गुनाह हैं॥2॥

وَاِنْ خِفْتُمْ اَلَّا تُقْسِطُوْا فِي الْيَتٰمٰى فَانْكِحُوْا مَا طَابَ لَكُمْ مِّنَ النِّسَاۗءِ مَثْنٰى وَثُلٰثَ وَرُبٰعَ۝۰ۚ فَاِنْ خِفْتُمْ اَلَّا تَعْدِلُوْا فَوَاحِدَۃً اَوْ مَا مَلَكَتْ اَيْمَانُكُمْ۝۰ۭ ذٰلِكَ اَدْنٰٓى اَلَّا تَعُوْلُوْا۝۳ۭ

और यदि तुम्हें आशंका हो कि तुम अनाथों (अनाथ लड़कियों) के प्रति न्याय न कर सकोगे तो उनमें से, जो तुम्हें पसन्द हों, दो-दो या तीन-तीन या चार-चार से विवाह कर लो। किन्तु यदि तुम्हें आशंका हो कि तुम उनके साथ एक जैसा व्यवहार न कर सकोंगे, तो फिर एक ही पर बस करो, या उस स्त्री (लौंड़ी) पर जो तुम्हारे क़ब्ज़े में आई हो, उसी पर बस करो। इसमें तुम्हारे न्याय से न हटने की अधिक सम्भावना है॥3॥

وَاٰتُوا النِّسَاۗءَ صَدُقٰتِہِنَّ نِحْلَۃٍ۝۰ۭ فَاِنْ طِبْنَ لَكُمْ عَنْ شَيْءٍ مِّنْہُ نَفْسًا فَكُلُوْہُ ہَنِيْۗـــــًٔـا مَّرِيْۗــــــًٔـا۝۴

और स्त्रियों को उनके मह्रर ख़ुशी से अदा करो। हाँ, यदि वे अपनी ख़ुशी से उसमें से तुम्हारे लिए छोड़ दे तो उसे तुम अच्छा और पाक समझकर खाओ॥4॥

وَلَا تُؤْتُوا السُّفَھَاۗءَ اَمْوَالَكُمُ الَّتِىْ جَعَلَ اللہُ لَكُمْ قِيٰـمًا وَّارْزُقُوْھُمْ فِيْھَا وَاكْسُوْھُمْ وَقُوْلُوْا لَھُمْ قَوْلًا مَّعْرُوْفًا۝۵

और अपने माल, जिसे अल्लाह ने तुम्हारे लिए जीवन-यापन का साधन बनाया है, बेसमझ लोगों को न दो। अलबत्तान उन्हें उसमें से खिलाते और पहनाते रहो और उनसे भली बात कहो॥5॥

وَابْتَلُوا الْيَتٰمٰى حَتّٰٓي اِذَا بَلَغُوا النِّكَاحَ۝۰ۚ فَاِنْ اٰنَسْتُمْ مِّنْھُمْ رُشْدًا فَادْفَعُوْٓا اِلَيْھِمْ اَمْوَالَھُمْ۝۰ۚ وَلَا تَاْكُلُوْھَآ اِسْرَافًا وَّبِدَارًا اَنْ يَّكْبَرُوْا۝۰ۭ وَمَنْ كَانَ غَنِيًّا فَلْيَسْتَعْفِفْ۝۰ۚ وَمَنْ كَانَ فَقِيْرًا فَلْيَاْكُلْ بِالْمَعْرُوْف۝۰ۭ فَاِذَا دَفَعْتُمْ اِلَيْھِمْ اَمْوَالَھُمْ فَاَشْہِدُوْا عَلَيْھِمْ۝۰ۭ وَكَفٰى بِاللہِ حَسِـيْبًا۝۶

और अनाथों को जाँचते रहो, यहाँ तक कि जब वे विवाह की अवस्था को पहुँच जाएँ, तो फिर यदि तुम देखो कि उनमें सूझ-बूझ आ गई है, तो उनके माल उन्हें सौंप दो, और इस भय से कि कहीं वे बड़े न हो जाएँ तुम उनके माल अनुचित रूप से उड़ाकर और जल्दी करके न खाओ। और जो धनवान हो, उसे तो (इस माल से) से बचना ही चाहिए। हाँ, जो निर्धन हो, वह उचित रीति से कुछ खा सकता है। फिर जब उनके माल उन्हें सौंपने लगो, तो उनकी मौजूदगी में गवाह बना लो। हिसाब लेने के लिए अल्लाह काफ़ी है॥6॥

لِلرِّجَالِ نَصِيْبٌ مِّمَّا تَرَكَ الْوَالِدٰنِ وَالْاَقْرَبُوْنَ۝۰۠ وَلِلنِّسَاۗءِ نَصِيْبٌ مِّمَّا تَرَكَ الْوَالِدٰنِ وَالْاَقْرَبُوْنَ مِمَّا قَلَّ مِنْہُ اَوْ كَثُرَ۝۰ۭ نَصِيْبًا مَّفْرُوْضًا۝۷

पुरुषों का उस माल में एक हिस्सा है जो माँ-बाप और नातेदारों ने छोड़ा हो; और स्त्रियों का भी उस माल में एक हिस्सा है जो माल माँ-बाप और नातेदारों ने छोड़ा हो - चाह वह थोड़ा हो या अधिक हो - यह हिस्सा निश्चित किया हुआ है॥7॥

وَاِذَا حَضَرَ الْقِسْمَۃَ اُولُوا الْقُرْبٰي وَالْيَتٰمٰى وَالْمَسٰكِيْنُ فَارْزُقُوْھُمْ مِّنْہُ وَقُوْلُوْا لَھُمْ قَوْلًا مَّعْرُوْفًا۝۸

और जब बाँटने के समय नातेदार और अनाथ और मुहताज (अपना हिस्सान लेने के लिए) उपस्थित हो तो उन्हें भी उसमें से (उनका हिस्सा) दे दो और उनसे भली बात करो॥8॥

وَلْيَخْشَ الَّذِيْنَ لَوْ تَرَكُوْا مِنْ خَلْفِھِمْ ذُرِّيَّۃً ضِعٰفًا خَافُوْا عَلَيْھِمْ۝۰۠ فَلْيَتَّقُوا اللہَ وَلْيَقُوْلُوْا قَوْلًا سَدِيْدًا۝۹

और लोगों को डरना चाहिए कि यदि वे स्वयं अपने पीछे अपने निर्बल बच्चे छोड़ते तो उन्हें उन बच्चों के विषय में कितना भय होता। तो फिर उन्हें अल्लाह से डरना चाहिए और ठीक सीधी बात कहनी चाहिए॥9॥

اِنَّ الَّذِيْنَ يَاْكُلُوْنَ اَمْوَالَ الْيَتٰمٰى ظُلْمًا اِنَّمَا يَاْكُلُوْنَ فِيْ بُطُوْنِھِمْ نَارًا۝۰ۭ وَسَيَصْلَوْنَ سَعِيْرًا۝۱۰ۧ

जो लोग अनाथों के माल अन्याय के साथ खाते है, वास्तव में वे अपने पेट आग से भरते है, और वे अवश्य भड़कती हुई आग में पड़ेगे॥10॥

يُوْصِيْكُمُ اللہُ فِيْٓ اَوْلَادِكُمْ۝۰ۤ لِلذَّكَرِ مِثْلُ حَظِّ الْاُنْثَيَيْنِ۝۰ۚ فَاِنْ كُنَّ نِسَاۗءً فَوْقَ اثْنَتَيْنِ فَلَھُنَّ ثُلُثَا مَا تَرَكَ۝۰ۚ وَاِنْ كَانَتْ وَاحِدَۃً فَلَھَا النِّصْفُ۝۰ۭ وَلِاَبَوَيْہِ لِكُلِّ وَاحِدٍ مِّنْہُمَا السُّدُسُ مِمَّا تَرَكَ اِنْ كَانَ لَہٗ وَلَدٌ۝۰ۚ فَاِنْ لَّمْ يَكُنْ لَّہٗ وَلَدٌ وَّوَرِثَہٗٓ اَبَوٰہُ فَلِاُمِّہِ الثُّلُثُ۝۰ۚ فَاِنْ كَانَ لَہٗٓ اِخْوَۃٌ فَلِاُمِّہِ السُّدُسُ مِنْۢ بَعْدِ وَصِيَّۃٍ يُوْصِيْ بِھَآ اَوْ دَيْنٍ۝۰ۭ اٰبَاۗؤُكُمْ وَاَبْنَاۗؤُكُمْ لَا تَدْرُوْنَ اَيُّھُمْ اَقْرَبُ لَكُمْ نَفْعًا۝۰ۭ فَرِيْضَۃً مِّنَ اللہِ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ كَانَ عَلِيْمًا حَكِـيْمًا۝۱۱

अल्लाह तुम्हारी सन्तान के विषय में तुम्हें आदेश देता है कि दो बेटियों के हिस्से के बराबर एक बेटे का हिस्सा होगा; और यदि दो से अधिक बेटियाँ ही हो तो उनका हिस्सा छोड़ी हुई सम्पत्ति का दो तिहाई है। और यदि वह अकेली हो तो उसके लिए आधा है। और यदि मरनेवाले की सन्तान हो जो उसके माँ-बाप में से प्रत्येक का उसके छोड़े हुए माल का छठा हिस्सा है। और यदि वह निस्संतान हो और उसके माँ-बाप ही उसके वारिस हों, तो उसकी माँ का हिस्सा तिहाई होगा। और यदि उसके भाई भी हो, तो उसका माँ का छठा हिस्सा होगा। ये हिस्से, वसीयत जो वह कर जाए पूरी करने या ऋण चुका देने के पश्चात है। तुम्हारे बाप भी है और तुम्हारे बेटे भी। तुम नहीं जानते कि उनमें से लाभ पहुँचाने की दृष्टि से कौन तुमसे अधिक निकट है। यह हिस्सा अल्लाह का निश्चित किया हुआ है। अल्लाह सब कुछ जानता, समझता है॥11॥

۞ لَكُمْ نِصْفُ مَا تَرَكَ اَزْوَاجُكُمْ اِنْ لَّمْ يَكُنْ لَّھُنَّ وَلَدٌ۝۰ۚ فَاِنْ كَانَ لَھُنَّ وَلَدٌ فَلَكُمُ الرُّبُعُ مِمَّا تَرَكْنَ مِنْۢ بَعْدِ وَصِيَّۃٍ يُّوْصِيْنَ بِھَآ اَوْ دَيْنٍ۝۰ۭ وَلَھُنَّ الرُّبُعُ مِمَّا تَرَكْتُمْ اِنْ لَّمْ يَكُنْ لَّكُمْ وَلَدٌ۝۰ۚ فَاِنْ كَانَ لَكُمْ وَلَدٌ فَلَھُنَّ الثُّمُنُ مِمَّا تَرَكْتُمْ مِّنْۢ بَعْدِ وَصِيَّۃٍ تُوْصُوْنَ بِھَآ اَوْ دَيْنٍ۝۰ۭ وَاِنْ كَانَ رَجُلٌ يُّوْرَثُ كَلٰلَۃً اَوِ امْرَاَۃٌ وَّلَہٗٓ اَخٌ اَوْ اُخْتٌ فَلِكُلِّ وَاحِدٍ مِّنْہُمَا السُّدُسُ۝۰ۚ فَاِنْ كَانُوْٓا اَكْثَرَ مِنْ ذٰلِكَ فَھُمْ شُرَكَاۗءُ فِي الثُّلُثِ مِنْۢ بَعْدِ وَصِيَّۃٍ يُّوْصٰى بِھَآ اَوْ دَيْنٍ۝۰ۙ غَيْرَ مُضَاۗرٍّ۝۰ۚ وَصِيَّۃً مِّنَ اللہِ۝۰ۭ وَاللہُ عَلِيْمٌ حَلِيْمٌ۝۱۲ۭ

और तुम्हारी पत्नि यों ने जो कुछ छोड़ा हो, उसमें तुम्हारा आधा है, यदि उनकी सन्तान न हो। लेकिन यदि उनकी सन्तान हो तो वे जो छोड़े, उसमें तुम्हारा चौथाई होगा, इसके पश्चात कि जो वसीयत वे कर जाएँ वह पूरी कर दी जाए, या जो ऋण (उनपर) हो वह चुका दिया जाए। और जो कुछ तुम छोड़ जाओ, उसमें उनका (पत्ऩियों का) चौथाई हिस्सा होगा, यदि तुम्हारी कोई सन्तान न हो। लेकिन यदि तुम्हारी सन्तान है, तो जो कुछ तुम छोड़ोगे, उसमें से उनका (पत्नियों का) आठवाँ हिस्सा होगा, इसके पश्चात कि जो वसीयत तुमने की हो वह पूरी कर दी जाए, या जो ऋण हो उसे चुका दिया जाए, और यदि किसी पुरुष या स्त्री के न तो कोई सन्तान हो और न उसके माँ-बाप ही जीवित हो और उसके एक भाई या बहन हो तो उन दोनों में से प्रत्येक को छठा हिस्सा होगा। लेकिन यदि वे इससे अधिक हों तो फिर एक तिहाई में वे सब शरीक होंगे, इसके पश्चात कि जो वसीयत उसने की वह पूरी कर दी जाए या जो ऋण (उसपर) हो वह चुका दिया जाए, शर्त यह है कि वह हानिकर न हो। यह अल्लाह की ओर से ताकीदी आदेश है और अल्लाह सब कुछ जाननेवाला, अत्यन्त सहनशील है॥12॥

تِلْكَ حُدُوْدُ اللہِ۝۰ۭ وَمَنْ يُّطِعِ اللہَ وَرَسُوْلَہٗ يُدْخِلْہُ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِھَا الْاَنْھٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْھَا۝۰ۭ وَذٰلِكَ الْفَوْزُ الْعَظِيْمُ۝۱۳

ये अल्लाह की निश्चित की हुई सीमाएँ है। जो कोई अल्लाह और उसके रसूल के आदेशों का पालन करेगा, उसे अल्लाह ऐसे बाग़ों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी। उनमें वह सदैव रहेगा और यही बड़ी सफलता है॥13॥

وَمَنْ يَّعْصِ اللہَ وَرَسُوْلَہٗ وَيَتَعَدَّ حُدُوْدَہٗ يُدْخِلْہُ نَارًا خَالِدًا فِيْھَا۝۰۠ وَلَہٗ عَذَابٌ مُّہِيْنٌ۝۱۴ۧ

परन्तु जो अल्लाह और उसके रसूल की अवज्ञा करेगा और उसकी सीमाओं का उल्लंघन करेगा उसे अल्लाह आग में डालेगा, जिसमें वह सदैव रहेगा। और उसके लिए अपमानजनक यातना है॥14॥

وَالّٰتِيْ يَاْتِيْنَ الْفَاحِشَۃَ مِنْ نِّسَاۗىِٕكُمْ فَاسْتَشْہِدُوْا عَلَيْہِنَّ اَرْبَعَۃً مِّنْكُمْ۝۰ۚ فَاِنْ شَہِدُوْا فَاَمْسِكُوْھُنَّ فِي الْبُيُوْتِ حَتّٰى يَتَوَفّٰىھُنَّ الْمَوْتُ اَوْ يَجْعَلَ اللہُ لَھُنَّ سَبِيْلًا۝۱۵

और तुम्हारी स्त्रियों में से जो व्यभिचार कर बैठे, उनपर अपने में से चार आदमियों की गवाही लो, फिर यदि वे गवाही दे दें तो उन्हें घरों में बन्द रखो, यहाँ तक कि उनकी मृत्यु आ जाए या अल्लाह उनके लिए कोई रास्ता निकाल दे॥15॥

وَالَّذٰنِ يَاْتِيٰنِھَا مِنْكُمْ فَاٰذُوْھُمَا۝۰ۚ فَاِنْ تَابَا وَاَصْلَحَا فَاَعْرِضُوْا عَنْہُمَا۝۰ۭ اِنَّ اللہَ كَانَ تَوَّابًا رَّحِـيْمًا۝۱۶

और तुममें से जो दो पुरुष यह दुष्‍कर्म करें, उन्हें प्रताड़ित करो, फिर यदि वे तौबा कर ले और अपने आपको सुधार लें, तो उन्हें छोड़ दो। अल्लाह तौबा क़बूल करनेवाला, दयावान है॥16॥

اِنَّمَا التَّوْبَۃُ عَلَي اللہِ لِلَّذِيْنَ يَعْمَلُوْنَ السُّوْۗءَ بِجَہَالَۃٍ ثُمَّ يَتُوْبُوْنَ مِنْ قَرِيْبٍ فَاُولٰۗىِٕكَ يَتُوْبُ اللہُ عَلَيْھِمْ۝۰ۭ وَكَانَ اللہُ عَلِــيْمًا حَكِـيْمًا۝۱۷

उन्ही लोगों की तौबा क़बूल करना अल्लाह के ज़िम्मे है जो भावनाओं में बह कर नादानी से कोई बुराई कर बैठे, फिर जल्द ही तौबा कर लें, ऐसे ही लोग है जिनकी तौबा अल्लाह क़बूल करता है। अल्लाह सब कुछ जाननेवाला, तत्वदर्शी है॥17॥

وَلَيْسَتِ التَّوْبَۃُ لِلَّذِيْنَ يَعْمَلُوْنَ السَّـيِّاٰتِ۝۰ۚ حَتّٰٓي اِذَا حَضَرَ اَحَدَھُمُ الْمَوْتُ قَالَ اِنِّىْ تُبْتُ الْـــٰٔنَ وَلَا الَّذِيْنَ يَمُوْتُوْنَ وَھُمْ كُفَّارٌ۝۰ۭ اُولٰۗىِٕكَ اَعْتَدْنَا لَھُمْ عَذَابًا اَلِـــيْمًا۝۱۸

और ऐसे लोगों की तौबा नहीं जो बुरे काम किए चले जाते है, यहाँ तक कि जब उनमें से किसी की मृत्यु का समय आ जाता है तो कहने लगता है, "अब मैं तौबा करता हूँ।" और इसी प्रकार तौबा उनकी भी नहीं है, जो मरते दम तक इनकार करनेवाले ही रहे। ऐसे लोगों के लिए हमने दुखद यातना तैयार कर रखी है॥18॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا يَحِلُّ لَكُمْ اَنْ تَرِثُوا النِّسَاۗءَ كَرْہًا۝۰ۭ وَلَا تَعْضُلُوْھُنَّ لِتَذْہَبُوْا بِبَعْضِ مَآ اٰتَيْتُمُوْھُنَّ اِلَّآ اَنْ يَّاْتِيْنَ بِفَاحِشَۃٍ مُّبَيِّنَۃٍ۝۰ۚ وَعَاشِرُوْھُنَّ بِالْمَعْرُوْفِ۝۰ۚ فَاِنْ كَرِھْتُمُوْھُنَّ فَعَسٰٓى اَنْ تَكْرَہُوْا شَـيْــــًٔـا وَّيَجْعَلَ اللہُ فِيْہِ خَيْرًا كَثِيْرًا۝۱۹

ऐ ईमान लानेवालो! तुम्हारे लिए वैध नहीं कि स्त्रियों के (माल) के ज़बरदस्ती वारिस बन बैठो, और न यह वैध है कि उन्हें इसलिए रोको और तंग करो कि जो कुछ तुमने उन्हें दिया है, उसमें से कुछ ले उड़ो। परन्तु यदि वे खुले रूप में अश्लीसल कर्म कर बैठे तो दूसरी बात है। और उनके साथ भले तरीक़े से रहो-सहो। फिर यदि वे तुम्हें पसन्द न हों, तो सम्भव है कि एक चीज़ तुम्हें पसन्द न हो और अल्लाह उसमें बहुत कुछ भलाई रख दे॥19॥

وَاِنْ اَرَدْتُّمُ اسْتِبْدَالَ زَوْجٍ مَّكَانَ زَوْجٍ۝۰ۙ وَّاٰتَيْتُمْ اِحْدٰىھُنَّ قِنْطَارًا فَلَا تَاْخُذُوْا مِنْہُ شَـيْـــًٔـا۝۰ۭ اَتَاْخُذُوْنَہٗ بُھْتَانًا وَّاِثْمًا مُّبِيْنًا۝۲۰

और यदि तुम एक पत्ऩी की जगह दूसरी पत्ऩी लाना चाहो तो, चाहे तुमने उनमें किसी को ढेरों माल दे दिया हो, उसमें से कुछ मत लेना। क्या तुम उसपर झूठा आरोप लगाकर और खुले रूप में हक़ मारकर उसे लोगे?॥20॥

وَكَيْفَ تَاْخُذُوْنَہٗ وَقَدْ اَفْضٰى بَعْضُكُمْ اِلٰى بَعْضٍ وَّاَخَذْنَ مِنْكُمْ مِّيْثَاقًا غَلِيْظًا۝۲۱

और तुम उसे किस तरह ले सकते हो, जबकि तुम एक-दूसरे से मिल चुके हो और वे तुमसे दृढ़ प्रतिज्ञा भी ले चुकी है?॥21॥

وَلَا تَنْكِحُوْا مَا نَكَحَ اٰبَاۗؤُكُمْ مِّنَ النِّسَاۗءِ اِلَّا مَا قَدْ سَلَفَ۝۰ۭ اِنَّہٗ كَانَ فَاحِشَۃً وَّمَقْتًا۝۰ۭ وَسَاۗءَ سَبِيْلًا۝۲۲ۧ

और उन स्त्रियों से विवाह न करो, जिनसे तुम्हारे बाप विवाह कर चुके हों, परन्तु जो पहले हो चुका सो हो चुका। निस्संदेह यह एक अश्लील और अत्यन्त अप्रिय कर्म है, और बुरी रीति है॥22॥

حُرِّمَتْ عَلَيْكُمْ اُمَّھٰتُكُمْ وَبَنٰتُكُمْ وَاَخَوٰتُكُمْ وَعَمّٰـتُكُمْ وَخٰلٰتُكُمْ وَبَنٰتُ الْاَخِ وَبَنٰتُ الْاُخْتِ وَاُمَّھٰتُكُمُ الّٰتِيْٓ اَرْضَعْنَكُمْ وَاَخَوٰتُكُمْ مِّنَ الرَّضَاعَۃِ وَاُمَّھٰتُ نِسَاۗىِٕكُمْ وَرَبَاۗىِٕبُكُمُ الّٰتِيْ فِيْ حُجُوْرِكُمْ مِّنْ نِّسَاۗىِٕكُمُ الّٰتِيْ دَخَلْتُمْ بِہِنَّ۝۰ۡفَاِنْ لَّمْ تَكُوْنُوْا دَخَلْتُمْ بِہِنَّ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ۝۰ۡ وَحَلَاۗىِٕلُ اَبْنَاۗىِٕكُمُ الَّذِيْنَ مِنْ اَصْلَابِكُمْ۝۰ۙ وَاَنْ تَجْمَعُوْا بَيْنَ الْاُخْتَيْنِ اِلَّا مَا قَدْ سَلَفَ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ كَانَ غَفُوْرًا رَّحِـيْمًا۝۲۳ۙ

तुम्हारे लिए हराम है तुम्हारी माएँ, बेटियाँ, बहनें, फूफियाँ, मौसियाँ, भतीतियाँ, भाँजिया, और तुम्हारी वे माएँ जिन्होंने तुम्हें दूध पिलाया हो और दूध के रिश्ते से तुम्हारी बहनें और तुम्हारी सासें और तुम्हारी पत्ऩियों की बेटियाँ जो दूसरे पति से हो और जो तुम्हारी गोदो मे पली हो,–तुम्हारी उन स्त्रियों की बेटियाँ जिनसे तुम सम्भोग कर चुक हो। परन्तु यदि सम्भोग नहीं किया है तो इसमें तुमपर कोई गुनाह नहीं - और तुम्हारे उन बेटों की पत्ऩियाँ जो तुमसे पैदा हों और यह भी कि तुम दो बहनों को इकट्ठा करो; जो पहले जो हो चुका सो हो चुका। निश्चय ही अल्लाह अत्यन्त क्षमाशील, दयावान है॥23॥

(5) ۞ وَّالْمُحْصَنٰتُ مِنَ النِّسَاۗءِ اِلَّا مَا مَلَكَتْ اَيْمَانُكُمْ۝۰ۚ كِتٰبَ اللہِ عَلَيْكُمْ۝۰ۚ وَاُحِلَّ لَكُمْ مَّا وَرَاۗءَ ذٰلِكُمْ اَنْ تَبْتَغُوْا بِاَمْوَالِكُمْ مُّحْصِنِيْنَ غَيْرَ مُسٰفِحِيْنَ۝۰ۭ فَـمَا اسْتَمْتَعْتُمْ بِہٖ مِنْھُنَّ فَاٰتُوْھُنَّ اُجُوْرَھُنَّ فَرِيْضَۃً۝۰ۭ وَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ فِيْمَا تَرٰضَيْتُمْ بِہٖ مِنْۢ بَعْدِ الْفَرِيْضَۃِ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ كَانَ عَلِــيْمًا حَكِـيْمًا۝۲۴

और विवाहित स्त्रियाँ भी वर्जित है, सिवाय उनके जो तुम्हारी लौंडी हों। यह अल्लाह ने तुम्हारे लिए अनिवार्य कर दिया है। इनके अतिरिक्त शेष स्त्रियाँ तुम्हारे लिए वैध है कि तुम अपने माल के द्वारा उन्हें प्राप्त करो उनकी पाकदामनी की सुरक्षा के लिए, न कि यह काम स्वच्छन्द काम-तृप्ति के लिए हो। फिर उनसे दाम्पत्य जीवन का आनन्द लो तो उसके बदले उनका निश्चित किया हुए हक़ (महर) अदा करो, और यदि हक़ निश्चित हो जाने के पश्चात तुम आपम में अपनी प्रसन्नता से कोई समझौता कर लो, तो इसमें तुम्हारे लिए कोई दोष नहीं। निस्संदेह अल्लाह सब कुछ जाननेवाला, तत्वदर्शी है॥24॥

وَمَنْ لَّمْ يَسْتَطِعْ مِنْكُمْ طَوْلًا اَنْ يَّنْكِحَ الْمُحْصَنٰتِ الْمُؤْمِنٰتِ فَمِنْ مَّا مَلَكَتْ اَيْمَانُكُمْ مِّنْ فَتَيٰتِكُمُ الْمُؤْمِنٰتِ۝۰ۭ وَاللہُ اَعْلَمُ بِـاِيْمَانِكُمْ۝۰ۭ بَعْضُكُمْ مِّنْۢ بَعْضٍ۝۰ۚ فَانْكِحُوْھُنَّ بِـاِذْنِ اَھْلِہِنَّ وَاٰتُوْھُنَّ اُجُوْرَھُنَّ بِالْمَعْرُوْفِ مُحْصَنٰتٍ غَيْرَ مُسٰفِحٰتٍ وَّلَا مُتَّخِذٰتِ اَخْدَانٍ۝۰ۚ فَاِذَآ اُحْصِنَّ فَاِنْ اَتَيْنَ بِفَاحِشَۃٍ فَعَلَيْہِنَّ نِصْفُ مَا عَلَي الْمُحْصَنٰتِ مِنَ الْعَذَابِ۝۰ۭ ذٰلِكَ لِمَنْ خَشِيَ الْعَنَتَ مِنْكُمْ۝۰ۭ وَاَنْ تَصْبِرُوْا خَيْرٌ لَّكُمْ۝۰ۭ وَاللہُ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ۝۲۵ۧ

और तुममें से जिस किसी की इतनी सामर्थ्य न हो कि पाकदामन, स्वतंत्र, ईमानवाली स्त्रियों से विवाह कर सके, तो तुम्हारी वे ईमानवाली जवान लौडियाँ ही सही जो तुम्हारे क़ब्ज़े में हो। और अल्लाह तुम्हारे ईमान को भली-भाँति जानता है। तुम सब आपस में एक ही हो, तो उनके मालिकों की अनुमति से तुम उनसे विवाह कर लो और सामान्य नियम के अनुसार उन्हें उनका हक़ भी दो। वे पाकदामनी की सुरक्षा करनेवाली हों, स्वच्छन्द काम-तृप्ति  न करनेवाली हों और न वे चोरी-छिपे ग़ैरो से प्रेम करनेवाली हों। फिर जब वे विवाहिता बना ली जाएँ और उसके पश्चात कोई अश्लील कर्म कर बैठें, तो जो दंड सम्मानित स्त्रियों के लिए है, उसका आधा उनके लिए होगा। यह तुममें से उस व्यक्ति के लिए है, जिसे ख़राबी में पड़ जाने का भय हो, और यह कि तुम धैर्य से काम लो तो यह तुम्हारे लिए अधिक अच्छा है। निस्संदेह अल्लाह बहुत क्षमाशील, दयावान है॥25॥

يُرِيْدُ اللہُ لِيُـبَيِّنَ لَكُمْ وَيَہْدِيَكُمْ سُنَنَ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِكُمْ وَيَتُوْبَ عَلَيْكُمْ۝۰ۭ وَاللہُ عَلِيْمٌ حَكِيْمٌ۝۲۶

अल्लाह चाहता है कि तुमपर स्पष्ट  कर दे और तुम्हें उन लोगों के तरीक़ों पर चलाए, जो तुमसे पहले हुए है और तुमपर दयादृष्टि करे। अल्लाह तो सब कुछ जाननेवाला, तत्वदर्शी है॥26॥

وَاللہُ يُرِيْدُ اَنْ يَّتُوْبَ عَلَيْكُمْ۝۰ۣ وَيُرِيْدُ الَّذِيْنَ يَتَّبِعُوْنَ الشَّہَوٰتِ اَنْ تَمِيْلُوْا مَيْلًا عَظِيْمًا۝۲۷

और अल्लाह चाहता है कि जो तुमपर दयादृष्टि करे, किन्तु जो लोग अपनी तुच्छ इच्छाओं का पालन करते है, वे चाहते है कि तुम राह से हटकर बहुत दूर जा पड़ो॥27॥

يُرِيْدُ اللہُ اَنْ يُخَفِّفَ عَنْكُمْ۝۰ۚ وَخُلِقَ الْاِنْسَانُ ضَعِيْفًا۝۲۸

अल्लाह चाहता है कि तुमपर से बोझ हलका कर दे, क्योंकि इनसान निर्बल पैदा किया गया है॥28॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَاْكُلُوْٓا اَمْوَالَكُمْ بَيْنَكُمْ بِالْبَاطِلِ اِلَّآ اَنْ تَكُوْنَ تِجَارَۃً عَنْ تَرَاضٍ مِّنْكُمْ۝۰ۣ وَلَا تَقْتُلُوْٓا اَنْفُسَكُمْ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ كَانَ بِكُمْ رَحِيْمًا۝۲۹

ऐ ईमान लानेवालो! आपस में एक-दूसरे के माल ग़लत तरीक़े से न खाओ - यह और बात है कि तुम्हारी आपस में रज़ामन्दी से कोई सौदा हो - और न अपनों की हत्या करो। निस्संदेह अल्लाह तुमपर बहुत दयावान है॥29॥

وَمَنْ يَّفْعَلْ ذٰلِكَ عُدْوَانًا وَّظُلْمًا فَسَوْفَ نُصْلِيْہِ نَارًا۝۰ۭ وَكَانَ ذٰلِكَ عَلَي اللہِ يَسِيْرًا۝۳۰

और जो कोई ज़ुल्म और ज़्यादती से ऐसा करेगा, तो उसे हम जल्द ही आग में झोंक देंगे, और यह अल्लाह के लिए सरल है॥30॥

اِنْ تَجْتَنِبُوْا كَبَاۗىِٕرَ مَا تُنْہَوْنَ عَنْہُ نُكَفِّرْ عَنْكُمْ سَـيِّاٰتِكُمْ وَنُدْخِلْكُمْ مُّدْخَلًا كَرِيْمًا۝۳۱

यदि तुम उन बड़े गुनाहों से बचते रहो, जिनसे तुम्हे रोका जा रहा है, तो हम तुम्हारी बुराइयों को तुमसे दूर कर देंगे और तुम्हें प्रतिष्ठित स्थान में प्रवेश कराएँगे॥31॥

وَلَا تَتَمَنَّوْا مَا فَضَّلَ اللہُ بِہٖ بَعْضَكُمْ عَلٰي بَعْضٍ۝۰ۭ لِلرِّجَالِ نَصِيْبٌ مِّمَّا اكْتَـسَبُوْا۝۰ۭ وَلِلنِّسَاۗءِ نَصِيْبٌ مِّمَّا اكْتَـسَبْنَ۝۰ۭ وَسْـــَٔـلُوا اللہَ مِنْ فَضْلِہٖ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ كَانَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِـــيْمًا۝۳۲

और उसकी कामना न करो जिसमें अल्लाह ने तुमसे किसी को किसी से उच्च रखा है। पुरुषों ने जो कुछ कमाया है, उसके अनुसार उनका हिस्सा है और स्त्रियों ने जो कुछ कमाया है, उसके अनुसार उनका हिस्सा है। अल्लाह से उसका उदार दान चाहो। निस्संदेह अल्लाह को हर चीज़ का ज्ञान है॥32॥

وَلِكُلٍّ جَعَلْنَا مَوَالِيَ مِمَّا تَرَكَ الْوَالِدٰنِ وَالْاَقْرَبُوْنَ۝۰ۭ وَالَّذِيْنَ عَقَدَتْ اَيْمَانُكُمْ فَاٰتُوْھُمْ نَصِيْبَھُمْ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ كَانَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ شَہِيْدًا۝۳۳ۧ

और प्रत्येक माल के लिए, जो माँ-बाप और नातेदार छोड़ जाएँ, हमने वासिस ठहरा दिए है और जिन लोगों से अपनी क़समों के द्वारा तुम्हारा पक्का मामला हुआ हो, तो उन्हें भी उनका हिस्सा दो। निस्संदेह हर चीज़ अल्लाह के समक्ष है॥33॥

اَلرِّجَالُ قَوّٰمُوْنَ عَلَي النِّسَاۗءِ بِمَا فَضَّلَ اللہُ بَعْضَھُمْ عَلٰي بَعْضٍ وَّبِمَآ اَنْفَقُوْا مِنْ اَمْوَالِہِمْ۝۰ۭ فَالصّٰلِحٰتُ قٰنِتٰتٌ حٰفِظٰتٌ لِّلْغَيْبِ بِمَا حَفِظَ اللہُ۝۰ۭ وَالّٰتِيْ تَخَافُوْنَ نُشُوْزَھُنَّ فَعِظُوْھُنَّ وَاہْجُرُوْھُنَّ فِي الْمَضَاجِــعِ وَاضْرِبُوْھُنَّ۝۰ۚ فَاِنْ اَطَعْنَكُمْ فَلَا تَبْغُوْا عَلَيْہِنَّ سَبِيْلًا۝۰ۭ اِنَّ اللہَ كَانَ عَلِيًّا كَبِيْرًا۝۳۴

पति पत्नियों संरक्षक और निगराँ है, क्योंकि अल्लाह ने उनमें से कुछ को कुछ के मुक़ाबले में आगे रहा है, और इसलिए भी कि पतियों ने अपने माल ख़र्च किए है, तो नेक पत्ऩियाँ तो आज्ञापालन करनेवाली होती है और गुप्त  बातों की रक्षा करती है, क्योंकि अल्लाह ने (अपने आदेशों दृारा के ) उनकी रक्षा की है। और जो पत्नियों ऐसी हो जिनकी सरकशी का तुम्हें भय हो, उन्हें समझाओ और बिस्तरों में उन्हें अकेली छोड़ दो और (अति आवश्यक हो तो) उन्हें मारो भी। फिर यदि वे तुम्हारी बात मानने लगे, तो उनके विरुद्ध कोई रास्ता न ढूढ़ो। अल्लाह सबसे उच्च, सबसे बड़ा है॥34॥

وَاِنْ خِفْتُمْ شِقَاقَ بَيْنِہِمَا فَابْعَثُوْا حَكَمًا مِّنْ اَھْلِہٖ وَحَكَمًا مِّنْ اَھْلِھَا۝۰ۚ اِنْ يُّرِيْدَآ اِصْلَاحًا يُّوَفِّقِ اللہُ بَيْنَہُمَا۝۰ۭ اِنَّ اللہَ كَانَ عَلِــيْمًا خَبِيْرًا۝۳۵

और यदि तुम्हें पति-पत्नी के बीच बिगाड़ का भय हो, तो एक फ़ैसला करनेवाला पुरुष के लोगों में से और एक फ़ैसला करनेवाला स्त्री के लोगों में से नियुक्त करो, यदि वे दोनों सुधार करना चाहेंगे, तो अल्लाह उनके बीच अनुकूलता पैदा कर देगा। निस्संदेह, अल्लाह सब कुछ जाननेवाला, ख़बर रखनेवाला है॥35॥

۞ وَاعْبُدُوا اللہَ وَلَا تُشْرِكُوْا بِہٖ شَـيْـــًٔـا وَّبِالْوَالِدَيْنِ اِحْسَانًا وَّبِذِي الْقُرْبٰى وَالْيَتٰمٰي وَالْمَسٰكِيْنِ وَالْجَارِ ذِي الْقُرْبٰى وَالْجَارِ الْجُنُبِ وَالصَّاحِبِ بِالْجَـنْۢبِ وَابْنِ السَّبِيْلِ۝۰ۙ وَمَا مَلَكَتْ اَيْمَانُكُمْ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ لَا يُحِبُّ مَنْ كَانَ مُخْــتَالًا فَخُــوْرَۨا۝۳۶ۙ

अल्लाह की बन्दगी करो और उसके साथ किसी को साझी न बनाओ और अच्छा व्यवहार करो माँ-बाप के साथ, नातेदारों, अनाथों और मुहताजों के साथ, नातेदार पड़ोसियों के साथ और अपरिचित पड़ोसियों के साथ और साथ रहनेवाले व्यक्ति के साथ और मुसाफ़िर के साथ और उनके साथ भी जो तुम्हारे क़ब्ज़े में हों। अल्लाह ऐसे व्यक्ति को पसन्द नहीं करता, जो इतराता और डींगें मारता हो॥36॥

الَّذِيْنَ يَبْخَلُوْنَ وَيَاْمُرُوْنَ النَّاسَ بِالْبُخْلِ وَيَكْتُمُوْنَ مَآ اٰتٰىھُمُ اللہُ مِنْ فَضْلِہٖ۝۰ۭ وَاَعْتَدْنَا لِلْكٰفِرِيْنَ عَذَابًا مُّہِيْنًا۝۳۷ۚ

वे जो स्वयं कंजूसी करते है और लोगों को भी कंजूसी पर उभारते है और अल्लाह ने अपने उदार दान से जो कुछ उन्हें दे रखा होता है, उसे छिपाते है, जो हमने अकृतज्ञ लोगों के लिए अपमानजनक यातना तैयार कर रखी है॥37॥

وَالَّذِيْنَ يُنْفِقُوْنَ اَمْوَالَھُمْ رِئَاۗءَ النَّاسِ وَلَا يُؤْمِنُوْنَ بِاللہِ وَلَا بِالْيَوْمِ الْاٰخِرِ۝۰ۭ وَمَنْ يَّكُنِ الشَّيْطٰنُ لَہٗ قَرِيْنًا فَسَاۗءَ قَرِيْنًا۝۳۸

वे जो अपने माल लोगों को दिखाने के लिए ख़र्च करते है, न अल्लाह पर ईमान रखते है, न अन्तिम दिन पर, और जिस किसी का साथी शैतान हुआ, तो वह बहुत ही बुरा साथी है॥38॥

وَمَاذَا عَلَيْہِمْ لَوْ اٰمَنُوْا بِاللہِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَاَنْفَقُوْا مِمَّا رَزَقَھُمُ اللہُ۝۰ۭ وَكَانَ اللہُ بِہِمْ عَلِــيْمًا۝۳۹

उनका क्याद बिगड़ जाता, यदि वे अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान लाते और जो कुछ अल्लाह ने उन्हें दिया है, उसमें से ख़र्च करते है? अल्लाह उन्हें भली-भाँति जानता है॥39॥

اِنَّ اللہَ لَا يَظْلِمُ مِثْقَالَ ذَرَّۃٍ۝۰ۚ وَاِنْ تَكُ حَسَـنَۃً يُّضٰعِفْھَا وَيُؤْتِ مِنْ لَّدُنْہُ اَجْرًا عَظِيْمًا۝۴۰

निस्संदेह अल्लाह रत्ती-भर भी ज़ुल्म नहीं करता और यदि कोई एक नेकी हो तो वह उसे कई गुना बढ़ा देगा और अपनी ओर से बड़ा बदला देगा॥40॥

فَكَيْفَ اِذَا جِئْنَا مِنْ كُلِّ اُمَّۃٍؚبِشَہِيْدٍ وَّجِئْنَا بِكَ عَلٰي ہٰٓؤُلَاۗءِ شَہِيْدًا۝۴۱ۭ۬

फिर क्या हाल होगा जब हम प्रत्येक समुदाय में से एक गवाह लाएँगे और स्वयं तुम्हें इन लोगों के मुक़ाबले में गवाह बनाकर पेश करेंगे?॥41॥

يَوْمَىِٕذٍ يَّوَدُّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَعَصَوُا الرَّسُوْلَ لَوْ تُـسَوّٰى بِہِمُ الْاَرْضُ۝۰ۭ وَلَا يَكْتُمُوْنَ اللہَ حَدِيْثًا۝۴۲ۧ

उस दिन वे लोग जिन्होंने इनकार किया होगा और रसूल की अवज्ञा की होगी, यही चाहेंगे कि किसी तरह धरती में समोकर उसे बराबर कर दिया जाए। वे अल्लाह से कोई बात भी न छिपा सकेंगे॥42॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَقْرَبُوا الصَّلٰوۃَ وَاَنْتُمْ سُكٰرٰى حَتّٰى تَعْلَمُوْا مَا تَقُوْلُوْنَ وَلَا جُنُبًا اِلَّا عَابِرِيْ سَبِيْلٍ حَتّٰى تَغْتَسِلُوْا۝۰ۭ وَاِنْ كُنْتُمْ مَّرْضٰٓى اَوْ عَلٰي سَفَرٍ اَوْ جَاۗءَ اَحَدٌ مِّنْكُمْ مِّنَ الْغَاۗىِٕطِ اَوْ لٰمَسْتُمُ النِّسَاۗءَ فَلَمْ تَجِدُوْا مَاۗءً فَتَيَمَّمُوْا صَعِيْدًا طَيِّبًا فَامْسَحُوْا بِوُجُوْہِكُمْ وَاَيْدِيْكُمْ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ كَانَ عَفُوًّا غَفُوْرًا۝۴۳

ऐ ईमान लानेवालो! नशे की दशा में नमाज़ में व्यस्त न हो, जब तक कि तुम यह न जानने लगो कि तुम क्या कह रहे हो। और इसी प्रकार नापाकी की दशा में भी (नमाज़ में व्यस्त न हो), जब तक कि तुम स्नान न कर लो, सिवाय इसके कि तुम सफ़र में हो। और यदि तुम बीमार हो या सफ़र में हो, या तुममें से कोई शौच करके आए या तुमने स्त्रियों को हाथ लगाया हो, फिर तुम्हें पानी न मिले, तो पाक मिट्टी से काम लो और उसपर हाथ मारकर अपने चहरे और हाथों पर मलो। निस्संदेह अल्लाह नर्मी से काम लेनेवाला, अत्यन्त क्षमाशील है॥43॥

اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ اُوْتُوْا نَصِيْبًا مِّنَ الْكِتٰبِ يَشْتَرُوْنَ الضَّلٰلَۃَ وَيُرِيْدُوْنَ اَنْ تَضِلُّوا السَّبِيْلَ۝۴۴ۭ

क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा, जिन्हें सौभाग्य प्रदान हुआ था अर्थात किताब दी गई थी? वे पथभ्रष्टता के खरीदार बने हुए है और चाहते है कि तुम भी रास्ते से भटक जाओ॥44॥

وَاللہُ اَعْلَمُ بِاَعْدَاۗىِٕكُمْ۝۰ۭ وَكَفٰى بِاللہِ وَلِيًّا۝۰ۤۡ وَّكَفٰى بِاللہِ نَصِيْرًا۝۴۵

अल्लाह तुम्हारे शत्रुओं को भली-भाँति जानता है। अल्लाह एक संरक्षक के रूप में काफ़ी है और अल्लाह एक सहायक के रूप में भी काफ़ी है॥45॥

مِنَ الَّذِيْنَ ھَادُوْا يُحَرِّفُوْنَ الْكَلِمَ عَنْ مَّوَاضِعِہٖ وَيَقُوْلُوْنَ سَمِعْنَا وَعَصَيْنَا وَاسْمَعْ غَيْرَ مُسْمَعٍ وَّرَاعِنَا لَيًّۢا بِاَلْسِنَتِہِمْ وَطَعْنًا فِي الدِّيْنِ۝۰ۭ وَلَوْ اَنَّھُمْ قَالُوْا سَمِعْنَا وَاَطَعْنَا وَاسْمَعْ وَانْظُرْنَا لَكَانَ خَيْرًا لَّھُمْ وَاَقْوَمَ۝۰ۙ وَلٰكِنْ لَّعَنَھُمُ اللہُ بِكُفْرِہِمْ فَلَا يُؤْمِنُوْنَ اِلَّا قَلِيْلًا۝۴۶

वे लोग जो यहूदी बन गए, वे शब्दों को उनके स्थानों से दूसरी ओर फेर देते है और कहते हैं, "समि'अना व 'असैना" (हमने सुना, लेकिन हम मानते नही); और "इस–मअ ग़ै-र मुस–मइन" (सुनो हालाँकि तुम सुनने के योग्य नहीं हो) और "राइना" (हमारी ओर ध्यान दो) - यह वे अपनी ज़बानों को तोड़-मरोड़कर और दीन पर चोटें करते हुए कहते है। और यदि वे कहते, "समिअ'ना व अ-तअना" (हमने सुना और माना) और "इस–मअ" (सुनो) और "उनज़ुरना" (हमारी ओर निगाह करो) तो यह उनके लिए अच्छा और अधिक ठीक होता। किन्तु उनपर तो उनके इनकार के कारण अल्लाह की फिटकार पड़ी हुई है। फिर वे ईमान थोड़े ही लाते है॥46॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ اٰمِنُوْا بِمَا نَزَّلْنَا مُصَدِّقًا لِّمَا مَعَكُمْ مِّنْ قَبْلِ اَنْ نَّطْمِسَ وُجُوْہًا فَنَرُدَّھَا عَلٰٓي اَدْبَارِھَآ اَوْ نَلْعَنَھُمْ كَـمَا لَعَنَّآ اَصْحٰبَ السَّبْتِ۝۰ۭ وَكَانَ اَمْرُ اللہِ مَفْعُوْلًا۝۴۷

ऐ लोगों! जिन्हें किताब दी गई, उस चीज को मानो जो हमने उतारी है, जो उसकी पुष्टि में है, जो स्वयं तुम्हारे पास है, इससे पहले कि हम चेहरों की रूपरेखा को मिटाकर रख दें और उन्हें उनके पीछ की ओर फेर दें या उनपर लानत करें, जिस प्रकार हमने सब्तवालों पर लानत की थी। और अल्लाह का आदेश तो लागू होकर ही रहता है॥47॥

اِنَّ اللہَ لَا يَغْفِرُ اَنْ يُّشْرَكَ بِہٖ وَيَغْفِرُ مَا دُوْنَ ذٰلِكَ لِمَنْ يَّشَاۗءُ۝۰ۚ وَمَنْ يُّشْرِكْ بِاللہِ فَقَدِ افْتَرٰٓى اِثْمًا عَظِيْمًا۝۴۸

अल्लाह इसको क्षमा नहीं करेगा कि उसका साझी ठहराया जाए। किन्तु उससे नीचे दर्जे के अपराध को जिसके लिए चाहेगा, क्षमा कर देगा और जिस किसी ने अल्लाह का साझी ठहराया, तो उसने एक बड़ा झूठ घड़ लिया॥48॥

اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ يُزَكُّوْنَ اَنْفُسَھُمْ۝۰ۭ بَلِ اللہُ يُزَكِّيْ مَنْ يَّشَاۗءُ وَلَا يُظْلَمُوْنَ فَتِيْلًا۝۴۹

क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जो अपने को पूर्णात्माऔ होने का दावा करते हैं? (कोई यूँ ही नहीं पूर्णात्माउ हुआ करता) बल्कि अल्लाह ही जिसे चाहता है, पूर्णता एवं शिष्टता प्रदान करता है। और उनके साथ तनिक भी अत्याचार नहीं किया जाएगा॥49॥

اُنْظُرْ كَيْفَ يَفْتَرُوْنَ عَلَي اللہِ الْكَذِبَ۝۰ۭ وَكَفٰى بِہٖٓ اِثْمًا مُّبِيْنًا۝۵۰ۧ

देखो तो सही, वे अल्लाह पर कैसा झूठ मढ़ते हैं? खुले गुनाह के लिए तो यही पर्याप्त  है॥50॥

اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ اُوْتُوْا نَصِيْبًا مِّنَ الْكِتٰبِ يُؤْمِنُوْنَ بِالْجِبْتِ وَالطَّاغُوْتِ وَيَقُوْلُوْنَ لِلَّذِيْنَ كَفَرُوْا ہٰٓؤُلَاۗءِ اَہْدٰى مِنَ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا سَبِيْلًا۝۵۱

क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा, जिन्हें सौभाग्याम अर्थात किताब प्रदान की गई? वे अवास्तविक चीज़ो और ताग़ूत (बढ़ हुए सरकश) को मानते है। और विधर्मियों के विषय में कहते है, "ये ईमानवालों से बढ़कर मार्ग पर है।"॥51॥

اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ لَعَنَھُمُ اللہُ۝۰ۭ وَمَنْ يَّلْعَنِ اللہُ فَلَنْ تَجِدَ لَہٗ نَصِيْرًا۝۵۲ۭ

वही है जिनपर अल्लाह ने लातन की है, और जिसपर अल्लाह लानत कर दे, उसका तुम कोई सहायक कदापि न पाओगे॥52॥

اَمْ لَھُمْ نَصِيْبٌ مِّنَ الْمُلْكِ فَاِذًا لَّا يُؤْتُوْنَ النَّاسَ نَقِيْرًا۝۵۳ۙ

या बादशाही में इनका कोई हिस्सा है? फिर तो ये लोगों को फूटी कौड़ी तक भी न देते॥53॥

اَمْ يَحْسُدُوْنَ النَّاسَ عَلٰي مَآ اٰتٰىھُمُ اللہُ مِنْ فَضْلِہٖ۝۰ۚ فَقَدْ اٰتَيْنَآ اٰلَ اِبْرٰہِيْمَ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَۃَ وَاٰتَيْنٰھُمْ مُّلْكًا عَظِيْمًا۝۵۴

या ये लोगों से इसलिए ईर्ष्या करते है कि अल्लाह ने उन्हें अपने उदार दान से अनुग्रहित कर दिया? हमने तो इबराहीम के लोगों को किताब और हिकमत (तत्वदर्शिता) दी और उन्हें बड़ा राज्य प्रदान किया॥54॥

فَمِنْھُمْ مَّنْ اٰمَنَ بِہٖ وَمِنْھُمْ مَّنْ صَدَّ عَنْہُ۝۰ۭ وَكَفٰى بِجَہَنَّمَ سَعِيْرًا۝۵۵

फिर उनमें से कोई उसपर ईमान लाया और उसमें से किसी ने किनारा खीच लिया। और (ऐसे लोगों के लिए) जहन्नम की भड़कती आग ही काफ़ी है॥55॥

اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا بِاٰيٰتِنَا سَوْفَ نُصْلِيْہِمْ نَارًا۝۰ۭ كُلَّمَا نَضِجَتْ جُلُوْدُھُمْ بَدَّلْنٰھُمْ جُلُوْدًا غَيْرَھَا لِيَذُوْقُوا الْعَذَابَ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ كَانَ عَزِيْزًا حَكِــيْمًا۝۵۶

जिन लोगों ने हमारी आयतों का इनकार किया, उन्हें हम जल्द ही आग में झोंकेंगे। जब भी उनकी खालें पक जाएँगी, तो हम उन्हें दूसरी खालों में बदल दिया करेंगे, ताकि वे यातना का मज़ा चखते ही रहें। निस्संदेह अल्लाह प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है॥56॥

وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ سَـنُدْخِلُھُمْ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِھَا الْاَنْھٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْھَآ اَبَدًا۝۰ۭ لَھُمْ فِيْھَآ اَزْوَاجٌ مُّطَہَّرَۃٌ۝۰ۡ وَّنُدْخِلُھُمْ ظِلًّا ظَلِيْلًا۝۵۷

और जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए, उन्हें हम ऐसे बाग़ो में दाखिल करेंगे, जिनके नीचे नहरें बह रहीं होगी, जहाँ वे सदैव रहेंगे। उनके लिए वहाँ पाक जोड़े होंगे और हम उन्हें घनी छाँव में दाखिल करेंगे॥57॥

۞ اِنَّ اللہَ يَاْمُرُكُمْ اَنْ تُؤَدُّوا الْاَمٰنٰتِ اِلٰٓى اَھْلِھَا۝۰ۙ وَاِذَا حَكَمْتُمْ بَيْنَ النَّاسِ اَنْ تَحْكُمُوْا بِالْعَدْلِ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ نِعِمَّا يَعِظُكُمْ بِہٖ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ كَانَ سَمِيْعًۢا بَصِيْرًا۝۵۸

अल्लाह तुम्हें आदेश देता है कि अमानतों को उनके हक़दारों तक पहुँचा दिया करो। और जब लोगों के बीच फ़ैसला करो, तो न्यायपूर्वक फ़ैसला करो। अल्लाह तुम्हें कितनी अच्छी नसीहत करता है। निस्सदेह, अल्लाह सब कुछ सुनता, देखता है॥58॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَطِيْعُوا اللہَ وَاَطِيْعُوا الرَّسُوْلَ وَاُولِي الْاَمْرِ مِنْكُمْ۝۰ۚ فَاِنْ تَنَازَعْتُمْ فِيْ شَيْءٍ فَرُدُّوْہُ اِلَى اللہِ وَالرَّسُوْلِ اِنْ كُنْتُمْ تُؤْمِنُوْنَ بِاللہِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ۝۰ۭ ذٰلِكَ خَيْرٌ وَاَحْسَنُ تَاْوِيْلًا۝۵۹ۧ

ऐ ईमान लानेवालो! अल्लाह की आज्ञा का पालन करो और रसूल का कहना मानो और उनका भी कहना मानो जो तुममें अधिकारी लोग है। फिर यदि तुम्हारे बीच किसी मामले में झगड़ा हो जाए, तो उसे तुम अल्लाह और रसूल की ओर लौटाओ, यदि तुम अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान रखते हो। यही उत्तम है और परिणाम की दृष्टि से भी अच्छा है॥59॥

اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ يَزْعُمُوْنَ اَنَّھُمْ اٰمَنُوْا بِمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ وَمَآ اُنْزِلَ مِنْ قَبْلِكَ يُرِيْدُوْنَ اَنْ يَّتَحَاكَمُوْٓا اِلَى الطَّاغُوْتِ وَقَدْ اُمِرُوْٓا اَنْ يَّكْفُرُوْا بِہٖ۝۰ۭ وَيُرِيْدُ الشَّيْطٰنُ اَنْ يُّضِلَّھُمْ ضَلٰلًۢا بَعِيْدًا۝۶۰

क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा, जो दावा तो करते है कि वे उस चीज़ पर ईमान रखते हैं, जो तुम्हारी ओर उतारी गई है और तुमसे पहले उतारी गई है। और चाहते है कि अपना मामला ताग़ूत के पास ले जाकर फ़ैसला कराएँ, जबकि उन्हें हुक्म दिया गया है कि वे उसका इनकार करें? परन्तु शैतान तो उन्हें भटकाकर बहुत दूर डाल देना चाहता है॥60॥

وَاِذَا قِيْلَ لَھُمْ تَعَالَوْا اِلٰى مَآ اَنْزَلَ اللہُ وَاِلَى الرَّسُوْلِ رَاَيْتَ الْمُنٰفِقِيْنَ يَصُدُّوْنَ عَنْكَ صُدُوْدًا۝۶۱ۚ

और जब उनसे कहा जाता है कि आओ उस चीज़ की ओर जो अल्लाह ने उतारी है और आओ रसूल की ओर, तो तुम मुनाफ़िको (कपटाचारियों) को देखते हो कि वे तुमसे कतराकर रह जाते है॥61॥

فَكَيْفَ اِذَآ اَصَابَتْھُمْ مُّصِيْبَۃٌۢ بِمَا قَدَّمَتْ اَيْدِيْہِمْ ثُمَّ جَاۗءُوْكَ يَحْلِفُوْنَ۝۰ۤۖ بِاللہِ اِنْ اَرَدْنَآ اِلَّآ اِحْسَانًا وَّتَوْفِيْقًا۝۶۲

फिर कैसी बात होगी कि जब उनकी अपनी करतूतों के कारण उनपर बड़ी मुसीबत आ पडेगी। फिर वे तुम्हारे पास अल्लाह की क़समें खाते हुए आते है कि हम तो केवल भलाई और बनाव चाहते थे?॥62॥

اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ يَعْلَمُ اللہُ مَا فِيْ قُلُوْبِہِمْ۝۰ۤ فَاَعْرِضْ عَنْھُمْ وَعِظْھُمْ وَقُلْ لَّھُمْ فِيْٓ اَنْفُسِہِمْ قَوْلًۢا بَلِيْغًا۝۶۳

ये वे लोग है जिनके दिलों की बात अल्लाह भली-भाँति जानता है; तो तुम उन्हें जाने दो और उन्हें समझओ और उनसे उनके विषय में वह बात कहो जो प्रभावकारी हो॥63॥

وَمَآ اَرْسَلْنَا مِنْ رَّسُوْلٍ اِلَّا لِيُطَاعَ بِـاِذْنِ اللہِ۝۰ۭ وَلَوْ اَنَّھُمْ اِذْ ظَّلَمُوْٓا اَنْفُسَھُمْ جَاۗءُوْكَ فَاسْتَغْفَرُوا اللہَ وَاسْتَغْفَرَ لَھُمُ الرَّسُوْلُ لَوَجَدُوا اللہَ تَوَّابًا رَّحِـيْمًا۝۶۴

हमने जो रसूल भी भेजा, इसलिए भेजा कि अल्लाह की अनुमति से उसकी आज्ञा का पालन किया जाए। और यदि यह उस समय, जबकि इन्होंने स्वयं अपने ऊपर ज़ुल्म किया था, तुम्हारे पास आ जाते और अल्लाह से क्षमा चहाते  और रसूल भी इनके लिये क्षमा की प्रार्थना करते तो निश्चय ही वे अल्लाह को अत्यन्त क्षमाशील और दयावान पाते॥64॥

فَلَا وَرَبِّكَ لَا يُؤْمِنُوْنَ حَتّٰي يُحَكِّمُوْكَ فِيْمَا شَجَــرَ بَيْنَھُمْ ثُمَّ لَا يَجِدُوْا فِيْٓ اَنْفُسِہِمْ حَرَجًا مِّمَّا قَضَيْتَ وَيُسَلِّمُوْا تَسْلِــيْمًا۝۶۵

तो तुम्हें तुम्हारे रब की कसम! ये ईमानवाले नहीं हो सकते जब तक कि अपने आपस के झगड़ो में ये तुमसे फ़ैसला न कराएँ। फिर जो फ़ैसला तुम कर दो, उसपर ये अपने दिलों में कोई तंगी न पाएँ और पूरी तरह मान ले॥65॥

وَلَوْ اَنَّا كَتَبْنَا عَلَيْہِمْ اَنِ اقْتُلُوْٓا اَنْفُسَكُمْ اَوِ اخْرُجُوْا مِنْ دِيَارِكُمْ مَّا فَعَلُوْہُ اِلَّا قَلِيْلٌ مِّنْھُمْ۝۰ۭ وَلَوْ اَنَّھُمْ فَعَلُوْا مَا يُوْعَظُوْنَ بِہٖ لَكَانَ خَيْرًا لَّھُمْ وَاَشَدَّ تَثْبِيْتًا۝۶۶ۙ

और यदि कहीं हमने उन्हें आदेश दिया होता कि "अपनों को क़त्ल करो या अपने घरों से निकल जाओ।" तो उनमें से थोड़े ही ऐसा करते। हालाँकि जो नसीहत उन्हें की जाती है, अगर वे उसे व्यवहार में लाते तो यह बात उनके लिए अच्छी होती और ज़्यादा ज़माव पैदा करनेवाली होती॥66॥

وَّاِذًا لَّاٰتَيْنٰھُمْ مِّنْ لَّدُنَّآ اَجْرًا عَظِيْمًا۝۶۷ۙ

और उस समय हम उन्हें अपनी ओर से निश्चय ही बड़ा बदला प्रदान करते॥67॥

وَّلَہَدَيْنٰھُمْ صِرَاطًا مُّسْتَقِيْمًا۝۶۸

और उन्हें सीधे मार्ग पर लगा देते॥68॥

وَمَنْ يُّطِعِ اللہَ وَالرَّسُوْلَ فَاُولٰۗىِٕكَ مَعَ الَّذِيْنَ اَنْعَمَ اللہُ عَلَيْہِمْ مِّنَ النَّبِيّٖنَ وَالصِّدِّيْقِيْنَ وَالشُّہَدَاۗءِ وَالصّٰلِحِيْنَ۝۰ۚ وَحَسُنَ اُولٰۗىِٕكَ رَفِيْقًا۝۶۹ۭ

जो अल्लाह और रसूल की आज्ञा का पालन करता है, तो ऐसे ही लोग उन लोगों के साथ है जिनपर अल्लाह की कृपा कृपादृष्टि रही है - वे नबी, सिद्दीक़, शहीद और अच्छे लोग है। और वे कितने अच्छे साथी है॥69॥

ذٰلِكَ الْفَضْلُ مِنَ اللہِ۝۰ۭ وَكَفٰى بِاللہِ عَلِــيْمًا۝۷۰ۧ

यह अल्लाह का उदार अनुग्रह है। और काफ़ी है अल्लाह, इस हाल में कि वह भली-भाँति जानता है॥70॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا خُذُوْا حِذْرَكُمْ فَانْفِرُوْا ثُبَاتٍ اَوِ انْفِرُوْا جَمِيْعًا۝۷۱

ऐ ईमान लानेवालो! अपने बचाव की साम्रगी। सँभालो। फिर या तो अलग-अलग टुकड़ियों में निकलो या इकट्ठे होकर निकलो॥71॥

وَاِنَّ مِنْكُمْ لَمَنْ لَّيُبَطِّئَنَّ۝۰ۚ فَاِنْ اَصَابَتْكُمْ مُّصِيْبَۃٌ قَالَ قَدْ اَنْعَمَ اللہُ عَلَيَّ اِذْ لَمْ اَكُنْ مَّعَھُمْ شَہِيْدًا۝۷۲

तुममे से कोई ऐसा भी है जो ढीला पड़ जाता है, फिर यदि तुमपर कोई मुसीबत आए तो कहने लगता है कि अल्लाह ने मुझपर कृपा की कि मैं इन लोगों के साथ न गया॥72॥

وَلَىِٕنْ اَصَابَكُمْ فَضْلٌ مِّنَ اللہِ لَيَقُوْلَنَّ كَاَنْ لَّمْ تَكُنْۢ بَيْنَكُمْ وَبَيْنَہٗ مَوَدَّۃٌ يّٰلَيْتَنِيْ كُنْتُ مَعَھُمْ فَاَفُوْزَ فَوْزًا عَظِيْمًا۝۷۳

परन्तु यदि अल्लाह की ओर से तुमपर कोई उदार अनुग्रह हो तो वह इस प्रकार से जैसे तुम्हारे और उनके बीच प्रेम का कोई सम्बन्ध ही नहीं, कहता है, "क्या ही अच्छा होता कि मैं भी उनके साथ होता, तो बड़ी सफलता प्राप्त करता।"॥73॥

۞ فَلْيُقَاتِلْ فِيْ سَبِيْلِ اللہِ الَّذِيْنَ يَشْرُوْنَ الْحَيٰوۃَ الدُّنْيَا بِالْاٰخِرَۃِ۝۰ۭ وَمَنْ يُّقَاتِلْ فِيْ سَبِيْلِ اللہِ فَيُقْتَلْ اَوْ يَغْلِبْ فَسَوْفَ نُؤْتِيْہِ اَجْرًا عَظِيْمًا۝۷۴

तो जो लोग आख़िरत (परलोक) के बदले सांसारिक जीवन का सौदा करें, तो उन्हें चाहिए कि अल्लाह के मार्ग में लड़े। जो अल्लाह के मार्ग में लड़ेगा, चाहे वह मारा जाए या विजयी रहे, उसे हम शीघ्र ही बड़ा बदला प्रदान करेंगे॥74॥

وَمَا لَكُمْ لَا تُقَاتِلُوْنَ فِيْ سَبِيْلِ اللہِ وَالْمُسْتَضْعَفِيْنَ مِنَ الرِّجَالِ وَالنِّسَاۗءِ وَالْوِلْدَانِ الَّذِيْنَ يَقُوْلُوْنَ رَبَّنَآ اَخْرِجْنَا مِنْ ھٰذِہِ الْقَرْيَۃِ الظَّالِمِ اَہْلُھَا۝۰ۚ وَاجْعَلْ لَّنَا مِنْ لَّدُنْكَ وَلِيًّا۝۰ۚۙ وَّاجْعَلْ لَّنَا مِنْ لَّدُنْكَ نَصِيْرًا۝۷۵ۭ

तुम्हें क्या हुआ है कि अल्लाह के मार्ग में और उन कमज़ोर पुरुषों, औरतों और बच्चों के लिए युद्ध न करो, जो प्रार्थनाएँ करते है कि "हमारे रब! तू हमें इस बस्ती से निकाल, जिसके लोग अत्याचारी है। और हमारे लिए अपनी ओर से तू कोई समर्थक नियुक्त कर और हमारे लिए अपनी ओर से तू कोई सहायक नियुक्त कर।"॥75॥

اَلَّذِيْنَ اٰمَنُوْا يُقَاتِلُوْنَ فِيْ سَبِيْلِ اللہِ۝۰ۚ وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا يُقَاتِلُوْنَ فِيْ سَبِيْلِ الطَّاغُوْتِ فَقَاتِلُوْٓا اَوْلِيَاۗءَ الشَّيْطٰنِ۝۰ۚ اِنَّ كَيْدَ الشَّيْطٰنِ كَانَ ضَعِيْفًا۝۷۶ۧ

ईमान लानेवाले तो अल्लाह के मार्ग में युद्ध करते है और अधर्मी लोग ताग़ूत (बढ़े हुए सरकश) के मार्ग में युद्ध करते है। अतः तुम शैतान के मित्रों से लड़ो। निश्चय ही, शैतान की चाल बहुत कमज़ोर होती है॥76॥

اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ قِيْلَ لَھُمْ كُفُّوْٓا اَيْدِيَكُمْ وَاَقِيْمُوا الصَّلٰوۃَ وَاٰتُوا الزَّكٰوۃَ۝۰ۚ فَلَمَّا كُتِبَ عَلَيْہِمُ الْقِتَالُ اِذَا فَرِيْقٌ مِّنْھُمْ يَخْشَوْنَ النَّاسَ كَخَشْـيَۃِ اللہِ اَوْ اَشَدَّ خَشْـيَۃً۝۰ۚ وَقَالُوْا رَبَّنَا لِمَ كَتَبْتَ عَلَيْنَا الْقِتَالَ۝۰ۚ لَوْلَآ اَخَّرْتَنَآ اِلٰٓى اَجَلٍ قَرِيْبٍ۝۰ۭ قُلْ مَتَاعُ الدُّنْيَا قَلِيْلٌ۝۰ۚ وَالْاٰخِرَۃُ خَيْرٌ لِّمَنِ اتَّقٰى۝۰ۣ وَلَا تُظْلَمُوْنَ فَتِيْلًا۝۷۷

क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जिनसे कहा गया था कि अपने हाथ रोके रखो और नमाज़ क़ायम करो और ज़कात दो? फिर जब उन्हें युद्ध का आदेश दिया गया तो क्या देखते है कि उनमें से कुछ लोगों का हाल यह है कि वे लोगों से ऐसा डरने लगे जैसे अल्लाह का डर हो या यह डर उससे भी बढ़कर हो। कहने लगे, "हमारे रब! तूने हमपर युद्ध क्यों अनिवार्य कर दिया? क्यों न थोड़ी मुहलत हमें और दी?" कह दो, "दुनिया की पूँजी बहुत थोड़ी है, जबकि आख़िरत उस व्यक्ति के लिए अधिक अच्छी है जो अल्लाह का डर रखता हो और तुम्हारे साथ तनिक भी अन्याय न किया जाएगा।॥77॥

اَيْنَ مَا تَكُوْنُوْا يُدْرِكْكُّمُ الْمَوْتُ وَلَوْ كُنْتُمْ فِيْ بُرُوْجٍ مُّشَـيَّدَۃٍ۝۰ۭ وَاِنْ تُصِبْھُمْ حَسَـنَۃٌ يَّقُوْلُوْا ہٰذِہٖ مِنْ عِنْدِ اللہِ۝۰ۚ وَاِنْ تُصِبْھُمْ سَيِّئَۃٌ يَّقُوْلُوْا ہٰذِہٖ مِنْ عِنْدِكَ۝۰ۭ قُلْ كُلٌّ مِّنْ عِنْدِ اللہِ۝۰ۭ فَمَالِ ہٰٓؤُلَاۗءِ الْقَوْمِ لَا يَكَادُوْنَ يَفْقَہُوْنَ حَدِيْثًا۝۷۸

"तुम जहाँ कहीं भी होंगे, मृत्यु तो तुम्हें आकर रहेगी; चाहे तुम मज़बूत बुर्जों (क़िलों) में ही (क्यों न) हो।" यदि उन्हें कोई अच्छी हालत पेश आती है तो कहते है, "यह तो अल्लाह के पास से है।" परन्तु यदि उन्हें कोई बुरी हालत पेश आती है तो कहते है, "यह तुम्हारे कारण है।" कह दो, "हर एक चीज़ अल्लाह के पास से है।" आख़िर इन लोगों को क्या हो गया कि ये ऐसे नहीं लगते कि कोई बात समझ सकें?॥78॥

مَآ اَصَابَكَ مِنْ حَسَـنَۃٍ فَمِنَ اللہِ۝۰ۡوَمَآ اَصَابَكَ مِنْ سَيِّئَۃٍ فَمِنْ نَّفْسِكَ۝۰ۭ وَاَرْسَلْنٰكَ لِلنَّاسِ رَسُوْلًا۝۰ۭ وَكَفٰى بِاللہِ شَہِيْدًا۝۷۹

तुम्हें जो भी भलाई प्राप्त" होती है, वह अल्लाह की ओर से है और जो बुरी हालत तुम्हें पेश आ जाती है तो वह तुम्हारे अपने ही कारण पेश आती है। हमने तुम्हें लोगों के लिए रसूल बनाकर भेजा है और (इसपर) अल्लाह का गवाह होना काफ़ी है॥79॥

مَنْ يُّطِعِ الرَّسُوْلَ فَقَدْ اَطَاعَ اللہَ۝۰ۚ وَمَنْ تَوَلّٰى فَمَآ اَرْسَلْنٰكَ عَلَيْہِمْ حَفِيْظًا۝۸۰ۭ

जिसने रसूल की आज्ञा का पालन किया, उसने अल्लाह की आज्ञा का पालन किया और जिसने मुँह मोड़ा तो हमने तुम्हें ऐसे लोगों पर कोई रखवाला बनाकर तो नहीं भेजा है॥80॥

وَيَقُوْلُوْنَ طَاعَۃٌ۝۰ۡفَاِذَا بَرَزُوْا مِنْ عِنْدِكَ بَيَّتَ طَاۗىِٕفَۃٌ مِّنْھُمْ غَيْرَ الَّذِيْ تَقُوْلُ۝۰ۭ وَاللہُ يَكْتُبُ مَا يُبَيِّتُوْنَ۝۰ۚ فَاَعْرِضْ عَنْھُمْ وَتَوَكَّلْ عَلَي اللہِ۝۰ۭ وَكَفٰى بِاللہِ وَكِيْلًا۝۸۱

और वे दावा तो आज्ञापालन का करते है, परन्तु जब तुम्हारे पास से हटते है तो उनमें एक गिरोह अपने कथन के विपरीत रात में षड्यंत्र(साजिस) करता है । जो कुछ वे षड्यंत्र करते है, अल्लाह उसे लिख रहा है। तो तुम उनसे रुख़ फेर लो और अल्लाह पर भरोसा रखो, और अल्लाह का कार्यसाधक होना काफ़ी है!॥81॥

اَفَلَا يَتَدَبَّرُوْنَ الْقُرْاٰنَ۝۰ۭ وَلَوْ كَانَ مِنْ عِنْدِ غَيْرِ اللہِ لَوَجَدُوْا فِيْہِ اخْتِلَافًا كَثِيْرًا۝۸۲

क्या वे क़ुरआन में सोच-विचार नहीं करते? यदि यह अल्लाह के अतिरिक्त किसी और की ओर से होता, तो निश्चय ही वे इसमें बहुत-सी बेमेल बातें पाते॥82॥

وَاِذَا جَاۗءَھُمْ اَمْرٌ مِّنَ الْاَمْنِ اَوِ الْخَوْفِ اَذَاعُوْا بِہٖ۝۰ۭ وَلَوْ رَدُّوْہُ اِلَى الرَّسُوْلِ وَاِلٰٓى اُولِي الْاَمْرِ مِنْھُمْ لَعَلِمَہُ الَّذِيْنَ يَسْتَنْۢبِطُوْنَہٗ مِنْھُمْ۝۰ۭ وَلَوْلَا فَضْلُ اللہِ عَلَيْكُمْ وَرَحْمَتُہٗ لَاتَّبَعْتُمُ الشَّيْطٰنَ اِلَّا قَلِيْلًا۝۸۳

जब उनके पास निश्चिन्तता या भय की कोई बात पहुचती है तो उसे फैला देते है, हालाँकि अगर वे उसे रसूल और अपने समुदाय के उतरदायी व्यक्तियों तक पहुँचाते तो उसे वे लोग जान लेते जो उनमें उसकी जाँच कर सकते है। और यदि तुमपर अल्लाह का उदार अनुग्रह और उसकी दयालुता न होती, तो थोड़े लोगों के सिवा तुम सब शैतान के पीछे चलने लग जाते॥83॥

فَقَاتِلْ فِيْ سَبِيْلِ اللہِ۝۰ۚ لَا تُكَلَّفُ اِلَّا نَفْسَكَ وَحَرِّضِ الْمُؤْمِنِيْنَ۝۰ۚ عَسَى اللہُ اَنْ يَّكُفَّ بَاْسَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا۝۰ۭ وَاللہُ اَشَدُّ بَاْسًا وَّاَشَدُّ تَنْكِيْلًا۝۸۴

अतः अल्लाह के मार्ग में युद्ध करो - तुमपर तो बस तुम्हारी अपनी ही ज़िम्मेदारी है - और ईमानवालों की कमज़ोरियो को दूर करो और उन्हें (युद्ध के लिए) उभारो। इसकी बहुत सम्भावना है कि अल्लाह इनकार करनेवालों के ज़ोर को रोक लगा दे। अल्लाह बड़ा ज़ोरवाला और कठोर दंड देनेवाला है॥84॥

مَنْ يَّشْفَعْ شَفَاعَۃً حَسَـنَۃً يَّكُنْ لَّہٗ نَصِيْبٌ مِّنْھَا۝۰ۚ وَمَنْ يَّشْفَعْ شَفَاعَۃً سَيِّئَۃً يَّكُنْ لَّہٗ كِفْلٌ مِّنْھَا۝۰ۭ وَكَانَ اللہُ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ مُّقِيْتًا۝۸۵

जो कोई अच्छी सिफ़ारिश करेगा, उसे उसके कारण उसका प्रतिदान मिलेगा और जो बुरी सिफ़ारिश करेगा, तो उसके कारण उसका बोझ उसपर पड़कर रहेगा। अल्लाह को तो हर चीज़ पर क़ाबू हासिल है॥85॥

وَاِذَا حُيِّيْتُمْ بِتَحِيَّۃٍ فَحَــيُوْا بِاَحْسَنَ مِنْھَآ اَوْ رُدُّوْھَا۝۰ۭ اِنَّ اللہَ كَانَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ حَسِيْبًا۝۸۶

और तुम्हें जब सलामती की कोई दुआ दी जाए, तो तुम सलामती की उससे अच्छी दुआ दो या उसी को लौटा दो। निश्चय ही, अल्लाह हर चीज़ का हिसाब रखता है॥86॥

اَللہُ لَآ اِلٰہَ اِلَّا ھُوَ۝۰ۭ لَيَجْمَعَنَّكُمْ اِلٰى يَوْمِ الْقِيٰمَۃِ لَا رَيْبَ فِيْہِ۝۰ۭ وَمَنْ اَصْدَقُ مِنَ اللہِ حَدِيْثًا۝۸۷ۧ

अल्लाह के सिवा कोई इष्ट -पूज्य नहीं। वह तुम्हें क़ियामत के दिन की ओर ले जाकर इकट्ठा करके रहेगा, जिसके आने में कोई संदेह नहीं, और अल्लाह से बढ़कर सच्ची बात और किसकी हो सकती है॥87॥

۞ فَمَا لَكُمْ فِي الْمُنٰفِقِيْنَ فِئَتَيْنِ وَاللہُ اَرْكَسَھُمْ بِمَا كَسَبُوْا۝۰ۭ اَتُرِيْدُوْنَ اَنْ تَہْدُوْا مَنْ اَضَلَّ اللہُ۝۰ۭ وَمَنْ يُّضْلِلِ اللہُ فَلَنْ تَجِدَ لَہٗ سَبِيْلًا۝۸۸

फिर तुम्हें क्या हो गया है कि कपटाचारियों (मुनाफ़िक़ो) के विषय में तुम दो गिरोह हो रहे हो, यद्यपि अल्लाह ने तो उनकी करतूतों के कारण उन्हें उल्टा फेर दिया है? क्या तुम उसे मार्ग पर लाना चाहते हो जिसे अल्लाह ने गुमराह छोड़ दिया है? हालाँकि जिसे अल्लाह मार्ग न दिखाए, उसके लिए तुम कदापि कोई मार्ग नहीं पा सकते॥88॥

وَدُّوْا لَوْ تَكْفُرُوْنَ كَـمَا كَفَرُوْا فَتَكُوْنُوْنَ سَوَاۗءً فَلَا تَتَّخِذُوْا مِنْھُمْ اَوْلِيَاۗءَ حَتّٰي يُھَاجِرُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللہِ۝۰ۭ فَاِنْ تَوَلَّوْا فَخُذُوْھُمْ وَاقْتُلُوْھُمْ حَيْثُ وَجَدْتُّمُوْھُمْ۝۰۠ وَلَا تَتَّخِذُوْا مِنْھُمْ وَلِيًّا وَّلَا نَصِيْرًا۝۸۹ۙ

वे तो चाहते है कि जिस प्रकार वे स्वयं अधर्मी है, उसी प्रकार तुम भी अधर्मी बनकर उन जैसे हो जाओ; तो तुम उनमें से अपने मित्र न बनाओ, जब तक कि वे अल्लाह के मार्ग में घरबार न छोड़े। फिर यदि वे इससे पीठ फेरें तो उन्हें पकड़ो, और उन्हें क़त्ल करो जहाँ कही भी उन्हें पाओ - तो उनमें से किसी को न अपना मित्र बनाना और न सहायक -॥89॥

اِلَّا الَّذِيْنَ يَصِلُوْنَ اِلٰى قَوْمٍؚبَيْنَكُمْ وَبَيْنَھُمْ مِّيْثَاقٌ اَوْ جَاۗءُوْكُمْ حَصِرَتْ صُدُوْرُھُمْ اَنْ يُّقَاتِلُوْكُمْ اَوْ يُقَاتِلُوْا قَوْمَھُمْ۝۰ۭ وَلَوْ شَاۗءَ اللہُ لَسَلَّطَھُمْ عَلَيْكُمْ فَلَقٰتَلُوْكُمْ۝۰ۚ فَاِنِ اعْتَزَلُوْكُمْ فَلَمْ يُقَاتِلُوْكُمْ وَاَلْقَوْا اِلَيْكُمُ السَّلَمَ۝۰ۙ فَمَا جَعَلَ اللہُ لَكُمْ عَلَيْہِمْ سَبِيْلًا۝۹۰

सिवाय उन लोगों के जो ऐसे लोगों से सम्बन्ध रखते हों, जिनसे तुम्हारे और उनकी बीच कोई समझौता हो या वे तुम्हारे पास इस दशा में आएँ कि उनके दिल इससे तंग हो रहे हों कि वे तुमसे लड़े या अपने लोगों से लड़ाई करें। यदि अल्लाह चाहता तो उन्हें तुमपर क़ाबू दे देता। फिर तो वे तुमसे अवश्य लड़ते; तो यदि वे तुमसे अलग रहें और तुमसे न लड़ें और संधि के लिए तुम्हारी ओर हाथ बढ़ाएँ तो उनके विरुद्ध अल्लाह ने तुम्हारे लिए कोई रास्ता नहीं रखा है॥90॥

سَتَجِدُوْنَ اٰخَرِيْنَ يُرِيْدُوْنَ اَنْ يَّاْمَنُوْكُمْ وَيَاْمَنُوْا قَوْمَھُمْ۝۰ۭ كُلَّمَا رُدُّوْٓا اِلَى الْفِتْنَۃِ اُرْكِسُوْا فِيْھَا۝۰ۚ فَاِنْ لَّمْ يَعْتَزِلُوْكُمْ وَيُلْقُوْٓا اِلَيْكُمُ السَّلَمَ وَيَكُفُّوْٓا اَيْدِيَھُمْ فَخُذُوْھُمْ وَاقْتُلُوْھُمْ حَيْثُ ثَقِفْتُمُوْھُمْ۝۰ۭ وَاُولٰۗىِٕكُمْ جَعَلْنَا لَكُمْ عَلَيْہِمْ سُلْطٰنًا مُّبِيْنًا۝۹۱ۧ

अब तुम कुछ ऐसे लोगों को भी पाओगे, जो चाहते है कि तुम्हारी ओर से निश्चिन्त होकर रहें और अपने लोगों की ओर से भी निश्चिन्त होकर रहे। परन्तु जब भी वे फ़साद और उपद्रव की ओर फेरे गए तो वे उसी में औधे जा गिरे। तो यदि वे तुमसे अलग-थलग न रहें और तुम्हारी ओर सुलह का हाथ न बढ़ाएँ, और अपने हाथ न रोकें, तो तुम उन्हें पकड़ो और क़त्ल करो, जहाँ कहीं भी तुम उन्हें पाओ। उनके विरुद्ध हमने तुम्हें खुला अधिकार दे रखा है॥91॥

وَمَا كَانَ لِمُؤْمِنٍ اَنْ يَّقْتُلَ مُؤْمِنًا اِلَّا خَطَــــًٔـا۝۰ۚ وَمَنْ قَتَلَ مُؤْمِنًا خَطَــــًٔا فَتَحْرِيْرُ رَقَبَۃٍ مُّؤْمِنَۃٍ وَّدِيَۃٌ مُّسَلَّمَۃٌ اِلٰٓى اَھْلِہٖٓ اِلَّآ اَنْ يَّصَّدَّقُوْا۝۰ۭ فَاِنْ كَانَ مِنْ قَوْمٍ عَدُوٍّ لَّكُمْ وَھُوَمُؤْمِنٌ فَتَحْرِيْرُ رَقَبَۃٍ مُّؤْمِنَۃٍ۝۰ۭ وَاِنْ كَانَ مِنْ قَوْمٍؚبَيْنَكُمْ وَبَيْنَھُمْ مِّيْثَاقٌ فَدِيَۃٌ مُّسَلَّمَۃٌ اِلٰٓى اَھْلِہٖ وَتَحْرِيْرُ رَقَبَۃٍ مُّؤْمِنَۃٍ۝۰ۚ فَمَنْ لَّمْ يَجِدْ فَصِيَامُ شَہْرَيْنِ مُتَتَابِعَيْنِ۝۰ۡتَوْبَۃً مِّنَ اللہِ۝۰ۭ وَكَانَ اللہُ عَلِــيْمًا حَكِـيْمًا۝۹۲

किसी ईमानवाले का यह काम नहीं कि वह किसी ईमानवाले का हत्या करे, भूल-चूक की बात और है। और यदि कोई क्यक्ति यदि ग़लती से किसी ईमानवाले की हत्या कर दे, तो एक मोमिन ग़ुलाम को आज़ाद करना होगा और अर्थदण्‍ड उस (मारे गए क्यक्ति) के घरवालों को सौंपा जाए। यह और बात है कि वे अपनी ख़ुशी से छोड़ दें। और यदि वह उन लोगों में से हो, जो तुम्हारे शत्रु हों और वह (मारा जानेवाला) स्वयं मोमिन रहा तो एक मोमिन को ग़ुलामी से आज़ाद करना होगा। और यदि वह उन लोगों में से हो कि तुम्हारे और उनके बीच कोई संधि और समझौता हो, तो अर्थदण्‍ड उसके घरवालों को सौंपा जाए और एक मोमिन को ग़ुलामी से आज़ाद करना होगा। लेकिन जो (ग़ुलाम) न पाए तो वह निरन्तर दो मास के रोज़े रखे। यह अल्लाह की ओर से ठहराई हुई तौबा है। अल्लाह तो सब कुछ जानने वाला, तत्वदर्शी है॥92॥

وَمَنْ يَّقْتُلْ مُؤْمِنًا مُّتَعَمِّدًا فَجَزَاۗؤُہٗ جَہَنَّمُ خٰلِدًا فِيْھَا وَغَضِبَ اللہُ عَلَيْہِ وَلَعَنَہٗ وَاَعَدَّ لَہٗ عَذَابًا عَظِيْمًا۝۹۳

और जो व्यक्ति जान-बूझकर किसी मोमिन की हत्या करे, तो उसका बदला जहन्नम है, जिसमें वह सदा रहेगा; उसपर अल्लाह का प्रकोप और उसकी फिटकार है और उसके लिए अल्लाह ने बड़ी यातना तैयार कर रखी है॥93॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِذَا ضَرَبْتُمْ فِيْ سَبِيْلِ اللہِ فَتَبَيَّنُوْا وَلَا تَقُوْلُوْا لِمَنْ اَلْقٰٓي اِلَيْكُمُ السَّلٰمَ لَسْتَ مُؤْمِنًا۝۰ۚ تَبْتَغُوْنَ عَرَضَ الْحَيٰوۃِ الدُّنْيَا۝۰ۡفَعِنْدَ اللہِ مَغَانِمُ كَثِيْرَۃٌ۝۰ۭ كَذٰلِكَ كُنْتُمْ مِّنْ قَبْلُ فَمَنَّ اللہُ عَلَيْكُمْ فَتَبَيَّنُوْا۝۰ۭ اِنَّ اللہَ كَانَ بِمَا تَعْمَلُوْنَ خَبِيْرًا۝۹۴

ऐ ईमान लानेवालो! जब तुम अल्लाह के मार्ग मे निकलो तो अच्छी तरह पता लगा लो और जो तुम्हें सलाम करे, उससे यह न कहो कि तुम ईमान नहीं रखते और इससे तुम्हारा ध्येय यह हो कि सांसारिक जीवन का माल प्राप्त  करो। अल्लाह के पास तो बहुत अधिक माल प्राप्त है। तो अच्छी तरह पता लगा लिया करो। जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उसकी पूरी ख़बर रखता है॥94॥

لَا يَسْتَوِي الْقٰعِدُوْنَ مِنَ الْمُؤْمِنِيْنَ غَيْرُ اُولِي الضَّرَرِ وَالْمُجٰہِدُوْنَ فِيْ سَبِيْلِ اللہِ بِاَمْوَالِہِمْ وَاَنْفُسِہِمْ۝۰ۭ فَضَّلَ اللہُ الْمُجٰہِدِيْنَ بِاَمْوَالِہِمْ وَاَنْفُسِہِمْ عَلَي الْقٰعِدِيْنَ دَرَجَۃً۝۰ۭ وَكُلًّا وَّعَدَ اللہُ الْحُسْنٰي۝۰ۭ وَفَضَّلَ اللہُ الْمُجٰہِدِيْنَ عَلَي الْقٰعِدِيْنَ اَجْرًا عَظِيْمًا۝۹۵ۙ

ईमानवालों में से वे लोग जो बिना किसी कारण के बैठे रहते है और जो अल्लाह के मार्ग में अपने धन और प्राणों के साथ जी-तोड़ कोशिश करते है, दोनों समान नहीं हो सकते। अल्लाह ने बैठे रहनेवालों की अपेक्षा अपने धन और प्राणों से जी-तोड़ कोशिश करनेवालों का दर्जा बढ़ा रखा है। यद्यपि प्रत्यके के लिए अल्लाह ने अच्छे बदले का वचन दिया है। परन्तु अल्लाह ने जी-तोड़ कोशिश करनेवालों का बड़ा बदला रखा है॥95॥

دَرَجٰتٍ مِّنْہُ وَمَغْفِرَۃً وَرَحْمَۃً۝۰ۭ وَكَانَ اللہُ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا۝۹۶ۧ

उसकी ओर से दर्जे है और क्षमा और दयालुता है। और अल्लाह अत्यन्त क्षमाशील, दयावान है॥96॥

اِنَّ الَّذِيْنَ تَوَفّٰىھُمُ الْمَلٰۗىِٕكَۃُ ظَالِمِيْٓ اَنْفُسِہِمْ قَالُوْا فِيْمَ كُنْتُمْ۝۰ۭ قَالُوْا كُنَّا مُسْتَضْعَفِيْنَ فِي الْاَرْضِ۝۰ۭ قَالُوْٓا اَلَمْ تَكُنْ اَرْضُ اللہِ وَاسِعَۃً فَتُھَاجِرُوْا فِيْھَا۝۰ۭ فَاُولٰۗىِٕكَ مَاْوٰىھُمْ جَہَنَّمُ۝۰ۭ وَسَاۗءَتْ مَصِيْرًا۝۹۷ۙ

जो लोग अपने-आप पर अत्याचार करते है, जब फ़रिश्ते उस दशा में उनके प्राण ग्रस्त कर लेते है, तो कहते है, "तुम किस दशा में पड़े रहे?" वे कहते है, "हम धरती में निर्बल और बेबस थे।" फ़रिश्ते कहते है, "क्या अल्लाह की धरती विस्तृत न थी कि तुम उसमें घर-बार छोड़कर कहीं ओर चले जाते?" तो ये वही लोग है जिनका ठिकाना जहन्नम है। - और वह बहुत ही बुरा ठिकाना है॥97॥

اِلَّا الْمُسْتَضْعَفِيْنَ مِنَ الرِّجَالِ وَالنِّسَاۗءِ وَالْوِلْدَانِ لَا يَسْتَطِيْعُوْنَ حِيْلَۃً وَّلَا يَہْتَدُوْنَ سَبِيْلًا۝۹۸ۙ

सिवाय उन बेबस पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों के जिनके बस में कोई उपाय नहीं और न कोई राह पा रहे है;॥98॥

فَاُولٰۗىِٕكَ عَسَى اللہُ اَنْ يَّعْفُوَعَنْھُمْ۝۰ۭ وَكَانَ اللہُ عَفُوًّا غَفُوْرًا۝۹۹

तो सम्भव है कि अल्लाह ऐसे लोगों को छोड़ दे; क्योंकि अल्लाह छोड़ देनेवाला और बड़ा क्षमाशील है॥99॥

۞ وَمَنْ يُّھَاجِرْ فِيْ سَبِيْلِ اللہِ يَجِدْ فِي الْاَرْضِ مُرٰغَمًا كَثِيْرًا وَّسَعَۃً۝۰ۭ وَمَنْ يَّخْرُجْ مِنْۢ بَيْتِہٖ مُھَاجِرًا اِلَى اللہِ وَرَسُوْلِہٖ ثُمَّ يُدْرِكْہُ الْمَوْتُ فَقَدْ وَقَعَ اَجْرُہٗ عَلَي اللہِ۝۰ۭ وَكَانَ اللہُ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا۝۱۰۰ۧ

जो कोई अल्लाह के मार्ग में घरबार छोड़कर निकलेगा, वह धरती में शरण लेने की बहुत जगह और समाई पाएगा, और जो कोई अपने घर में सब कुछ छोड़कर अल्लाह और उसके रसूल की ओर निकले और उसकी मृत्यु हो जाए, तो उसका प्रतिदान अल्लाह के ज़िम्मे हो गया। अल्लाह बहुत क्षमाशील, दयावान है॥100॥

وَاِذَا ضَرَبْتُمْ فِي الْاَرْضِ فَلَيْسَ عَلَيْكُمْ جُنَاحٌ اَنْ تَقْصُرُوْا مِنَ الصَّلٰوۃِ۝۰ۤۖ اِنْ خِفْتُمْ اَنْ يَّفْتِنَكُمُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا۝۰ۭ اِنَّ الْكٰفِرِيْنَ كَانُوْا لَكُمْ عَدُوًّا مُّبِيْنًا۝۱۰۱

और जब तुम धरती में यात्रा करो, तो इसमें तुमपर कोई गुनाह नहीं कि नमाज़ को कुछ संक्षिप्त  कर दो; यदि तुम्हें इस बात का भय हो कि विधर्मी लोग तुम्हें सताएँगे और कष्ट पहुँचाएँगे। निश्चय ही विधर्मी लोग तुम्हारे खुले शत्रु है॥101॥

وَاِذَا كُنْتَ فِيْہِمْ فَاَقَمْتَ لَھُمُ الصَّلٰوۃَ فَلْتَقُمْ طَاۗىِٕفَۃٌ مِّنْھُمْ مَّعَكَ وَلْيَاْخُذُوْٓا اَسْلِحَتَھُمْ۝۰ۣ فَاِذَا سَجَدُوْا فَلْيَكُوْنُوْا مِنْ وَّرَاۗىِٕكُمْ۝۰۠ وَلْتَاْتِ طَاۗىِٕفَۃٌ اُخْرٰى لَمْ يُصَلُّوْا فَلْيُصَلُّوْا مَعَكَ وَلْيَاْخُذُوْا حِذْرَھُمْ وَاَسْلِحَتَھُمْ۝۰ۚ وَدَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَوْ تَغْفُلُوْنَ عَنْ اَسْلِحَتِكُمْ وَاَمْتِعَتِكُمْ فَيَمِيْلُوْنَ عَلَيْكُمْ مَّيْلَۃً وَّاحِدَۃً۝۰ۭ وَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ اِنْ كَانَ بِكُمْ اَذًى مِّنْ مَّطَرٍ اَوْ كُنْتُمْ مَّرْضٰٓى اَنْ تَضَعُوْٓا اَسْلِحَتَكُمْ۝۰ۚ وَخُذُوْا حِذْرَكُمْ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ اَعَدَّ لِلْكٰفِرِيْنَ عَذَابًا مُّہِيْنًا۝۱۰۲

और जब तुम उनके बीच हो और (लड़ाई की दशा में) उन्हें नमाज़ पढ़ाने के लिए खड़े हो, जो चाहिए कि उनमें से एक गिरोह के लोग तुम्हारे साथ खड़े हो जाएँ और अपने हथियार साथ लिए रहें, और फिर जब वे सजदा कर लें तो उन्हें चाहिए कि वे हटकर तुम्हारे पीछे हो जाएँ और दूसरे गिरोंह के लोग, जिन्होंने अभी नमाज़ नही पढ़ी, आएँ और तुम्हारे साथ नमाज़ पढ़े, और उन्हें भी चाहिए कि वे भी अपने बचाव के सामान और हथियार लिए रहें। विधर्मी तो चाहते ही है कि वे भी अपने हथियारों और सामान से असावधान हो जाओ तो वे तुम पर एक साथ टूट पड़े। यदि वर्षा के कारण तुम्हें तकलीफ़ होती हो या तुम बीमार हो, तो तुम्हारे लिए कोई गुनाह नहीं कि अपने हथियार रख दो, फिर भी अपनी सुरक्षा का सामान लिए रहो। अल्लाह ने विधर्मियों के लिए अपमानजनक यातना तैयार कर रखी है॥102॥

فَاِذَا قَضَيْتُمُ الصَّلٰوۃَ فَاذْكُرُوا اللہَ قِيٰمًا وَّقُعُوْدًا وَّعَلٰي جُنُوْبِكُمْ۝۰ۚ فَاِذَا اطْمَاْنَـنْتُمْ فَاَقِيْمُوا الصَّلٰوۃَ۝۰ۚ اِنَّ الصَّلٰوۃَ كَانَتْ عَلَي الْمُؤْمِنِيْنَ كِتٰبًا مَّوْقُوْتًا۝۱۰۳

फिर जब तुम नमाज़ अदा कर चुको तो खड़े, बैठे या लेटे अल्लाह को याद करते रहो। फिर जब तुम्हें इत्‍मीनान हो जाए तो विधिवत रूप से नमाज़ पढ़ो। निस्संदेह ईमानवालों पर समय की पाबन्दी के साथ नमाज़ पढना अनिवार्य है॥103॥

وَلَا تَہِنُوْا فِي ابْتِغَاۗءِ الْقَوْمِ۝۰ۭ اِنْ تَكُوْنُوْا تَاْلَمُوْنَ فَاِنَّھُمْ يَاْلَمُوْنَ كَـمَا تَاْلَمُوْنَ۝۰ۚ وَتَرْجُوْنَ مِنَ اللہِ مَا لَا يَرْجُوْنَ۝۰ۭ وَكَانَ اللہُ عَلِــيْمًا حَكِــيْمًا۝۱۰۴ۧ

और उन लोगों का पीछा करने में सुस्ती न दिखाओ। यदि तुम्हें दुख पहुँचता है; तो उन्हें भी दुख पहुँचता है, जिस तरह तुमको दुख पहुँचता है। और तुम अल्लाह से उस चीज़ की आशा करते हो, जिस चीज़ की वे आशा नहीं करते। अल्लाह तो सब कुछ जाननेवाला, तत्वदर्शी है॥104॥

اِنَّآ اَنْزَلْنَآ اِلَيْكَ الْكِتٰبَ بِالْحَقِّ لِتَحْكُمَ بَيْنَ النَّاسِ بِمَآ اَرٰىكَ اللہُ۝۰ۭ وَلَا تَكُنْ لِّلْخَاۗىِٕنِيْنَ خَصِيْمًا۝۱۰۵ۙ

निस्संदेह हमने यह किताब हक़ के साथ उतारी है, ताकि अल्लाह ने जो कुछ तुम्हें दिखाया है उसके अनुसार लोगों के बीच फ़ैसला करो। और तुम विश्वासघाती लोगों को ओर से झगड़नेवाले न बनो॥105॥

وَّاسْتَغْفِرِ اللہَ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ كَانَ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا۝۱۰۶ۚ

अल्लाह से क्षमा की प्रार्थना करो। निस्संदेह अल्लाह बहुत क्षमाशील, दयावान है॥106॥

وَلَا تُجَادِلْ عَنِ الَّذِيْنَ يَخْتَانُوْنَ اَنْفُسَھُمْ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ لَا يُحِبُّ مَنْ كَانَ خَوَّانًا اَثِــيْمًا۝۱۰۷ۚۙ

और तुम उन लोगों की ओर से न झगड़ो जो स्वयं अपनों के साथ विश्वासघात करते है। अल्लाह को ऐसा व्यक्ति प्रिय नहीं है जो विश्वासघाती, हक़ मारनेवाला हो॥107॥

يَّسْتَخْفُوْنَ مِنَ النَّاسِ وَلَا يَسْتَخْفُوْنَ مِنَ اللہِ وَھُوَمَعَھُمْ اِذْ يُبَيِّتُوْنَ مَا لَا يَرْضٰى مِنَ الْقَوْلِ۝۰ۭ وَكَانَ اللہُ بِمَا يَعْمَلُوْنَ مُحِيْطًا۝۱۰۸

वे लोगों से तो छिपते है, परन्तु अल्लाह से नहीं छिपते। वह तो (उस समय भी) उनके साथ होता है, जब वे रातों में उस बात की गुप्त-मंत्रणा करते है जो उनकी इच्छा के विरुद्ध होती है। जो कुछ वे करते है, उसे अल्लाह अपने (ज्ञान की) परिधि मे लिए हुए है॥108॥

ھٰٓاَنْتُمْ ہٰٓؤُلَاۗءِ جٰدَلْتُمْ عَنْھُمْ فِي الْحَيٰوۃِ الدُّنْيَا۝۰ۣ فَمَنْ يُّجَادِلُ اللہَ عَنْھُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَۃِ اَمْ مَّنْ يَّكُوْنُ عَلَيْہِمْ وَكِيْلًا۝۱۰۹

हाँ, ये तुम ही हो, जिन्होंने सांसारिक जीवन में उनकी ओर से झगड़ लिया, परन्तु क़ियामत के दिन उनकी ओर से अल्लाह से कौन झगड़ेगा या कौन उनका वकील होगा?॥109॥

وَمَنْ يَّعْمَلْ سُوْۗءًا اَوْ يَظْلِمْ نَفْسَہٗ ثُمَّ يَسْتَغْفِرِ اللہَ يَجِدِ اللہَ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا۝۱۱۰

और जो कोई बुरा कर्म कर बैठे या अपने-आप पर अत्याचार करे, फिर अल्लाह से क्षमा की प्रार्थना करे, तो अल्लाह को बड़ा क्षमाशील, दयावान पाएगा॥110॥

وَمَنْ يَّكْسِبْ اِثْمًا فَاِنَّمَا يَكْسِـبُہٗ عَلٰي نَفْسِہٖ۝۰ۭ وَكَانَ اللہُ عَلِــيْمًا حَكِـيْمًا۝۱۱۱

और जो व्यक्ति गुनाह कमाए, तो वह अपने ही लिए कमाता है। अल्लाह तो सर्वज्ञ, तत्वदर्शी है॥111॥

وَمَنْ يَّكْسِبْ خَطِيْۗــئَۃً اَوْ اِثْمًا ثُمَّ يَرْمِ بِہٖ بَرِيْۗــــــًٔـا فَقَدِ احْتَمَلَ بُہْتَانًا وَّاِثْمًا مُّبِيْنًا۝۱۱۲ۧ

और जो व्यक्ति कोई ग़लती या गुनाह की कमाई करे, फिर उसे किसी निर्दोष पर थोप दे, तो उसने एक बड़े लांछन और खुले गुनाह का बोझ अपने ऊपर ले लिया॥112॥

وَلَوْلَا فَضْلُ اللہِ عَلَيْكَ وَرَحْمَتُہٗ لَہَمَّتْ طَّاۗىِٕفَۃٌ مِّنْھُمْ اَنْ يُّضِلُّوْكَ۝۰ۭ وَمَا يُضِلُّوْنَ اِلَّآ اَنْفُسَھُمْ وَمَا يَضُرُّوْنَكَ مِنْ شَيْءٍ۝۰ۭ وَاَنْزَلَ اللہُ عَلَيْكَ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَۃَ وَعَلَّمَكَ مَا لَمْ تَكُنْ تَعْلَمُ۝۰ۭ وَكَانَ فَضْلُ اللہِ عَلَيْكَ عَظِيْمًا۝۱۱۳

यदि तुमपर अल्लाह का उदार अनुग्रह और उसकी दयालुता न होती तो उनमें से कुछ लोग तो यह निश्चय कर ही चुके थे कि तुम्हें राह से भटका दें, हालाँकि वे अपने आप ही को पथभ्रष्टि कर रहे है, और तुम्हें वे कोई हानि नहीं पहुँचा सकते। अल्लाह ने तुमपर किताब और हिकमत (तत्वदर्शिता) उतारी है और उसने तुम्हें वह कुछ सिखाया है जो तुम जानते न थे। अल्लाह का तुमपर बहुत बड़ा अनुग्रह है॥113॥

۞ لَا خَيْرَ فِيْ كَثِيْرٍ مِّنْ نَّجْوٰىھُمْ اِلَّا مَنْ اَمَرَ بِصَدَقَۃٍ اَوْ مَعْرُوْفٍ اَوْ اِصْلَاحٍؚ بَيْنَ النَّاسِ۝۰ۭ وَمَنْ يَّفْعَلْ ذٰلِكَ ابْتِغَاۗءَ مَرْضَاتِ اللہِ فَسَوْفَ نُؤْتِيْہِ اَجْرًا عَظِيْمًا۝۱۱۴

उनकी अधिकतर काना-फूसियों में कोई भलाई नहीं होती। हाँ, जो व्यक्ति सदक़ा देने या भलाई करने या लोगों के बीच सुधार के लिए कुछ कहे, तो उसकी बात और है। और जो कोई यह काम अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए करेगा, उसे हम निश्चय ही बड़ा प्रतिदान प्रदान करेंगे॥114॥

وَمَنْ يُّشَاقِقِ الرَّسُوْلَ مِنْۢ بَعْدِ مَا تَبَيَّنَ لَہُ الْہُدٰى وَيَتَّبِـعْ غَيْرَ سَبِيْلِ الْمُؤْمِنِيْنَ نُوَلِّہٖ مَا تَوَلّٰى وَنُصْلِہٖ جَہَنَّمَ۝۰ۭ وَسَاۗءَتْ مَصِيْرًا۝۱۱۵ۧ

और जो क्यक्ति, इसके पश्चात भी कि मार्गदर्शन खुलकर उसके सामने आ गया है, रसूल का विरोध करेगा और ईमानवालों के मार्ग के अतिरिक्त किसी और मार्ग पर चलेगा तो उसे हम उसी पर चलने देंगे, जिसको उसने अपनाया होगा और उसे जहन्नम में झोंक देंगे, और वह बहुत ही बुरा ठिकाना है॥115॥

اِنَّ اللہَ لَا يَغْفِرُ اَنْ يُّشْرَكَ بِہٖ وَيَغْفِرُ مَا دُوْنَ ذٰلِكَ لِمَنْ يَّشَاۗءُ۝۰ۭ وَمَنْ يُّشْرِكْ بِاللہِ فَقَدْ ضَلَّ ضَلٰلًۢا بَعِيْدًا۝۱۱۶

निस्संदेह अल्लाह इस चीज़ को क्षमा नहीं करेगा कि उसके साथ किसी को शामिल किया जाए। हाँ, इससे नीचे दर्जे के अपराध को, जिसके लिए चाहेगा, क्षमा कर देगा। जो अल्लाह के साथ किसी को साझी ठहराता है, तो वह भटककर बहुत दूर जा पड़ा॥116॥

اِنْ يَّدْعُوْنَ مِنْ دُوْنِہٖٓ اِلَّآ اِنٰثًا۝۰ۚ وَاِنْ يَّدْعُوْنَ اِلَّا شَيْطٰنًا مَّرِيْدًا۝۱۱۷ۙ

वे अल्लाह से हटकर बस कुछ देवियों को पुकारते है। और वे तो बस सरकश शैतान को पुकारते है;॥117॥

لَّعَنَہُ اللہُ۝۰ۘ وَقَالَ لَاَتَّخِذَنَّ مِنْ عِبَادِكَ نَصِيْبًا مَّفْرُوْضًا۝۱۱۸ۙ

जिसपर अल्लाह की फिटकार है। उसने कहा था, "मैं तेरे बन्दों में से एक निश्चित हिस्सा लेकर रहूँगा॥118॥

وَّلَاُضِلَّنَّھُمْ وَلَاُمَنِّيَنَّھُمْ وَلَاٰمُرَنَّھُمْ فَلَيُبَتِّكُنَّ اٰذَانَ الْاَنْعَامِ وَلَاٰمُرَنَّھُمْ فَلَيُغَيِّرُنَّ خَلْقَ اللہِ۝۰ۭ وَمَنْ يَّتَّخِذِ الشَّيْطٰنَ وَلِيًّا مِّنْ دُوْنِ اللہِ فَقَدْ خَسِرَ خُسْرَانًا مُّبِيْنًا۝۱۱۹ۭ

"और उन्हें अवश्य ही भटकाऊँगा और उन्हें कामनाओं में उलझाऊँगा, और उन्हें हुक्म दूँगा तो वे चौपायों के कान फाड़ेगे, और उन्हें मैं सुझाव दूँगा तो वे अल्लाह की संरचना में परिवर्तन करेंगे।" और जिसने अल्लाह से हटकर शैतान को अपना संरक्षक और मित्र बनाया, वह खुले घाटे में पड़ गया॥119॥

يَعِدُھُمْ وَيُمَنِّيْہِمْ۝۰ۭ وَمَا يَعِدُھُمُ الشَّيْطٰنُ اِلَّا غُرُوْرًا۝۱۲۰

वह उनसे वादा करता है और उन्हें कामनाओं में उलझाए रखता है, हालाँकि शैतान उनसे जो कुछ वादा करता है वह एक धोके के सिवा कुछ भी नहीं होता॥120॥

اُولٰۗىِٕكَ مَاْوٰىھُمْ جَہَنَّمُ۝۰ۡوَلَا يَجِدُوْنَ عَنْھَا مَحِيْصًا۝۱۲۱

वही लोग है जिनका ठिकाना जहन्नम है और वे उससे अलग होने की कोई जगह न पाएँगे॥121॥

وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ سَـنُدْخِلُھُمْ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِھَا الْاَنْھٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْھَآ اَبَدًا۝۰ۭ وَعْدَ اللہِ حَقًّا۝۰ۭ وَمَنْ اَصْدَقُ مِنَ اللہِ قِيْلًا۝۱۲۲

रहे वे लोग जो ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए, उन्हें हम जल्द ही ऐसे बाग़ों में दाख़िल करेंगे, जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी, जहाँ वे सदैव रहेंगे। अल्लाह का वादा सच्चा है, और अल्लाह से बढ़कर बात का सच्चा कौन हो सकता है? ॥122॥

لَيْسَ بِاَمَانِيِّكُمْ وَلَآ اَمَانِيِّ اَھْلِ الْكِتٰبِ۝۰ۭ مَنْ يَّعْمَلْ سُوْۗءًا يُّجْزَ بِہٖ۝۰ۙ وَلَا يَجِدْ لَہٗ مِنْ دُوْنِ اللہِ وَلِيًّا وَّلَا نَصِيْرًا۝۱۲۳

बात न तुम्हारी कामनाओं की है और न किताबवालों की कामनाओं की। जो भी बुराई करेगा उसे उसका फल मिलेगा और वह अल्लाह से हटकर न तो कोई मित्र पाएगा और न ही सहायक॥123॥

وَمَنْ يَّعْمَلْ مِنَ الصّٰلِحٰتِ مِنْ ذَكَرٍ اَوْ اُنْثٰى وَھُوَمُؤْمِنٌ فَاُولٰۗىِٕكَ يَدْخُلُوْنَ الْجَنَّۃَ وَلَا يُظْلَمُوْنَ نَقِيْرًا۝۱۲۴

किन्तु जो अच्छे कर्म करेगा, चाहे पुरुष हो या स्त्री, यदि वह ईमानवाला है तो ऐसे लोग जन्नत में दाख़िल होंगे। और उनका हक़ रत्ती भर भी मारा नहीं जाएगा॥124॥

وَمَنْ اَحْسَنُ دِيْنًا مِّمَّنْ اَسْلَمَ وَجْہَہٗ لِلہِ وَھُوَمُحْسِنٌ وَّاتَّبَعَ مِلَّــۃَ اِبْرٰہِيْمَ حَنِيْفًا۝۰ۭ وَاتَّخَذَ اللہُ اِبْرٰہِيْمَ خَلِيْلًا۝۱۲۵

और दीन (धर्म) की दृ‍ष्टि से उस व्यक्ति से अच्छा कौन हो सकता है, जिसने अपने आपको अल्लाह के आगे झुका दिया और वह अत्यमन्तक सत्कर्मी भी हो और इबराहीम के तरीक़े का अनुसरण करे, जो सबसे कटकर एक का हो गया था? अल्लाह ने इबराहीम को अपना घनिष्ठ मित्र बनाया था॥125॥

وَلِلہِ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ۝۰ۭ وَكَانَ اللہُ بِكُلِّ شَيْءٍ مُّحِيْطًا۝۱۲۶ۧ

जो कुछ आकाशों में और जो कुछ धरती में है, वह अल्लाह ही का है और अल्लाह हर चीज़ को घेरे हुए है॥126॥

وَيَسْتَفْتُوْنَكَ فِي النِّسَاۗءِ۝۰ۭ قُلِ اللہُ يُفْتِيْكُمْ فِيْہِنَّ۝۰ۙ وَمَا يُتْلٰي عَلَيْكُمْ فِي الْكِتٰبِ فِيْ يَـتٰمَي النِّسَاۗءِ الّٰتِيْ لَا تُؤْتُوْنَھُنَّ مَا كُتِبَ لَھُنَّ وَتَرْغَبُوْنَ اَنْ تَنْكِحُوْھُنَّ وَالْمُسْتَضْعَفِيْنَ مِنَ الْوِلْدَانِ۝۰ۙ وَاَنْ تَقُوْمُوْا لِلْيَتٰمٰي بِالْقِسْطِ۝۰ۭ وَمَا تَفْعَلُوْا مِنْ خَيْرٍ فَاِنَّ اللہَ كَانَ بِہٖ عَلِــيْمًا۝۱۲۷

लोग तुमसे स्त्रियों के विषय में पूछते है, कहो, "अल्लाह तुम्हें उनके विषय में हुक्म देता है और जो आयतें तुमको इस किताब में पढ़कर सुनाई जाती है, वे उन स्त्रियों के, अनाथों के विषय में भी है, जिनके हक़ तुम अदा नहीं करते। और चाहते हो कि तुम उनके साथ विवाह कर लो और कमज़ोर यतीम बच्चों के बारे में भी यही आदेश है। और इस विषय में भी कि तुम अनाथों के विषय में इनसाफ़ पर क़ायम रहो। जो भलाई भी तुम करोगे तो निश्चय ही, अल्लाह उसे भली-भाँति जानता होगा।"॥127॥

وَاِنِ امْرَاَۃٌ خَافَتْ مِنْۢ بَعْلِھَا نُشُوْزًا اَوْ اِعْرَاضًا فَلَا جُنَاحَ عَلَيْہِمَآ اَنْ يُّصْلِحَا بَيْنَہُمَا صُلْحًا۝۰ۭ وَالصُّلْحُ خَيْرٌ۝۰ۭ وَاُحْضِرَتِ الْاَنْفُسُ الشُّحَّ۝۰ۭ وَاِنْ تُحْسِنُوْا وَتَتَّقُوْا فَاِنَّ اللہَ كَانَ بِمَا تَعْمَلُوْنَ خَبِيْرًا۝۱۲۸

यदि किसी स्त्री को अपने पति की और से दुर्व्यवहार या बेरुख़ी का भय हो, तो इसमें उनके लिए कोई दोष नहीं कि वे दोनों आपस में मेल-मिलाप की कोई राह निकाल ले। और मेल-मिलाव अच्छी चीज़ है। और मन तो लोभ एवं कृपणता के लिए उद्यत रहता है। परन्तु यदि तुम अच्छा व्यवहार करो और (अल्लाह का) भय रखो, तो अल्लाह को निश्चय ही जो कुछ तुम करोगे उसकी खबर रहेगी॥128॥

وَلَنْ تَسْتَطِيْعُوْٓا اَنْ تَعْدِلُوْا بَيْنَ النِّسَاۗءِ وَلَوْ حَرَصْتُمْ فَلَا تَمِيْلُوْا كُلَّ الْمَيْلِ فَتَذَرُوْھَا كَالْمُعَلَّقَۃِ۝۰ۭ وَاِنْ تُصْلِحُوْا وَتَتَّقُوْا فَاِنَّ اللہَ كَانَ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا۝۱۲۹

और चाहे तुम कितना ही चाहो, तुममें इसकी सामर्थ्य नहीं हो सकती कि औरतों के बीच पूर्ण रूप से न्याय कर सको। तो ऐसा भी न करो कि किसी से पूर्णरूप से फिर जाओ, जिसके परिणामस्वरूप वह ऐसी हो जाए, जैसे उसका पति खो गया हो। परन्तु यदि तुम अपना व्यवहार ठीक रखो और (अल्लाह से) डरते रहो, तो निस्संदेह अल्लाह भी बड़ा क्षमाशील, दयावान है॥129॥

وَاِنْ يَّتَفَرَّقَا يُغْنِ اللہُ كُلًّا مِّنْ سَعَتِہٖ۝۰ۭ وَكَانَ اللہُ وَاسِعًا حَكِيْمًا۝۱۳۰

और यदि दोनों अलग ही हो जाएँ तो अल्लाह अपनी समाई से एक को दूसरे से बेपररवाह कर देगा। अल्लाह बड़ी समाईवाला, तत्वदर्शी है॥130॥

وَلِلہِ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ۝۰ۭ وَلَقَدْ وَصَّيْنَا الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ مِنْ قَبْلِكُمْ وَاِيَّاكُمْ اَنِ اتَّقُوا اللہَ۝۰ۭ وَاِنْ تَكْفُرُوْا فَاِنَّ لِلہِ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ۝۰ۭ وَكَانَ اللہُ غَنِيًّا حَمِيْدًا۝۱۳۱

आकाशों और धरती में जो कुछ है, सब अल्लाह ही का है। तुमसे पहले जिन्हें किताब दी गई थी, उन्हें और तुम्हें भी हमने ताकीद की है कि "अल्लाह का डर रखो।" यदि तुम इनकार करते हो, तो इससे क्या होने का? आकाशों और धरती में जो कुछ है, सब अल्लाह ही का रहेगा। अल्लाह तो निस्पृह, प्रशंसनीय है॥131॥

وَلِلہِ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ۝۰ۭ وَكَفٰى بِاللہِ وَكِيْلًا۝۱۳۲

हाँ, आकाशों और धरती में जो कुछ है, अल्लाह ही का है और अल्लाह कार्यसाधक की हैसियत से काफ़ी है॥132॥

اِنْ يَّشَاْ يُذْہِبْكُمْ اَيُّھَا النَّاسُ وَيَاْتِ بِاٰخَرِيْنَ۝۰ۭ وَكَانَ اللہُ عَلٰي ذٰلِكَ قَدِيْرًا۝۱۳۳

ऐ लोगों! यदि वह चाहे तो तुम्हें हटा दे और तुम्हारी जगह दूसरों को ले आए। अल्लाह को इसकी पूरी सामर्थ्य है॥133॥

مَنْ كَانَ يُرِيْدُ ثَوَابَ الدُّنْيَا فَعِنْدَ اللہِ ثَوَابُ الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَۃِ۝۰ۭ وَكَانَ اللہُ سَمِيْعًۢا بَصِيْرًا۝۱۳۴ۧ

जो कोई दुनिया का बदला चाहता है, तो अल्लाह के पास दुनिया का बदला भी है और आख़िरत का भी। अल्लाह सब कुछ सुनता, देखता है॥134॥

۞ يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كُوْنُوْا قَوّٰمِيْنَ بِالْقِسْطِ شُہَدَاۗءَ لِلہِ وَلَوْ عَلٰٓي اَنْفُسِكُمْ اَوِ الْوَالِدَيْنِ وَالْاَقْرَبِيْنَ۝۰ۚ اِنْ يَّكُنْ غَنِيًّا اَوْ فَقِيْرًا فَاللہُ اَوْلٰى بِہِمَا۝۰ۣ فَلَا تَتَّبِعُوا الْہَوٰٓى اَنْ تَعْدِلُوْا۝۰ۚ وَاِنْ تَلْوٗٓا اَوْ تُعْرِضُوْا فَاِنَّ اللہَ كَانَ بِمَا تَعْمَلُوْنَ خَبِيْرًا۝۱۳۵

ऐ ईमान लानेवालो! अल्लाह के लिए गवाही देते हुए इनसाफ़ पर मज़बूती के साथ जमे रहो, चाहे वह स्वयं तुम्हारे अपने या माँ-बाप और नातेदारों के विरुद्ध ही क्यों न हो। कोई धनवान हो या निर्धन (जिसके विरुद्ध तुम्हें गवाही देनी पड़े) अल्लाह को उनसे (तुमसे कहीं बढ़कर) निकटता का सम्बन्ध है, तो तुम अपनी इच्छा के अनुपालन में न्याय से न हटो, क्योंकि यदि तुम हेर-फेर करोगे या कतराओगे, तो जो कुछ तुम करते हो अल्लाह को उसकी ख़बर रहेगी॥135॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اٰمِنُوْا بِاللہِ وَرَسُوْلِہٖ وَالْكِتٰبِ الَّذِيْ نَزَّلَ عَلٰي رَسُوْلِہٖ وَالْكِتٰبِ الَّذِيْٓ اَنْزَلَ مِنْ قَبْلُ۝۰ۭ وَمَنْ يَّكْفُرْ بِاللہِ وَمَلٰۗىِٕكَتِہٖ وَكُتُبِہٖ وَرُسُلِہٖ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ فَقَدْ ضَلَّ ضَلٰلًۢا بَعِيْدًا۝۱۳۶

ऐ ईमान लानेवालो! अल्लाह पर ईमान लाओ और उसके रसूल पर और उस किताब पर जो उसने अपने रसूल पर उतारी है और उस किताब पर भी, जिसको वह इसके पहले उतार चुका है। और जिस किसी ने भी अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसकी किताबों और उसके रसूलों और अन्तिम दिन का इनकार किया, तो वह भटककर बहुत दूर जा पड़ा॥136॥

اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا ثُمَّ كَفَرُوْا ثُمَّ اٰمَنُوْا ثُمَّ كَفَرُوْا ثُمَّ ازْدَادُوْا كُفْرًا لَّمْ يَكُنِ اللہُ لِيَغْفِرَ لَھُمْ وَلَا لِيَہْدِيَھُمْ سَبِيْلًا۝۱۳۷ۭ

रहे वे लोग जो ईमान लाए, फिर इनकार किया; फिर ईमान लाए, फिर इनकार किया; फिर इनकार की दशा में बढते चले गए तो अल्लाह उन्हें कदापि क्षमा नहीं करेगा और न उन्हें राह दिखाएगा॥137॥

بَشِّرِ الْمُنٰفِقِيْنَ بِاَنَّ لَھُمْ عَذَابًا اَلِيْـمَۨا۝۱۳۸ۙ

मुनाफ़िकों (कपटाचारियों) को मंगल-सूचना दे दो कि उनके लिए दुखद यातना है;॥138॥

الَّذِيْنَ يَتَّخِذُوْنَ الْكٰفِرِيْنَ اَوْلِيَاۗءَ مِنْ دُوْنِ الْمُؤْمِنِيْنَ۝۰ۭ اَيَبْتَغُوْنَ عِنْدَھُمُ الْعِزَّۃَ فَاِنَّ الْعِزَّۃَ لِلہِ جَمِيْعًا۝۱۳۹ۭ

जो ईमानवालों को छोड़कर इनकार करनेवालों को अपना मित्र बनाते है। क्या उन्हें उनके पास प्रतिष्ठा की तलाश है? प्रतिष्ठा तो सारी की सारी अल्लाह ही के लिए है॥139॥

وَقَدْ نَزَّلَ عَلَيْكُمْ فِي الْكِتٰبِ اَنْ اِذَا سَمِعْتُمْ اٰيٰتِ اللہِ يُكْفَرُ بِھَا وَيُسْتَہْزَاُ بِھَا فَلَا تَقْعُدُوْا مَعَھُمْ حَتّٰي يَخُوْضُوْا فِيْ حَدِيْثٍ غَيْرِہٖٓ ۝۰ۡۖ اِنَّكُمْ اِذًا مِّثْلُھُمْ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ جَامِعُ الْمُنٰفِقِيْنَ وَالْكٰفِرِيْنَ فِيْ جَہَنَّمَ جَمِيْعَۨا۝۱۴۰ۙ

वह 'किताब' में तुमपर यह हुक्म उतार चुका है कि जब तुम सुनो कि अल्लाह की आयतों का इनकार किया जा रहा है और उसका मजाक उडाया जा रहा है, तो जब तक वे किसी दूसरी बात में न लगा जाएँ, उनके साथ न बैठो, अन्यथा तुम भी उन्हीं के जैसे होगे; निश्चय ही अल्लाह कपटाचारियों और इनकार करनेवालों - सबको जहन्नम में एकत्र करनेवाला है॥140॥

الَّذِيْنَ يَتَرَبَّصُوْنَ بِكُمْ۝۰ۚ فَاِنْ كَانَ لَكُمْ فَتْحٌ مِّنَ اللہِ قَالُوْٓا اَلَمْ نَكُنْ مَّعَكُمْ۝۰ۡۖ وَاِنْ كَانَ لِلْكٰفِرِيْنَ نَصِيْبٌ۝۰ۙ قَالُوْٓا اَلَمْ نَسْتَحْوِذْ عَلَيْكُمْ وَنَمْنَعْكُمْ مِّنَ الْمُؤْمِنِيْنَ۝۰ۭ فَاللہُ يَحْكُمُ بَيْنَكُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَۃِ۝۰ۭ وَلَنْ يَّجْعَلَ اللہُ لِلْكٰفِرِيْنَ عَلَي الْمُؤْمِنِيْنَ سَبِيْلًا۝۱۴۱ۧ

जो तुम्हारे मामले में प्रतीक्षा करते है, यदि अल्लाह की ओर से तुम्हारी विजय़ हुई तो कहते है, "क्या हम तुम्हारे साथ न थे?" और यदि विधर्मियों के हाथ कुछ लगा तो कहते है, "क्या हमने तुम्हें घेर नहीं लिया था और ईमानवालों से बचाया नहीं?" अतः अल्लाह क़ियामत के दिन तुम्हारे बीच फ़ैसला कर देगा, और अल्लाह विधर्मियों को ईमानवालों के मुक़ाबले में कोई राह नहीं देगा॥141॥

اِنَّ الْمُنٰفِقِيْنَ يُخٰدِعُوْنَ اللہَ وَھُوَخَادِعُھُمْ۝۰ۚ وَاِذَا قَامُوْٓا اِلَى الصَّلٰوۃِ قَامُوْا كُسَالٰى۝۰ۙ يُرَاۗءُوْنَ النَّاسَ وَلَا يَذْكُرُوْنَ اللہَ اِلَّا قَلِيْلًا۝۱۴۲ۡۙ

कपटाचारी अल्लाह के साथ धोखबाज़ी कर रहे है, हालाँकि उसी ने उन्हें धोखे में डाल रखा है। जब वे नमाज़ के लिए खड़े होते है तो कसमसाते हुए, लोगों को दिखाने के लिए खड़े होते है। और अल्लाह को थोड़े ही याद करते है॥142॥

مُّذَبْذَبِيْنَ بَيْنَ ذٰلِكَ۝۰ۤۖ لَآ اِلٰى ہٰٓؤُلَاۗءِ وَلَآ اِلٰى ہٰٓؤُلَاۗءِ۝۰ۭ وَمَنْ يُّضْلِلِ اللہُ فَلَنْ تَجِدَ لَہٗ سَبِيْلًا۝۱۴۳

इसी के बीच डाँवाडोल हो रहे है, न इन (ईमानवालों) की तरफ़ के है, न इन (इनकार करनेवालों) की तरफ़ के। जिसे अल्लाह ही भटका दे, उसके लिए तो तुम कोई राह नहीं पा सकते॥143॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَتَّخِذُوا الْكٰفِرِيْنَ اَوْلِيَاۗءَ مِنْ دُوْنِ الْمُؤْمِنِيْنَ۝۰ۭ اَتُرِيْدُوْنَ اَنْ تَجْعَلُوْا لِلہِ عَلَيْكُمْ سُلْطٰنًا مُّبِيْنًا۝۱۴۴

ऐ ईमान लानेवालो! ईमानवालों से हटकर इनकार करनेवालों को अपना मित्र न बनाओ। क्या तुम चाहते हो कि अल्लाह का स्पष्ट तर्क अपने विरुद्ध जुटाओ?॥144॥

اِنَّ الْمُنٰفِقِيْنَ فِي الدَّرْكِ الْاَسْفَلِ مِنَ النَّارِ۝۰ۚ وَلَنْ تَجِدَ لَھُمْ نَصِيْرًا۝۱۴۵ۙ

निस्संदेह कपटाचारी आग (जहन्नम) के सबसे निचले हिस्सेह में होंगे, और तुम कदापि उनका कोई सहायक न पाओगे॥145॥

اِلَّا الَّذِيْنَ تَابُوْا وَاَصْلَحُوْا وَاعْتَصَمُوْا بِاللہِ وَاَخْلَصُوْا دِيْنَھُمْ لِلہِ فَاُولٰۗىِٕكَ مَعَ الْمُؤْمِنِيْنَ۝۰ۭ وَسَوْفَ يُؤْتِ اللہُ الْمُؤْمِنِيْنَ اَجْرًا عَظِيْمًا۝۱۴۶

उन लोगों की बात और है जिन्होंने तौबा कर ली और अपने को सुधार लिया और अल्लाह को मज़बूती से पकड़ लिया और अपने दीन (धर्म) में अल्लाह ही के हो रहे। ऐसे लोग ईमानवालों के साथ है और अल्लाह ईमानवालों को शीघ्र ही बड़ा प्रतिदान प्रदान करेगा॥146॥

مَا يَفْعَلُ اللہُ بِعَذَابِكُمْ اِنْ شَكَرْتُمْ وَاٰمَنْتُمْ۝۰ۭ وَكَانَ اللہُ شَاكِرًا عَلِــيْمًا۝۱۴۷

अल्लाह को तुम्हें यातना देकर क्या करना है, यदि तुम कृतज्ञता दिखलाओ और ईमान लाओ? अल्लाह गुणग्राहक, सब कुछ जाननेवाला है॥147॥

(6) ۞ لَايُحِبُّ اللہُ الْجَــہْرَ بِالسُّوْۗءِ مِنَ الْقَوْلِ اِلَّا مَنْ ظُلِمَ۝۰ۭ وَكَانَ اللہُ سَمِيْعًا عَلِـــيْمًا۝۱۴۸

अल्लाह बुरी बात खुलेआम कहने को पसन्द नहीं करता, अलबत्ता् वे (ईमानवाले इस बदगोई से मुक्तय हैं) जिनपर ज़ुल्म किया जा  रहा । अल्लाह सब कुछ सुनता, जानता है॥148॥

اِنْ تُبْدُوْا خَيْرًا اَوْ تُخْفُوْہُ اَوْ تَعْفُوْا عَنْ سُوْۗءٍ فَاِنَّ اللہَ كَانَ عَفُوًّا قَدِيْرًا۝۱۴۹

यदि तुम खुले रूप में नेकी और भलाई करो या उसे छिपाओ या किसी बुराई को क्षमा कर दो, तो अल्लाह भी क्षमा करनेवाला, सामर्थ्यवान है॥149॥

اِنَّ الَّذِيْنَ يَكْفُرُوْنَ بِاللہِ وَرُسُلِہٖ وَيُرِيْدُوْنَ اَنْ يُّفَرِّقُوْا بَيْنَ اللہِ وَرُسُلِہٖ وَيَقُوْلُوْنَ نُؤْمِنُ بِبَعْضٍ وَّنَكْفُرُ بِبَعْضٍ۝۰ۙ وَّيُرِيْدُوْنَ اَنْ يَّتَّخِذُوْا بَيْنَ ذٰلِكَ سَبِيْلًا۝۱۵۰ۙ

जो लोग अल्लाह और उसके रसूलों का इनकार करते है और चाहते है कि अल्लाह और उसके रसूलों के बीच विच्छेद करें, और कहते है कि "हम कुछ को मानते है और कुछ को नहीं मानते" और इस तरह वे चाहते है कि बीच की कोई राह अपनाएँ;॥150॥

اُولٰۗىِٕكَ ہُمُ الْكٰفِرُوْنَ حَقًّا۝۰ۚ وَاَعْتَدْنَا لِلْكٰفِرِيْنَ عَذَابًا مُّہِيْنًا۝۱۵۱

वही लोग पक्केर इनकार करनेवाले है, और हमने इनकार करनेवालों के लिए अपमानजनक यातना तैयार कर रखी है॥151॥

وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا بِاللہِ وَرُسُلِہٖ وَلَمْ يُفَرِّقُوْا بَيْنَ اَحَدٍ مِّنْہُمْ اُولٰۗىِٕكَ سَوْفَ يُؤْتِيْہِمْ اُجُوْرَہُمْ۝۰ۭ وَكَانَ اللہُ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا۝۱۵۲ۧ

रहे वे लोग जो अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान रखते है और उनके (रसूलो के) बीच अन्तकर नहीं करते। ऐसे लोगों को अल्लाह शीघ्र ही उनके प्रतिदान प्रदान करेगा। अल्लाह बड़ा क्षमाशील, दयावान है॥152॥

يَسْــَٔــلُكَ اَہْلُ الْكِتٰبِ اَنْ تُنَزِّلَ عَلَيْہِمْ كِتٰبًا مِّنَ السَّمَاۗءِ فَقَدْ سَاَلُوْا مُوْسٰٓى اَكْبَرَ مِنْ ذٰلِكَ فَقَالُوْٓا اَرِنَا اللہَ جَہْرَۃً فَاَخَذَتْہُمُ الصّٰعِقَۃُ بِظُلْمِہِمْ۝۰ۚ ثُمَّ اتَّخَذُوا الْعِجْلَ مِنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَتْہُمُ الْبَيِّنٰتُ فَعَفَوْنَا عَنْ ذٰلِكَ۝۰ۚ وَاٰتَيْنَا مُوْسٰى سُلْطٰنًا مُّبِيْنًا۝۱۵۳

किताबवालों की तुमसे माँग है कि तुम उनपर आकाश से कोई किताब उतार लाओ, तो वे तो मूसा से इससे भी बड़ी माँग कर चुके है। उन्होंने कहा था, "हमें अल्लाह को प्रत्यक्ष दिखा दो," तो उनके इस अपराध पर बिजली की कड़क ने उन्हें आ दबोचा। फिर वे बछड़े को अपना उपास्य बना बैठे, हालाँकि उनके पास खुली-खुली निशानियाँ आ चुकी थी। फिर हमने उसे भी क्षमा कर दिया और मूसा का स्पष्ट बल एवं प्रभाव प्रदान किया॥153॥

وَرَفَعْنَا فَوْقَھُمُ الطُّوْرَ بِمِيْثَاقِہِمْ وَقُلْنَا لَہُمُ ادْخُلُوا الْبَابَ سُجَّدًا وَّقُلْنَا لَہُمْ لَا تَعْدُوْا فِي السَّبْتِ وَاَخَذْنَا مِنْہُمْ مِّيْثَاقًا غَلِيْظًا۝۱۵۴

और उन लोगों से वचन लेने के साथ (तूर) पहाड़ को उनपर उठा दिया और उनसे कहा, "दरवाज़े में सजदा करते हुए प्रवेश करो।" और उनसे कहा, "सब्त (सामूहिक इबादत का दिन) के विषय में ज़्यादती न करना।" और हमने उनसे बहुत-ही दृढ़ वचन लिया था॥154॥

فَبِمَا نَقْضِہِمْ مِّيْثَاقَہُمْ وَكُفْرِہِمْ بِاٰيٰتِ اللہِ وَقَتْلِہِمُ الْاَنْۢبِيَاۗءَ بِغَيْرِ حَقٍّ وَّقَوْلِـہِمْ قُلُوْبُنَا غُلْفٌ۝۰ۭ بَلْ طَبَعَ اللہُ عَلَيْہَا بِكُفْرِہِمْ فَلَا يُؤْمِنُوْنَ اِلَّا قَلِيْلًا۝۱۵۵۠

फिर उनके अपने वचन भंग करने और अल्लाह की आयतों का इनकार करने के कारण और नबियों को नाहक़ क़त्ल करने के दरपे होने और उनके यह कहने के कारण कि "हमारे हृदय आवरणों में सुरक्षित है" - नहीं, बल्कि वास्तव में उनके इनकार के कारण अल्लाह ने उनके दिलों पर ठप्पा लगा दिया है। तो ये ईमान थोड़े ही लाते है॥155॥

وَّبِكُفْرِہِمْ وَقَوْلِـہِمْ عَلٰي مَرْيَمَ بُہْتَانًا عَظِيْمًا۝۱۵۶ۙ

और उनके इनकार के कारण और मरयम के ख़िलाफ ऐसी बात करने पर जो एक बड़ा लांछन था - ॥156॥

وَّقَوْلِـہِمْ اِنَّا قَتَلْنَا الْمَسِيْحَ عِيْسَى ابْنَ مَرْيَمَ رَسُوْلَ اللہِ۝۰ۚ وَمَا قَتَلُوْہُ وَمَا صَلَبُوْہُ وَلٰكِنْ شُـبِّہَ لَہُمْ۝۰ۭ وَاِنَّ الَّذِيْنَ اخْتَلَفُوْا فِيْہِ لَفِيْ شَكٍّ مِّنْہُ۝۰ۭ مَا لَہُمْ بِہٖ مِنْ عِلْمٍ اِلَّا اتِّبَاعَ الظَّنِّ۝۰ۚ وَمَا قَتَلُوْہُ يَقِيْنًۢا۝۱۵۷ۙ

और उनके इस कथन के कारण कि हमने मरयम के बेटे ईसा मसीह, अल्लाह के रसूल, को क़त्ल कर डाला - हालाँकि न तो इन्होंने उसे क़त्ल किया और न उसे सूली पर चढाया, बल्कि मामला उनके लिए संदिग्ध हो गया। और जो लोग इसमें विभेद कर रहे है, निश्चय ही वे इस मामले में सन्देह में पडें थे। अटकल पर चलने के अतिरिक्त उनके पास कोई ज्ञान न था। निश्चय ही उन्होंने उसे (ईसा को) क़त्ल नहीं किया, ॥157॥

بَلْ رَّفَعَہُ اللہُ اِلَيْہِ۝۰ۭ وَكَانَ اللہُ عَزِيْزًا حَكِـيْمًا۝۱۵۸

बल्कि उसे अल्लाह ने अपनी ओर उठा लिया। और अल्लाह अत्यन्त प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है॥158॥

وَاِنْ مِّنْ اَہْلِ الْكِتٰبِ اِلَّا لَيُؤْمِنَنَّ بِہٖ قَبْلَ مَوْتِہٖ۝۰ۚ وَيَوْمَ الْقِيٰمَۃِ يَكُوْنُ عَلَيْہِمْ شَہِيْدًا۝۱۵۹ۚ

किताबवालों में से कोई ऐसा न होगा, जो उसकी मृत्यु से पहले उसपर ईमान न ले आए। वह क़ियामत के दिन उनपर गवाह होगा॥159॥

فَبِظُلْمٍ مِّنَ الَّذِيْنَ ہَادُوْا حَرَّمْنَا عَلَيْہِمْ طَيِّبٰتٍ اُحِلَّتْ لَہُمْ وَبِصَدِّہِمْ عَنْ سَبِيْلِ اللہِ كَثِيْرًا۝۱۶۰ۙ

सारांश यह कि यहूदियों के अत्याचार के कारण हमने बहुत-सी अच्छी पाक चीज़े उनपर हराम कर दी, जो उनके लिए हलाल थी और उनके प्रायः अल्लाह के मार्ग से रोकने के कारण;॥160॥

وَّاَخْذِہِمُ الرِّبٰوا وَقَدْ نُھُوْا عَنْہُ وَاَكْلِہِمْ اَمْوَالَ النَّاسِ بِالْبَاطِلِ۝۰ۭ وَاَعْتَدْنَا لِلْكٰفِرِيْنَ مِنْہُمْ عَذَابًا اَلِـــيْمًا۝۱۶۱

और उनके ब्याज लेने के कारण, जबकि उन्हें इससे रोका गया था। और उनके अवैध रूप से लोगों के माल खाने के कारण ऐसा किया गया। और हमने, उनमें से जिन लोगों ने इनकार किया उनके लिए दुखद यातना तैयार कर रखी है॥161॥

لٰكِنِ الرّٰسِخُوْنَ فِي الْعِلْمِ مِنْہُمْ وَالْمُؤْمِنُوْنَ يُؤْمِنُوْنَ بِمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ وَمَآ اُنْزِلَ مِنْ قَبْلِكَ وَالْمُقِيْمِيْنَ الصَّلٰوۃَ وَالْمُؤْتُوْنَ الزَّكٰوۃَ وَالْمُؤْمِنُوْنَ بِاللہِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ۝۰ۭ اُولٰۗىِٕكَ سَنُؤْتِيْہِمْ اَجْرًا عَظِيْمًا۝۱۶۲ۧ

परन्तु उनमें से जो लोग ज्ञान में पक्के है और ईमानवाले हैं, वे उस पर ईमान रखते है जो तुम्हारी ओर उतारा गया है और जो तुमसे पहले उतारा गया था, और जो विशेष रूप से नमाज़ क़ायम करते है, ज़कात देते और अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान रखते है। यही लोग है जिन्हें हम शीघ्र ही बड़ी प्रतिदान प्रदान करेंगे॥162॥

۞ اِنَّآ اَوْحَيْنَآ اِلَيْكَ كَـمَآ اَوْحَيْنَآ اِلٰي نُوْحٍ وَّالنَّـبِيّٖنَ مِنْۢ بَعْدِہٖ۝۰ۚ وَاَوْحَيْنَآ اِلٰٓي اِبْرٰہِيْمَ وَاِسْمٰعِيْلَ وَاِسْحٰقَ وَيَعْقُوْبَ وَالْاَسْـبَاطِ وَعِيْسٰى وَاَيُّوْبَ وَيُوْنُسَ وَہٰرُوْنَ وَسُلَيْمٰنَ۝۰ۚ وَاٰتَيْنَا دَاوٗدَ زَبُوْرًا۝۱۶۳ۚ

हमने तुम्हारी ओर उसी प्रकार वह्य की है जिस प्रकार नूह और उसके बाद के नबियों की ओर वह्य की। और हमने इबराहीम, इसमाईल, इसहाक़ और याक़ूब और उसकी सन्तान और ईसा और अय्यूब और यूनुस और हारून और सुलैमान की ओर भी वह्य की, और हमने दाऊद को ज़बूर प्रदान किया॥163॥

وَرُسُلًا قَدْ قَصَصْنٰہُمْ عَلَيْكَ مِنْ قَبْلُ وَرُسُلًا لَّمْ نَقْصُصْہُمْ عَلَيْكَ۝۰ۭ وَكَلَّمَ اللہُ مُوْسٰى تَكْلِــيْمًا۝۱۶۴ۚ

और कितने ही रसूल हुए जिनके हालात पहले हम तुमसे बयान कर चुके है और कितने ही ऐसे रसूल हुए जिनके  हालात हमने तुमसे बयान नहीं किया। और मूसा से अल्लाह ने बातचीत की, जिस प्रकार बातचीत की जाती है॥164॥

رُسُلًا مُّبَشِّرِيْنَ وَمُنْذِرِيْنَ لِئَلَّا يَكُوْنَ لِلنَّاسِ عَلَي اللہِ حُجَّــۃٌۢ بَعْدَ الرُّسُلِ۝۰ۭ وَكَانَ اللہُ عَزِيْزًا حَكِــيْمًا۝۱۶۵

रसूल शुभ समाचार देनेवाले और सचेत करनेवाले बनाकर भेजे गए है, ताकि रसूलों के बाद लोगों के पास अल्लाह के मुक़ाबले में (अपने निर्दोष होने का) कोई तर्क न रहे। अल्लाह अत्यन्त प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है॥165॥

لٰكِنِ اللہُ يَشْہَدُ بِمَآ اَنْزَلَ اِلَيْكَ اَنْزَلَہٗ بِعِلْمِہٖ۝۰ۚ وَالْمَلٰۗىِٕكَۃُ يَشْہَدُوْنَ۝۰ۭ وَكَفٰي بِاللہِ شَہِيْدًا۝۱۶۶ۭ

परन्तु अल्लाह गवाही देता है कि उसके द्वारा जो उसने तुम्हारी ओर उतारा है कि उसे उसने अपने ज्ञान के साथ उतारा है और फ़रिश्ते भी गवाही देते है, यद्यपि अल्लाह का गवाह होना ही काफ़ी है॥166॥

اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَصَدُّوْا عَنْ سَبِيْلِ اللہِ قَدْ ضَلُّوْا ضَلٰلًۢا بَعِيْدًا۝۱۶۷

निश्चुय  ही, जिन लोगों ने इनकार किया और अल्लाह के मार्ग से रोका, वे भटककर बहुत दूर जा पड़े॥167॥

اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَظَلَمُوْا لَمْ يَكُنِ اللہُ لِيَغْفِرَ لَہُمْ وَلَا لِيَہْدِيَہُمْ طَرِيْقًا۝۱۶۸ۙ

जिन लोगों ने इनकार किया और ज़ुल्म पर उतर आए, उन्हें अल्लाह कदापि क्षमा नहीं करेगा और न उन्हें कोई मार्ग दिखाएगा॥168॥

اِلَّا طَرِيْقَ جَہَنَّمَ خٰلِدِيْنَ فِيْہَآ اَبَدًا۝۰ۭ وَكَانَ ذٰلِكَ عَلَي اللہِ يَسِيْرًا۝۱۶۹

सिवाय जहन्नम के मार्ग के, जिसमें वे सदैव पड़े रहेंगे। और यह अल्लाह के लिए बहुत ही आसान बात है॥169॥

يٰٓاَيُّھَا النَّاسُ قَدْ جَاۗءَكُمُ الرَّسُوْلُ بِالْحَقِّ مِنْ رَّبِّكُمْ فَاٰمِنُوْا خَيْرًا لَّكُمْ۝۰ۭ وَاِنْ تَكْفُرُوْا فَاِنَّ لِلہِ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ۝۰ۭ وَكَانَ اللہُ عَلِــيْمًا حَكِـيْمًا۝۱۷۰

ऐ लोगों! रसूल तुम्हारे पास तुम्हारे रब की ओर से सत्य लेकर आ गया है। अतः तुम उस भलाई को मानो जो तुम्हारे लिए जुटाई गई। और यदि तुम इनकार करते हो तो आकाशों और धरती में जो कुछ है, वह अल्लाह ही का है। और अल्लाह सब कुछ जाननेवाला, तत्वदर्शी है॥170॥

يٰٓاَہْلَ الْكِتٰبِ لَا تَغْلُوْا فِيْ دِيْنِكُمْ وَلَا تَقُوْلُوْا عَلَي اللہِ اِلَّا الْحَقَّ۝۰ۭ اِنَّمَا الْمَسِيْحُ عِيْسَى ابْنُ مَرْيَمَ رَسُوْلُ اللہِ وَكَلِمَتُہٗ۝۰ۚ اَلْقٰىہَآ اِلٰي مَرْيَمَ وَرُوْحٌ مِّنْہُ۝۰ۡفَاٰمِنُوْا بِاللہِ وَرُسُلِہٖ۝۰ۣۚ وَلَا تَقُوْلُوْا ثَلٰــثَۃٌ۝۰ۭ اِنْـتَھُوْا خَيْرًا لَّكُمْ۝۰ۭ اِنَّمَا اللہُ اِلٰہٌ وَّاحِدٌ۝۰ۭ سُبْحٰنَہٗٓ اَنْ يَّكُوْنَ لَہٗ وَلَدٌ۝۰ۘ لَہٗ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ۝۰ۭ وَكَفٰي بِاللہِ وَكِيْلًا۝۱۷۱ۧ

ऐ किताबवालों! अपने धर्म में हद से आगे न बढ़ो और अल्लाह से जोड़कर सत्य के अतिरिक्त कोई बात न कहो। मरयम का बेटा मसीह-ईसा इसके अतिरिक्त कुछ नहीं कि अल्लाह का रसूल है और उसका एक 'कलिमा' है, जिसे उसने मरमय की ओर भेजा था। और उसकी ओर से एक रूह है। तो तुम अल्लाह पर और उसके रसूलों पर ईमान लाओ और "तीन" न कहो - बाज़ आ जाओ! यह तुम्हारे लिए अच्छा है - अल्लाह तो केवल अकेला पूज्य है। यह उसकी महानता के प्रतिकूल है कि उसका कोई बेटा हो। आकाशों और धरती में जो कुछ है, उसी का है। और अल्लाह कार्यसाधक की हैसियत से काफ़ी है॥171॥

لَنْ يَّسْتَنْكِفَ الْمَسِيْحُ اَنْ يَّكُوْنَ عَبْدًا لِّلہِ وَلَا الْمَلٰۗىِٕكَۃُ الْمُقَرَّبُوْنَ۝۰ۭ وَمَنْ يَّسْتَنْكِفْ عَنْ عِبَادَتِہٖ وَيَسْتَكْبِرْ فَسَيَحْشُرُہُمْ اِلَيْہِ جَمِيْعًا۝۱۷۲

मसीह ने कदापि अपने लिए बुरा नहीं समझा कि वह अल्लाह का बन्दा हो और न निकटवर्ती फ़रिश्तों ने ही (इसे बुरा समझा) । और जो कोई अल्लाह की बन्दगी को अपने लिए बुरा समझेगा और घमंड करेगा, तो वह (अल्लाह) उन सभी लोगों को अपने पास इकट्ठा करके रहेगा॥172॥

فَاَمَّا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ فَيُوَفِّيْہِمْ اُجُوْرَہُمْ وَيَزِيْدُہُمْ مِّنْ فَضْلِہٖ۝۰ۚ وَاَمَّا الَّذِيْنَ اسْتَنْكَفُوْا وَاسْتَكْبَرُوْا فَيُعَذِّبُہُمْ عَذَابًا اَلِـــيْمًا۝۰ۥۙ وَّلَا يَجِدُوْنَ لَہُمْ مِّنْ دُوْنِ اللہِ وَلِيًّا وَّلَا نَصِيْرًا۝۱۷۳

अतः जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए, जो अल्लाह उन्हें उनका पूरा-पूरा बदला देगा और अपने उदार अनुग्रह से उन्हें और अधिक प्रदान करेगा। और जिन लोगों ने बन्दगी को बुरा समझा और घमंड किया, तो उन्हें वह दुखद यातना देगा। और वे अल्लाह से बच सकने के लिए न अपना कोई निकट का समर्थक पाएँगे और न ही कोई सहायक॥173॥

يٰٓاَيُّھَا النَّاسُ قَدْ جَاۗءَكُمْ بُرْہَانٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ وَاَنْزَلْنَآ اِلَيْكُمْ نُوْرًا مُّبِيْنًا۝۱۷۴

ऐ लोगों! तुम्हारे पास तुम्हारे रब की ओर से खुला प्रमाण आ चुका है और हमने तुम्हारी ओर एक स्पष्ट प्रकाश उतारा है॥174॥

فَاَمَّا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا بِاللہِ وَاعْتَصَمُوْا بِہٖ فَسَـيُدْخِلُہُمْ فِيْ رَحْمَۃٍ مِّنْہُ وَفَضْلٍ۝۰ۙ وَّيَہْدِيْہِمْ اِلَيْہِ صِرَاطًا مُّسْتَــقِيْمًا۝۱۷۵ۭ

तो रहे वे लोग जो अल्लाह पर ईमान लाए और उसे मज़बूती के साथ पकड़े रहे, उन्हें वह शीघ्र ही अपनी दयालुता और अपने उदार अनुग्रह के क्षेत्र में दाख़िल करेगा और उन्हें अपनी ओर का सीधा मार्ग दिया देगा॥175॥

يَسْتَـفْتُوْنَكَ۝۰ۭ قُلِ اللہُ يُفْتِيْكُمْ فِي الْكَلٰلَۃِ۝۰ۭ اِنِ امْرُؤٌا ہَلَكَ لَيْسَ لَہٗ وَلَدٌ وَّلَہٗٓ اُخْتٌ فَلَہَا نِصْفُ مَا تَرَكَ۝۰ۚ وَہُوَيَرِثُہَآ اِنْ لَّمْ يَكُنْ لَّہَا وَلَدٌ۝۰ۭ فَاِنْ كَانَتَا اثْنَـتَيْنِ فَلَہُمَا الثُّلُثٰنِ مِمَّا تَرَكَ۝۰ۭ وَاِنْ كَانُوْٓا اِخْوَۃً رِّجَالًا وَّنِسَاۗءً فَلِلذَّكَرِ مِثْلُ حَظِّ الْاُنْثَـيَيْنِ۝۰ۭ يُـبَيِّنُ اللہُ لَكُمْ اَنْ تَضِلُّوْا۝۰ۭ وَاللہُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمٌ۝۱۷۶ۧ

वे तुमसे आदेश मालूम करना चाहते है। कह दो, "अल्लाह तुम्हें ऐसे व्यक्ति के विषय में, जिसका कोई वारिस न हो, आदेश देता है - यदि किसी पुरुष की मृत्यु हो जाए जिसकी कोई सन्तान न हो, परन्तु उसकी एक बहन हो, तो जो कुछ उसने छोड़ा है उसका आधा हिस्सा उस बहन का होगा। और भाई बहन का वारिस होगा, यदि उस (बहन) की कोई सन्तान न हो। और यदि (वारिस) दो बहनें हो, तो जो कुछ उसने छोड़ा है, उसमें से उनके लिए दो-तिहाई होगा। और यदि कई भाई-बहन (वारिस) हो तो एक पुरुष का हिस्सा दो स्त्रियों के बराबर होगा।"

अल्लाह तुम्हारे लिए आदेशों को स्पष्ट करता है, ताकि तुम न भटको। और अल्लाह को हर चीज का पूरा ज्ञान है॥176॥

 

 

  1. अल-माइदा

(मदीना में उतरी – आयतें 120)

بِسْمِ اللہِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ

अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील, अत्यन्त दयावान है।

۞ يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَوْفُوْا بِالْعُقُوْدِ۝۰ۥۭ اُحِلَّتْ لَكُمْ بَہِيْمَۃُ الْاَنْعَامِ اِلَّا مَا يُتْلٰى عَلَيْكُمْ غَيْرَ مُحِلِّي الصَّيْدِ وَاَنْتُمْ حُرُمٌ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ يَحْكُمُ مَا يُرِيْدُ۝۱

ऐ ईमान लानेवालो! प्रतिबन्धों (प्रतिज्ञाओं, समझौतों आदि) का पूर्ण रूप से पालन करो। तुम्हारे लिए चौपायों की जाति के जानवर हलाल हैं सिवाय उनके जो तुम्हें बताए जा रहें हैं; (हलाल जानवरों को खाओ) लेकिन जब तुम इहराम¹ की दशा में हो तो शिकार को हलाल न समझना। निस्संदेह अल्लाह जो चाहते है, आदेश देता है॥1॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تُحِلُّوْا شَعَاۗىِٕرَ اللہِ وَلَا الشَّہْرَ الْحَرَامَ وَلَا الْہَدْيَ وَلَا الْقَلَاۗىِٕدَ وَلَآ اٰۗمِّيْنَ الْبَيْتَ الْحَرَامَ يَبْتَغُوْنَ فَضْلًا مِّنْ رَّبِّہِمْ وَرِضْوَانًا۝۰ۭ وَاِذَا حَلَلْتُمْ فَاصْطَادُوْا۝۰ۭ وَلَا يَجْرِمَنَّكُمْ شَـنَاٰنُ قَوْمٍ اَنْ صَدُّوْكُمْ عَنِ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ اَنْ تَعْتَدُوْا۝۰ۘ وَتَعَاوَنُوْا عَلَي الْبِرِّ وَالتَّقْوٰى۝۰۠ وَلَا تَعَاوَنُوْا عَلَي الْاِثْمِ وَالْعُدْوَانِ۝۰۠ وَاتَّقُوا اللہَ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ شَدِيْدُ الْعِقَابِ۝۲

ऐ ईमान लानेवालो! अल्लाह की निशानियों का अनादर न करो; न आदर के महीनों का, न क़ुरबानी के जानवरों का और उन जानवरों का जिनकी गरदनों में पट्टे पड़े हो और न उन लोगों का जो अपने रब के अनुग्रह और उसकी प्रसन्नता की चाह में प्रतिष्ठित गृह (काबा) को जाते हो। और जब इहराम की दशा से बाहर हो जाओ तो शिकार करो। और ऐसा न हो कि एक गिरोह की शत्रुता, जिसने तुम्हारे लिए प्रतिष्ठित घर का रास्ता बन्द कर दिया था, तुम्हें इस बात पर उभार दे कि तुम ज़्यादती करने लगो। हक़ अदा करने और ईश-भय के काम में तुम एक-दूसरे का सहयोग करो और हक़ मारने और ज़्यादती के काम में एक-दूसरे का सहयोग न करो। अल्लाह का डर रखो; निश्चेय ही अल्लाह बड़ा कठोर दंड देनेवाला है॥2॥

حُرِّمَتْ عَلَيْكُمُ الْمَيْتَۃُ وَالدَّمُ وَلَحْمُ الْخِنْزِيْرِ وَمَآ اُہِلَّ لِغَيْرِ اللہِ بِہٖ وَالْمُنْخَنِقَۃُ وَالْمَوْقُوْذَۃُ وَالْمُتَرَدِّيَۃُ وَالنَّطِيْحَۃُ وَمَآ اَكَلَ السَّبُعُ اِلَّا مَا ذَكَّيْتُمْ۝۰ۣ وَمَا ذُبِحَ عَلَي النُّصُبِ وَاَنْ تَسْـتَقْسِمُوْا بِالْاَزْلَامِ۝۰ۭ ذٰلِكُمْ فِسْقٌ۝۰ۭ اَلْيَوْمَ يَىِٕسَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْ دِيْنِكُمْ فَلَا تَخْشَوْہُمْ وَاخْشَوْنِ۝۰ۭ اَلْيَوْمَ اَكْمَلْتُ لَكُمْ دِيْنَكُمْ وَاَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِيْ وَرَضِيْتُ لَكُمُ الْاِسْلَامَ دِيْنًا۝۰ۭ فَمَنِ اضْطُرَّ فِيْ مَخْمَصَۃٍ غَيْرَ مُتَجَانِفٍ لِّاِثْمٍ۝۰ۙ فَاِنَّ اللہَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ۝۳

तुम्हारे लिए हराम हुआ मुर्दार रक्त, सूअर का मांस और वह जानवर जिसपर अल्लाह के अतिरिक्त किसी और का नाम लिया गया हो और वह जो घुटकर या चोट खाकर या ऊँचाई से गिरकर या सींग लगने से मरा हो या जिसे किसी हिंसक पशु ने फाड़ खाया हो - सिवाय उसके जिसे तुमने ज़ब्हँ कर लिया हो - और वह किसी थान पर ज़ब्‍ह कियी गया हो। और यह भी ( तुम्हारे लिए हराम हैं) कि तीरो के द्वारा किस्मत मालूम करो। यह आज्ञा का उल्लंघन है - आज इनकार करनेवाले तुम्हारे धर्म की ओर से निराश हो चुके हैं, तो तुम उनसे न डरो, बल्कि मुझसे डरो। आज मैंने तुम्हारे धर्म को पूर्ण कर दिया और तुमपर अपनी नेमत पूरी कर दी और मैंने तुम्हारे धर्म के रूप में इस्लाम¹ को पसन्द किया - तो जो कोई भूख से विवश हो जाए, परन्तु गुनाह की ओर उसका झुकाव न हो, तो निश्चमय ही अल्लाह अत्यन्त क्षमाशील, दयावान है॥3॥

يَسْـــَٔلُوْنَكَ مَاذَآ اُحِلَّ لَہُمْ۝۰ۭ قُلْ اُحِلَّ لَكُمُ الطَّيِّبٰتُ۝۰ۙ وَمَا عَلَّمْتُمْ مِّنَ الْجَوَارِحِ مُكَلِّبِيْنَ تُعَلِّمُوْنَہُنَّ مِمَّا عَلَّمَكُمُ اللہُ۝۰ۡفَكُلُوْا مِمَّآ اَمْسَكْنَ عَلَيْكُمْ وَاذْكُرُوا اسْمَ اللہِ عَلَيْہِ۝۰۠ وَاتَّقُوا اللہَ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ سَرِيْعُ الْحِسَابِ۝۴

वे तुमसे पूछते है कि "उनके लिए क्या हलाल है?" कह दो, "तुम्हारे लिए सारी अच्छी स्वच्छ चीज़ें हलाल है और जिन शिकारी जानवरों को तुमने सधे हुए शिकारी जानवर के रूप में सधा रखा हो - जिनको जैस अल्लाह ने तुम्हें सिखाया हैं, सिखाते हो - वे जिस शिकार को तुम्हारे लिए पकड़े रखे, उसको खाओ और उसपर अल्लाह का नाम लो। और अल्लाह का डर रखो। निश्चिय ही अल्लाह जल्द हिसाब लेनेवाला है।"॥4॥

اَلْيَوْمَ اُحِلَّ لَكُمُ الطَّيِّبٰتُ۝۰ۭ وَطَعَامُ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ حِلٌّ لَّكُمْ۝۰۠ وَطَعَامُكُمْ حِلٌّ لَّہُمْ۝۰ۡوَالْمُحْصَنٰتُ مِنَ الْمُؤْمِنٰتِ وَالْمُحْصَنٰتُ مِنَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ مِنْ قَبْلِكُمْ اِذَآ اٰتَيْتُمُوْہُنَّ اُجُوْرَہُنَّ مُحْصِنِيْنَ غَيْرَ مُسٰفِحِيْنَ وَلَا مُتَّخِذِيْٓ اَخْدَانٍ۝۰ۭ وَمَنْ يَّكْفُرْ بِالْاِيْمَانِ فَقَدْ حَبِطَ عَمَلُہٗ۝۰ۡوَہُوَفِي الْاٰخِرَۃِ مِنَ الْخٰسِرِيْنَ۝۵ۧ

आज तुम्हारे लिए अच्छी स्वच्छ चीज़ें हलाल कर दी गई और जिन्हें किताब दी गई उनका भोजन भी तुम्हारे लिए हलाल है और तुम्हारा भोजन उनके लिए हलाल है और शरीफ़ और स्वतंत्र ईमानवाली स्त्रियाँ भी जो तुमसे पहले के किताबवालों में से हो, जबकि तुम उनका हक़ (मह्र) देकर उन्हें निकाह में लाओ। न तो यह काम स्वछन्द कामतृप्ति के लिए हो और न चोरी-छिपे याराना करने को। और जिस किसी ने ईमान से इनकार किया, उसका सारा किया-धरा अकारथ गया और वह आख़िरत में भी घाटे में रहेगा॥5॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِذَا قُمْتُمْ اِلَى الصَّلٰوۃِ فَاغْسِلُوْا وُجُوْہَكُمْ وَاَيْدِيَكُمْ اِلَى الْمَرَافِقِ وَامْسَحُوْا بِرُءُوْسِكُمْ وَاَرْجُلَكُمْ اِلَى الْكَعْبَيْنِ۝۰ۭ وَاِنْ كُنْتُمْ جُنُبًا فَاطَّہَّرُوْا۝۰ۭ وَاِنْ كُنْتُمْ مَّرْضٰٓى اَوْ عَلٰي سَفَرٍ اَوْ جَاۗءَ اَحَدٌ مِّنْكُمْ مِّنَ الْغَاۗىِٕطِ اَوْ لٰمَسْتُمُ النِّسَاۗءَ فَلَمْ تَجِدُوْا مَاۗءً فَتَيَمَّمُوْا صَعِيْدًا طَيِّبًا فَامْسَحُوْا بِوُجُوْہِكُمْ وَاَيْدِيْكُمْ مِّنْہُ۝۰ۭ مَا يُرِيْدُ اللہُ لِيَجْعَلَ عَلَيْكُمْ مِّنْ حَرَجٍ وَّلٰكِنْ يُّرِيْدُ لِيُطَہِّرَكُمْ وَلِيُتِمَّ نِعْمَتَہٗ عَلَيْكُمْ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ۝۶

ऐ ईमान लेनेवालो! जब तुम नमाज़ के लिए उठो तो अपने चहरों को और हाथों को कुहनियों तक धो लिया करो और अपने सिरों पर हाथ फेर लो और अपने पैरों को भी टखनों तक धो लो। और यदि नापाक (वीर्यपात हुआ हो) हो तो अच्छी तरह पाक हो जाओ। परन्तु यदि बीमार हो या सफ़र में हो या तुममें से कोई शौच करके आया हो या तुमने स्त्रियों को हाथ लगया हो, फिर पानी न मिले तो पाक मिट्टी से काम लो। उसपर हाथ मारकर अपने मुँह और हाथों पर फेर लो। अल्लाह तुम्हें किसी तंगी में नहीं डालना चाहता। अपितु वह चाहता हैं कि तुम्हें पवित्र करे और अपनी नेमत तुमपर पूरी कर दे, ताकि तुम कृतज्ञ बनो॥6॥

وَاذْكُرُوْا نِعْمَۃَ اللہِ عَلَيْكُمْ وَمِيْثَاقَہُ الَّذِيْ وَاثَقَكُمْ بِہٖٓ۝۰ۙ اِذْ قُلْتُمْ سَمِعْنَا وَاَطَعْنَا۝۰ۡوَاتَّقُوا اللہَ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ عَلِيْمٌۢ بِذَاتِ الصُّدُوْرِ۝۷

और अल्लाह के उस अनुग्रह को याद करो जो उसने तुमपर किया हैं और उस प्रतिज्ञा को भी जो उसने तुमसे की है, जबकि तुमने कहा था - "हमने सुना और माना। " और अल्ला ह का डर रखो। और अल्लाह जो कुछ सीनों (दिलों) में है, उसे भी जानता हैं॥7॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كُوْنُوْا قَوّٰمِيْنَ لِلہِ شُہَدَاۗءَ بِالْقِسْطِ۝۰ۡوَلَا يَجْرِمَنَّكُمْ شَـنَاٰنُ قَوْمٍ عَلٰٓي اَلَّا تَعْدِلُوْا۝۰ۭ اِعْدِلُوْا۝۰ۣ ہُوَاَقْرَبُ لِلتَّقْوٰى۝۰ۡوَاتَّقُوا اللہَ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ خَبِيْرٌۢ بِمَا تَعْمَلُوْنَ۝۸

ऐ ईमान लेनेवालो! अल्लाह के लिए गवाह होकर दृढतापूर्वक, इनसाफ़ की रक्षा करनेवाले बनो और ऐसा न हो कि किसी गिरोह की शत्रुता तुम्हें इस बात पर उभार दे कि तुम इनसाफ़ करना छोड़ दो। इनसाफ़ करो, यही धर्मपरायणता से अधिक निकट है। अल्लाह का डर रखो, निश्च य ही जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह को उसकी ख़बर हैं॥8॥

وَعَدَ اللہُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ۝۰ۙ لَہُمْ مَّغْفِرَۃٌ وَّاَجْرٌ عَظِيْمٌ۝۹

जो लोग ईमान लाए और उन्होंन अच्छे कर्म किए उनसे अल्लाह का वादा है कि उनके लिए क्षमा और बड़ा प्रतिदान है॥9॥

وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَكَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَآ اُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ الْجَحِيْمِ۝۱۰

रहे वे लोग जिन्होंने इनकार किया और हमारी आयतों को झुठलाया, वही भड़कती आग में पड़नेवाले है॥10॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اذْكُرُوْا نِعْمَتَ اللہِ عَلَيْكُمْ اِذْ ہَمَّ قَوْمٌ اَنْ يَّبْسُطُوْٓا اِلَيْكُمْ اَيْدِيَہُمْ فَكَفَّ اَيْدِيَہُمْ عَنْكُمْ۝۰ۚ وَاتَّقُوا اللہَ۝۰ۭ وَعَلَي اللہِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُؤْمِنُوْنَ۝۱۱ۧ

ऐ ईमान लेनेवालो! अल्लाह के उस अनुग्रह को याद करो जो उसने तुमपर किया है, जबकि कुछ लोगों ने तुम्हारी ओर हाथ बढ़ाने का निश्चय कर लिया था तो उसने उनके हाथ तुमसे रोक दिए। अल्लाह का डर रखो, और ईमानवालों को अल्लाह ही पर भरोसा करना चाहिए॥11॥

۞ وَلَقَدْ اَخَذَ اللہُ مِيْثَاقَ بَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ۝۰ۚ وَبَعَثْنَا مِنْہُمُ اثْنَيْ عَشَرَ نَقِيْبًا۝۰ۭ وَقَالَ اللہُ اِنِّىْ مَعَكُمْ۝۰ۭ لَىِٕنْ اَقَمْــتُمُ الصَّلٰوۃَ وَاٰتَيْتُمُ الزَّكٰوۃَ وَاٰمَنْتُمْ بِرُسُلِيْ وَعَزَّرْتُمُوْہُمْ وَاَقْرَضْتُمُ اللہَ قَرْضًا حَسَـنًا لَّاُكَفِّرَنَّ عَنْكُمْ سَـيِّاٰتِكُمْ وَلَاُدْخِلَـنَّكُمْ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِہَا الْاَنْھٰرُ۝۰ۚ فَمَنْ كَفَرَ بَعْدَ ذٰلِكَ مِنْكُمْ فَقَدْ ضَلَّ سَوَاۗءَ السَّبِيْلِ۝۱۲

अल्लाह ने इसराईल की सन्तान से वचन लिया था और हमने उनमें से बारह सरदार नियुक्त किए थे। और अल्लाह ने कहा, "मैं तुम्हारे साथ हूँ, यदि तुमने नमाज़ क़ायम रखी, ज़कात देते रहे, मेरे रसूलों पर ईमान लाए और उनकी सहायता की और अल्लाह को अच्छा ऋण दिया तो मैं अवश्य तुम्हारी बुराइयाँ (बदहालियाँ) तुमसे दूर कर दूँगा और तुम्हें निश्चय ही ऐसे बाग़ों में दाख़िल करूँगा, जिनके नीचे नहरें बह रही होगी। फिर इसके पश्चात तुमनें से जिनसे इनकार किया, तो वास्तव में वह ठीक और सही रास्ते से भटक गया।"॥12॥

فَبِمَا نَقْضِہِمْ مِّيْثَاقَہُمْ لَعَنّٰہُمْ وَجَعَلْنَا قُلُوْبَہُمْ قٰسِـيَۃً۝۰ۚ يُحَرِّفُوْنَ الْكَلِمَ عَنْ مَّوَاضِعِہٖ۝۰ۙ وَنَسُوْا حَظًّا مِّمَّا ذُكِّرُوْا بِہٖ۝۰ۚ وَلَا تَزَالُ تَطَّلِعُ عَلٰي خَاۗىِٕنَۃٍ مِّنْہُمْ اِلَّا قَلِيْلًا مِّنْہُمْ فَاعْفُ عَنْہُمْ وَاصْفَحْ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ يُحِبُّ الْمُحْسِـنِيْنَ۝۱۳

फिर उनके बार-बार अपने वचन को भंग कर देने के कारण हमने उनपर लानत की और उनके हृदय कठोर कर दिए। वे शब्दों को उनके स्थान से फेरकर कुछ का कुछ कर देते है और जिनके द्वारा उन्हें याद दिलाया गया था, उसका एक बड़ा भाग वे भुला बैठे। और तुम्हें उनके किसी न किसी विश्वासघात का बराबर पता चलता रहेगा। उनमें ऐसा न करनेवाले थोड़े लोग है, तो तुम उन्हें क्षमा कर दो और उन्हें छोड़ो। निश्चय ही अल्लाह को वे लोग प्रिय है जो उत्तमकर्मी है॥13॥

وَمِنَ الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّا نَصٰرٰٓى اَخَذْنَا مِيْثَاقَہُمْ فَنَسُوْا حَظًّا مِّمَّا ذُكِّرُوْا بِہٖ۝۰۠ فَاَغْرَيْنَا بَيْنَہُمُ الْعَدَاوَۃَ وَالْبَغْضَاۗءَ اِلٰي يَوْمِ الْقِيٰمَۃِ۝۰ۭ وَسَوْفَ يُنَبِّئُہُمُ اللہُ بِمَا كَانُوْا يَصْنَعُوْنَ۝۱۴

और हमने उन लोगों से भी दृढ़ वचन लिया था, जिन्होंने कहा था कि हम नसारा (ईसाई) हैं, किन्तु उन्हेह जो कुछ  जिसके द्वारा याद कराया गया था उसका एक बड़ा भाग भुला बैठे। फिर हमने उनके बीच क़ियामत तक के लिए शत्रुता और द्वेष की आग भड़का दी, और अल्लाह जल्द उन्हें बता देगा, जो कुछ वे बनाते रहे थे॥14॥

يٰٓاَہْلَ الْكِتٰبِ قَدْ جَاۗءَكُمْ رَسُوْلُنَا يُـبَيِّنُ لَكُمْ كَثِيْرًا مِّمَّا كُنْتُمْ تُخْفُوْنَ مِنَ الْكِتٰبِ وَيَعْفُوْا عَنْ كَثِيْرٍ۝۰ۥۭ قَدْ جَاۗءَكُمْ مِّنَ اللہِ نُوْرٌ وَّكِتٰبٌ مُّبِيْنٌ۝۱۵ۙ

ऐ किताबवालों! हमारा रसूल तुम्हारे पास आ गया है। किताब की जो बातें तुम छिपाते थे, उसमें से बहुत-सी बातें वह तुम्हारे सामने खोल रहा है और बहुत-सी बातों को छोड़ देता है। तुम्हारे पास अल्लाह की ओर से प्रकाश और एक स्पष्ट  किताब आ गई है,॥15॥

يَّہْدِيْ بِہِ اللہُ مَنِ اتَّبَعَ رِضْوَانَہٗ سُـبُلَ السَّلٰمِ وَيُخْرِجُہُمْ مِّنَ الظُّلُمٰتِ اِلَى النُّوْرِ بِـاِذْنِہٖ وَيَہْدِيْہِمْ اِلٰي صِرَاطٍ مُّسْتَقِيْمٍ۝۱۶

जिसके द्वारा अल्लाह उस व्यक्ति को, जो उसकी प्रसन्नता का अनुगामी है, सलामती की राहें दिखा रहा है और अपनी अनुज्ञा से ऐसे लोगों को अँधेरों से निकालकर उजाले की ओर ला रहा है और उन्हें सीधे मार्ग पर चला रहा है॥16॥

لَقَدْ كَفَرَ الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّ اللہَ ہُوَالْمَسِيْحُ ابْنُ مَرْيَمَ۝۰ۭ قُلْ فَمَنْ يَّمْلِكُ مِنَ اللہِ شَـيْـــًٔـا اِنْ اَرَادَ اَنْ يُّہْلِكَ الْمَسِيْحَ ابْنَ مَرْيَمَ وَاُمَّہٗ وَمَنْ فِي الْاَرْضِ جَمِيْعًا۝۰ۭ وَلِلہِ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَمَا بَيْنَہُمَا۝۰ۭ يَخْلُقُ مَا يَشَاۗءُ۝۰ۭ وَاللہُ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ۝۱۷

निश्चतय ही उन लोगों ने इनकार किया, जिन्होंने कहा, "अल्लाह तो वही मरयम का बेटा मसीह है।" कहो, "अल्लाह के आगे किसका कुछ बस चल सकता है, यदि वह मरयम के पुत्र मसीह को और उसकी माँ (मरयम) को और समस्त धरतीवालो को विनष्ट करना चाहे? और अल्लाह ही के लिए है बादशाही आकाशों और धरती की ओर जो कुछ उनके मध्य है उसकी भी। वह जो चाहता है पैदा करता है। और अल्लाह को हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त  है।"॥17॥

وَقَالَتِ الْيَھُوْدُ وَالنَّصٰرٰى نَحْنُ اَبْنٰۗؤُا اللہِ وَاَحِبَّاۗؤُہٗ۝۰ۭ قُلْ فَلِمَ يُعَذِّبُكُمْ بِذُنُوْبِكُمْ۝۰ۭ بَلْ اَنْتُمْ بَشَرٌ مِّمَّنْ خَلَقَ۝۰ۭ يَغْفِرُ لِمَنْ يَّشَاۗءُ وَيُعَذِّبُ مَنْ يَّشَاۗءُ۝۰ۭ وَلِلہِ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَمَا بَيْنَہُمَا۝۰ۡوَاِلَيْہِ الْمَصِيْرُ۝۱۸

यहूदी और ईसाई कहते है, "हम तो अल्लाह के बेटे और उसके चहेते है।" कहो, "फिर वह तुम्हें तुम्हारे गुनाहों पर दण्‍ड क्यों देता है? बात यह नहीं है, बल्कि तुम भी उसके पैदा किए हुए प्राणियों में से एक मनुष्य हो। वह जिसे चाहे क्षमा करे और जिसे चाहे दण्‍ड दे।" और अल्लाह ही के लिए है बादशाही आकाशों और धरती को और जो कुछ उनके बीच है वह भी, और जाना भी उसी की ओर है॥18॥

يٰٓاَہْلَ الْكِتٰبِ قَدْ جَاۗءَكُمْ رَسُوْلُنَا يُـبَيِّنُ لَكُمْ عَلٰي فَتْرَۃٍ مِّنَ الرُّسُلِ اَنْ تَقُوْلُوْا مَا جَاۗءَنَا مِنْۢ بَشِيْرٍ وَّلَا نَذِيْرٍ۝۰ۡفَقَدْ جَاۗءَكُمْ بَشِيْرٌ وَّنَذِيْرٌ۝۰ۭ وَاللہُ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ۝۱۹ۧ

ऐ किताबवालो! हमारा रसूल ऐसे समय तुम्हारे पास आया है और तुम्हारे लिए (हमारा आदेश) खोल-खोलकर बयान करता है, जबकि रसूलों के आने का सिलसिला एक मुद्दत से बन्द था, ताकि तुम यह न कह सको कि "हमारे पास कोई शुभ-समाचार देनेवाला और सचेत करनेवाला नहीं आया।" तो देखो! अब तुम्हारे पास शुभ-समाचार देनेवाला और सचेत करनेवाला आ गया है। अल्लाह को हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त है॥19॥

وَاِذْ قَالَ مُوْسٰى لِقَوْمِہٖ يٰقَوْمِ اذْكُرُوْا نِعْمَۃَ اللہِ عَلَيْكُمْ اِذْ جَعَلَ فِيْكُمْ اَنْۢبِيَاۗءَ وَجَعَلَكُمْ مُّلُوْكًا۝۰ۤۖ وَّاٰتٰىكُمْ مَّا لَمْ يُؤْتِ اَحَدًا مِّنَ الْعٰلَمِيْنَ۝۲۰

और याद करो जब मूसा ने अपनी क़ौम के लोगों से कहा था, "ऐ लोगों! अल्लाह की उस नेमत को याद करो जो उसने तुम्हें प्रदान की है। उसनें तुममें नबी पैदा किए और तुम्हें शासक बनाया और तुमको वह कुछ दिया जो संसार में किसी को नहीं दिया था॥20॥

يٰقَوْمِ ادْخُلُوا الْاَرْضَ الْمُقَدَّسَۃَ الَّتِيْ كَتَبَ اللہُ لَكُمْ وَلَا تَرْتَدُّوْا عَلٰٓي اَدْبَارِكُمْ فَتَنْقَلِبُوْا خٰسِرِيْنَ۝۲۱

"ऐ मेरे लोगो! इस पवित्र भूमि में प्रवेश करो, जो अल्लाह ने तुम्हारे लिए लिख दी है। और पीछे न हटो, अन्यथा, घाटे में पड़ जाओगे।"॥21॥

قَالُوْا يٰمُوْسٰٓى اِنَّ فِيْہَا قَوْمًا جَبَّارِيْنَ۝۰ۤۖ وَاِنَّا لَنْ نَّدْخُلَہَا حَتّٰي يَخْرُجُوْا مِنْہَا۝۰ۚ فَاِنْ يَّخْرُجُوْا مِنْہَا فَاِنَّا دٰخِلُوْنَ۝۲۲

उन्होंने कहा, "ऐ मूसा! उसमें तो बड़े शक्तिशाली लोग रहते है। हम तो वहाँ कदापि नहीं जा सकते, जब तक कि वे वहाँ से निकल नहीं जाते। हाँ, यदि वे वहाँ से निकल जाएँ, तो हम अवश्य प्रविष्ट  हो जाएँगे।"॥22॥

قَالَ رَجُلٰنِ مِنَ الَّذِيْنَ يَخَافُوْنَ اَنْعَمَ اللہُ عَلَيْہِمَا ادْخُلُوْا عَلَيْہِمُ الْبَابَ۝۰ۚ فَاِذَا دَخَلْتُمُوْہُ فَاِنَّكُمْ غٰلِبُوْنَ۝۰ۥۚ وَعَلَي اللہِ فَتَوَكَّلُوْٓا اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ۝۲۳

उन डरनेवालों में से ही दो व्यक्ति ऐसे भी थे जिनपर अल्लाह का अनुग्रह था। उन्होंने कहा, "उन लोगों के मुक़ाबले में दरवाज़े से प्रविष्ट हो जाओ। जब तुम उसमें प्रविष्टि हो जाओगे, तो तुम ही प्रभावी होगे। अल्लाह पर भरोसा रखो, यदि तुम ईमानवाले हो।"॥23॥

قَالُوْا يٰمُوْسٰٓى اِنَّا لَنْ نَّدْخُلَہَآ اَبَدًا مَّا دَامُوْا فِيْہَا فَاذْہَبْ اَنْتَ وَرَبُّكَ فَقَاتِلَآ اِنَّا ھٰہُنَا قٰعِدُوْنَ۝۲۴

उन्होंने कहा, "ऐ मूसा! जब तक वे लोग वहाँ है, हम तो कदापि नहीं जाएँगे। ऐसा ही है तो जाओ तुम और तुम्हारा रब, और दोनों लड़ो। हम तो यहीं बैठे रहेंगे।"॥24॥

قَالَ رَبِّ اِنِّىْ لَآ اَمْلِكُ اِلَّا نَفْسِيْ وَاَخِيْ فَافْرُقْ بَيْنَنَا وَبَيْنَ الْقَوْمِ الْفٰسِقِيْنَ۝۲۵

उसने कहा, "मेरे रब! मेरा स्वयं अपने और अपने भाई के अतिरिक्त किसी पर अधिकार नहीं है। अतः तू हमारे और इन अवज्ञाकारी लोगों के बीच अलगाव पैदा कर दे।"॥25॥

قَالَ فَاِنَّہَا مُحَرَّمَۃٌ عَلَيْہِمْ اَرْبَعِيْنَ سَـنَۃً۝۰ۚ يَتِيْھُوْنَ فِي الْاَرْضِ۝۰ۭ فَلَا تَاْسَ عَلَي الْقَوْمِ الْفٰسِقِيْنَ۝۲۶ۧ

कहा, "अच्छा तो अब यह भूमि चालीस वर्ष तक इनके लिए वर्जित है। ये धरती में मारे-मारे फिरेंगे तो तुम इन अवज्ञाकारी लोगों के प्रति शोक न करो"॥26॥

۞ وَاتْلُ عَلَيْہِمْ نَبَاَ ابْنَيْ اٰدَمَ بِالْحَقِّ۝۰ۘ اِذْ قَرَّبَا قُرْبَانًا فَتُقُبِّلَ مِنْ اَحَدِہِمَا وَلَمْ يُتَقَبَّلْ مِنَ الْاٰخَرِ۝۰ۭ قَالَ لَاَقْتُلَـنَّكَ۝۰ۭ قَالَ اِنَّمَا يَتَقَبَّلُ اللہُ مِنَ الْمُتَّقِيْنَ۝۲۷

और इन्हें आदम के दो बेटों का सच्चा वृतान्त सुना दो। जब दोनों ने क़ुरबानी की, तो उनमें से एक की क़ुरबानी स्वीकृत हुई और दूसरे की स्वीकृत न हुई। उसने कहा, "मै तुझे अवश्य मार डालूँगा।" दूसरे न कहा, "अल्लाह तो उन्हीं की (क़ुरबानी) स्वीकृत करता है, जो डर रखनेवाले है।॥27॥

لَىِٕنْۢ بَسَطْتَّ اِلَيَّ يَدَكَ لِتَقْتُلَنِيْ مَآ اَنَا بِبَاسِطٍ يَّدِيَ اِلَيْكَ لِاَقْتُلَكَ۝۰ۚ اِنِّىْٓ اَخَافُ اللہَ رَبَّ الْعٰلَمِيْنَ۝۲۸

"यदि तू मेरी हत्या करने के लिए मेरी ओर हाथ बढ़ाएगा तो मैं तेरी हत्या करने के लिए तेरी ओर अपना हाथ नहीं बढ़ाऊँगा। मैं तो अल्लाह से डरता हूँ, जो सारे संसार का रब है॥28॥

اِنِّىْٓ اُرِيْدُ اَنْ تَبُوْۗاَ بِـاِثْمِيْ وَاِثْمِكَ فَتَكُوْنَ مِنْ اَصْحٰبِ النَّارِ۝۰ۚ وَذٰلِكَ جَزٰۗؤُا الظّٰلِــمِيْنَ۝۲۹ۚ

"मैं तो चाहता हूँ कि मेरा गुनाह और अपना गुनाह तू ही अपने सिर ले ले, फिर आग (जहन्नम) में पड़नेवालों में से एक हो जाए, और वही अत्याचारियों का बदला है।"॥29॥

فَطَوَّعَتْ لَہٗ نَفْسُہٗ قَتْلَ اَخِيْہِ فَقَتَلَہٗ فَاَصْبَحَ مِنَ الْخٰسِرِيْنَ۝۳۰

अन्ततः उसके जी ने उस अपने भाई की हत्या के लिए उद्यत कर दिया, तो उसने उसकी हत्या कर डाली और घाटे में पड़ गया॥30॥

فَبَعَثَ اللہُ غُرَابًا يَّبْحَثُ فِي الْاَرْضِ لِيُرِيَہٗ كَيْفَ يُوَارِيْ سَوْءَۃَ اَخِيْہِ۝۰ۭ قَالَ يٰوَيْلَــتٰٓى اَعَجَزْتُ اَنْ اَكُوْنَ مِثْلَ ہٰذَا الْغُرَابِ فَاُوَارِيَ سَوْءَۃَ اَخِيْ۝۰ۚ فَاَصْبَحَ مِنَ النّٰدِمِيْنَ۝۳۱ۚۙۛ

तब अल्लाह ने एक कौआ भेजा जो भूमि कुरेदने लगा, ताकि उसे दिखा दे कि वह अपने भाई के शव को कैसे छिपाए। कहने लगा, "अफ़सोस मुझ पर! क्या मैं इस कौए जैसा भी न हो सका कि अपने भाई का शव छिपा देता?" फिर वह लज्जित हुआ॥31॥

مِنْ اَجْلِ ذٰلِكَ۝۰ۚۛؔ كَتَبْنَا عَلٰي بَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ اَنَّہٗ مَنْ قَتَلَ نَفْسًۢا بِغَيْرِ نَفْسٍ اَوْ فَسَادٍ فِي الْاَرْضِ فَكَاَنَّمَا قَتَلَ النَّاسَ جَمِيْعًا۝۰ۭ وَمَنْ اَحْيَاہَا فَكَاَنَّمَآ اَحْيَا النَّاسَ جَمِيْعًا۝۰ۭ وَلَقَدْ جَاۗءَتْہُمْ رُسُلُنَا بِالْبَيِّنٰتِ۝۰ۡثُمَّ اِنَّ كَثِيْرًا مِّنْہُمْ بَعْدَ ذٰلِكَ فِي الْاَرْضِ لَمُسْرِفُوْنَ۝۳۲

इसी कारण हमने इसराईल का सन्तान के लिए यह अध्याकदेश पारित कर दिया गया था जिसका उन्हेी ध्यायन रखना है कि किसी व्यक्ति को किसी के ख़ून का बदला लेने या धरती में फ़साद फैलाने के अतिरिक्त किसी और कारण से मार डाला तो मानो उसने सारे ही इनसानों की हत्या कर डाली। और जिसने उसे जीवन प्रदान किया, उसने मानो सारे इनसानों को जीवन दान किया। उसने पास हमारे रसूल स्पष्ट प्रमाण ला चुके हैं, फिर भी उनमें बहुत-से लोग धरती में ज़्यादतियाँ करनेवाले ही हैं॥32॥

اِنَّمَا جَزٰۗؤُا الَّذِيْنَ يُحَارِبُوْنَ اللہَ وَرَسُوْلَہٗ وَيَسْعَوْنَ فِي الْاَرْضِ فَسَادًا اَنْ يُّقَتَّلُوْٓا اَوْ يُصَلَّبُوْٓا اَوْ تُـقَطَّعَ اَيْدِيْہِمْ وَاَرْجُلُہُمْ مِّنْ خِلَافٍ اَوْ يُنْفَوْا مِنَ الْاَرْضِ۝۰ۭ ذٰلِكَ لَہُمْ خِزْيٌ فِي الدُّنْيَا وَلَہُمْ فِي الْاٰخِرَۃِ عَذَابٌ عَظِيْمٌ۝۳۳ۙ

जो लोग अल्लाह और उसके रसूल से लड़ते है और धरती के लिए बिगाड़ पैदा करने के लिए दौड़-धूप करते है, उनका बदला तो बस यही है कि बुरी तरह से क़त्ल किए जाए या सूली पर चढ़ाए जाएँ या उनके हाथ-पाँव विपरीत दिशाओं में काट डाले जाएँ या उन्हें देश से निष्कासित कर दिया जाए। यह अपमान और तिरस्कार उनके लिए दुनिया में है और आख़िरत में उनके लिए बड़ी यातना है॥33॥

اِلَّا الَّذِيْنَ تَابُوْا مِنْ قَبْلِ اَنْ تَقْدِرُوْا عَلَيْہِمْ۝۰ۚ فَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللہَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ۝۳۴ۧ

किन्तु जो लोग, इससे पहले कि तुम्हें उनपर अधिकार प्राप्त हो, पलट आएँ (अर्थात तौबा कर लें) तो ऐसी दशा में तुम्हें मालूम होना चाहिए कि अल्लाह बड़ा क्षमाशील, दयावान है॥34॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اتَّقُوا اللہَ وَابْتَغُوْٓا اِلَيْہِ الْوَسِيْلَۃَ وَجَاہِدُوْا فِيْ سَبِيْلِہٖ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ۝۳۵

ऐ ईमान लानेवालो! अल्लाह का डर रखो और उसका सामीप्य प्राप्त करो और उसके मार्ग में जी-तोड़ संघर्ष करो, ताकि तुम्हें सफलता प्राप्त हो॥35॥

اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَوْ اَنَّ لَہُمْ مَّا فِي الْاَرْضِ جَمِيْعًا وَّمِثْلَہٗ مَعَہٗ لِيَفْتَدُوْا بِہٖ مِنْ عَذَابِ يَوْمِ الْقِيٰمَۃِ مَا تُقُبِّلَ مِنْہُمْ۝۰ۚ وَلَہُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ۝۳۶

जिन लोगों ने इनकार किया यदि उनके पास वह सब कुछ हो जो सारी धरती में है और उतना ही उसके साथ भी हो कि वह उसे देकर क़ियामत के दिन की यातना से बच जाएँ; तब भी उनकी ओर से यह सब दी जानेवाली वस्तुएँ स्वीकार न की जाएँगी। उनके लिए दुखद यातना ही है॥36॥

يُرِيْدُوْنَ اَنْ يَّخْرُجُوْا مِنَ النَّارِ وَمَا ہُمْ بِخٰرِجِيْنَ مِنْہَا۝۰ۡوَلَہُمْ عَذَابٌ مُّقِيْمٌ۝۳۷

वे चाहेंगे कि आग (जहन्नम) से निकल जाएँ, परन्तु वे उससे न निकल सकेंगे। उनके लिए चिरस्थायी यातना है॥37॥

وَالسَّارِقُ وَالسَّارِقَۃُ فَاقْطَعُوْٓا اَيْدِيَہُمَا جَزَاۗءًۢ بِمَا كَسَـبَا نَكَالًا مِّنَ اللہِ۝۰ۭ وَاللہُ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ۝۳۸

और चोर चाहे स्त्री हो या पुरुष दोनों के हाथ काट दो। यह उनकी कमाई का बदला है और अल्लाह की ओर से शिक्षाप्रद दण्‍ड। अल्लाह प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है॥38॥

فَمَنْ تَابَ مِنْۢ بَعْدِ ظُلْمِہٖ وَاَصْلَحَ فَاِنَّ اللہَ يَتُوْبُ عَلَيْہِ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ۝۳۹

फिर जो व्यक्ति अत्याचार करने के बाद पलट आए और अपने को सुधार ले, तो निश्चय ही वह अल्लाह की कृपा का पात्र होगा। निस्संदेह, अल्लाह बड़ा क्षमाशील, दयावान है॥39॥

اَلَمْ تَعْلَمْ اَنَّ اللہَ لَہٗ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ۝۰ۭ يُعَذِّبُ مَنْ يَّشَاۗءُ وَيَغْفِرُ لِمَنْ يَّشَاۗءُ۝۰ۭ وَاللہُ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ۝۴۰

क्या तुम नहीं जानते कि अल्लाह ही आकाशों और धरती के राज्य का अधिकारी है? वह जिसे चाहे यातना दे और जिसे चाहे क्षमा कर दे। अल्लाह को हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त है॥40॥

۞ يٰٓاَيُّھَا الرَّسُوْلُ لَا يَحْزُنْكَ الَّذِيْنَ يُسَارِعُوْنَ فِي الْكُفْرِ مِنَ الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اٰمَنَّا بِاَفْوَاہِہِمْ وَلَمْ تُؤْمِنْ قُلُوْبُہُمْ ۝۰ۚۛ وَمِنَ الَّذِيْنَ ہَادُوْا۝۰ۚۛ سَمّٰعُوْنَ لِلْكَذِبِ سَمّٰعُوْنَ لِقَوْمٍ اٰخَرِيْنَ۝۰ۙ لَمْ يَاْتُوْكَ۝۰ۭ يُحَرِّفُوْنَ الْكَلِمَ مِنْۢ بَعْدِ مَوَاضِعِہٖ۝۰ۚ يَقُوْلُوْنَ اِنْ اُوْتِيْتُمْ ہٰذَا فَخُذُوْہُ وَاِنْ لَّمْ تُؤْتَوْہُ فَاحْذَرُوْا۝۰ۭ وَمَنْ يُّرِدِ اللہُ فِتْنَتَہٗ فَلَنْ تَمْلِكَ لَہٗ مِنَ اللہِ شَـيْـــــًٔـا۝۰ۭ اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ لَمْ يُرِدِ اللہُ اَنْ يُّطَہِّرَ قُلُوْبَہُمْ۝۰ۭ لَہُمْ فِي الدُّنْيَا خِزْيٌ۝۰ۚۖ وَّلَہُمْ فِي الْاٰخِرَۃِ عَذَابٌ عَظِيْمٌ۝۴۱

ऐ रसूल! जो लोग अधर्म के मार्ग में दौड़ते है, उनके कारण तुम दुखी न होना; वे जिन्होंने अपने मुँह से कहा कि "हम ईमान ले आए," किन्तु उनके दिल ईमान नहीं लाए; और वे जो यहूदी हैं, वे झूठ के लिए कान लगाते हैं और उन दूसरे लोगों की भली-भाँति सुनते है, जो तुम्हारे पास नहीं आए, शब्दों को उनका स्थान निश्चित होने के बाद भी उनके स्थान से हटा देते है। कहते है, "यदि तुम्हें यह (आदेश) मिले, तो इसे स्वीकार करना और यदि न मिले तो बचना।" जिसे अल्लाह ही आपदा में डालना चाहे उसके लिए अल्लाह के यहाँ तुम्हारी कुछ भी नहीं चल सकती। ये वही लोग है जिनके दिलों को अल्लाह ने स्वच्छ करना नहीं चाहा। उनके लिए संसार में भी अपमान और तिरस्कार है और आख़िरत में भी बड़ी यातना है॥41॥

سَمّٰعُوْنَ لِلْكَذِبِ اَكّٰلُوْنَ لِلسُّحْتِ۝۰ۭ فَاِنْ جَاۗءُوْكَ فَاحْكُمْ بَيْنَہُمْ اَوْ اَعْرِضْ عَنْہُمْ۝۰ۚ وَاِنْ تُعْرِضْ عَنْہُمْ فَلَنْ يَّضُرُّوْكَ شَـيْـــًٔـا۝۰ۭ وَاِنْ حَكَمْتَ فَاحْكُمْ بَيْنَہُمْ بِالْقِسْطِ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ يُحِبُّ الْمُقْسِطِيْنَ۝۴۲

वे झूठ के लिए कान लगाते रहनेवाले और बड़े हराम खानेवाले है। अतः यदि वे तुम्हारे पास आएँ, तो या तुम उनके बीच फ़ैसला कर दो या उन्हें टाल जाओ। यदि तुम उन्हें टाल गए तो वे तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। परन्तु यदि फ़ैसला करो तो उनके बीच इनसाफ़ के साथ फ़ैसला करो। निश्चय ही अल्लाह इनसाफ़ करनेवालों से प्रेम करता है॥42॥

وَكَيْفَ يُحَكِّمُوْنَكَ وَعِنْدَہُمُ التَّوْرٰىۃُ فِيْہَا حُكْمُ اللہِ ثُمَّ يَتَوَلَّوْنَ مِنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ۝۰ۭ وَمَآ اُولٰۗىِٕكَ بِالْمُؤْمِنِيْنَ۝۴۳ۧ

वे तुमसे फ़ैसला कराएँगे भी कैसे, जबकि उनके पास तौरात है, जिसमें अल्लाह का हुक्म मौजूद है! फिर इसके पश्चात भी वे मुँह मोड़ते है। वे तो ईमान नहीं रखते॥43॥

اِنَّآ اَنْزَلْنَا التَّوْرٰىۃَ فِيْہَا ہُدًى وَّنُوْرٌ۝۰ۚ يَحْكُمُ بِہَا النَّبِيُّوْنَ الَّذِيْنَ اَسْلَمُوْا لِلَّذِيْنَ ہَادُوْا وَالرَّبّٰنِيُّوْنَ وَالْاَحْبَارُ بِمَا اسْتُحْفِظُوْا مِنْ كِتٰبِ اللہِ وَكَانُوْا عَلَيْہِ شُہَدَاۗءَ۝۰ۚ فَلَا تَخْشَوُا النَّاسَ وَاخْشَوْنِ وَلَا تَشْتَرُوْا بِاٰيٰـتِيْ ثَـمَنًا قَلِيْلًا۝۰ۭ وَمَنْ لَّمْ يَحْكُمْ بِمَآ اَنْزَلَ اللہُ فَاُولٰۗىِٕكَ ہُمُ الْكٰفِرُوْنَ۝۴۴

निस्संदेह हमने तौरात उतारी, जिसमें मार्गदर्शन और प्रकाश था। नबी जो आज्ञाकारी थे, उसको यहूदियों के लिए अनिवार्य ठहराते थे कि (वे उसका पालन करें) और इसी प्रकार अल्लाहवाले और शास्त्रवेत्ता भी। क्योंकि उन्हें अल्लाह की किताब की सुरक्षा का आदेश दिया गया था और वे उसके संरक्षक थे। तो तुम लोगों से न डरो, बल्कि मुझ ही से डरो और मेरी आयतों के बदले थोड़ा मूल्य प्राप्त करने का मामला न करना। जो लोग उस विधान को अनिवार्य न ठहराएँ जिसे अल्लाह ने उतारा है, तो ऐसे ही लोग विधर्मी है॥44॥

وَكَتَبْنَا عَلَيْہِمْ فِيْہَآ اَنَّ النَّفْسَ بِالنَّفْسِ۝۰ۙ وَالْعَيْنَ بِالْعَيْنِ وَالْاَنْفَ بِالْاَنْفِ وَالْاُذُنَ بِالْاُذُنِ وَالسِّنَّ بِالسِّنِّ۝۰ۙ وَالْجُرُوْحَ قِصَاصٌ۝۰ۭ فَمَنْ تَصَدَّقَ بِہٖ فَہُوَكَفَّارَۃٌ لَّہٗ۝۰ۭ وَمَنْ لَّمْ يَحْكُمْ بِمَآ اَنْزَلَ اللہُ فَاُولٰۗىِٕكَ ہُمُ الظّٰلِمُوْنَ۝۴۵

और हमने उस (तौरात) में उनके लिए लिख दिया था कि जान जान के बराबर है, आँख आँख के बराहर है, नाक नाक के बराबर है, कान कान के बराबर, दाँत दाँत के बराबर और सब आघातों के लिए इसी तरह बराबर का बदला है। तो जो कोई उसे क्षमा कर दे तो यह उसके लिए प्रायश्चित होगा और जो लोग उस विधान को अनिवार्य न ठहराएँ, जिसे अल्लाह ने उतारा है, तो ऐसे लोग अत्याचारी है॥45॥

وَقَفَّيْنَا عَلٰٓي اٰثَارِہِمْ بِعِيْسَى ابْنِ مَرْيَمَ مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْہِ مِنَ التَّوْرٰىۃِ۝۰۠ وَاٰتَيْنٰہُ الْاِنْجِيْلَ فِيْہِ ہُدًى وَّنُوْرٌ۝۰ۙ وَّمُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْہِ مِنَ التَّوْرٰىۃِ وَہُدًى وَّمَوْعِظَۃً لِّلْمُتَّقِيْنَ۝۴۶ۭ

और उनके पीछ उन्हीं के पद-चिन्हों पर हमने मरयम के बेटे ईसा को भेजा जो पहले से उसके सामने मौजूद किताब 'तौरात' की पुष्टि करनेवाला था। और हमने उसे इंजील प्रदान की, जिसमें मार्गदर्शन और प्रकाश था। और वह अपनी पूर्ववर्ती किताब तौरात की पुष्टि  करनेवाली थी, और वह डर रखनेवालों के लिए मार्गदर्शन और नसीहत थी॥46॥

وَلْيَحْكُمْ اَہْلُ الْاِنْجِيْلِ بِمَآ اَنْزَلَ اللہُ فِيْہِ۝۰ۭ وَمَنْ لَّمْ يَحْكُمْ بِمَآ اَنْزَلَ اللہُ فَاُولٰۗىِٕكَ ہُمُ الْفٰسِقُوْنَ۝۴۷

अतः इंजील वालों को चाहिए कि उस आदेश को अपने कर्म और व्यथवहार का आधार ठहराएँ, जि‍से अल्लाह ने उतारा है, तो ऐसे ही लोग उल्लंघनकारी है॥47॥

وَاَنْزَلْنَآ اِلَيْكَ الْكِتٰبَ بِالْحَقِّ مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْہِ مِنَ الْكِتٰبِ وَمُہَيْمِنًا عَلَيْہِ فَاحْكُمْ بَيْنَہُمْ بِمَآ اَنْزَلَ اللہُ وَلَا تَتَّبِعْ اَہْوَاۗءَہُمْ عَمَّا جَاۗءَكَ مِنَ الْحَقِّ۝۰ۭ لِكُلٍّ جَعَلْنَا مِنْكُمْ شِرْعَۃً وَّمِنْہَاجًا۝۰ۭ وَلَوْ شَاۗءَ اللہُ لَجَعَلَكُمْ اُمَّۃً وَّاحِدَۃً وَّلٰكِنْ لِّيَبْلُوَكُمْ فِيْ مَآ اٰتٰىكُمْ فَاسْتَبِقُوا الْخَيْرٰتِ۝۰ۭ اِلَى اللہِ مَرْجِعُكُمْ جَمِيْعًا فَيُنَبِّئُكُمْ بِمَا كُنْتُمْ فِيْہِ تَخْتَلِفُوْنَ۝۴۸ۙ

और हमने तुम्हारी ओर यह किताब हक़ के साथ उतारी है, जो उस किताब की पुष्टि करती है जो उसके पहले से मौजूद है और उसकी संरक्षक है। अतः लोगों के बीच तुम मामलों में व उसी के मुताबिक फ़ैसला करना जिसे  अल्लाह ने उतारा है और जो सत्य तुम्हारे पास आ चुका है उसे छोड़कर उनकी इच्छाओं का पालन न करना। हमने तुममें से प्रत्येक के लिए एक ही घाट (शरीअत) और एक ही मार्ग निश्चित किया है। यदि अल्लाह चाहता तो तुम सबको एक समुदाय बना देता। परन्तु जो कुछ उसने तुम्हें दिया है, उसमें वह तुम्हारी परीक्षा करना चाहता है। अतः भलाई के कामों में एक-दूसरे से आगे बढ़ो। तुम सबको अल्लाह ही की ओर लौटना है। फिर वह तुम्हें बता देगा, जिसमें तुम विभेद करते रहे हो॥48॥

وَاَنِ احْكُمْ بَيْنَہُمْ بِمَآ اَنْزَلَ اللہُ وَلَا تَتَّبِعْ اَہْوَاۗءَہُمْ وَاحْذَرْہُمْ اَنْ يَّفْتِنُوْكَ عَنْۢ بَعْضِ مَآ اَنْزَلَ اللہُ اِلَيْكَ۝۰ۭ فَاِنْ تَوَلَّوْا فَاعْلَمْ اَنَّمَا يُرِيْدُ اللہُ اَنْ يُّصِيْبَہُمْ بِبَعْضِ ذُنُوْبِہِمْ۝۰ۭ وَاِنَّ كَثِيْرًا مِّنَ النَّاسِ لَفٰسِقُوْنَ۝۴۹

और यह कि तुम उनके बीच वही फ़ैसला करो जो अल्लाह ने उतारा है और उनकी इच्छाओं का पालन न करो और उनसे बचते रहो कि कहीं ऐसा न हो कि वे तुम्हें फ़रेब में डालकर जो कुछ अल्लाह ने तुम्हारी ओर उतारा है उसके किसी भाग से वे तुम्हें हटा दें। फिर यदि वे मुँह मोड़े तो जान लो कि अल्लाह ही उनके गुनाहों के कारण उन्हें संकट में डालना चाहता है। निश्चेय ही अधिकांश लोग उल्लंघनकारी है॥49॥

اَفَحُكْمَ الْجَاہِلِيَّۃِ يَبْغُوْنَ۝۰ۭ وَمَنْ اَحْسَنُ مِنَ اللہِ حُكْمًا لِّقَوْمٍ يُّوْقِنُوْنَ۝۵۰ۧ

अब क्या वे अज्ञान का फ़ैसला चाहते है? तो विश्वा्स करनेवाले लोगों के लिए अल्लाह से अच्छा फ़ैसला करनेवाला कौन हो सकता है?॥50॥

۞ يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَتَّخِذُوا الْيَھُوْدَ وَالنَّصٰرٰٓى اَوْلِيَاۗءَ۝۰ۘؔ بَعْضُہُمْ اَوْلِيَاۗءُ بَعْضٍ۝۰ۭ وَمَنْ يَّتَوَلَّہُمْ مِّنْكُمْ فَاِنَّہٗ مِنْہُمْ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ لَا يَہْدِي الْقَوْمَ الظّٰلِــمِيْنَ۝۵۱

ऐ ईमान लानेवालो! तुम यहूदियों और ईसाइयों को अपना मित्र (राज़दार) न बनाओ। वे (तुम्हारे विरुद्ध) परस्पर एक-दूसरे के मित्र है। तुममें से जो कोई उनको अपना मित्र बनाएगा, वह उन्हीं लोगों में से होगा। निस्संदेह अल्लाह अत्याचारियों को मार्ग नहीं दिखाता॥51॥

فَتَرَى الَّذِيْنَ فِيْ قُلُوْبِہِمْ مَّرَضٌ يُّسَارِعُوْنَ فِيْہِمْ يَقُوْلُوْنَ نَخْشٰٓى اَنْ تُصِيْبَنَا دَاۗىِٕرَۃٌ۝۰ۭ فَعَسَى اللہُ اَنْ يَّاْتِيَ بِالْفَتْحِ اَوْ اَمْرٍ مِّنْ عِنْدِہٖ فَيُصْبِحُوْا عَلٰي مَآ اَسَرُّوْا فِيْٓ اَنْفُسِہِمْ نٰدِمِيْنَ۝۵۲ۭ

तो तुम देखते हो कि जिन लोगों के दिलों में रोग है, वे उनके यहाँ जाकर उनके बीच दौड़-धूप कर रहे है। वे कहते है, "हमें भय है कि कहीं हम किसी संकट में न ग्रस्त हो जाएँ।" तो सम्भव है कि जल्द ही अल्लाह (तुम्हे) विजय प्रदान करे या उसकी ओर से कोई और बात प्रकट हो। फिर तो ये लोग जो कुछ अपने दिल में छिपाए हुए है, उसपर लज्जित होंगे॥52॥

وَيَقُوْلُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَہٰٓؤُلَاۗءِ الَّذِيْنَ اَقْسَمُوْا بِاللہِ جَہْدَ اَيْمَانِہِمْ۝۰ۙ اِنَّہُمْ لَمَعَكُمْ۝۰ۭ حَبِطَتْ اَعْمَالُہُمْ فَاَصْبَحُوْا خٰسِرِيْنَ۝۵۳

उस समय ईमानवाले कहेंगे, "क्या ये वही लोग है जो अल्लाह की कड़ी-कड़ी क़समें खाकर विश्वाचस दिलाते थे कि हम तुम्हारे साथ है?" इनका किया-धरा सब इनके लिये बवाल सिद्ध हुआ गया और ये घाटे में पड़कर रहे॥53॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مَنْ يَّرْتَدَّ مِنْكُمْ عَنْ دِيْنِہٖ فَسَوْفَ يَاْتِي اللہُ بِقَوْمٍ يُحِبُّہُمْ وَيُحِبُّوْنَہٗٓ۝۰ۙ اَذِلَّۃٍ عَلَي الْمُؤْمِنِيْنَ اَعِزَّۃٍ عَلَي الْكٰفِرِيْنَ۝۰ۡيُجَاہِدُوْنَ فِيْ سَبِيْلِ اللہِ وَلَا يَخَافُوْنَ لَوْمَۃَ لَاۗىِٕمٍ۝۰ۭ ذٰلِكَ فَضْلُ اللہِ يُؤْتِيْہِ مَنْ يَّشَاۗءُ۝۰ۭ وَاللہُ وَاسِعٌ عَلِيْمٌ۝۵۴

ऐ ईमान लानेवालो! तुममें से जो कोई अपने धर्म से फिरेगा तो अल्लाह जल्द ही ऐसे लोगों को लाएगा जिनसे उसे प्रेम होगा और जो उससे प्रेम करेंगे। वे ईमानवालों के प्रति विनर्म और अविश्वाेसियों के प्रति कठोर होंगे। अल्लाह की राह में जी-तोड़ कोशिश करेंगे और किसी भर्त्सना करनेवाले की भर्त्सना से न डरेंगे। यह अल्लाह का उदार अनुग्रह है, जिसे चाहता है प्रदान करता है। अल्लाह बड़ी समाईवाला, सर्वज्ञ है॥54॥

اِنَّمَا وَلِيُّكُمُ اللہُ وَرَسُوْلُہٗ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوا الَّذِيْنَ يُقِيْمُوْنَ الصَّلٰوۃَ وَيُؤْتُوْنَ الزَّكٰوۃَ وَہُمْ رٰكِعُوْنَ۝۵۵

तुम्हारे मित्र को केवल अल्लाह और उसके रसूल और वे ईमानवाले है; जो विनम्रता के साथ नमाज़ क़ायम करते है और ज़कात देते है॥55॥

وَمَنْ يَّتَوَلَّ اللہَ وَرَسُوْلَہٗ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا فَاِنَّ حِزْبَ اللہِ ہُمُ الْغٰلِبُوْنَ۝۵۶ۧ

अब जो कोई अल्लाह और उसके रसूल और ईमानवालों को अपना मित्र बनाए, तो निश्चय ही अल्लाह का गिरोह प्रभावी होकर रहेगा॥56॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَتَّخِذُوا الَّذِيْنَ اتَّخَذُوْا دِيْنَكُمْ ہُزُوًا وَّلَعِبًا مِّنَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ مِنْ قَبْلِكُمْ وَالْكُفَّارَ اَوْلِيَاۗءَ۝۰ۚ وَاتَّقُوا اللہَ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ۝۵۷

ऐ ईमान लानेवालो! तुमसे पहले जिनको किताब दी गई थी, जिन्होंने तुम्हारे धर्म को हँसी-खेल बना लिया है, उन्हें और इनकार करनेवालों को अपना मित्र न बनाओ। और अल्लाह का डर रखों यदि तुम ईमानवाले हो॥57॥

وَاِذَا نَادَيْتُمْ اِلَى الصَّلٰوۃِ اتَّخَذُوْہَا ہُزُوًا وَّلَعِبًا۝۰ۭ ذٰلِكَ بِاَنَّہُمْ قَوْمٌ لَّا يَعْقِلُوْنَ۝۵۸

जब तुम नमाज़ के लिए पुकारते हो तो वे उसे हँसी और खेल बना लेते है। इसका कारण यह है कि वे बुद्धिहीन लोग है॥58॥

قُلْ يٰٓاَہْلَ الْكِتٰبِ ہَلْ تَنْقِمُوْنَ مِنَّآ اِلَّآ اَنْ اٰمَنَّا بِاللہِ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْنَا وَمَآ اُنْزِلَ مِنْ قَبْلُ۝۰ۙ وَاَنَّ اَكْثَرَكُمْ فٰسِقُوْنَ۝۵۹

कहो, "ऐ किताबवालों! क्या इसके सिवा हमारी कोई और बात तुम्हें बुरी लगती है कि हम अल्लाह और उस चीज़ पर ईमान लाए, जो हमारी ओर उतारी गई, और जो पहले उतारी जा चुकी है? और यह कि तुममें से अधिकांश लोग अवज्ञाकारी है।"॥59॥

قُلْ ہَلْ اُنَبِّئُكُمْ بِشَرٍّ مِّنْ ذٰلِكَ مَثُوْبَۃً عِنْدَ اللہِ۝۰ۭ مَنْ لَّعَنَہُ اللہُ وَغَضِبَ عَلَيْہِ وَجَعَلَ مِنْہُمُ الْقِرَدَۃَ وَالْخَـنَازِيْرَ وَعَبَدَ الطَّاغُوْتَ۝۰ۭ اُولٰۗىِٕكَ شَرٌّ مَّكَانًا وَّاَضَلُّ عَنْ سَوَاۗءِ السَّبِيْلِ۝۶۰

कहो, "क्या मैं तुम्हें बताऊँ कि अल्लाह के यहाँ परिणाम की दृष्टि से इससे भी बुरी नीति क्या है? कौन गिरोह है जिसपर अल्लाह की फिटकार पड़ी और जिसपर अल्लाह का प्रकोप हुआ और जिसमें से उसने बन्दर और सूअर बनाए और जिसने बढ़े हुए फ़सादी (ताग़ूत) की बन्दगी की, वे लोग (तुमसे भी) कमतर दर्जे के थे। और वे सीधे मार्ग से भटके हुए थे।"॥60॥

وَاِذَا جَاۗءُوْكُمْ قَالُوْٓا اٰمَنَّا وَقَدْ دَّخَلُوْا بِالْكُفْرِ وَہُمْ قَدْ خَرَجُوْا بِہٖ۝۰ۭ وَاللہُ اَعْلَمُ بِمَا كَانُوْا يَكْتُمُوْنَ۝۶۱

जब वे (यहूदी) तुम लोगों के पास आते है तो कहते है, "हम ईमान ले आए।" हालाँकि वे इनकार के साथ आए थे और उसी के साथ चले गए। अल्लाह भली-भाँति जानता है जो कुछ वे छिपाते है॥61॥

وَتَرٰى كَثِيْرًا مِّنْہُمْ يُسَارِعُوْنَ فِي الْاِثْمِ وَالْعُدْوَانِ وَاَكْلِہِمُ السُّحْتَ۝۰ۭ لَبِئْسَ مَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ۝۶۲

तुम देखते हो कि उनमें से बहुतेरे लोग हक़ मारने, ज़्यादती करने और हरामख़ोरी में बड़ी तेज़ी दिखाते है। निश्चेय ही बहुत ही बुरा है, जो वे कर रहे है॥62॥

لَوْلَا يَنْھٰىہُمُ الرَّبّٰنِيُّوْنَ وَالْاَحْبَارُ عَنْ قَوْلِہِمُ الْاِثْمَ وَاَكْلِہِمُ السُّحْتَ۝۰ۭ لَبِئْسَ مَا كَانُوْا يَصْنَعُوْنَ۝۶۳

उनके सन्त और धर्मज्ञाता उन्हें गुनाह की बात बकने और हराम खाने से क्यों नहीं रोकते? निश्चाय ही बहुत बुरा है जो काम वे कर रहे है॥63॥

وَقَالَتِ الْيَھُوْدُ يَدُ اللہِ مَغْلُوْلَۃٌ۝۰ۭ غُلَّتْ اَيْدِيْہِمْ وَلُعِنُوْا بِمَا قَالُوْا۝۰ۘ بَلْ يَدٰہُ مَبْسُوْطَتٰنِ۝۰ۙ يُنْفِقُ كَيْفَ يَشَاۗءُ۝۰ۭ وَلَيَزِيْدَنَّ كَثِيْرًا مِّنْہُمْ مَّآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ مِنْ رَّبِّكَ طُغْيَانًا وَّكُفْرًا۝۰ۭ وَاَلْقَيْنَا بَيْنَہُمُ الْعَدَاوَۃَ وَالْبَغْضَاۗءَ اِلٰي يَوْمِ الْقِيٰمَۃِ۝۰ۭ كُلَّمَآ اَوْقَدُوْا نَارًا لِّـلْحَرْبِ اَطْفَاَہَا اللہُ۝۰ۙ وَيَسْعَوْنَ فِي الْاَرْضِ فَسَادًا۝۰ۭ وَاللہُ لَا يُحِبُّ الْمُفْسِدِيْنَ۝۶۴

और यहूदी कहते है, "अल्लाह का हाथ बँध गया है।"¹ उन्हीं के हाथ-बँधे है, और फिटकार है उनपर, उस बकवास के कारण जो वे करते है, बल्कि उसके दोनो हाथ तो खुले हुए है। वह जिस तरह चाहता है, ख़र्च करता है। जो कुछ तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारी ओर उतारा गया है, उससे अवश्य ही उनके अधिकतर लोगों की सरकशी और इनकार ही में अभिवृद्धि होगी। और हमने उनके बीच क़ियामत तक के लिए शत्रुता और द्वेष डाल दिया है। वे जब भी युद्ध की आग भड़काते है, अल्लाह उसे बुझा देता है। वे धरती में बिगाड़ फैलाने के लिए प्रयास कर रहे है, हालाँकि अल्लाह बिगाड़ फैलानेवालों को पसन्द नहीं करता॥64॥

وَلَوْ اَنَّ اَہْلَ الْكِتٰبِ اٰمَنُوْا وَاتَّقَوْا لَكَفَّرْنَا عَنْہُمْ سَـيِّاٰتِہِمْ وَلَاَدْخَلْنٰہُمْ جَنّٰتِ النَّعِيْمِ۝۶۵

और यदि किताबवाले ईमान लाते और (अल्लाह का) डर रखते तो हम उनकी बुराइयाँ उनसे दूर कर देते और उन्हें नेमत भरी जन्नतों में दाख़िल कर देते॥65॥

وَلَوْ اَنَّہُمْ اَقَامُوا التَّوْرٰىۃَ وَالْاِنْجِيْلَ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْہِمْ مِّنْ رَّبِّہِمْ لَاَكَلُوْا مِنْ فَوْقِہِمْ وَمِنْ تَحْتِ اَرْجُلِہِمْ۝۰ۭ مِنْہُمْ اُمَّۃٌ مُّقْتَصِدَۃٌ۝۰ۭ وَكَثِيْرٌ مِّنْہُمْ سَاۗءَ مَا يَعْمَلُوْنَ۝۶۶ۧ

और यदि वे तौरात और इंजील को और जो कुछ उनके रब की ओर से उनकी ओर उतारा गया है, उसे क़ायम रखते, तो उन्हें अपने ऊपर से भी खाने को मिलता और अपने पाँव के नीचे से भी। उनमें से एक गिरोह सीधे मार्ग पर चलनेवाला भी है, किन्तु उनमें से अधिकतर ऐसे है कि जो भी करते है बुरा होता है॥66॥

۞ يٰٓاَيُّھَا الرَّسُوْلُ بَلِّــغْ مَآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ مِنْ رَّبِّكَ۝۰ۭ وَاِنْ لَّمْ تَفْعَلْ فَمَا بَلَّغْتَ رِسَالَتَہٗ۝۰ۭ وَاللہُ يَعْصِمُكَ مِنَ النَّاسِ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ لَا يَہْدِي الْقَوْمَ الْكٰفِرِيْنَ۝۶۷

ऐ रसूल! तुम्हारे रब की ओर से तुम पर जो कुछ उतारा गया है, उसे पहुँचा दो। यदि ऐसा न किया तो तुमने उसका सन्देश नहीं पहुँचाया। अल्लाह तुम्हें लोगों (की बुराइयों) से बचाएगा। निश्च य ही अल्लाह इनकार करनेवाले लोगों को मार्ग नहीं दिखाता॥67॥

قُلْ يٰٓاَہْلَ الْكِتٰبِ لَسْتُمْ عَلٰي شَيْءٍ حَتّٰي تُقِيْمُوا التَّوْرٰىۃَ وَالْاِنْجِيْلَ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكُمْ مِّنْ رَّبِّكُمْ۝۰ۭ وَلَيَزِيْدَنَّ كَثِيْرًا مِّنْہُمْ مَّآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ مِنْ رَّبِّكَ طُغْيَانًا وَّكُفْرًا۝۰ۚ فَلَا تَاْسَ عَلَي الْقَوْمِ الْكٰفِرِيْنَ۝۶۸

कह दो, "ऐ किताबवालो! तुम किसी भी चीज़ पर नहीं हो, जब तक कि तौरात और इंजील को और जो कुछ तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारी ओर अवतरित हुआ है, उसे क़ायम न रखो।" किन्तु (ऐ नबी!) तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारी ओर जो कुछ अवतरित हुआ है, वह अवश्य ही उनमें से बहुतों की सरकशी और इनकार में अभिवृद्धि करनेवाला है। अतः तुम इनकार करनेवाले लोगों की दशा पर दुखी न होना॥68॥

اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَالَّذِيْنَ ہَادُوْا وَالصّٰبِـُٔــوْنَ وَالنَّصٰرٰى مَنْ اٰمَنَ بِاللہِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَعَمِلَ صَالِحًا فَلَا خَوْفٌ عَلَيْہِمْ وَلَا ہُمْ يَحْزَنُوْنَ۝۶۹

निस्संदेह वे लोग जो ईमान लाए है और जो यहूदी हुए है और साबी और ईसाई, उनमें से जो कोई भी अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान लाए और अच्छा कर्म करे तो ऐसे लोगों को न तो कोई डर होगा और न वे शोकाकुल होंगे॥69॥

لَقَدْ اَخَذْنَا مِيْثَاقَ بَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ وَاَرْسَلْنَآ اِلَيْہِمْ رُسُلًا۝۰ۭ كُلَّمَا جَاۗءَہُمْ رَسُوْلٌۢ بِمَا لَا تَہْوٰٓى اَنْفُسُہُمْ۝۰ۙ فَرِيْقًا كَذَّبُوْا وَفَرِيْقًا يَّقْتُلُوْنَ۝۷۰ۤ

हमने इसराईल की सन्तान से दृढ़ वचन लिया और उनकी ओर रसूल भेजे। उनके पास जब भी कोई रसूल वह कुछ लेकर आया जो उन्हें पसन्द न था, तो कितनों को तो उन्होंने झुठलाया और कितनों की हत्या के दरपे हो गए॥70॥

وَحَسِبُوْٓا اَلَّا تَكُوْنَ فِتْنَۃٌ فَعَمُوْا وَصَمُّوْا ثُمَّ تَابَ اللہُ عَلَيْہِمْ ثُمَّ عَمُوْا وَصَمُّوْا كَثِيْرٌ مِّنْہُمْ۝۰ۭ وَاللہُ بَصِيْرٌۢ بِمَا يَعْمَلُوْنَ۝۷۱

और उन्होंने समझा कि कोई आपदा न आएगी; इसलिए वे अंधे और बहरे बन गए। फिर अल्लाह ने उनपर दयादृष्टि की, फिर भी उनमें से बहुत-से अंधे और बहरे हो गए। अल्लाह देख रहा है, जो कुछ वे करते है॥71॥

لَقَدْ كَفَرَ الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّ اللہَ ہُوَالْمَسِيْحُ ابْنُ مَرْيَمَ۝۰ۭ وَقَالَ الْمَسِيْحُ يٰبَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ اعْبُدُوا اللہَ رَبِّيْ وَرَبَّكُمْ۝۰ۭ اِنَّہٗ مَنْ يُّشْرِكْ بِاللہِ فَقَدْ حَرَّمَ اللہُ عَلَيْہِ الْجَنَّۃَ وَمَاْوٰىہُ النَّارُ۝۰ۭ وَمَا لِلظّٰلِــمِيْنَ مِنْ اَنْصَارٍ۝۷۲

निश्चषय ही उन्होंने (सत्य का) इनकार किया, जिन्होंने कहा, "अल्लाह मरयम का बेटा मसीह ही है।" जब मसीह ने कहा था, "ऐ इसराईल की सन्तान! अल्लाह की बन्दगी करो, जो मेरा भी रब है और तुम्हारा भी रब है। जो कोई अल्लाह का साझी ठहराएगा, उसपर तो अल्लाह ने जन्नत हराम कर दी है और उसका ठिकाना आग है। अत्याचारियों को कोई सहायक नहीं।"॥72॥

لَقَدْ كَفَرَ الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّ اللہَ ثَالِثُ ثَلٰــثَۃٍ۝۰ۘ وَمَا مِنْ اِلٰہٍ اِلَّآ اِلٰہٌ وَّاحِدٌ۝۰ۭ وَاِنْ لَّمْ يَنْتَھُوْا عَمَّا يَقُوْلُوْنَ لَيَمَسَّنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْہُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ۝۷۳

निश्चचय ही उन्होंने इनकार किया, जिन्होंने कहा, "अल्लाह तीन में का एक है।" हालाँकि अकेले पूज्य के अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं। जो कुछ वे कहते है यदि इससे बाज़ न आएँ तो उनमें से जिन्होंने इनकार किया है, उन्हें दुखद यातना पहुँचकर रहेगी॥73॥

اَفَلَا يَتُوْبُوْنَ اِلَى اللہِ وَيَسْتَغْفِرُوْنَہٗ۝۰ۭ وَاللہُ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ۝۷۴

फिर क्या वे लोग अल्लाह की ओर नहीं पलटेंगे और उससे क्षमा याचना नहीं करेंगे, जबकि अल्लाह बड़ा क्षमाशील, दयावान है॥74॥

مَا الْمَسِيْحُ ابْنُ مَرْيَمَ اِلَّا رَسُوْلٌ۝۰ۚ قَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلِہِ الرُّسُلُ۝۰ۭ وَاُمُّہٗ صِدِّيْقَۃٌ۝۰ۭ كَانَا يَاْكُلٰنِ الطَّعَامَ۝۰ۭ اُنْظُرْ كَيْفَ نُـبَيِّنُ لَہُمُ الْاٰيٰتِ ثُمَّ انْظُرْ اَنّٰى يُؤْفَكُوْنَ۝۷۵

मरयम का बेटा मसीह एक रसूल के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। उससे पहले भी बहुत-से रसूल गुज़र चुके हैं। उसकी माण अत्यन्त सत्यवती थी। दोनों ही भोजन करते थे। देखो, हम किस प्रकार उनके सामने निशानियाँ स्पष्ट करते है; फिर देखो, ये किस प्रकार उलटे फिरे जा रहे है!॥75॥

قُلْ اَتَعْبُدُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللہِ مَا لَا يَمْلِكُ لَكُمْ ضَرًّا وَّلَا نَفْعًا۝۰ۭ وَاللہُ ہُوَالسَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ۝۷۶

कह दो, "क्या तुम अल्लाह से हटकर उसकी बन्दगी करते हो जो न तुम्हारी हानि का अधिकारी है, न लाभ का? हालाँकि सुननेवाला, जाननेवाला अल्लाह ही है।"॥76॥

قُلْ يٰٓاَہْلَ الْكِتٰبِ لَا تَغْلُوْا فِيْ دِيْنِكُمْ غَيْرَ الْحَقِّ وَلَا تَتَّبِعُوْٓا اَہْوَاۗءَ قَوْمٍ قَدْ ضَلُّوْا مِنْ قَبْلُ وَاَضَلُّوْا كَثِيْرًا وَّضَلُّوْا عَنْ سَوَاۗءِ السَّبِيْلِ۝۷۷ۧ

कह दो, "ऐ किताबवालो! अपने धर्म में नाहक़ हद से आगे न बढ़ो और उन लोगों की इच्छाओं का पालन न करो, जो इससे पहले स्वयं पथभ्रष्ट हुए और बहुतो को पथभ्रष्ट किया और सीधे मार्ग से भटक गए॥77॥

لُعِنَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْۢ بَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ عَلٰي لِسَانِ دَاوٗدَ وَعِيْسَى ابْنِ مَرْيَمَ۝۰ۭ ذٰلِكَ بِمَا عَصَوْا وَّكَانُوْا يَعْتَدُوْنَ۝۷۸

इसराईल की सन्तान में से जिन लोगों ने इनकार किया, उनपर दाऊद और मरयम के बेटे ईसा की ज़बान से फिटकार पड़ी, क्योंकि उन्होंने अवज्ञा की और वे हद से आगे बढ़े जा रहे थे॥78॥

كَانُوْا لَا يَتَنَاہَوْنَ عَنْ مُّنْكَرٍ فَعَلُوْہُ۝۰ۭ لَبِئْسَ مَا كَانُوْا يَفْعَلُوْنَ۝۷۹

जो बुरा काम वे करते थे, उससे वे एक-दूसरे को रोकते न थे। निश्चरय ही बहुत ही बुरा था, जो वे कर रहे थे॥79॥

تَرٰى كَثِيْرًا مِّنْہُمْ يَتَوَلَّوْنَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا۝۰ۭ لَبِئْسَ مَا قَدَّمَتْ لَہُمْ اَنْفُسُہُمْ اَنْ سَخِـــطَ اللہُ عَلَيْہِمْ وَفِي الْعَذَابِ ہُمْ خٰلِدُوْنَ۝۸۰

तुम उनमें से बहुतेरे लोगों को देखते हो जो इनकार करनेवालो से मित्रता रखते है। निश्चाय ही बहुत बुरा है जो उन्होंने अपने आगे रखा है। अल्लाह का उनपर प्रकोप हुआ और यातना में वे सदैव ग्रस्त रहेंगे॥80॥

وَلَوْ كَانُوْا يُؤْمِنُوْنَ بِاللہِ وَالنَّبِيِّ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْہِ مَا اتَّخَذُوْہُمْ اَوْلِيَاۗءَ وَلٰكِنَّ كَثِيْرًا مِّنْہُمْ فٰسِقُوْنَ۝۸۱

और यदि वे अल्लाह और नबी पर और उस चीज़ पर ईमान लाते, जो उसकी ओर अवतरित हुई, तो वे उनको मित्र न बनाते। किन्तु उनमें अधिकतर अवज्ञाकारी है॥81॥

(7) ۞ لَتَجِدَنَّ اَشَدَّ النَّاسِ عَدَاوَۃً لِّلَّذِيْنَ اٰمَنُوا الْيَھُوْدَ وَالَّذِيْنَ اَشْرَكُوْا۝۰ۚ وَلَتَجِدَنَّ اَقْرَبَہُمْ مَّوَدَّۃً لِّلَّذِيْنَ اٰمَنُوا الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّا نَصٰرٰى۝۰ۭ ذٰلِكَ بِاَنَّ مِنْہُمْ قِسِّيْسِيْنَ وَرُہْبَانًا وَّاَنَّہُمْ لَا يَسْتَكْبِرُوْنَ۝۸۲

तुम ईमानवालों का शत्रु सब लोगों से बढ़कर यहूदियों और बहुदेववादियों को पाओगे। और ईमान लानेवालो के लिए मित्रता में सबसे निकट उन लोगों को पाओगे, जिन्होंने कहा कि 'हम नसारा हैं।' यह इस कारण है कि उनमें बहुत-से धर्मज्ञाता और संसार-त्यागी सन्त पाए जाते हैं। और इस कारण कि वे अहंकार नहीं करते॥82॥

وَاِذَاسَمِعُوْا مَآ اُنْزِلَ اِلَى الرَّسُوْلِ تَرٰٓي اَعْيُنَہُمْ تَفِيْضُ مِنَ الدَّمْعِ مِمَّا عَرَفُوْا مِنَ الْحَـقِّ۝۰ۚ يَقُوْلُوْنَ رَبَّنَآ اٰمَنَّا فَاكْتُبْنَا مَعَ الشّٰہِدِيْنَ۝۸۳

जब वे उसे सुनते है जो रसूल पर अवतरित हुआ तो तुम देखते हो कि उनकी आँखे आँसुओ से छलकने लगती है। इसका कारण यह है कि उन्होंने सत्य को पहचान लिया। वे कहते हैं, "हमारे रब! हम ईमान ले आए। अतएव तू हमारा नाम गवाही देनेवालों में लिख ले॥83॥

وَمَا لَنَا لَا نُؤْمِنُ بِاللہِ وَمَا جَاۗءَنَا مِنَ الْحَقِّ۝۰ۙ وَنَطْمَعُ اَنْ يُّدْخِلَنَا رَبُّنَا مَعَ الْقَوْمِ الصّٰلِحِيْنَ۝۸۴

"और हम अल्लाह पर और जो सत्य हमारे पास पहुँचा है उसपर ईमान क्यों न लाएँ, जबकि हमें आशा है कि हमारा रब हमें अच्छे लोगों के साथ (जन्नत में) प्रविष्ट, करेगा।"॥84॥

فَاَثَابَہُمُ اللہُ بِمَا قَالُوْا جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِہَا الْاَنْھٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْہَا۝۰ۭ وَذٰلِكَ جَزَاۗءُ الْمُحْسِـنِيْنَ۝۸۵

फिर अल्लाह ने उनके इस कथन के कारण उन्हें ऐसे बाग़ प्रदान किए, जिनके नीचे नहरें बहती है, जिनमें वे सदैव रहेंगे। और यही सत्कर्मी लोगो का बदला है॥85॥

وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَكَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَآ اُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ الْجَــحِيْمِ۝۸۶ۧ

रहे वे लोग जिन्होंने इनकार किया और हमारी आयतों को झुठलाया, वे भड़कती आग (में पड़ने) वाले है॥86॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تُحَرِّمُوْا طَيِّبٰتِ مَآ اَحَلَّ اللہُ لَكُمْ وَلَا تَعْتَدُوْا۝۰ۭ اِنَّ اللہَ لَا يُحِبُّ الْمُعْتَدِيْنَ۝۸۷

ऐ ईमान लानेवालो! जो अच्छी पाक चीज़े अल्लाह ने तुम्हारे लिए हलाल की है, उन्हें हराम न कर लो और हद से आगे न बढ़ो। निश्चचय ही अल्लाह को वे लोग प्रिय नहीं है, जो हद से आगे बढ़ते है॥87॥

وَكُلُوْا مِمَّا رَزَقَكُمُ اللہُ حَلٰلًا طَيِّبًا۝۰۠ وَّاتَّقُوا اللہَ الَّذِيْٓ اَنْتُمْ بِہٖ مُؤْمِنُوْنَ۝۸۸

जो कुछ अल्लाह ने हलाल और पाक रोज़ी तुम्हें ही है, उसे खाओ और अल्लाह का डर रखो, जिसपर तुम ईमान लाए हो॥88॥

لَا يُؤَاخِذُكُمُ اللہُ بِاللَّغْوِ فِيْٓ اَيْمَانِكُمْ وَلٰكِنْ يُّؤَاخِذُكُمْ بِمَا عَقَّدْتُّمُ الْاَيْمَانَ۝۰ۚ فَكَفَّارَتُہٗٓ اِطْعَامُ عَشَرَۃِ مَسٰكِيْنَ مِنْ اَوْسَطِ مَا تُطْعِمُوْنَ اَہْلِيْكُمْ اَوْ كِسْوَتُہُمْ اَوْ تَحْرِيْرُ رَقَبَۃٍ۝۰ۭ فَمَنْ لَّمْ يَجِدْ فَصِيَامُ ثَلٰــثَۃِ اَيَّامٍ۝۰ۭ ذٰلِكَ كَفَّارَۃُ اَيْمَانِكُمْ اِذَا حَلَفْتُمْ۝۰ۭ وَاحْفَظُوْٓا اَيْمَانَكُمْ۝۰ۭ كَذٰلِكَ يُبَيِّنُ اللہُ لَكُمْ اٰيٰتِہٖ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ۝۸۹

तुम्हारी उन क़समों पर अल्लाह तुम्हें नहीं पकड़ता जो यूँ ही असावधानी से ज़बान से निकल जाती है। परन्तु जो तुमने पक्की क़समें खाई हों, उनपर वह तुम्हें पकड़ेगा। तो इसका प्रायश्चित दस मुहताजों को औसत दर्जें का खाना खिला देना है, जो तुम अपने बाल-बच्चों को खिलाते हो या फिर उन्हें कपड़े पहनाना या एक ग़ुलाम आज़ाद करना होगा। और जिसे इसकी सामर्थ्य न हो, तो उसे तीन दिन के रोज़े रखने होंगे। यह तुम्हारी क़समों का प्रायश्चित है, जबकि तुम क़सम खा बैठो। तुम अपनी क़समों की हिफ़ाजत किया करो। इस प्रकार अल्लाह अपनी आयतें तुम्हारे सामने खोल-खोलकर बयान करता है, ताकि तुम कृतज्ञता दिखलाओ॥89॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِنَّمَا الْخَمْرُ وَالْمَيْسِرُ وَالْاَنْصَابُ وَالْاَزْلَامُ رِجْسٌ مِّنْ عَمَلِ الشَّيْطٰنِ فَاجْتَنِبُوْہُ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ۝۹۰

ऐ ईमान लानेवालो! ये शराब और जुआ और देवस्थान और पाँसे तो गन्दे शैतानी काम है। अतः तुम इनसे अलग रहो, ताकि तुम सफल हो॥90॥

اِنَّمَا يُرِيْدُ الشَّيْطٰنُ اَنْ يُّوْقِعَ بَيْنَكُمُ الْعَدَاوَۃَ وَالْبَغْضَاۗءَ فِي الْخَمْرِ وَالْمَيْسِرِ وَيَصُدَّكُمْ عَنْ ذِكْرِ اللہِ وَعَنِ الصَّلٰوۃِ۝۰ۚ فَہَلْ اَنْتُمْ مُّنْتَہُوْنَ۝۹۱

शैतान तो बस यही चाहता है कि शराब और जुए के द्वारा तुम्हारे बीच शत्रुता और द्वेष पैदा कर दे और तुम्हें अल्लाह की याद से और नमाज़ से रोक दे, तो क्या तुम बाज़ न आओगे?॥91॥

وَاَطِيْعُوا اللہَ وَاَطِيْعُوا الرَّسُوْلَ وَاحْذَرُوْا۝۰ۚ فَاِنْ تَوَلَّيْتُمْ فَاعْلَمُوْٓا اَنَّمَا عَلٰي رَسُوْلِنَا الْبَلٰغُ الْمُبِيْنُ۝۹۲

अल्लाह की आज्ञा का पालन करो और रसूल की आज्ञा का पालन करो और बचते रहो, किन्तु यदि तुमने मुँह मोड़ा तो जान लो कि हमारे रसूल पर केवल स्पष्ट रूप से (संदेश) पहुँचा देने की ज़िम्मेदारी है॥92॥

لَيْسَ عَلَي الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ جُنَاحٌ فِيْمَا طَعِمُوْٓا اِذَا مَا اتَّقَوْا وَّاٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ ثُمَّ اتَّقَوْا وَّاٰمَنُوْا ثُمَّ اتَّقَوْا وَّاَحْسَنُوْا۝۰ۭ وَاللہُ يُحِبُّ الْمُحْسِـنِيْنَ۝۹۳ۧ

जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए, वे पहले जो कुछ खा-पी चुके उसके लिए उनपर कोई गुनाह नहीं; जबकि वे डर रखें और ईमान पर क़ायम रहें और अच्छे कर्म करें। फिर डर रखें और ईमान लाए, फिर डर रखे और अच्छे से अच्छा कर्म करें। अल्लाह सत्कर्मियों से प्रेम करता है॥93॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَيَبْلُوَنَّكُمُ اللہُ بِشَيْءٍ مِّنَ الصَّيْدِ تَـنَالُہٗٓ اَيْدِيْكُمْ وَرِمَاحُكُمْ لِيَعْلَمَ اللہُ مَنْ يَّخَافُہٗ بِالْغَيْبِ۝۰ۚ فَمَنِ اعْتَدٰي بَعْدَ ذٰلِكَ فَلَہٗ عَذَابٌ اَلِيْمٌ۝۹۴

ऐ ईमान लानेवालो! अल्लाह उस शिकार के द्वारा तुम्हारी अवश्य परीक्षा लेगा जिस तक तुम्हारे हाथ और नेज़े पहुँच सकें, ताकि अल्लाह यह जान ले कि उससे बिन देखे कौन डरता है। फिर इसके पश्चात जिसने ज़्यादती की, उसके लिए दुखद यातना है॥94॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَقْتُلُوا الصَّيْدَ وَاَنْتُمْ حُرُمٌ۝۰ۭ وَمَنْ قَتَلَہٗ مِنْكُمْ مُّتَعَمِّدًا فَجَــزَاۗءٌ مِّثْلُ مَا قَتَلَ مِنَ النَّعَمِ يَحْكُمُ بِہٖ ذَوَا عَدْلٍ مِّنْكُمْ ہَدْيًۢا بٰلِــغَ الْكَعْبَۃِ اَوْ كَفَّارَۃٌ طَعَامُ مَسٰكِيْنَ اَوْ عَدْلُ ذٰلِكَ صِيَامًا لِّيَذُوْقَ وَبَالَ اَمْرِہٖ۝۰ۭ عَفَا اللہُ عَمَّا سَلَفَ۝۰ۭ وَمَنْ عَادَ فَيَنْتَقِمُ اللہُ مِنْہُ۝۰ۭ وَاللہُ عَزِيْزٌ ذُو انْتِقَامٍ۝۹۵

ऐ ईमान लानेवालो! इहराम की हालत में तुम शिकार न मारो। तुम में जो कोई जान-बूझकर उसे मारे, तो उसने जो जानवर मारा हो, चौपायों में से उसी जैसा एक जानवर - जिसका फ़ैसला तुम्हारे दो न्यायप्रिय व्यक्ति कर दें - काबा पहुँचाकर क़ुरबान किया जाए, या प्रायश्चित के रूप में मुहताजों को भोजन कराना होगा या उसके बराबर रोज़े रखने होंगे, ताकि वह अपने किए का मज़ा चख ले। जो पहले हो चुका उसे अल्लाह ने क्षमा कर दिया; परन्तु जिस किसी ने फिर ऐसा किया तो अल्लाह उससे बदला लेगा। अल्लाह प्रभुत्वशाली, बदला लेनेवाला है॥95॥

اُحِلَّ لَكُمْ صَيْدُ الْبَحْرِ وَطَعَامُہٗ مَتَاعًا لَّكُمْ وَلِلسَّـيَّارَۃِ۝۰ۚ وَحُرِّمَ عَلَيْكُمْ صَيْدُ الْبَرِّ مَا دُمْتُمْ حُرُمًا۝۰ۭ وَاتَّقُوا اللہَ الَّذِيْٓ اِلَيْہِ تُحْشَرُوْنَ۝۹۶

तुम्हारे लिए जल का शिकार और उसका खाना हलाल है कि तुम उससे फ़ायदा उठाओ और मुसाफ़िर भी। किन्तु थलीय शिकार जब तक तुम इहराम में हो, तुमपर हराम है। और अल्लाह से डरते रहो, जिसकी ओर तुम इकट्ठा होगे॥96॥

۞ جَعَلَ اللہُ الْكَعْبَۃَ الْبَيْتَ الْحَرَامَ قِــيٰمًا لِّلنَّاسِ وَالشَّہْرَ الْحَرَامَ وَالْہَدْيَ وَالْقَلَاۗىِٕدَ۝۰ۭ ذٰلِكَ لِتَعْلَمُوْٓا اَنَّ اللہَ يَعْلَمُ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ وَاَنَّ اللہَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمٌ۝۹۷

अल्लाह ने आदरणीय घर काबा को लोगों के लिए क़ायम रहने का साधन बनाया और आदरणीय महीनों और क़ुरबानी के जानवरों और उन जानवरों को भी जिनके गले में पट्टे बँधे हो, यह इसलिए कि तुम जान लो कि अल्लाह जानता है जो कुछ आकाशों में है और जो कुछ धरती में है। और यह कि अल्लाह हर चीज़ से अवगत है॥97॥

اِعْلَمُوْٓا اَنَّ اللہَ شَدِيْدُ الْعِقَابِ وَاَنَّ اللہَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ۝۹۸ۭ

जान लो अल्लाह कठोर दण्‍ड देनेवाला है और यह कि अल्लाह बड़ा क्षमाशील, दयावान है॥98॥

مَا عَلَي الرَّسُوْلِ اِلَّا الْبَلٰغُ۝۰ۭ وَاللہُ يَعْلَمُ مَا تُبْدُوْنَ وَمَا تَكْتُمُوْنَ۝۹۹

रसूल पर (सन्देश) पहुँचा देने के अतिरिक्त और कोई ज़िम्मेदारी नहीं। अल्लाह तो जानता है, जो कुछ तुम प्रकट करते हो और जो कुछ तुम छिपाते हो॥99॥

قُلْ لَّا يَسْتَوِي الْخَبِيْثُ وَالطَّيِّبُ وَلَوْ اَعْجَبَكَ كَثْرَۃُ الْخَبِيْثِ۝۰ۚ فَاتَّقُوا اللہَ يٰٓاُولِي الْاَلْبَابِ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ۝۱۰۰ۧ

कह दो, "बुरी चीज़ और अच्छी चीज़ समान नहीं होती, चाहे बुरी चीज़ों की बहुतायत तुम्हें प्रिय ही क्यों न लगे।" अतः ऐ बुद्धि और समझवालों! अल्लाह का डर रखो, ताकि तुम सफल हो सको॥100॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَسْــــَٔـلُوْا عَنْ اَشْـيَاۗءَ اِنْ تُبْدَ لَكُمْ تَسُؤْكُمْ۝۰ۚ وَاِنْ تَسْــــَٔـلُوْا عَنْہَا حِيْنَ يُنَزَّلُ الْقُرْاٰنُ تُبْدَ لَكُمْ۝۰ۭ عَفَا اللہُ عَنْہَا۝۰ۭ وَاللہُ غَفُوْرٌ حَلِيْمٌ۝۱۰۱

ऐ ईमान लानेवालो! ऐसी चीज़ों के विषय में न पूछो कि वे यदि तुम पर स्पष्ट कर दी जाएँ, तो तुम्हें बूरी लगें। यदि तुम उन्हें ऐसे समय में पूछोगे, जबकि क़ुरआन अवतरित हो रहा है, तो वे तुमपर स्पष्ट कर दी जाएँगी। अल्लाह ने उसे क्षमा कर दिया। अल्लाह बहुत क्षमा करनेवाला, सहनशील है॥101॥

قَدْ سَاَلَہَا قَوْمٌ مِّنْ قَبْلِكُمْ ثُمَّ اَصْبَحُوْا بِہَا كٰفِرِيْنَ۝۱۰۲

तुमसे पहले कुछ लोग इस तरह के प्रश्न कर चुके हैं, फिर वे उसके कारण इनकार करनेवाले हो गए॥102॥

مَا جَعَلَ اللہُ مِنْۢ بَحِيْرَۃٍ وَّلَا سَاۗىِٕبَۃٍ وَّلَا وَصِيْلَۃٍ وَّلَا حَامٍ۝۰ۙ وَّلٰكِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا يَفْتَرُوْنَ عَلَي اللہِ الْكَذِبَ۝۰ۭ وَاَكْثَرُہُمْ لَا يَعْقِلُوْنَ۝۱۰۳

अल्लाह ने न कोई 'बहीरा' ठहराया है और न 'साइबा' और न 'वसीला' और न 'हाम', परन्तु इनकार करनेवाले अल्लाह पर झूठ का आरोपण करते है और उनमें अधिकतर बुद्धि से काम नहीं लेते॥103॥

وَاِذَا قِيْلَ لَہُمْ تَعَالَوْا اِلٰى مَآ اَنْزَلَ اللہُ وَاِلَى الرَّسُوْلِ قَالُوْا حَسْبُنَا مَا وَجَدْنَا عَلَيْہِ اٰبَاۗءَنَا۝۰ۭ اَوَلَوْ كَانَ اٰبَاۗؤُہُمْ لَا يَعْلَمُوْنَ شَـيْــــًٔـا وَّلَا يَہْتَدُوْنَ۝۱۰۴

और जब उनसे कहा जाता है कि उस चीज़ की ओर आओ जो अल्लाह ने अवतरित की है और रसूल की ओर, तो वे कहते है, "हमारे लिए तो वही काफ़ी है, जिस पर हमने अपने बाप-दादा को पाया है।" क्या यद्यपि उनके बाप-दादा कुछ भी न जानते रहे हों और न सीधे मार्ग पर रहे हो? ॥104॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا عَلَيْكُمْ اَنْفُسَكُمْ۝۰ۚ لَا يَضُرُّكُمْ مَّنْ ضَلَّ اِذَا اہْتَدَيْتُمْ۝۰ۭ اِلَى اللہِ مَرْجِعُكُمْ جَمِيْعًا فَيُنَبِّئُكُمْ بِمَا كُنْتُمْ تَعْمَلُوْنَ۝۱۰۵

ऐ ईमान लानेवालो! तुमपर अपनी चिन्ता अनिवार्य है, जब तुम रास्ते पर हो, तो जो कोई भटक जाए वह तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। अल्लाह की ओर तुम सबको लौटकर जाना है। फिर वह तुम्हें बता देगा, जो कुछ तुम करते रहे होगे॥105॥

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا شَہَادَۃُ بَيْنِكُمْ اِذَا حَضَرَ اَحَدَكُمُ الْمَوْتُ حِيْنَ الْوَصِيَّۃِ اثْنٰنِ ذَوَا عَدْلٍ مِّنْكُمْ اَوْ اٰخَرٰنِ مِنْ غَيْرِكُمْ اِنْ اَنْتُمْ ضَرَبْتُمْ فِي الْاَرْضِ فَاَصَابَتْكُمْ مُّصِيْبَۃُ الْمَوْتِ۝۰ۭ تَحْبِسُوْنَہُمَا مِنْۢ بَعْدِ الصَّلٰوۃِ فَيُقْسِمٰنِ بِاللہِ اِنِ ارْتَبْتُمْ لَا نَشْتَرِيْ بِہٖ ثَـمَنًا وَّلَوْ كَانَ ذَا قُرْبٰى۝۰ۙ وَلَا نَكْتُمُ شَہَادَۃَ۝۰ۙ اللہِ اِنَّآ اِذًا لَّمِنَ الْاٰثِمِيْنَ۝۱۰۶

ऐ ईमान लानेवालों! जब तुममें से किसी की मृत्यु का समय आ जाए तो वसीयत के समय तुममें से दो न्यायप्रिय व्यक्ति गवाह हों, या तुम्हारे ग़ैर लोगों में से दूसरे दो व्यक्ति गवाह बन जाएँ, यह उस समय कि यदि तुम कहीं सफ़र में गए हो और मृत्यु तुमपर आ पहुँचे। यदि तुम्हें कोई सन्देह हो तो नमाज़ के पश्चामत उन दोनों को रोक लो, फिर वे दोनों अल्लाह की क़समें खाएँ कि "हम इसके बदले कोई मूल्य स्वीकार करनेवाले नहीं हैं चाहे कोई नातेदार ही क्यों न हो और न हम अल्लाह की गवाही छिपाते है। निस्सन्देह ऐसा किया तो हम गुनाहगार ठहरेंगे।"॥106॥

فَاِنْ عُثِرَ عَلٰٓي اَنَّہُمَا اسْتَحَقَّآ اِثْمًا فَاٰخَرٰنِ يَقُوْمٰنِ مَقَامَہُمَا مِنَ الَّذِيْنَ اسْتَحَقَّ عَلَيْہِمُ الْاَوْلَيٰنِ فَيُقْسِمٰنِ بِاللہِ لَشَہَادَتُنَآ اَحَقُّ مِنْ شَہَادَتِہِمَا وَمَا اعْتَدَيْنَآ ۝۰ۡۖ اِنَّآ اِذًا لَّمِنَ الظّٰلِـمِيْنَ۝۱۰۷

फिर यदि पता चल जाए कि उन दोनों ने हक़ मारकर अपने को गुनाह में डाल लिया है, तो उनकी जगह दूसरे दो व्यक्ति उन लोगों में से खड़े हो जाएँ, जिनका हक़ पिछले दोनों व्यदक्तियों ने मारना चाहा था, फिर वे दोनों अल्लाह की क़समें खाएँ कि "हम दोनों की गवाही उन दोनों की गवाही से अधिक सच्ची है और हमने कोई ज़्यादती नहीं की है। निस्सन्देह हमने ऐसा किया तो अत्याचारियों में से होंगे।"॥107॥

ذٰلِكَ اَدْنٰٓي اَنْ يَّاْتُوْا بِالشَّہَادَۃِ عَلٰي وَجْہِہَآ اَوْ يَخَافُوْٓا اَنْ تُرَدَّ اَيْمَانٌۢ بَعْدَ اَيْمَانِہِمْ۝۰ۭ وَاتَّقُوا اللہَ وَاسْمَعُوْا۝۰ۭ وَاللہُ لَا يَہْدِي الْقَوْمَ الْفٰسِقِيْنَ۝۱۰۸ۧ

इसमें इसकी सम्भावना है कि वे ठीक-ठीक गवाही देंगे या डरेंगे कि उनकी क़समों के पश्चाैत क़समें ली जाएँगी। अल्लाह का डर रखो और सुनो। अल्लाह अवज्ञाकारी लोगों को मार्ग नहीं दिखाता॥108॥

۞ يَوْمَ يَجْمَعُ اللہُ الرُّسُلَ فَيَقُوْلُ مَاذَآ اُجِبْتُمْ۝۰ۭ قَالُوْا لَا عِلْمَ لَنَا۝۰ۭ اِنَّكَ اَنْتَ عَلَّامُ الْغُيُوْبِ۝۱۰۹

जिस दिन अल्लाह रसूलों को इकट्ठा करेगा, फिर कहेगा, "तुम्हें क्या जवाब मिला?" वे कहेंगे, "हमें कुछ नहीं मालूम। तू ही छिपी बातों को जानता है।"॥109॥

اِذْ قَالَ اللہُ يٰعِيْسَى ابْنَ مَرْيَمَ اذْكُرْ نِعْمَتِيْ عَلَيْكَ وَعَلٰي وَالِدَتِكَ۝۰ۘ اِذْ اَيَّدْتُّكَ بِرُوْحِ الْقُدُسِ۝۰ۣ تُكَلِّمُ النَّاسَ فِي الْمَہْدِ وَكَہْلًا۝۰ۚ وَاِذْ عَلَّمْتُكَ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَۃَ وَالتَّوْرٰىۃَ وَالْاِنْجِيْلَ۝۰ۚ وَاِذْ تَخْلُقُ مِنَ الطِّيْنِ كَہَيْئَۃِ الطَّيْرِ بِـاِذْنِيْ فَتَنْفُخُ فِيْہَا فَتَكُوْنُ طَيْرًۢا بِـاِذْنِيْ وَتُبْرِئُ الْاَكْـمَہَ وَالْاَبْرَصَ بِـاِذْنِيْ۝۰ۚ وَاِذْ تُخْرِجُ الْمَوْتٰى بِـاِذْنِيْ۝۰ۚ وَاِذْ كَفَفْتُ بَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ عَنْكَ اِذْ جِئْتَہُمْ بِالْبَيِّنٰتِ فَقَالَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْہُمْ اِنْ ہٰذَآ اِلَّا سِحْرٌ مُّبِيْنٌ۝۱۱۰

जब अल्लाह कहेगा, "ऐ मरयम के बेटे ईसा! मेरे उस अनुग्रह को याद करो जो तुमपर और तुम्हारी माँ पर हुआ है। जब मैंने पवित्र आत्मा से तुम्हें शक्ति प्रदान की; तुम पालने में भी लोगों से बात करते थे और बड़ी अवस्था को पहुँचकर भी। और याद करो, जबकि मैंने तुम्हें किताब और हिकमत और तौरात और इंजील की शिक्षा दी थी। और याद करो जब तुम मेरे आदेश से मिट्टी से पक्षी का प्रारूपण करते थे; फिर उसमें फूँक मारते थे, तो वह मेरे आदेश से उड़नेवाली बन जाती थी। और तुम मेरे आदेश से अन्धेंा और कोढी कर देते थे तबकि तुम मेरे आदेश से मुर्दों को जीवित निकाल खड़ा करते थे। और याद करो जबकि मैंने तुमसे इसराइलियों को रोके रखा, जबकि तुम उनके पास खुली-खुली निशानियाँ लेकर पहुँचे थे, तो उनमें से जो इनकार करनेवाले थे, उन्होंने कहा, यह तो बस खुला जादू है।"॥110॥

وَاِذْ اَوْحَيْتُ اِلَى الْحَوَارِيِّيْنَ اَنْ ٰاٰمِنُوْا بِيْ وَبِرَسُوْلِيْ۝۰ۚ قَالُـوْٓا اٰمَنَّا وَاشْهَدْ بِاَنَّنَا مُسْلِمُوْنَ۝۱۱۱

और याद करो, जब मैंने हबारियों (साथियों और शागिर्दों) के दिल में डाला कि "मुझपर और मेरे रसूल पर ईमान लाओ," तो उन्होंने कहा, "हम ईमान लाए और तुम गवाह रहो कि हम मुस्लिम है।"॥111॥

اِذْ قَالَ الْحَوَارِيُّوْنَ يٰعِيْسَى ابْنَ مَرْيَمَ ہَلْ يَسْتَطِيْعُ رَبُّكَ اَنْ يُّنَزِّلَ عَلَيْنَا مَاۗىِٕدَۃً مِّنَ السَّمَاۗءِ۝۰ۭ قَالَ اتَّقُوا اللہَ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ۝۱۱۲

और याद करो जब हवारियों ने कहा, "ऐ मरयम के बेटे ईसा! क्या तुम्हारा रब आकाश से खाने से भरा थाल उतार सकता है?" कहा, "अल्लाह से डरो, यदि तुम ईमानवाले हो।"॥112॥

قَالُوْا نُرِيْدُ اَنْ نَّاْكُلَ مِنْہَا وَتَطْمَىِٕنَّ قُلُوْبُنَا وَنَعْلَمَ اَنْ قَدْ صَدَقْتَنَا وَنَكُوْنَ عَلَيْہَا مِنَ الشّٰہِدِيْنَ۝۱۱۳

वे बोले, "हम चाहते हैं कि उनमें से खाएँ और हमारे हृदय सन्तुष्ट हो और हमें मालूम हो जाए कि तूने हमने सच कहा और हम उसपर गवाह रहें।"॥113॥

قَالَ عِيْسَى ابْنُ مَرْيَمَ اللّٰہُمَّ رَبَّنَآ اَنْزِلْ عَلَيْنَا مَاۗىِٕدَۃً مِّنَ السَّمَاۗءِ تَكُوْنُ لَنَا عِيْدًا لِّاَوَّلِنَا وَاٰخِرِنَا وَاٰيَۃً مِّنْكَ۝۰ۚ وَارْزُقْنَا وَاَنْتَ خَيْرُ الرّٰزِقِيْنَ۝۱۱۴

मरयम के बेटे ईसा ने कहा, "ऐ अल्लाह, हमारे रब! हमपर आकाश से खाने से भरा थाल उतार, जो हमारे लिए और हमारे अगलों और हमारे पिछलों के लिए ख़ुशी का कारण बने और तेरी ओर से एक निशानी हो, और हमें आहार प्रदान कर। तू सबसे अच्छा राजिक है।"॥114॥

قَالَ اللہُ اِنِّىْ مُنَزِّلُہَا عَلَيْكُمْ۝۰ۚ فَمَنْ يَّكْفُرْ بَعْدُ مِنْكُمْ فَاِنِّىْٓ اُعَذِّبُہٗ عَذَابًا لَّآ اُعَذِّبُہٗٓ اَحَدًا مِّنَ الْعٰلَمِيْنَ۝۱۱۵ۧ

अल्लाह ने कहा, "मैं उसे तुमपर उतारूँगा, फिर उसके बाद तुममें से जो कोई इनकार करेगा तो मैं अवश्य उसे ऐसी यातना दूँगा जो सम्पूर्ण संसार में किसी को न दूँगा।"॥115॥

وَاِذْ قَالَ اللہُ يٰعِيْسَى ابْنَ مَرْيَمَ ءَاَنْتَ قُلْتَ لِلنَّاسِ اتَّخِذُوْنِيْ وَاُمِّيَ اِلٰــہَيْنِ مِنْ دُوْنِ اللہِ۝۰ۭ قَالَ سُبْحٰنَكَ مَا يَكُوْنُ لِيْٓ اَنْ اَقُوْلَ مَا لَيْسَ لِيْ۝۰ۤ بِحَقٍّ۝۰ۭ۬ اِنْ كُنْتُ قُلْتُہٗ فَقَدْ عَلِمْتَہٗ۝۰ۭ تَعْلَمُ مَا فِيْ نَفْسِيْ وَلَآ اَعْلَمُ مَا فِيْ نَفْسِكَ۝۰ۭ اِنَّكَ اَنْتَ عَلَّامُ الْغُيُوْبِ۝۱۱۶

और याद करो जब अल्लाह कहेगा, "ऐ मरयम के बेटे ईसा! क्या तुमने लोगों से कहा था कि अल्लाह के अतिरिक्त दो और पूज्य मुझे और मेरी माँ को बना लो?" वह कहेगा, "महिमावान है तू! मुझसे यह नहीं हो सकता कि मैं यह बात कहूँ, जिसका मुझे कोई हक़ नहीं है। यदि मैंने यह कहा होता तो तुझे मालूम होता। तू जानता है, जो कुछ मेरे मन में है। परन्तु मैं नहीं जानता जो कुछ तेरे मन में है। यकीनन तू ही छिपी बातों का भली-भाँति जाननेवाला है॥116॥

مَا قُلْتُ لَہُمْ اِلَّا مَآ اَمَرْتَنِيْ بِہٖٓ اَنِ اعْبُدُوا اللہَ رَبِّيْ وَرَبَّكُمْ۝۰ۚ وَكُنْتُ عَلَيْہِمْ شَہِيْدًا مَّا دُمْتُ فِيْہِمْ۝۰ۚ فَلَمَّا تَوَفَّيْتَنِيْ كُنْتَ اَنْتَ الرَّقِيْبَ عَلَيْہِمْ۝۰ۭ وَاَنْتَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ شَہِيْدٌ۝۱۱۷

"मैंने उनसे उसके सिवा और कुछ नहीं कहा, जिसका तूने मुझे आदेश दिया था, यह कि अल्लाह की बन्दगी करो, जो मेरा भी रब है और तुम्हारा भी रब है। और जब तक मैं उनमें रहा उनकी ख़बर रखता था, फिर जब तूने मुझे उठा लिया तो फिर तू ही उनका निरीक्षक था। और तू ही हर चीज़ का साक्षी है॥117॥

اِنْ تُعَذِّبْہُمْ فَاِنَّہُمْ عِبَادُكَ۝۰ۚ وَاِنْ تَغْفِرْ لَہُمْ فَاِنَّكَ اَنْتَ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ۝۱۱۸

"यदि तू उन्हें यातना दे तो वे तो तेरे ही बन्दे ही है और यदि तू उन्हें क्षमा कर दे, तो निस्सन्देह तू अत्यन्त प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है।"॥118॥

قَالَ اللہُ ہٰذَا يَوْمُ يَنْفَعُ الصّٰدِقِيْنَ صِدْقُہُمْ۝۰ۭ لَہُمْ جَنّٰتٌ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِہَا الْاَنْھٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْہَآ اَبَدًا۝۰ۭ رَضِيَ اللہُ عَنْہُمْ وَرَضُوْا عَنْہُ۝۰ۭ ذٰلِكَ الْفَوْزُ الْعَظِيْمُ۝۱۱۹

अल्लाह कहेगा, "यह वह दिन है कि सच्चों को उनकी सच्चाई लाभ का पहुँचाएगा। उनके लिए ऐसे बाग़ है, जिनके नीचे नहेर बह रही होंगी, उनमें वे सदैव रहेंगे। अल्लाह उनसे राज़ी हुआ और वे उससे राज़ी हुए। यही सबसे बड़ी सफलता है।"॥119॥

لِلہِ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَمَا فِيْہِنَّ۝۰ۭ وَہُوَعَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ۝۱۲۰ۧ

आकाशों और धरती और जो कुछ उनके बीच है, सबपर अल्लाह ही की बादशाही है और उसे हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त है॥120॥

  1. अल-अनआम

(मक्का में उतरी – आयतें 165)

بِسْمِ اللہِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ

अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील, अत्यन्त दयावान है।

اَلْحَمْدُ لِلہِ الَّذِيْ خَلَقَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ وَجَعَلَ الظُّلُمٰتِ وَالنُّوْرَ۝۰ۥۭ ثُمَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا بِرَبِّہِمْ يَعْدِلُوْنَ۝۱

प्रशंसा अल्लाह के लिए है, जिसने आकाशों और धरती को पैदा किया और अँधरों और उजाले का विधान किया; फिर भी इनकार करनेवाले लोग दूसरों को अपने रब के समकक्ष ठहराते है॥1॥

ہُوَالَّذِيْ خَلَقَكُمْ مِّنْ طِيْنٍ ثُمَّ قَضٰٓى اَجَلًا۝۰ۭ وَاَجَلٌ مُّسَمًّى عِنْدَہٗ ثُمَّ اَنْتُمْ تَمْتَرُوْنَ۝۲

वही है जिसने तुम्हें मिट्टी से पैदा किया, फिर (जीवन की) एक अवधि निश्चित कर दी और उसके यहाँ (क़ियामत की) एक अवधि और निश्चित है; फिर भी तुम संदेह करते हो!॥2॥

وَہُوَاللہُ فِي السَّمٰوٰتِ وَفِي الْاَرْضِ۝۰ۭ يَعْلَمُ سِرَّكُمْ وَجَہْرَكُمْ وَيَعْلَمُ مَا تَكْسِبُوْنَ۝۳

वही अल्लाह है, आकाशों में भी और धरती में भी। वह तुम्हारी छिपी और तुम्हारी खुली बातों को जानता है, और जो कुछ तुम कमाते हो, वह उससे भी अवगत है॥3॥

وَمَا تَاْتِيْہِمْ مِّنْ اٰيَۃٍ مِّنْ اٰيٰتِ رَبِّہِمْ اِلَّا كَانُوْا عَنْہَا مُعْرِضِيْنَ۝۴

हाल यह है कि उनके रब की निशानियों में से कोई निशानी भी उनके पास ऐसी नहीं आई, जिससे उन्होंने मुँह न मोड़ लिया हो॥4॥

فَقَدْ كَذَّبُوْا بِالْحَقِّ لَمَّا جَاۗءَہُمْ۝۰ۭ فَسَوْفَ يَاْتِيْہِمْ اَنْۢبٰۗـؤُا مَا كَانُوْا بِہٖ يَسْتَہْزِءُوْنَ۝۵

उन्होंने सत्य को झुठला दिया, जबकि वह उनके पास आया। अतः जिस चीज़ को वे हँसी उड़ाते रहे हैं, जल्द ही उसके सम्बन्ध में उन्हें ख़बरे मिल जाएगी॥5॥

اَلَمْ يَرَوْا كَمْ اَہْلَكْنَا مِنْ قَبْلِہِمْ مِّنْ قَرْنٍ مَّكَّنّٰہُمْ فِي الْاَرْضِ مَا لَمْ نُمَكِّنْ لَّكُمْ وَاَرْسَلْنَا السَّمَاۗءَ عَلَيْہِمْ مِّدْرَارًا۝۰۠ وَّجَعَلْنَا الْاَنْھٰرَ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِہِمْ فَاَہْلَكْنٰہُمْ بِذُنُوْبِہِمْ وَاَنْشَاْنَا مِنْۢ بَعْدِہِمْ قَرْنًا اٰخَرِيْنَ۝۶

क्या उन्होंने नहीं देखा कि उनसे पहले कितने ही गिरोहों को हम विनष्ट कर चुके है। उन्हें हमने धरती में ऐसा जमाव प्रदान किया था, जो तुम्हें नहीं प्रदान किया। और उनपर हमने आकाश को ख़ूब बरसता छोड़ दिया और उनके नीचे नहरें बहाई। फिर हमने आकाश को ख़ूब बरसता छोड़ दिया और उनके नीचे नहरें बहाई। फिर हमने उन्हें उनके गुनाहों के कारण विनष्ट़ कर दिया और उनके पश्चात दूसरे गिरोहों को उठाया॥6॥

وَلَوْ نَزَّلْنَا عَلَيْكَ كِتٰبًا فِيْ قِرْطَاسٍ فَلَمَسُوْہُ بِاَيْدِيْہِمْ لَقَالَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اِنْ ہٰذَآ اِلَّا سِحْـرٌ مُّبِيْنٌ۝۷

और यदि हम तुम्हारे ऊपर काग़ज़ में लिखी-लिखाई किताब भी उतार देते और उसे लोग अपने हाथों से छू भी लेते तब भी, जिन्होंने इनकार किया है, वे यही कहते, "यह तो बस एक खुला जादू हैं।"॥7॥

وَقَالُوْا لَوْلَآ اُنْزِلَ عَلَيْہِ مَلَكٌ۝۰ۭ وَلَوْ اَنْزَلْنَا مَلَكًا لَّقُضِيَ الْاَمْرُ ثُمَّ لَا يُنْظَرُوْنَ۝۸

उनका तो कहना है, "इस (नबी) पर कोई फ़रिश्ता (खुले रूप में) क्यों नहीं उतारा गया?" हालाँकि यदि हम फ़रिश्ता उतारते तो फ़ैसला हो चुका होता। फिर उन्हें कोई मुहल्लत न मिलती॥8॥

وَلَوْ جَعَلْنٰہُ مَلَكًا لَّجَعَلْنٰہُ رَجُلًا وَّلَـلَبَسْـنَا عَلَيْہِمْ مَّا يَلْبِسُوْنَ۝۹

यह बात भी है कि यदि हम उसे (नबी को) फ़रिश्ता बना देते तो उसे आदमी ही (के रूप का) बनाते। इस प्रकार उन्हें उसी संदेह में डाल देते, जिस संदेह में वे इस समय पड़े हुए है॥9॥

وَلَقَدِ اسْتُہْزِئَ بِرُسُلٍ مِّنْ قَبْلِكَ فَحَاقَ بِالَّذِيْنَ سَخِرُوْا مِنْہُمْ مَّا كَانُوْا بِہٖ يَسْتَہْزِءُوْنَ۝۱۰ۧ

तुमसे पहले कितने ही रसूलों की हँसी उड़ाई जा चुकी है। अन्ततः जिन लोगों ने उनकी हँसी उड़ाई थी, उन्हें उसी न आ घेरा जिस बात पर वे हँसी उड़ाते थे॥10॥

قُلْ سِيْرُوْا فِي الْاَرْضِ ثُمَّ انْظُرُوْا كَيْفَ كَانَ عَاقِبَۃُ الْمُكَذِّبِيْنَ۝۱۱

कहो, "धरती में चल-फिरकर देखो कि झुठलानेवालों का क्या परिणाम हुआ!"॥11॥

قُلْ لِّمَنْ مَّا فِي السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ۝۰ۭ قُلْ لِّلہِ۝۰ۭ كَتَبَ عَلٰي نَفْسِہِ الرَّحْمَۃَ۝۰ۭ لَيَجْمَعَنَّكُمْ اِلٰى يَوْمِ الْقِيٰمَۃِ لَا رَيْبَ فِيْہِ۝۰ۭ اَلَّذِيْنَ خَسِرُوْٓا اَنْفُسَہُمْ فَہُمْ لَا يُؤْمِنُوْنَ۝۱۲

कहो, "आकाशों और धरती में जो कुछ है किसका है?" कह दो, "अल्लाह ही का है।" उसने दयालुता को अपने ऊपर अनिवार्य कर दिया है। निश्चय ही वह तुम्हें क़ियामत के दिन इकट्ठा करेगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। जिन लोगों ने अपने-आपको घाटे में डाला है, वही है जो ईमान नहीं लाते॥12॥

۞ وَلَہٗ مَا سَكَنَ فِي الَّيْلِ وَالنَّہَار۝۰ۭ وَہُوَالسَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ۝۱۳

हाँ, उसी का है जो भी रात में ठहरता है और दिन में (गतिशील होता है), और वह सब कुछ सुनता, जानता है॥13॥

قُلْ اَغَيْرَ اللہِ اَتَّخِذُ وَلِيًّا فَاطِرِ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَہُوَيُطْعِمُ وَلَا يُطْعَمُ۝۰ۭ قُلْ اِنِّىْٓ اُمِرْتُ اَنْ اَكُوْنَ اَوَّلَ مَنْ اَسْلَمَ وَلَا تَكُوْنَنَّ مِنَ الْمُشْرِكِيْنَ۝۱۴

कहो, "क्या मैं आकाशों और धरती को पैदा करनेवाले अल्लाह के सिवा किसी और को संरक्षक बना लूँ? उसका हाल यह है कि वह खिलाता है और स्वयं नहीं खाता।" कहो, "मुझे आदेश हुआ है कि सबसे पहले मैं उसके आगे झुक जाऊँ। और (यह कि) तुम बहुदेववादियों में कदापि सम्मिलित न होना।"॥14॥

قُلْ اِنِّىْٓ اَخَافُ اِنْ عَصَيْتُ رَبِّيْ عَذَابَ يَوْمٍ عَظِيْمٍ۝۱۵

कहो, "यदि मैं अपने रब की अवज्ञा करूँ, तो उस स्थिति में मुझे एक बड़े (भयानक) दिन की यातना का डर है।"॥15॥

مَنْ يُّصْرَفْ عَنْہُ يَوْمَىِٕذٍ فَقَدْ رَحِمَہٗ۝۰ۭ وَذٰلِكَ الْفَوْزُ الْمُبِيْنُ۝۱۶

उस दिन वह जिसपर से टल गई, उसपर अल्लाह ने दया की, और यही स्पष्ट सफलता है॥16॥

وَاِنْ يَّمْسَسْكَ اللہُ بِضُرٍّ فَلَا كَاشِفَ لَہٗٓ اِلَّا ہُوَ۝۰ۭ وَاِنْ يَّمْسَسْكَ بِخَيْرٍ فَہُوَعَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ۝۱۷

और यदि अल्लाह तुम्हें कोई कष्ट पहुँचाए तो उसके अतिरिक्त उसे कोई दूर करनेवाला नहीं है और यदि वह तुम्हें कोई भलाई पहुँचाए तो उसे हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त है॥17॥

وَہُوَالْقَاہِرُ فَوْقَ عِبَادِہٖ۝۰ۭ وَہُوَالْحَكِيْمُ الْخَبِيْرُ۝۱۸

उसे अपने बन्दों पर पूर्ण अधिकार प्राप्त है। और वह तत्वदर्शी, ख़बर रखनेवाला है॥18॥

قُلْ اَيُّ شَيْءٍ اَكْبَرُ شَہَادَۃً۝۰ۭ قُلِ اللہُ۝۰ۣۙ شَہِيْدٌۢ بَيْنِيْ وَبَيْنَكُمْ۝۰ۣ وَاُوْحِيَ اِلَيَّ ہٰذَا الْقُرْاٰنُ لِاُنْذِرَكُمْ بِہٖ وَمَنْۢ بَلَغَ۝۰ۭ اَىِٕنَّكُمْ لَتَشْہَدُوْنَ اَنَّ مَعَ اللہِ اٰلِہَۃً اُخْرٰي۝۰ۭ قُلْ لَّآ اَشْہَدُ۝۰ۚ قُلْ اِنَّمَا ہُوَاِلٰہٌ وَّاحِدٌ وَّاِنَّنِيْ بَرِيْۗءٌ مِّمَّا تُشْرِكُوْنَ۝۱۹ۘ

कहो, "किस चीज़ की गवाही सबसे बड़ी है?" कहो, "मेरे और तुम्हारे बीच अल्लाह गवाह है। और यह क़ुरआन मेरी ओर वह্य (प्रकाशना) किया गया है, ताकि मैं इसके द्वारा तुम्हें सचेत कर दूँ। और जिस किसी को यह पहुँचे, वह भी ऐसा करे। क्याय तुम वास्तयव मे गवाही देते हो कि अल्लाह के साथ दूसरे पूज्य भी है?" तुम कह दो, "मैं तो इसकी गवाही नहीं देता।" कह दो, "वह तो बस अकेला पूज्य है। और तुम जो उसका साझी ठहराते हो, उससे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं।"॥19॥

اَلَّذِيْنَ اٰتَيْنٰہُمُ الْكِتٰبَ يَعْرِفُوْنَہٗ كَـمَا يَعْرِفُوْنَ اَبْنَاۗءَہُمْ۝۰ۘ اَلَّذِيْنَ خَسِرُوْٓا اَنْفُسَہُمْ فَہُمْ لَا يُؤْمِنُوْنَ۝۲۰ۧ

जिन लोगों को हमने किताब दी है, वे उसे इस प्रकार पहचानते है, जिस प्रकार अपने बेटों को पहचानते है। जिन लोगों ने अपने आपको घाटे में डाला है, वही ईमान नहीं लाते॥20॥

وَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنِ افْتَرٰي عَلَي اللہِ كَذِبًا اَوْ كَذَّبَ بِاٰيٰتِہٖ۝۰ۭ اِنَّہٗ لَا يُفْلِحُ الظّٰلِمُوْنَ۝۲۱

और उससे बढ़कर अत्याचारी कौन होगा, जो अल्लाह पर झूठ गढ़े या उसकी आयतों को झुठलाए। निस्सन्देह अत्याचारी कभी सफल नहीं हो सकते॥21॥

وَيَوْمَ نَحْشُرُہُمْ جَمِيْعًا ثُمَّ نَقُوْلُ لِلَّذِيْنَ اَشْرَكُوْٓا اَيْنَ شُرَكَاۗؤُكُمُ الَّذِيْنَ كُنْتُمْ تَزْعُمُوْنَ۝۲۲

और उस दिन को याद करो जब हम सबको इकट्ठा करेंगे; फिर बहुदेववादियों से पूछेंगे, "कहाँ है तुम्हारे ठहराए हुए साझीदार, जिनका तुम दावा किया करते थे?"॥22॥

ثُمَّ لَمْ تَكُنْ فِتْنَتُہُمْ اِلَّآ اَنْ قَالُوْا وَاللہِ رَبِّنَا مَا كُنَّا مُشْرِكِيْنَ۝۲۳

फिर उनका कोई फ़ित्नां (उपद्रव) शेष न रहेगा। सिवाय इसके कि वे कहेंगे, "अपने रब अल्लाह की सौगन्ध! हम बहुदेववादी न थे।"॥23॥

اُنْظُرْ كَيْفَ كَذَبُوْا عَلٰٓي اَنْفُسِہِمْ وَضَلَّ عَنْہُمْ مَّا كَانُوْا يَفْتَرُوْنَ۝۲۴

देखो, कैसा वे अपने विषय में झूठ बोले। और वह गुम होकर रह गया जो वे घड़ा करते थे॥24॥

وَمِنْہُمْ مَّنْ يَّسْتَمِــعُ اِلَيْكَ۝۰ۚ وَجَعَلْنَا عَلٰي قُلُوْبِہِمْ اَكِنَّۃً اَنْ يَّفْقَہُوْہُ وَفِيْٓ اٰذَانِہِمْ وَقْرًا۝۰ۭ وَاِنْ يَّرَوْا كُلَّ اٰيَۃٍ لَّا يُؤْمِنُوْا بِہَا۝۰ۭ حَتّٰٓي اِذَا جَاۗءُوْكَ يُجَادِلُوْنَكَ يَقُوْلُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اِنْ ہٰذَآ اِلَّآ اَسَاطِيْرُ الْاَوَّلِيْنَ۝۲۵

और उनमें कुछ लोग ऐसे है जो तुम्हारी ओर कान लगाते है, हालाँकि हमने तो उनके दिलों पर परदे डाल रखे है कि वे उसे समझ न सकें और उनके कानों में बोझ डाल दिया है। और वे चाहे प्रत्येक निशानी देख लें तब भी उसे मानेंगे नहीं; यहाँ तक कि जब वे तुम्हारे पास आकर तुमसे झगड़ते है, तो अविश्वाेस की नीति अपनानेवाले कहते है, "यह तो बस पहले के लोगों की गाथाएँ है।"॥25॥

وَہُمْ يَنْہَوْنَ عَنْہُ وَيَنْــــَٔـوْنَ عَنْہُ۝۰ۚ وَاِنْ يُّہْلِكُوْنَ اِلَّآ اَنْفُسَہُمْ وَمَا يَشْعُرُوْنَ۝۲۶

और वे उससे दूसरों को रोकते है और स्वयं भी उससे दूर रहते है। वे तो बस अपने आपको ही विनष्ट  कर रहे है, किन्तु उन्हें इसका एहसास नहीं॥26॥

وَلَوْ تَرٰٓي اِذْ وُقِفُوْا عَلَي النَّارِ فَقَالُوْا يٰلَيْتَنَا نُرَدُّ وَلَا نُكَذِّبَ بِاٰيٰتِ رَبِّنَا وَنَكُوْنَ مِنَ الْمُؤْمِنِيْنَ۝۲۷

और यदि तुम उस समय देख सकते, जब वे आग के निकट खड़े किए जाएँगे और कहेंगे, "काश! क्या ही अच्छा होता कि हम फिर लौटा दिए जाएँ (कि माने) और अपने रब की आयतों को न झुठलाएँ और माननेवालों में हो जाएँ।"॥27॥

بَلْ بَدَا لَہُمْ مَّا كَانُوْا يُخْفُوْنَ مِنْ قَبْلُ۝۰ۭ وَلَوْ رُدُّوْا لَعَادُوْا لِمَا نُہُوْا عَنْہُ وَاِنَّہُمْ لَكٰذِبُوْنَ۝۲۸

कुछ नहीं, बल्कि जो कुछ वे पहले छिपाया करते थे, वह उनके सामने आ गया। और यदि वे लौटा भी दिए जाएँ, तो फिर वही कुछ करने लगेंगे जिससे उन्हें रोका गया था। निश्च य ही वे झूठे है॥28॥

وَقَالُوْٓا اِنْ ہِىَ اِلَّا حَيَاتُنَا الدُّنْيَا وَمَا نَحْنُ بِمَبْعُوْثِيْنَ۝۲۹

और वे कहते है, "जो कुछ है बस यही हमारा सांसारिक जीवन है; हम फिर उठाए जानेवाले नहीं हैं।"॥29॥

وَلَوْ تَرٰٓي اِذْ وُقِفُوْا عَلٰي رَبِّہِمْ۝۰ۭ قَالَ اَلَيْسَ ہٰذَا بِالْحَقِّ۝۰ۭ قَالُوْا بَلٰى وَرَبِّنَا۝۰ۭ قَالَ فَذُوْقُوا الْعَذَابَ بِمَا كُنْتُمْ تَكْفُرُوْنَ۝۳۰ۧ

और यदि तुम देख सकते जब वे अपने रब के सामने खड़े किेए जाएँगे! वह कहेगा, "क्या यह यर्थाथ नहीं है?" कहेंगे, "क्यों नही, हमारे रब की क़सम!" वह कहेगा, "अच्छा तो उस इनकार के बदले जो तुम करते रहें हो, यातना का मज़ा चखो।"॥30॥

قَدْ خَسِرَ الَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِلِقَاۗءِ اللہِ۝۰ۭ حَتّٰٓي اِذَا جَاۗءَتْہُمُ السَّاعَۃُ بَغْتَۃً قَالُوْا يٰحَسْرَتَنَا عَلٰي مَا فَرَّطْنَا فِيْہَا۝۰ۙ وَہُمْ يَحْمِلُوْنَ اَوْزَارَہُمْ عَلٰي ظُہُوْرِہِمْ۝۰ۭ اَلَا سَاۗءَ مَا يَزِرُوْنَ۝۳۱

वे लोग घाटे में पड़े, जिन्होंने अल्लाह से मिलने को झुठलाया, यहाँ तक कि जब अचानक उनपर वह घड़ी आ जाएगी तो वे कहेंगे, "हाय! अफ़सोस, उस कोताही पर जो इसके विषय में हमसे हुई।" और हाल यह होगा कि वे अपने बोझ अपनी पीठों पर उठाए होंगे। देखो, कितना बुरा बोझ है जो ये उठाए हुए है!॥31॥

وَمَا الْحَيٰوۃُ الدُّنْيَآ اِلَّا لَعِبٌ وَّلَہْوٌ۝۰ۭ وَلَلدَّارُ الْاٰخِرَۃُ خَيْرٌ لِّلَّذِيْنَ يَتَّقُوْنَ۝۰ۭ اَفَلَا تَعْقِلُوْنَ۝۳۲

सांसारिक जीवन तो एक खेल और तमाशे (ग़फलत) के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है जबकि आख़िरत का घर उन लोगों के लिए अच्छा है, जो डर रखते है। तो क्या तुम बुद्धि से काम नहीं लेते?॥32॥

قَدْنَعْلَمُ اِنَّہٗ لَيَحْزُنُكَ الَّذِيْ يَقُوْلُوْنَ فَاِنَّہُمْ لَا يُكَذِّبُوْنَكَ وَلٰكِنَّ الظّٰلِـمِيْنَ بِاٰيٰتِ اللہِ يَجْحَدُوْنَ۝۳۳

हमें मालूम है, जो कुछ वे कहते है उससे तुम्हें दुख पहुँचता है। तो वे वास्तव में तुम्हें नहीं झुठलाते, बल्कि उन अत्याचारियो को तो अल्लाह की आयतों से इनकार है॥33॥

وَلَقَدْ كُذِّبَتْ رُسُلٌ مِّنْ قَبْلِكَ فَصَبَرُوْا عَلٰي مَا كُذِّبُوْا وَاُوْذُوْا حَتّٰٓي اَتٰىہُمْ نَصْرُنَا۝۰ۚ وَلَا مُبَدِّلَ لِكَلِمٰتِ اللہِ۝۰ۚ وَلَقَدْ جَاۗءَكَ مِنْ نَّبَاِى الْمُرْسَلِيْنَ۝۳۴

तुमसे पहले भी बहुत-से रसूल झुठलाए जा चुके है, तो वे अपने झुठलाए जाने और कष्ट पहुँचाए जाने पर धैर्य से काम लेते रहे, यहाँ तक कि उन्हें हमारी सहायता पहुँच गई। कोई नहीं जो अल्लाह की बातों को बदल सके। तुम्हारे पास तो रसूलों की कुछ ख़बरें पहुँच ही चुकी है॥34॥

وَاِنْ كَانَ كَبُرَ عَلَيْكَ اِعْرَاضُہُمْ فَاِنِ اسْتَطَعْتَ اَنْ تَبْتَغِيَ نَفَقًا فِي الْاَرْضِ اَوْ سُلَّمًا فِي السَّمَاۗءِ فَتَاْتِيَہُمْ بِاٰيَۃٍ۝۰ۭ وَلَوْ شَاۗءَ اللہُ لَجَمَعَہُمْ عَلَي الْہُدٰي فَلَا تَكُوْنَنَّ مِنَ الْجٰہِلِيْنَ۝۳۵

और यदि उनकी विमुखता तुम्हारे लिए असहनीय है, तो यदि तुमसे हो सके कि धरती में कोई सुरंग या आकाश में कोई सीढ़ी ढूँढ़ निकालो और उनके पास कोई निशानी ले आओ, तो (ऐसा कर देखो), यदि अल्लाह चाहता तो उन सबको सीधे मार्ग पर इकट्ठा कर देता। अतः तुम अधीर और नादान न बनना॥35॥

۞ اِنَّمَا يَسْتَجِيْبُ الَّذِيْنَ يَسْمَعُوْنَ۝۰ۭؔ وَالْمَوْتٰى يَبْعَثُہُمُ اللہُ ثُمَّ اِلَيْہِ يُرْجَعُوْنَ۝۳۶۬

मानते हो वही लोग है जो सुनते है, रहे मुर्दे, तो अल्लाह उन्हें (क़ियामत के दिन) उठा खड़ा करेगा; फिर वे उसी के ओर पलटेंगे॥36॥

وَقَالُوْا لَوْلَا نُزِّلَ عَلَيْہِ اٰيَۃٌ مِّنْ رَّبِّہٖ۝۰ۭ قُلْ اِنَّ اللہَ قَادِرٌ عَلٰٓي اَنْ يُّنَزِّلَ اٰيَۃً وَّلٰكِنَّ اَكْثَرَہُمْ لَا يَعْلَمُوْنَ۝۳۷

वे यह भी कहते है, "उस (नबी) पर उसके रब की ओर से कोई निशानी क्यों नहीं उतारी गई?" कह दो, "अल्लाह को तो इसकी सामर्थ्य प्राप्त है कि कोई निशानी उतार दे; परन्तु उनमें से अधिकतर लोग नहीं जानते।"॥37॥

وَمَا مِنْ دَاۗبَّۃٍ فِي الْاَرْضِ وَلَا طٰۗىِٕرٍ يَّطِيْرُ بِجَنَاحَيْہِ اِلَّآ اُمَمٌ اَمْثَالُكُمْ۝۰ۭ مَا فَرَّطْنَا فِي الْكِتٰبِ مِنْ شَيْءٍ ثُمَّ اِلٰى رَبِّہِمْ يُحْشَرُوْنَ۝۳۸

धरती में चलने-फिरनेवाला कोई भी प्राणी हो या अपने दो परो से उड़नवाला कोई पक्षी, ये सब तुम्हारी ही तरह के गिरोह है। हमने किताब में कोई भी चीज़ नहीं छोड़ी है। फिर वे अपने रब की ओर इकट्ठे किए जाएँगे॥38॥

وَالَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا صُمٌّ وَّبُكْمٌ فِي الظُّلُمٰتِ۝۰ۭ مَنْ يَّشَاِ اللہُ يُضْلِلْہُ۝۰ۭ وَمَنْ يَّشَاْ يَجْعَلْہُ عَلٰي صِرَاطٍ مُّسْتَقِيْمٍ۝۳۹

जिन लोगों ने हमारी आयतों को झुठलाया, वे बहरे और गूँगे है, अँधेरों में पड़े हुए हैं। अल्लाह जिसे चाहे भटकने दे और जिसे चाहे सीधे मार्ग पर लगा दे॥39॥

قُلْ اَرَءَيْتَكُمْ اِنْ اَتٰىكُمْ عَذَابُ اللہِ اَوْ اَتَتْكُمُ السَّاعَۃُ اَغَيْرَ اللہِ تَدْعُوْنَ۝۰ۚ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ۝۴۰

कहो, "क्या तुमने यह भी सोचा कि यदि तुमपर अल्लाह की यातना आ पड़े या वह घड़ी तुम्हारे सामने आ जाए, तो क्या अल्लाह के सिवा किसी और को पुकारोगे? बोलो, यदि तुम सच्चे हो?॥40॥

بَلْ اِيَّاہُ تَدْعُوْنَ فَيَكْشِفُ مَا تَدْعُوْنَ اِلَيْہِ اِنْ شَاۗءَ وَتَنْسَوْنَ مَا تُشْرِكُوْنَ۝۴۱ۧ

"बल्कि तुम उसी को पुकारते हो - फिर जिसके लिए तुम उसे पुकारते हो, वह चाहता है तो उसे दूर कर देता है - और उन्हें भूल जाते हो जिन्हें साझीदार ठहराते हो।"॥41॥

وَلَقَدْ اَرْسَلْنَآ اِلٰٓى اُمَمٍ مِّنْ قَبْلِكَ فَاَخَذْنٰہُمْ بِالْبَاْسَاۗءِ وَالضَّرَّاۗءِ لَعَلَّہُمْ يَتَضَرَّعُوْنَ۝۴۲

तुमसे पहले कितने ही समुदायों की ओर हमने रसूल भेजे कि उन्हें तंगियों और मुसीबतों में डाला, ताकि वे विनम्र हों॥42॥

فَلَوْلَآ اِذْ جَاۗءَہُمْ بَاْسُـنَا تَضَرَّعُوْا وَلٰكِنْ قَسَتْ قُلُوْبُہُمْ وَزَيَّنَ لَہُمُ الشَّيْطٰنُ مَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ۝۴۳

जब हमारी ओर से उनपर सख्ती आई तो फिर क्यों न वे विनम्र हुए? परन्तु उनके हृदय तो कठोर हो गए थे और जो कुछ वे करते थे शैतान ने उसे उनके लिए मोहक बना दिया॥43॥

فَلَمَّا نَسُوْا مَا ذُكِّرُوْا بِہٖ فَتَحْنَا عَلَيْہِمْ اَبْوَابَ كُلِّ شَيْءٍ۝۰ۭ حَتّٰٓي اِذَا فَرِحُوْا بِمَآ اُوْتُوْٓا اَخَذْنٰہُمْ بَغْتَۃً فَاِذَا ہُمْ مُّبْلِسُوْنَ۝۴۴

फिर जब उसे उन्होंने भुला दिया जो उन्हें याद दिलाई गई थी, तो हमने उनपर हर चीज़ के दरवाज़े खोल दिए; यहाँ तक कि जो कुछ उन्हें मिला था, जब वे उसमें मग्न हो गए तो अचानक हमने उन्हें पकड़ लिया, तो क्या देखते है कि वे बिल्कुल निराश होकर रह गए॥44॥

فَقُطِعَ دَابِرُ الْقَوْمِ الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا۝۰ۭ وَالْحَـمْدُ لِلہِ رَبِّ الْعٰلَمِيْنَ۝۴۵

इस प्रकार अत्याचारी लोगों की जड़ काटकर रख दी गई। प्रशंसा अल्लाह ही के लिए है, जो सारे संसार का रब है॥45॥

قُلْ اَرَءَيْتُمْ اِنْ اَخَذَ اللہُ سَمْعَكُمْ وَاَبْصَارَكُمْ وَخَتَمَ عَلٰي قُلُوْبِكُمْ مَّنْ اِلٰہٌ غَيْرُ اللہِ يَاْتِيْكُمْ بِہٖ۝۰ۭ اُنْظُرْ كَيْفَ نُصَرِّفُ الْاٰيٰتِ ثُمَّ ہُمْ يَصْدِفُوْنَ۝۴۶

कहो, "क्या तुमने यह भी सोचा कि यदि अल्लाह तुम्हारे सुनने की और तुम्हारी देखने की शक्ति छीन ले और तुम्हारे दिलों पर ठप्पा लगा दे, तो अल्लाह के सिवा कौन पूज्य है जो तुम्हें ये चीज़े लाकर दे?" देखो, किस प्रकार हम तरह-तरह से अपनी निशानियाँ बयान करते है! फिर भी वे किनारा ही खींचते जाते है॥46॥

قُلْ اَرَءَيْتَكُمْ اِنْ اَتٰىكُمْ عَذَابُ اللہِ بَغْتَۃً اَوْ جَہْرَۃً ہَلْ يُہْلَكُ اِلَّا الْقَوْمُ الظّٰلِمُوْنَ۝۴۷

कहो, "क्या तुमने यह भी सोचा कि यदि तुमपर अचानक या प्रत्यक्षतः अल्लाह की यातना आ जाए, तो क्या अत्याचारी लोगों के सिवा कोई और विनष्ट होगा?"॥47॥

وَمَا نُرْسِلُ الْمُرْسَلِيْنَ اِلَّا مُبَشِّرِيْنَ وَمُنْذِرِيْنَ۝۰ۚ فَمَنْ اٰمَنَ وَاَصْلَحَ فَلَا خَوْفٌ عَلَيْہِمْ وَلَا ہُمْ يَحْزَنُوْنَ۝۴۸

हम रसूलों को केवल शुभ-सूचना देनेवाले और सचेतकर्ता बनाकर भेजते रहे है। फिर जो ईमान लाए और सुधर जाए, तो ऐसे लोगों के लिए न कोई भय है और न वे कभी दुखी होंगे॥48॥

وَالَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا يَمَسُّہُمُ الْعَذَابُ بِمَا كَانُوْا يَفْسُقُوْنَ۝۴۹

रहे वे लोग, जिन्होंने हमारी आयतों को झुठलाया, उन्हें यातना पहुँचकर रहेगी, क्योंकि वे अवज्ञा करते रहे है॥49॥

قُلْ لَّآ اَقُوْلُ لَكُمْ عِنْدِيْ خَزَاۗىِٕنُ اللہِ وَلَآ اَعْلَمُ الْغَيْبَ وَلَآ اَقُوْلُ لَكُمْ اِنِّىْ مَلَكٌ۝۰ۚ اِنْ اَتَّبِـــعُ اِلَّا مَا يُوْحٰٓى اِلَيَّ۝۰ۭ قُلْ ہَلْ يَسْتَوِي الْاَعْمٰى وَالْبَصِيْرُ۝۰ۭ اَفَلَا تَتَفَكَّرُوْنَ۝۵۰ۧ

कह दो, "मैं तुमसे यह नहीं कहता कि मेरे पास अल्लाह के ख़ज़ाने है, और न मैं परोक्ष का ज्ञान रखता हूँ, और न मैं तुमसे कहता हूँ कि मैं कोई फ़रिश्ता हूँ। मैं तो बस उसी का अनुपालन करता हूँ जो मेरी ओर वह्य की जाती है।" कहो, "क्या अंधा और आँखोंवाला दोनों बराबर हो जाएँगे? क्या तुम सोच-विचार से काम नहीं लेते?"॥50॥

وَاَنْذِرْ بِہِ الَّذِيْنَ يَخَافُوْنَ اَنْ يُّحْشَرُوْٓا اِلٰى رَبِّہِمْ لَيْسَ لَہُمْ مِّنْ دُوْنِہٖ وَلِيٌّ وَّلَا شَفِيْعٌ لَّعَلَّہُمْ يَتَّقُوْنَ۝۵۱

और तुम इसके द्वारा उन लोगों को सचेत कर दो, जिन्हें इस बात का भय है कि वे अपने रब के पास इस हाल में इकट्ठा किए जाएँगे कि उसके सिवा न तो उसका कोई समर्थक होगा और न कोई सिफ़ारिश करनेवाला, ताकि वे बचें॥51॥

وَلَا تَطْرُدِ الَّذِيْنَ يَدْعُوْنَ رَبَّہُمْ بِالْغَدٰوۃِ وَالْعَشِيِّ يُرِيْدُوْنَ وَجْہَہٗ۝۰ۭ مَا عَلَيْكَ مِنْ حِسَابِہِمْ مِّنْ شَيْءٍ وَّمَا مِنْ حِسَابِكَ عَلَيْہِمْ مِّنْ شَيْءٍ فَتَطْرُدَہُمْ فَتَكُوْنَ مِنَ الظّٰلِـمِيْنَ۝۵۲

और जो लोग अपने रब को उसकी ख़ुशी की चाह में प्रातः और सायंकाल पुकारते रहते है, ऐसे लोगों को दूर न करना। उनके हिसाब की तुमपर कुछ भी ज़िम्मेदारी नहीं है और न तुम्हारे हिसाब की उनपर कोई ज़िम्मेदारी है कि तुम उन्हें दूर करो और फिर हो जाओ अत्याचारियों में से॥52॥

وَكَذٰلِكَ فَتَنَّا بَعْضَہُمْ بِبَعْضٍ لِّيَقُوْلُوْٓا اَہٰٓؤُلَاۗءِ مَنَّ اللہُ عَلَيْہِمْ مِّنْۢ بَيْنِنَا۝۰ۭ اَلَيْسَ اللہُ بِاَعْلَمَ بِالشّٰكِرِيْنَ۝۵۳

और इसी प्रकार हमने इनमें से एक को दूसरे के द्वारा आज़माइश में डाला, ताकि वे कहें, "क्या यही वे लोग है, जिनपर अल्लाह न हममें से चुनकर एहसान किया है ?" - क्या अल्लाह कृतज्ञ लोगों से भली-भाँति परिचित नहीं है?॥53॥

وَاِذَا جَاۗءَكَ الَّذِيْنَ يُؤْمِنُوْنَ بِاٰيٰتِنَا فَقُلْ سَلٰمٌ عَلَيْكُمْ كَتَبَ رَبُّكُمْ عَلٰي نَفْسِہِ الرَّحْمَۃَ۝۰ۙ اَنَّہٗ مَنْ عَمِلَ مِنْكُمْ سُوْۗءًۢ ابِجَــہَالَۃٍ ثُمَّ تَابَ مِنْۢ بَعْدِہٖ وَاَصْلَحَ۝۰ۙ فَاَنَّہٗ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ۝۵۴

और जब तुम्हारे पास वे लोग आएँ, जो हमारी आयतों को मानते है, तो कहो, "सलाम हो तुमपर! तुम्हारे रब ने दयालुता को अपने ऊपर अनिवार्य कर लिया है कि तुममें से जो कोई नासमझी से कोई बुराई कर बैठे, फिर उसके बाद पलट आए और अपना सुधार कर ले तो वह बड़ा क्षमाशील, दयावान है।"॥54॥

وَكَذٰلِكَ نُفَصِّلُ الْاٰيٰتِ وَلِتَسْتَبِيْنَ سَبِيْلُ الْمُجْرِمِيْنَ۝۵۵ۧ

इसी प्रकार हम अपनी आयतें खोल-खोलकर बयान करते है (ताकि तुम हर ज़रूरी बात जान लो) और इसलिए कि अपराधियों का मार्ग स्पष्ट हो जाए॥55॥

قُلْ اِنِّىْ نُہِيْتُ اَنْ اَعْبُدَ الَّذِيْنَ تَدْعُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللہِ۝۰ۭ قُلْ لَّآ اَتَّبِعُ اَہْوَاۗءَكُمْ۝۰ۙ قَدْ ضَلَلْتُ اِذًا وَّمَآ اَنَا مِنَ الْمُہْتَدِيْنَ۝۵۶

कह दो, "तुम लोग अल्लाह से हटकर जिन्हें पुकारते हो, उनकी बन्दगी करने से मुझे रोका गया है।" कहो, "मैं तुम्हारी इच्छाओं का अनुपालन नहीं करता, क्योंकि तब तो मैं मार्ग से भटक गया और मार्ग पानेवालों में से न रहा।"॥56॥

قُلْ اِنِّىْ عَلٰي بَيِّنَۃٍ مِّنْ رَّبِّيْ وَكَذَّبْتُمْ بِہٖ۝۰ۭ مَا عِنْدِيْ مَا تَسْتَعْجِلُوْنَ بِہٖ۝۰ۭ اِنِ الْحُكْمُ اِلَّا لِلہِ۝۰ۭ يَقُصُّ الْحَقَّ وَہُوَخَيْرُ الْفٰصِلِيْنَ۝۵۷

कह दो, "मैं अपने रब की ओर से एक स्पष्ट प्रमाण पर क़ायम हूँ और तुमने उसे झुठला दिया है। जिस चीज़ के लिए तुम जल्दी मचा रहे हो, वह कोई मेरे पास तो नहीं है। निर्णय का सारा अधिकार अल्लाह ही को है, वही सच्ची बात बयान करता है और वही सबसे अच्छा निर्णायक है।"॥57॥

قُلْ لَّوْ اَنَّ عِنْدِيْ مَا تَسْتَعْجِلُوْنَ بِہٖ لَقُضِيَ الْاَمْرُ بَيْــنِيْ وَبَيْنَكُمْ۝۰ۭ وَاللہُ اَعْلَمُ بِالظّٰلِـمِيْنَ۝۵۸

कह दो, "जिस चीज़ की तुम्हें जल्दी पड़ी हुई है, यदि कहीं वह चीज़ मेरे पास होती तो मेरे और तुम्हारे बीच कभी का फ़ैसला हो चुका होता। और अल्लाह अत्याचारियों को भली-भाती जानता है।"॥58॥

۞ وَعِنْدَہٗ مَفَاتِحُ الْغَيْبِ لَا يَعْلَمُہَآ اِلَّا ہُوَ۝۰ۭ وَيَعْلَمُ مَا فِي الْبَرِّ وَالْبَحْرِ۝۰ۭ وَمَا تَسْقُطُ مِنْ وَّرَقَۃٍ اِلَّا يَعْلَمُہَا وَلَا حَبَّۃٍ فِيْ ظُلُمٰتِ الْاَرْضِ وَلَا رَطْبٍ وَّلَا يَابِسٍ اِلَّا فِيْ كِتٰبٍ مُّبِيْنٍ۝۵۹

उसी के पास परोक्ष की कुंजियाँ है, जिन्हें उसके सिवा कोई नहीं जानता। जल और थल में जो कुछ है, उसे वह जानता है। और जो पत्ता भी गिरता है, उसे वह निश्चय ही जानता है। और धरती के अँधेरों में कोई दाना हो और कोई भी आर्द्र (गीली) और शुष्क (सूखी) चीज़ हो, निश्चय ही एक स्पष्ट किताब में मौजूद है॥59॥

وَہُوَالَّذِيْ يَتَوَفّٰىكُمْ بِالَّيْلِ وَيَعْلَمُ مَا جَرَحْتُمْ بِالنَّہَارِ ثُمَّ يَبْعَثُكُمْ فِيْہِ لِيُقْضٰٓى اَجَلٌ مُّسَمًّى۝۰ۚ ثُمَّ اِلَيْہِ مَرْجِعُكُمْ ثُمَّ يُنَبِّئُكُمْ بِمَا كُنْتُمْ تَعْمَلُوْنَ۝۶۰ۧ

और वही है जो रात को तुम्हें मौत देता है और दिन में जो कुछ तुमने किया उसे जानता है। फिर वह इसलिए तुम्हें उठाता है, ताकि निश्चित अवधि पूरा हो जाए; फिर उसी की ओर तुम्हें लौटना है, फिर वह तुम्हें बता देगा जो कुछ तुम करते रहे हो॥60॥

وَہُوَالْقَاہِرُ فَوْقَ عِبَادِہٖ وَيُرْسِلُ عَلَيْكُمْ حَفَظَۃً۝۰ۭ حَتّٰٓي اِذَا جَاۗءَ اَحَدَكُمُ الْمَوْتُ تَوَفَّتْہُ رُسُلُنَا وَہُمْ لَا يُفَرِّطُوْنَ۝۶۱

और वही अपने बन्दों पर पूरा-पूरा क़ाबू रखनेवाला है और वह तुमपर निगरानी करनेवाले को नियुक्त करके भेजता है, यहाँ तक कि जब तुममें से किसी की मृत्यु आ जाती है, जो हमारे भेजे हुए कार्यकर्त्ता उसे अपने क़ब्ज़े में कर लेते है और वे कोई कोताही नहीं करते॥61॥

ثُمَّ رُدُّوْٓا اِلَى اللہِ مَوْلٰىہُمُ الْحَقِّ۝۰ۭ اَلَا لَہُ الْحُكْمُ۝۰ۣ وَہُوَاَسْرَعُ الْحٰسِبِيْنَ۝۶۲

फिर सब अल्लाह की ओर, जो उसका वास्तविक स्वामी है, लौट जाएँगे। जान लो, निर्णय का अधिकार उसी को है और वह बहुत जल्द हिसाब लेनेवाला है॥62॥

قُلْ مَنْ يُّنَجِّيْكُمْ مِّنْ ظُلُمٰتِ الْبَرِّ وَالْبَحْرِ تَدْعُوْنَہٗ تَضَرُّعًا وَّخُفْيَۃً۝۰ۚ لَىِٕنْ اَنْجٰىنَا مِنْ ہٰذِہٖ لَنَكُوْنَنَّ مِنَ الشّٰكِرِيْنَ۝۶۳

कहो, "कौन है जो थल और जल के अँधेरो से तुम्हे छुटकारा देता है, जिसे तुम गिड़गिड़ाते हुए और चुपके-चुपके पुकारने लगते हो कि यदि हमें इससे बचा लिया तो हम अवश्य की कृतज्ञ हो जाएँगे?"॥63॥

قُلِ اللہُ يُنَجِّيْكُمْ مِّنْہَا وَمِنْ كُلِّ كَرْبٍ ثُمَّ اَنْتُمْ تُشْرِكُوْنَ۝۶۴

कहो, "अल्लाह तुम्हें इनसे और हरके बेचैनी और पीड़ा से छुटकारा देता है, लेकिन फिर तुम उसका साझीदार ठहराने लगते हो।"॥64॥

قُلْ ہُوَالْقَادِرُ عَلٰٓي اَنْ يَّبْعَثَ عَلَيْكُمْ عَذَابًا مِّنْ فَوْقِكُمْ اَوْ مِنْ تَحْتِ اَرْجُلِكُمْ اَوْ يَلْبِسَكُمْ شِيَعًا وَّيُذِيْقَ بَعْضَكُمْ بَاْسَ بَعْضٍ۝۰ۭ اُنْظُرْ كَيْفَ نُصَرِّفُ الْاٰيٰتِ لَعَلَّہُمْ يَفْقَہُوْنَ۝۶۵

कहो, "वह इसकी सामर्थ्य रखता है कि तुमपर तुम्हारे ऊपर से या तुम्हारे पैरों के नीचे से कोई यातना भेज दे या तुम्हें टोलियों में बाँटकर परस्पर भिड़ा दे और एक को दूसरे की लड़ाई का मज़ा चखाए।" देखो, हम आयतों को कैसे, तरह-तरह से, बयान करते है, ताकि वे समझे॥65॥

وَكَذَّبَ بِہٖ قَوْمُكَ وَہُوَالْحَقُّ۝۰ۭ قُلْ لَّسْتُ عَلَيْكُمْ بِوَكِيْلٍ۝۶۶ۭ

तुम्हारी क़ौम ने तो उसे झुठला दिया, हालाँकि वह सत्य है। कह दो, मैं "तुमपर कोई संरक्षक नियुक्त नहीं हूँ॥66॥

لِكُلِّ نَبَاٍ مُّسْـتَقَرٌّ۝۰ۡوَّسَوْفَ تَعْلَمُوْنَ۝۶۷

"हर ख़बर का एक निश्चित समय है और शीघ्र ही तुम्हें ज्ञात हो जाएगा।"॥67॥

وَاِذَا رَاَيْتَ الَّذِيْنَ يَخُوْضُوْنَ فِيْٓ اٰيٰتِنَا فَاَعْرِضْ عَنْہُمْ حَتّٰي يَخُوْضُوْا فِيْ حَدِيْثٍ غَيْرِہٖ۝۰ۭ وَاِمَّا يُنْسِيَنَّكَ الشَّيْطٰنُ فَلَا تَقْعُدْ بَعْدَ الذِّكْرٰي مَعَ الْقَوْمِ الظّٰلِـمِيْنَ۝۶۸

और जब तुम उन लोगों को देखो, जो हमारी आयतों नुक्तामचीनी करने में लगे हुए है, तो उनसे मुँह फेर लो, ताकि वे किसी दूसरी बात में लग जाएँ। और यदि कभी शैतान तुम्हें भुलावे में डाल दे, तो याद आ जाने के बाद उन अत्याचारियों के पास न बैठो॥68॥

وَمَا عَلَي الَّذِيْنَ يَتَّقُوْنَ مِنْ حِسَابِہِمْ مِّنْ شَيْءٍ وَّلٰكِنْ ذِكْرٰي لَعَلَّہُمْ يَتَّقُوْنَ۝۶۹

उनके हिसाब के प्रति तो उन लोगो पर कुछ भी ज़िम्मेदारी नहीं, जो डर रखते है। यदि है तो बस याद दिलाने की; ताकि वे डरें॥69॥

وَذَرِ الَّذِيْنَ اتَّخَذُوْا دِيْنَہُمْ لَعِبًا وَّلَہْوًا وَّغَرَّتْہُمُ الْحَيٰوۃُ الدُّنْيَا وَذَكِّرْ بِہٖٓ اَنْ تُبْسَلَ نَفْسٌۢ بِمَا كَسَبَتْ۝۰ۤۖ لَيْسَ لَہَا مِنْ دُوْنِ اللہِ وَلِيٌّ وَّلَا شَفِيْعٌ۝۰ۚ وَاِنْ تَعْدِلْ كُلَّ عَدْلٍ لَّا يُؤْخَذْ مِنْہَا۝۰ۭ اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ اُبْسِلُوْا بِمَا كَسَبُوْا۝۰ۚ لَہُمْ شَرَابٌ مِّنْ حَمِيْمٍ وَّعَذَابٌ اَلِيْمٌۢ بِمَا كَانُوْا يَكْفُرُوْنَ۝۷۰ۧ

छोड़ो उन लोगों को, जिन्होंने अपने धर्म को खेल और तमाशा बना लिया है और उन्हें सांसारिक जीवन ने धोखे में डाल रखा है। और इसके द्वारा उन्हें नसीहत करते रहो कि कहीं ऐसा न हो कि कोई अपनी कमाई के कारण तबाही में पड़ जाए। अल्लाह से हटकर कोई भी नहीं, जो उसका समर्थक और सिफ़ारिश करनेवाला हो सके और यदि वह छुटकारा पाने के लिए बदले के रूप में हर सम्भव चीज़ देने लगे, तो भी वह उसने न लिया जाएगी। ऐसे ही लोग है, जो अपनी कमाई के कारण तबाही में पड गए। उनके लिए पीने को खौलता हुआ पानी है और दुखद यातना भी; क्योंकि वे इनकार करते रहे थे॥70॥

قُلْ اَنَدْعُوْا مِنْ دُوْنِ اللہِ مَا لَا يَنْفَعُنَا وَلَا يَضُرُّنَا وَنُرَدُّ عَلٰٓي اَعْقَابِنَا بَعْدَ اِذْ ہَدٰىنَا اللہُ كَالَّذِي اسْتَہْوَتْہُ الشَّيٰطِيْنُ فِي الْاَرْضِ حَيْرَانَ۝۰۠ لَہٗٓ اَصْحٰبٌ يَّدْعُوْنَہٗٓ اِلَى الْہُدَى ائْتِنَا۝۰ۭ قُلْ اِنَّ ہُدَى اللہِ ہُوَالْہُدٰي۝۰ۭ وَاُمِرْنَا لِنُسْلِمَ لِرَبِّ الْعٰلَمِيْنَ۝۷۱ۙ

कहो, "क्या हम अल्लाह को छोड़कर उसे पुकारने लग जाएँ जो न तो हमें लाभ पहुँचा सके और न हमें हानि पहुँचा सके और हम उलटे पाँव फिर जाएँ, जबकि अल्लाह ने हमें मार्ग पर लगा दिया है? - उस व्यक्ति की तरह जिसे शैतानों ने धरती पर भटका दिया हो और वह हैरान होकर रह गया हो। उसके कुछ साथी हो, जो उसे मार्ग की ओर बुला रहे हो कि हमारे पास चला आ!" कह दो, "मार्गदर्शन केवल अल्लाह का मार्गदर्शन है और हमें इसी बात का आदेश हुआ है कि हम सारे संसार के स्वामी को समर्पित हो जाएँ।"॥71॥

وَاَنْ اَقِيْمُوا الصَّلٰوۃَ وَاتَّقُوْہُ۝۰ۭ وَہُوَالَّذِيْٓ اِلَيْہِ تُحْشَرُوْنَ۝۷۲

और यह कि "नमाज़ क़ायम करो और उसका डर रखो। वही है, जिसके पास तुम इकट्ठे किए जाओगे,॥72॥

وَہُوَالَّذِيْ خَلَقَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ بِالْحَقِّ۝۰ۭ وَيَوْمَ يَقُوْلُ كُنْ فَيَكُوْنُ۝۰ۥۭ قَوْلُہُ الْحَقُّ۝۰ۭ وَلَہُ الْمُلْكُ يَوْمَ يُنْفَخُ فِي الصُّوْرِ۝۰ۭ عٰلِمُ الْغَيْبِ وَالشَّہَادَۃِ۝۰ۭ وَہُوَالْحَكِيْمُ الْخَبِيْرُ۝۷۳

"और वही है जिसने आकाशों और धरती को हक़ के साथ पैदा किया। और जिस समय वह किसी चीज़ को कहे, 'हो जा', तो वह उसी समय वह हो जाती है। उसकी बात सर्वथा सत्य है और जिस दिन 'सूर' (नरसिंघा) में फूँक मारी जाएगी, राज्य उसी का होगा। वह सभी छिपी और खुली चीज़ का जाननेवाला है, और वही तत्वदर्शी, ख़बर रखनेवाला है।"॥73॥

۞ وَاِذْ قَالَ اِبْرٰہِيْمُ لِاَبِيْہِ اٰزَرَ اَتَتَّخِذُ اَصْنَامًا اٰلِہَۃً۝۰ۚ اِنِّىْٓ اَرٰىكَ وَقَوْمَكَ فِيْ ضَلٰلٍ مُّبِيْنٍ۝۷۴

और याद करो, जब इबराहीम ने अपने बाप आज़र से कहा था, "क्या तुम मूर्तियों को पूज्य बनाते हो? मैं तो तुम्हें और तुम्हारी क़ौम को खुली गुमराही में पड़ा देख रहा हूँ।"॥74॥

وَكَذٰلِكَ نُرِيْٓ اِبْرٰہِيْمَ مَلَكُوْتَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَلِيَكُوْنَ مِنَ الْمُوْقِنِيْنَ۝۷۵

और इस प्रकार हम इबराहीम को आकाशों और धरती का राज्य दिखाने लगे (ताकि उसके ज्ञान का विस्तार हो) और इसलिए कि उसे विश्वास हो॥75॥

فَلَمَّا جَنَّ عَلَيْہِ الَّيْلُ رَاٰ كَوْكَبًا۝۰ۚ قَالَ ہٰذَا رَبِّيْ۝۰ۚ فَلَمَّآ اَفَلَ قَالَ لَآ اُحِبُّ الْاٰفِلِيْنَ۝۷۶

अतएवः जब रात उसपर छा गई, तो उसने एक तारा देखा। उसने कहा, "इसे मेरा रब ठहराते हो!" फिर जब वह छिप गया तो बोला, "छिप जानेवालों से मैं प्रेम नहीं करता।"॥76॥

فَلَمَّا رَاَ الْقَمَرَ بَازِغًا قَالَ ہٰذَا رَبِّيْ۝۰ۚ فَلَمَّآ اَفَلَ قَالَ لَىِٕنْ لَّمْ يَہْدِنِيْ رَبِّيْ لَاَكُوْنَنَّ مِنَ الْقَوْمِ الضَّاۗلِّيْنَ۝۷۷

फिर जब उसने चाँद को चमकता हुआ देखा, तो कहा, "इसको मेरा रब ठहराते हो!" फिर जब वह छिप गया, तो कहा, "यदि मेरा रब मुझे मार्ग न दिखाता तो मैं भी पथभ्रष्ट! लोगों में सम्मिलित हो जाता।"॥77॥

فَلَمَّا رَاَ الشَّمْسَ بَازِغَۃً قَالَ ہٰذَا رَبِّيْ ہٰذَآ اَكْبَرُ۝۰ۚ فَلَمَّآ اَفَلَتْ قَالَ يٰقَوْمِ اِنِّىْ بَرِيْۗءٌ مِّمَّا تُشْرِكُوْنَ۝۷۸

फिर जब उसने सूर्य को चमकता हुआ देखा, तो कहा, "इसे मेरा रब ठहराते हो! यह तो बहुत बड़ा है।" फिर जब वह भी छिप गया, तो कहा, "ऐ मेरी क़ौम के लोगो! मैं विरक्तग हूँ उनसे जिनको तुम साझी ठहराते हो॥78॥

اِنِّىْ وَجَّہْتُ وَجْہِيَ لِلَّذِيْ فَطَرَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ حَنِيْفًا وَّمَآ اَنَا مِنَ الْمُشْرِكِيْنَ۝۷۹ۚ

"मैंने तो एकाग्र होकर अपना मुख उसकी ओर कर लिया है, जिसने आकाशों और धरती को पैदा किया। और मैं साझी ठहरानेवालों में से नहीं।"॥79॥

وَحَاۗجَّہٗ قَوْمُہٗ۝۰ۭ قَالَ اَتُحَاۗجُّوْۗنِّىْ فِي اللہِ وَقَدْ ہَدٰىنِ۝۰ۭ وَلَآ اَخَافُ مَا تُشْرِكُوْنَ بِہٖٓ اِلَّآ اَنْ يَّشَاۗءَ رَبِّيْ شَـيْــــًٔـا۝۰ۭ وَسِعَ رَبِّيْ كُلَّ شَيْءٍ عِلْمًا۝۰ۭ اَفَلَا تَتَذَكَّرُوْنَ۝۸۰

उसकी क़ौम के लोग उससे झगड़ने लगे। उसने कहा, "क्या तुम मुझसे अल्लाह के विषय में झगड़ते हो? जबकि उसने मुझे मार्ग दिखा दिया है। मैं उनसे नहीं डरता, जिन्हें तुम उसका सहभागी ठहराते हो, बल्कि मेरा रब जो कुछ चाहता है वही पूरा होकर रहता है। प्रत्येक वस्तु मेरे रब की ज्ञान-परिधि के भीतर है। फिर क्या तुम चेतोगे नहीं?॥80॥

وَكَيْفَ اَخَافُ مَآ اَشْرَكْتُمْ وَلَا تَخَافُوْنَ اَنَّكُمْ اَشْرَكْتُمْ بِاللہِ مَا لَمْ يُنَزِّلْ بِہٖ عَلَيْكُمْ سُلْطٰنًا۝۰ۭ فَاَيُّ الْفَرِيْقَيْنِ اَحَقُّ بِالْاَمْنِ۝۰ۚ اِنْ كُنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ۝۸۱ۘ

"और मैं तुम्हारे ठहराए हुए साझीदारो से कैसे डरूँ, जबकि तुम इस बात से नहीं डरते कि तुमने उसे अल्लाह का सहभागी उस चीज़ को ठहराया है, जिसका उसने तुमपर कोई प्रमाण अवतरित नहीं किया? अब दोनों फ़रीकों में से कौन अधिक निश्चिन्त रहने का अधिकारी है? बताओ यदि तुम जानते हो॥81॥

اَلَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَلَمْ يَلْبِسُوْٓا اِيْمَانَہُمْ بِظُلْمٍ اُولٰۗىِٕكَ لَہُمُ الْاَمْنُ وَہُمْ مُّہْتَدُوْنَ۝۸۲ۧ

"जो लोग ईमान लाए और अपने ईमान में किसी (शिर्क) ज़ुल्म की मिलावट नहीं की, वही लोग है जो भय मुक्त है और वही सीधे मार्ग पर हैं।"॥82॥

وَتِلْكَ حُجَّتُنَآ اٰتَيْنٰہَآ اِبْرٰہِيْمَ عَلٰي قَوْمِہٖ۝۰ۭ نَرْفَعُ دَرَجٰتٍ مَّنْ نَّشَاۗءُ۝۰ۭ اِنَّ رَبَّكَ حَكِيْمٌ عَلِيْمٌ۝۸۳

यह है हमारा वह तर्क जो हमने इबराहीम को उसकी अपनी क़ौम के मुक़ाबले में प्रदान किया था। हम जिसे चाहते है दर्जों (श्रेणियों) में ऊँचा कर देते हैं। निस्संदेह तुम्हारा रब तत्वदर्शी, सर्वज्ञ है॥83॥

وَوَہَبْنَا لَہٗٓ اِسْحٰقَ وَيَعْقُوْبَ۝۰ۭ كُلًّا ہَدَيْنَا۝۰ۚ وَنُوْحًا ہَدَيْنَا مِنْ قَبْلُ وَمِنْ ذُرِّيَّتِہٖ دَاوٗدَ وَسُلَيْمٰنَ وَاَيُّوْبَ وَيُوْسُفَ وَمُوْسٰي وَہٰرُوْنَ۝۰ۭ وَكَذٰلِكَ نَجْزِي الْمُحْسِـنِيْنَ۝۸۴ۙ

और हमने उसे (इबराहीम को) इसहाक़ और याक़ूब दिए; हर एक को मार्ग दिखाया - और नूह को हमने इससे पहले मार्ग दिखाया था, और उसकी सन्तान में दाऊद, सुलैमान, अय्यूब, यूसुफ़, मूसा और हारून को भी - और इस प्रकार हम शुभ-सुन्दर कर्म करनेवालों को बदला देते है -॥84॥

وَزَكَرِيَّا وَيَحْيٰى وَعِيْسٰي وَاِلْيَاسَ۝۰ۭ كُلٌّ مِّنَ الصّٰلِحِيْنَ۝۸۵ۙ

और ज़करिया, यह्या, ईसा और इलयास को भी (मार्ग दिखलाया)। इनमें का हर एक योग्य और नेक था॥85॥

وَاِسْمٰعِيْلَ وَالْيَسَعَ وَيُوْنُسَ وَلُوْطًا۝۰ۭ وَكُلًّا فَضَّلْنَا عَلَي الْعٰلَمِيْنَ۝۸۶ۙ

और इसमाईल, अल-यसअ, यूनुस और लूत को भी। इनमें से हर एक को हमने संसार के मुक़ाबले में श्रेष्ठता प्रदान की॥86॥

وَمِنْ اٰبَاۗىِٕہِمْ وَذُرِّيّٰــتِہِمْ وَاِخْوَانِہِمْ۝۰ۚ وَاجْتَبَيْنٰہُمْ وَہَدَيْنٰہُمْ اِلٰى صِرَاطٍ مُّسْتَـقِيْمٍ۝۸۷

और उनके बाप-दादा और उनकी सन्तान और उनके भाई-बन्धुओं में भी कितने ही लोगों को (मार्ग दिखाया)। और हमने उन्हें चुन लिया और उन्हें सीधे मार्ग की ओर चलाया॥87॥

ذٰلِكَ ہُدَى اللہِ يَہْدِيْ بِہٖ مَنْ يَّشَاۗءُ مِنْ عِبَادِہٖ۝۰ۭ وَلَوْ اَشْرَكُوْا لَحَبِطَ عَنْہُمْ مَّا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ۝۸۸

यह अल्लाह का मार्गदर्शन है, जिसके द्वारा वह अपने बन्दों में से जिसको चाहता है मार्ग दिखाता है, और यदि उन लोगों ने कहीं अल्लाह का साझी ठहराया होता, तो उनका सब किया-धरा अकारथ हो जाता॥88॥

اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ اٰتَيْنٰہُمُ الْكِتٰبَ وَالْحُكْمَ وَالنُّبُوَّۃَ۝۰ۚ فَاِنْ يَّكْفُرْ بِہَا ہٰٓؤُلَاۗءِ فَقَدْ وَكَّلْنَا بِہَا قَوْمًا لَّيْسُوْا بِہَا بِكٰفِرِيْنَ۝۸۹

वे ऐसे लोग है जिन्हें हमने किताब और निर्णय-शक्ति और पैग़म्बरी प्रदान की थी (उसी प्रकार हमने मुहम्मद को भी किताब, निर्णय-शक्ति और पैग़म्बरी दी है)। फिर यदि ये लोग इसे मारने से इनकार करें, तो अब हमने इसको ऐसे लोगों को सौंपा है जो इसका इनकार नहीं करते॥89॥

اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ ہَدَى اللہُ فَبِہُدٰىہُمُ اقْتَدِہْ۝۰ۭ قُلْ لَّآ اَسْــــَٔـلُكُمْ عَلَيْہِ اَجْرًا۝۰ۭ اِنْ ہُوَاِلَّا ذِكْرٰي لِلْعٰلَمِيْنَ۝۹۰ۧ

वे (पिछले पैग़म्बर) ऐसे लोग थे, जिन्हें अल्लाह ने मार्ग दिखाया था, तो तुम उन्हीं के मार्ग का अनुसरण करो। कह दो, "मैं तुमसे उसका कोई प्रतिदान नहीं माँगता। वह तो सम्पूर्ण संसार के लिए बस एक प्रबोध है।"॥90॥

وَمَا قَدَرُوا اللہَ حَقَّ قَدْرِہٖٓ اِذْ قَالُوْا مَآ اَنْزَلَ اللہُ عَلٰي بَشَرٍ مِّنْ شَيْءٍ۝۰ۭ قُلْ مَنْ اَنْزَلَ الْكِتٰبَ الَّذِيْ جَاۗءَ بِہٖ مُوْسٰي نُوْرًا وَّہُدًى لِّلنَّاسِ تَجْعَلُوْنَہٗ قَرَاطِيْسَ تُبْدُوْنَہَا وَتُخْفُوْنَ كَثِيْرًا۝۰ۚ وَعُلِّمْتُمْ مَّا لَمْ تَعْلَمُوْٓا اَنْتُمْ وَلَآ اٰبَاۗؤُكُمْ۝۰ۭ قُلِ اللہُ۝۰ۙ ثُمَّ ذَرْہُمْ فِيْ خَوْضِہِمْ يَلْعَبُوْنَ۝۹۱

उन्होंने अल्लाह की क़द्र न जानी, जैसी उसकी क़द्र जाननी चाहिए थी, जबकि उन्होंने कहा, "अल्लाह ने किसी मनुष्य पर कुछ अवतरित ही नहीं किया है।" कहो, "फिर यह किताब किसने अवतरित की, जो मूसा लोगों के लिए प्रकाश और मार्गदर्शन के रूप में लाया था, जिसे तुम पन्ना-पन्ना करके रखते हो? उन्हें दिखाते भी हो, परन्तु बहुत-सा छिपा जाते हो। और तुम्हें वह ज्ञान दिया गया, जिसे न तुम जानते थे और न तुम्हारे बाप-दादा ही।" कह दो, "अल्लाह ही ने," फिर उन्हें छोड़ो कि वे अपनी नुक्ताचीनियों से खेलते रहें॥91॥

وَہٰذَا كِتٰبٌ اَنْزَلْنٰہُ مُبٰرَكٌ مُّصَدِّقُ الَّذِيْ بَيْنَ يَدَيْہِ وَلِتُنْذِرَ اُمَّ الْقُرٰي وَمَنْ حَوْلَہَا۝۰ۭ وَالَّذِيْنَ يُؤْمِنُوْنَ بِالْاٰخِرَۃِ يُؤْمِنُوْنَ بِہٖ وَہُمْ عَلٰي صَلَاتِہِمْ يُحَافِظُوْنَ۝۹۲

यह किताब है जिसे हमने उतारा है; बरकतवाली है; अपने से पहले की पुष्टि में है (ताकि तुम शुभ-सूचना दो) और ताकि तुम केन्द्रीय बस्ती (मक्का) और उसके चतुर्दिक बसनेवाले लोगों को सचेत करो, और जो लोग आख़िरत पर ईमान रखते है, वे इसपर भी ईमान लाते है। और वे अपनी नमाज़ की रक्षा करते है॥92॥

وَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنِ افْتَرٰي عَلَي اللہِ كَذِبًا اَوْ قَالَ اُوْحِيَ اِلَيَّ وَلَمْ يُوْحَ اِلَيْہِ شَيْءٌ وَّمَنْ قَالَ سَاُنْزِلُ مِثْلَ مَآ اَنْزَلَ اللہُ۝۰ۭ وَلَوْ تَرٰٓي اِذِ الظّٰلِمُوْنَ فِيْ غَمَرٰتِ الْمَوْتِ وَالْمَلٰۗىِٕكَۃُ بَاسِطُوْٓا اَيْدِيْہِمْ۝۰ۚ اَخْرِجُوْٓا اَنْفُسَكُمْ۝۰ۭ اَلْيَوْمَ تُجْزَوْنَ عَذَابَ الْہُوْنِ بِمَا كُنْتُمْ تَقُوْلُوْنَ عَلَي اللہِ غَيْرَ الْحَقِّ وَكُنْتُمْ عَنْ اٰيٰتِہٖ تَسْتَكْبِرُوْنَ۝۹۳

और उस व्यक्ति से बढ़कर अत्याचारी कौन होगा, जो अल्लाह पर मिथ्यारोपण करे या यह कहे कि "मेरी ओर प्रकाशना (वह्य) की गई है," हालाँकि उसकी ओर कोई भी प्रकाशना न की गई हो। और उस व्यक्ति से (बढ़कर अत्याचारी कौन होगा) जो यह कहे कि "मैं भी ऐसी चीज़ उतार दूँगा, जैसी अल्लाह ने उतारी है।" और यदि तुम देख सकते, जब अत्याचारी मृत्यु-यातनाओं में होते है और फ़रिश्ते अपने हाथ बढ़ा रहे होते है कि "निकालो अपने प्राण! आज तुम्हें अपमानजनक यातना दी जाएगी, क्योंकि तुम अल्लाह के प्रति झूठ बका करते थे और उसकी आयतों के मुक़ाबले में अकड़ते थे।"॥93॥

وَلَقَدْ جِئْتُمُوْنَا فُرَادٰي كَـمَا خَلَقْنٰكُمْ اَوَّلَ مَرَّۃٍ وَّتَرَكْتُمْ مَّا خَوَّلْنٰكُمْ وَرَاۗءَ ظُہُوْرِكُمْ۝۰ۚ وَمَا نَرٰي مَعَكُمْ شُفَعَاۗءَكُمُ الَّذِيْنَ زَعَمْتُمْ اَنَّہُمْ فِيْكُمْ شُرَكٰۗؤُا۝۰ۭ لَقَدْ تَّقَطَّعَ بَيْنَكُمْ وَضَلَّ عَنْكُمْ مَّا كُنْتُمْ تَزْعُمُوْنَ۝۹۴ۧ

और निश्चय ही तुम उसी प्रकार एक-एक करके हमारे पास आ गए, जिस प्रकार हमने तुम्हें पहली बार पैदा किया था। और जो कुछ हमने तुम्हें दे रखा था उसे अपने पीछे छोड़ आए, और हम तुम्हारे साथ तुम्हारे उन सिफ़ारिशियों को भी नहीं देख रहे हैं जिनके विषय में तुम दावे से कहते थे कि वे तुम्हारे मामले में (अल्लाह के) शरीक है। तुम्हारे पारस्परिक सम्बन्ध टूट चुके है और वे सब तुमसे गुम होकर रह गए, जो दावे तुम किया करते थे॥94॥

۞ اِنَّ اللہَ فَالِقُ الْحَبِّ وَالنَّوٰى۝۰ۭ يُخْرِجُ الْـحَيَّ مِنَ الْمَيِّتِ وَمُخْرِجُ الْمَيِّتِ مِنَ الْـحَيِّ۝۰ۭ ذٰلِكُمُ اللہُ فَاَنّٰى تُؤْفَكُوْنَ۝۹۵

निश्चाय ही अल्लाह दाने और गुठली को फाड़ निकालता है, सजीव को निर्जीव से निकालता है और निर्जीव को सजीव से निकालने वाला है। वही अल्लाह है - फिर तुम कहाँ औंधे हुए जाते हो? - ॥95॥

فَالِقُ الْاِصْبَاحِ۝۰ۚ وَجَعَلَ الَّيْلَ سَكَنًا وَّالشَّمْسَ وَالْقَمَرَ حُسْـبَانًا۝۰ۭ ذٰلِكَ تَقْدِيْرُ الْعَزِيْزِ الْعَلِيْمِ۝۹۶

पौ फाड़ता है, और उसी ने रात को आराम के लिए बनाया और सूर्य और चन्द्रमा को (समय के) हिसाब का साधन ठहराया। यह बड़े शक्तिमान, सर्वज्ञ का ठहराया हुआ परिणाम है॥96॥

وَہُوَالَّذِيْ جَعَلَ لَكُمُ النُّجُوْمَ لِتَہْتَدُوْا بِہَا فِيْ ظُلُمٰتِ الْبَرِّ وَالْبَحْرِ۝۰ۭ قَدْ فَصَّلْنَا الْاٰيٰتِ لِقَوْمٍ يَّعْلَمُوْنَ۝۹۷

और वही है जिसने तुम्हारे लिए तारे बनाए, ताकि तुम उनके द्वारा स्थल और (जल) समुद्र के अंधकारों में मार्ग पा सको। जो लोग जानना चाहे उनके लिए हमने निशानियाँ खोल-खोलकर बयान कर दी है॥97॥

وَہُوَالَّذِيْٓ اَنْشَاَكُمْ مِّنْ نَّفْسٍ وَّاحِدَۃٍ فَمُسْتَقَرٌّ وَّمُسْـتَوْدَعٌ۝۰ۭ قَدْ فَصَّلْنَا الْاٰيٰتِ لِقَوْمٍ يَّفْقَہُوْنَ۝۹۸

और वही तो है, जिसने तुम्हें अकेली जान पैदा किया। अतः एक अवधि तक ठहरना है और फिर सौंप देना है। उन लोगों के लिए, जो समझे, हमने निशानियाँ खोल-खोलकर बयान कर दी है॥98॥

وَہُوَالَّذِيْٓ اَنْزَلَ مِنَ السَّمَاۗءِ مَاۗءً۝۰ۚ فَاَخْرَجْنَا بِہٖ نَبَاتَ كُلِّ شَيْءٍ فَاَخْرَجْنَا مِنْہُ خَضِرًا نُّخْرِجُ مِنْہُ حَبًّا مُّتَرَاكِبًا۝۰ۚ وَمِنَ النَّخْلِ مِنْ طَلْعِہَا قِنْوَانٌ دَانِيَۃٌ وَّجَنّٰتٍ مِّنْ اَعْنَابٍ وَّالزَّيْتُوْنَ وَالرُّمَّانَ مُشْتَبِہًا وَّغَيْرَ مُتَشَابِہٍ۝۰ۭ اُنْظُرُوْٓا اِلٰى ثَمَرِہٖٓ اِذَآ اَثْمَــرَ وَيَنْعِہٖ۝۰ۭ اِنَّ فِيْ ذٰلِكُمْ لَاٰيٰتٍ لِّقَوْمٍ يُّؤْمِنُوْنَ۝۹۹

और वही है जिसने आकाश से पानी बरसाया, फिर हमने उसके द्वारा हर प्रकार की वनस्पति उगाई; फिर उससे हमने हरी-भरी पत्तियाँ निकाली और तने विकसित किए, जिससे हम तले-ऊपर चढे हुए दाने निकालते है - और खजूर के गाभे से झुके पड़ते गुच्छे भी - और अंगूर, ज़ैतून और अनार के बाग़ लगाए, जो एक-दूसरे से मिलते-जुलते  भी होते है। और एक दूसरे से भिन्न  भी होते है। उसके फल को देखा, जब वह फलता है, और उसके पकने को भी देखो! निस्संदेह ईमान लानेवाले लोगों को लिए इनमें बड़ी निशानियाँ है॥99॥

وَجَعَلُوْا لِلہِ شُرَكَاۗءَ الْجِنَّ وَخَلَقَہُمْ وَخَرَقُوْا لَہٗ بَنِيْنَ وَبَنٰتٍؚبِغَيْرِ عِلْمٍ۝۰ۭ سُبْحٰنَہٗ وَتَعٰلٰى عَمَّا يَصِفُوْنَ۝۱۰۰ۧ

और लोगों ने जिन्नों को अल्लाह का साझी ठहरा रखा है; हालाँकि उन्हें उसी ने पैदा किया है। और बेजाने-बूझे उनके लिए बेटे और बेटियाँ घड़ ली है। यह उसकी महिमा के प्रतिकूल है! यह उन बातों से उच्च है, जो वे बयान करते है!॥100॥

بَدِيْعُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ۝۰ۭ اَنّٰى يَكُوْنُ لَہٗ وَلَدٌ وَّلَمْ تَكُنْ لَّہٗ صَاحِبَۃٌ۝۰ۭ وَخَلَقَ كُلَّ شَيْءٍ۝۰ۚ وَہُوَبِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمٌ۝۱۰۱

वह आकाशों और धरती का सर्वप्रथम पैदा करनेवाला है। उसका कोई बेटा कैसे हो सकता है, जबकि उसकी पत्नी ही नहीं? और उसी ने हर चीज़ को पैदा किया है और उसे हर चीज़ का ज्ञान है॥101॥

ذٰلِكُمُ اللہُ رَبُّكُمْ۝۰ۚ لَآ اِلٰہَ اِلَّا ہُوَ۝۰ۚ خَالِقُ كُلِّ شَيْءٍ فَاعْبُدُوْہُ۝۰ۚ وَہُوَعَلٰي كُلِّ شَيْءٍ وَّكِيْلٌ۝۱۰۲

वही अल्लाह तुम्हारा रब; उसके सिवा कोई पूज्य नहीं; हर चीज़ का स्रष्टा है; अतः तुम उसी की बन्दगी करो। वही हर चीज़ का ज़िम्मेदार है॥102॥

لَا تُدْرِكُہُ الْاَبْصَارُ۝۰ۡوَہُوَيُدْرِكُ الْاَبْصَارَ۝۰ۚ وَہُوَاللَّطِيْفُ الْخَبِيْرُ۝۱۰۳

निगाहें उसे नहीं पा सकतीं, बल्कि वही निगाहों को पा लेता है। वह अत्यन्त सूक्ष्म (एवं सूक्ष्मदर्शी) ख़बर रखनेवाला है॥103॥

قَدْ جَاۗءَكُمْ بَصَاۗىِٕرُ مِنْ رَّبِّكُمْ۝۰ۚ فَمَنْ اَبْصَرَ فَلِنَفْسِہٖ۝۰ۚ وَمَنْ عَمِيَ فَعَلَيْہَا۝۰ۭ وَمَآ اَنَا عَلَيْكُمْ بِحَفِيْظٍ۝۱۰۴

तुम्हारे पास तुम्हारे रब की ओर से आँख खोल देनेवाले प्रमाण आ चुके है; तो जिस किसी ने देखा, अपना ही भला किया और जो अन्‍धा बना रहा तो वह अपने ही को हानि पहुँचाएगा। और मैं तुमपर कोई नियुक्त रखवाला नहीं हूँ॥104॥

وَكَذٰلِكَ نُصَرِّفُ الْاٰيٰتِ وَلِيَقُوْلُوْا دَرَسْتَ وَلِنُبَيِّنَہٗ لِقَوْمٍ يَّعْلَمُوْنَ۝۱۰۵

और इसी प्रकार हम अपनी आयतें विभिन्न ढंग से बयान करते है (कि वे सुने) और इसलिए कि वे कह लें, "(ऐ मुहम्मद!) तुमने कहीं से पढ़-पढ़ा लिया है।" और इसलिए भी कि हम उनके लिए जो जानना चाहें, सत्य को स्पष्ट कर दें॥105॥

اِتَّبِعْ مَآ اُوْحِيَ اِلَيْكَ مِنْ رَّبِّكَ۝۰ۚ لَآ اِلٰہَ اِلَّا ہُوَ۝۰ۚ وَاَعْرِضْ عَنِ الْمُشْرِكِيْنَ۝۱۰۶

तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारी तरफ़ जो वह्य की गई है उसी का अनुसरण किए जाओ, उसके सिवा कोई पूज्य नहीं और बहुदेववादियों (की कुनीति) पर ध्यान न दो॥106॥

وَلَوْ شَاۗءَ اللہُ مَآ اَشْرَكُوْا۝۰ۭ وَمَا جَعَلْنٰكَ عَلَيْہِمْ حَفِيْظًا۝۰ۚ وَمَآ اَنْتَ عَلَيْہِمْ بِوَكِيْلٍ۝۱۰۷

यदि अल्लाह चाहता तो वे (उसका) साझी न ठहराते। तुम्हें हमने उनपर कोई नियुक्त संरक्षक तो नहीं बनाया है और न तुम उनके कोई ज़िम्मेदार ही हो॥107॥

وَلَا تَسُبُّوا الَّذِيْنَ يَدْعُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللہِ فَيَسُبُّوا اللہَ عَدْوًۢا بِغَيْرِ عِلْمٍ۝۰ۭ كَذٰلِكَ زَيَّنَّا لِكُلِّ اُمَّۃٍ عَمَلَہُمْ۝۰۠ ثُمَّ اِلٰى رَبِّہِمْ مَّرْجِعُہُمْ فَيُنَبِّئُہُمْ بِمَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ۝۱۰۸

अल्लाह के सिवा जिन्हें ये पुकारते है, तुम उनके प्रति अपशब्द का प्रयोग न करो। ऐसा न हो कि वे हद से आगे बढ़कर अज्ञानतावश अल्लाह के प्रति अपशब्द का प्रयोग करने लगें। इसी प्रकार हमने हर गिरोह के लिए उसके कर्म को सुहावना बना दिया है। फिर उन्हें अपने रब की ही ओर लौटना है। उस समय वह उन्हें बता देगा. जो कुछ वे करते रहे होंगे॥108॥

وَاَقْسَمُوْا بِاللہِ جَہْدَ اَيْمَانِہِمْ لَىِٕنْ جَاۗءَتْہُمْ اٰيَۃٌ لَّيُؤْمِنُنَّ بِہَا۝۰ۭ قُلْ اِنَّمَا الْاٰيٰتُ عِنْدَ اللہِ وَمَا يُشْعِرُكُمْ۝۰ۙ اَنَّہَآ اِذَا جَاۗءَتْ لَا يُؤْمِنُوْنَ۝۱۰۹

वे लोग तो अल्लाह की कड़ी-कड़ी क़समें खाते है कि यदि उनके पास कोई निशानी आ जाए, तो उसपर वे अवश्य ईमान लाएँगे। कह दो, "निशानियाँ तो अल्लाह ही के पास है।" और तुम्हें क्या पता कि जब वे आ जाएँगी तो भी वे ईमान नहीं लाएँगे॥109॥

وَنُقَلِّبُ اَفْــــِٕدَتَہُمْ وَاَبْصَارَہُمْ كَـمَا لَمْ يُؤْمِنُوْا بِہٖٓ اَوَّلَ مَرَّۃٍ وَّنَذَرُہُمْ فِيْ طُغْيَانِہِمْ يَعْمَہُوْنَ۝۱۱۰ۧ

और हम उनके दिलों और निगाहों को फेर देंगे, जिस प्रकार वे इस पर पहली बार ईमान नहीं लाए थे। और हम उन्हें छोड़ देंगे कि वे अपनी सरकशी में भटकते रहें॥110॥

(8) ۞ وَلَوْاَنَّنَا نَزَّلْنَآ اِلَيْہِمُ الْمَلٰۗىِٕكَۃَ وَكَلَّمَہُمُ الْمَوْتٰى وَحَشَرْنَا عَلَيْہِمْ كُلَّ شَيْءٍ قُبُلًا مَّا كَانُوْا لِيُؤْمِنُوْٓا اِلَّآ اَنْ يَّشَاۗءَ اللہُ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَہُمْ يَجْہَلُوْنَ۝۱۱۱

यदि हम उनकी ओर फ़रिश्ते भी उतार देते और मुर्दें भी उनसे बातें करने लगते और प्रत्येक चीज़ उनके सामने लाकर इकट्ठा कर देते, तो भी वे ईमान न लाते, बल्कि अल्लाह ही का चाहा क्रियान्वित है। परन्तु उनमें से अधिकतर लोग अज्ञानता से काम लेते है॥111॥

وَكَذٰلِكَ جَعَلْنَا لِكُلِّ نَبِيٍّ عَدُوًّا شَـيٰطِيْنَ الْاِنْسِ وَالْجِنِّ يُوْحِيْ بَعْضُہُمْ اِلٰى بَعْضٍ زُخْرُفَ الْقَوْلِ غُرُوْرًا۝۰ۭ وَلَوْ شَاۗءَ رَبُّكَ مَا فَعَلُوْہُ فَذَرْہُمْ وَمَا يَفْتَرُوْنَ۝۱۱۲

और इसी प्रकार हमने मनुष्यों और जिन्नों में से शैतानों को प्रत्येक नबी का शत्रु बनाया, जो चिकनी-चुपड़ी बात एक-दूसरे के मन में डालकर धोखा देते थे - यदि तुम्हारा रब चाहता तो वे ऐसा न कर सकते। अब छोड़ो उन्हें और उनके मिथ्यारोपण को। -॥112॥

وَلِتَصْغٰٓى اِلَيْہِ اَفْـــِٕدَۃُ الَّذِيْنَ لَا يُؤْمِنُوْنَ بِالْاٰخِرَۃِ وَلِيَرْضَوْہُ وَلِيَقْتَرِفُوْا مَا ہُمْ مُّقْتَرِفُوْنَ۝۱۱۳

और ताकि जो लोग परलोक को नहीं मानते, उनके दिल उसकी ओर झुकें और ताकि वे उसे पसन्द कर लें, और ताकि जो कमाई उन्हें करनी है कर लें॥113॥

اَفَغَيْرَ اللہِ اَبْتَغِيْ حَكَمًا وَّہُوَالَّذِيْٓ اَنْزَلَ اِلَيْكُمُ الْكِتٰبَ مُفَصَّلًا۝۰ۭ وَالَّذِيْنَ اٰتَيْنٰہُمُ الْكِتٰبَ يَعْلَمُوْنَ اَنَّہٗ مُنَزَّلٌ مِّنْ رَّبِّكَ بِالْحَقِّ فَلَاتَكُوْنَنَّ مِنَ الْمُمْتَرِيْنَ۝۱۱۴

अब क्या मैं अल्लाह के सिवा कोई और निर्णायक ढूढूँ? हालाँकि वही है जिसने तुम्हारी ओर किताब अवतरित की है, जिसमें बातें खोल-खोलकर बता दी गई है, और जिन लोगों को हमने किताब प्रदान की थी, वे भी जानते है कि यह तुम्हारे रब की ओर से हक़ के साथ अवतरित हुई है, तो तुम कदापि सन्देह में न पड़ना॥114॥

وَتَمَّتْ كَلِمَتُ رَبِّكَ صِدْقًا وَّعَدْلًا۝۰ۭ لَا مُبَدِّلَ لِكَلِمٰتِہٖ۝۰ۚ وَہُوَالسَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ۝۱۱۵

तुम्हारे रब की बात सच्चाई और इनसाफ़ के साथ पूरी हुई, कोई नहीं जो उसकी बातों को बदल सकें, और वह सुनता, जानता है॥115॥

وَاِنْ تُطِعْ اَكْثَرَ مَنْ فِي الْاَرْضِ يُضِلُّوْكَ عَنْ سَبِيْلِ اللہِ۝۰ۭ اِنْ يَّتَّبِعُوْنَ اِلَّا الظَّنَّ وَاِنْ ہُمْ اِلَّا يَخْرُصُوْنَ۝۱۱۶

और धरती में अधिकतर लोग ऐसे है, यदि तुम उनके कहने पर चले तो वे अल्लाह के मार्ग से तुम्हें भटका देंगे। वे तो केवल अटकल के पीछे चलते है और वे केवल अटकल ही दौड़ाते है॥116॥

اِنَّ رَبَّكَ ہُوَاَعْلَمُ مَنْ يَّضِلُّ عَنْ سَبِيْلِہٖ۝۰ۚ وَہُوَاَعْلَمُ بِالْمُہْتَدِيْنَ۝۱۱۷

निस्संदेह तुम्हारा रब उसे भली-भाँति जानता है जो उसके मार्ग से भटकता और वह उन्हें भी जानता है जो सीधे मार्ग पर है॥117॥

فَكُلُوْا مِمَّا ذُكِرَ اسْمُ اللہِ عَلَيْہِ اِنْ كُنْتُمْ بِاٰيٰتِہٖ مُؤْمِنِيْنَ۝۱۱۸

अतः जिसपर अल्लाह का नाम लिया गया हो, उसे खाओ; यदि तुम उसकी आयतों को मानते हो॥118॥

وَمَا لَكُمْ اَلَّا تَاْكُلُوْا مِمَّا ذُكِرَ اسْمُ اللہِ عَلَيْہِ وَقَدْ فَصَّلَ لَكُمْ مَّا حَرَّمَ عَلَيْكُمْ اِلَّا مَا اضْطُرِرْتُمْ اِلَيْہِ۝۰ۭ وَاِنَّ كَثِيْرًا لَّيُضِلُّوْنَ بِاَہْوَاۗىِٕہِمْ بِغَيْرِ عِلْمٍ۝۰ۭ اِنَّ رَبَّكَ ہُوَاَعْلَمُ بِالْمُعْتَدِيْنَ۝۱۱۹

और क्या आपत्ति है कि तुम उसे न खाओ, जिसपर अल्लाह का नाम लिया गया हो, बल्कि जो कुछ चीज़े उसने तुम्हारे लिए हराम कर दी है उनको उसने विस्तारपूर्वक तुम्हे बता दिया है। यह और बात है कि उसके लिए कभी तुम्हें विवश होना पड़े, परन्तु अधिकतर लोग तो ज्ञान के बिना केवल अपनी इच्छाओं (ग़लत विचारों) के द्वारा पथभ्रष्टो करते रहते है। निस्सन्देह तुम्हारा रब मर्यादाहीन लोगों को भली-भाँति जानता है॥119॥

وَذَرُوْا ظَاہِرَ الْاِثْمِ وَبَاطِنَہٗ۝۰ۭ اِنَّ الَّذِيْنَ يَكْسِبُوْنَ الْاِثْمَ سَيُجْزَوْنَ بِمَا كَانُوْا يَقْتَرِفُوْنَ۝۱۲۰

छोड़ो खुले गुनाह को भी और छिपे को भी। निश्चय ही गुनाह कमानेवालों को उसका बदला दिया जाएगा जिस कमाई में वे लगे रहे होंगे॥120॥

وَلَاتَاْكُلُوْا مِمَّا لَمْ يُذْكَرِ اسْمُ اللہِ عَلَيْہِ وَاِنَّہٗ لَفِسْقٌ۝۰ۭ وَاِنَّ الشَّيٰطِيْنَ لَيُوْحُوْنَ اِلٰٓي اَوْلِيٰۗـــِٕــہِمْ لِيُجَادِلُوْكُمْ۝۰ۚ وَاِنْ اَطَعْتُمُوْہُمْ اِنَّكُمْ لَمُشْرِكُوْنَ۝۱۲۱ۧ

और उसे न खाओं जिसपर अल्लाह का नाम न लिया गया हो। निश्चय ही वह तो आज्ञा का उल्लंघन है। शैतान तो अपने मित्रों के दिलों में डालते है कि वे तुमसे झगड़े। यदि तुमने उनकी बात मान ली तो निश्चय ही तुम बहुदेववादी होगे॥121॥

اَوَمَنْ كَانَ مَيْتًا فَاَحْيَيْنٰہُ وَجَعَلْنَا لَہٗ نُوْرًا يَّمْشِيْ بِہٖ فِي النَّاسِ كَمَنْ مَّثَلُہٗ فِي الظُّلُمٰتِ لَيْسَ بِخَارِجٍ مِّنْہَا۝۰ۭ كَذٰلِكَ زُيِّنَ لِلْكٰفِرِيْنَ مَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ۝۱۲۲

क्या वह व्यक्ति जो पहले मुर्दा था, फिर उसे हमने जीवित किया और उसके लिए एक प्रकाश उपलब्ध किया जिसको लिए हुए वह लोगों के बीच चलता-फिरता है, उस व्यक्ति की तरह हो सकता है जो अँधेरों में पड़ा हुआ हो, उससे कदापि निकलनेवाला न हो? ऐसे ही इनकार करनेवालों के कर्म उनके लिए सुहावने बनाए गए है॥122॥

وَكَذٰلِكَ جَعَلْنَا فِيْ كُلِّ قَرْيَۃٍ اَكٰبِرَ مُجْرِمِيْہَا لِيَمْكُرُوْا فِيْہَا۝۰ۭ وَمَا يَمْكُرُوْنَ اِلَّا بِاَنْفُسِہِمْ وَمَا يَشْعُرُوْنَ۝۱۲۳

और इसी प्रकार हमने प्रत्येक बस्ती में उसके बड़े-बड़े अपराधियों को लगा दिया है कि ले वहाँ चालें चले। वे अपने ही विरुद्ध चालें चलते है, किन्तु उन्हें इसका एहसास नहीं॥123॥

وَاِذَا جَاۗءَتْہُمْ اٰيَۃٌ قَالُوْا لَنْ نُّؤْمِنَ حَتّٰي نُؤْتٰى مِثْلَ مَآ اُوْتِيَ رُسُلُ اللہِ۝۰ۭۘؔ اَللہُ اَعْلَمُ حَيْثُ يَجْعَلُ رِسَالَتَہٗ۝۰ۭ سَيُصِيْبُ الَّذِيْنَ اَجْرَمُوْا صَغَارٌ عِنْدَ اللہِ وَعَذَابٌ شَدِيْدٌۢ بِمَا كَانُوْا يَمْكُرُوْنَ۝۱۲۴

और जब उनके पास कोई आयत (निशानी) आती है, तो वे कहते है, "हम कदापि नहीं मानेंगे, जब तक कि वैसी ही चीज़ हमें न दी जाए जो अल्लाह के रसूलों को दी गई हैं।" अल्लाह भली-भाँति उस (के औचित्य) को जानता है जिसमें वह अपनी पैग़म्बरी रखता है। अपराधियों को शीघ्र ही अल्लाह के यहाँ बड़े अपमान और कठोर यातना का सामना करना पड़ेगा, उस चाल के कारण जो वे चलते रहे है॥124॥

فَمَنْ يُّرِدِ اللہُ اَنْ يَّہْدِيَہٗ يَشْرَحْ صَدْرَہٗ لِلْاِسْلَامِ۝۰ۚ وَمَنْ يُّرِدْ اَنْ يُّضِلَّہٗ يَجْعَلْ صَدْرَہٗ ضَيِّقًا حَرَجًا كَاَنَّمَا يَصَّعَّدُ فِي السَّمَاۗءِ۝۰ۭ كَذٰلِكَ يَجْعَلُ اللہُ الرِّجْسَ عَلَي الَّذِيْنَ لَايُؤْمِنُوْنَ۝۱۲۵

अतः (वास्तविकता यह है कि ) जिसे अल्लाह सीधे मार्ग पर लाना चाहता है, उसका सीना इस्लाम के लिए खोल देता है। और जिसे गुमराही में पड़ा रहने देना चाहता है, उसके सीने को तंग और भिंचा हुआ कर देता है; मानो वह आकाश में चढ़ रहा है। इस तरह अल्लाह उन लोगों पर गन्दगी डाल देता है जो ईमान नहीं लाते॥125॥

وَھٰذَا صِرَاطُ رَبِّكَ مُسْتَقِـيْمًا۝۰ۭ قَدْ فَصَّلْنَا الْاٰيٰتِ لِقَوْمٍ يَّذَّكَّرُوْنَ۝۱۲۶

और यह तुम्हारे रब का रास्ता है, बिल्कुल सीधा। हमने निशानियाँ ध्यान देनेवालों के लिए खोल-खोलकर बयान कर दी है॥126॥

۞ لَہُمْ دَارُ السَّلٰمِ عِنْدَ رَبِّہِمْ وَہُوَ وَلِـيُّہُمْ بِمَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ۝۱۲۷

उनके लिए उनके रब के यहाँ सलामती का घर है और वह उनका संरक्षक मित्र है, उन कामों के कारण जो वे करते रहे है॥127॥

وَيَوْمَ يَحْشُرُہُمْ جَمِيْعًا۝۰ۚ يٰمَعْشَرَ الْجِنِّ قَدِ اسْتَكْثَرْتُمْ مِّنَ الْاِنْسِ۝۰ۚ وَقَالَ اَوْلِيٰۗـؤُہُمْ مِّنَ الْاِنْسِ رَبَّنَا اسْتَمْتَعَ بَعْضُنَا بِبَعْضٍ وَّبَلَغْنَآ اَجَلَنَا الَّذِيْٓ اَجَّلْتَ لَنَا۝۰ۭ قَالَ النَّارُ مَثْوٰىكُمْ خٰلِدِيْنَ فِيْہَآ اِلَّا مَا شَاۗءَ اللہُ۝۰ۭ اِنَّ رَبَّكَ حَكِيْمٌ عَلِيْمٌ۝۱۲۸

और उस दिन को याद करो जब वह उन सबको घेरकर इकट्ठा करेगा, (कहेगा), "ऐ जिन्नों के गिरोह! तुमने तो मनुष्यों पर ख़ूब हाथ साफ किया।" और मनुष्यों में से जो उनके साथी रहे होंगे, कहेंग, "ऐ हमारे रब! हमने आपस में एक-दूसरे से लाभ उठाया और अपने उस नियत समय को पहुँच गए जो तूने हमारे लिए ठहराया था।" वह कहेगा, "आग (नरक) तुम्हारा ठिकाना है, उसमें तुम्हें सदैव रहना है।" अल्लाह का चाहा ही क्रियान्वित है। निश्चय ही तुम्हारा रब तत्वदर्शी, सर्वज्ञ है॥128॥

وَكَذٰلِكَ نُوَلِّيْ بَعْضَ الظّٰلِـمِيْنَ بَعْضًۢا بِمَا كَانُوْا يَكْسِبُوْنَ۝۱۲۹ۧ

इसी प्रकार हम अत्याचारियों को एक-दूसरे के लिए (नरक का) साथी बना देंगे, उस कमाई के कारण जो वे करते रहे थे॥129॥

يٰمَعْشَرَ الْجِنِّ وَالْاِنْسِ اَلَمْ يَاْتِكُمْ رُسُلٌ مِّنْكُمْ يَقُصُّوْنَ عَلَيْكُمْ اٰيٰتِيْ وَيُنْذِرُوْنَكُمْ لِقَاۗءَ يَوْمِكُمْ ھٰذَا۝۰ۭ قَالُوْا شَہِدْنَا عَلٰٓي اَنْفُسِـنَا وَغَرَّتْہُمُ الْحَيٰوۃُ الدُّنْيَا وَشَہِدُوْا عَلٰٓي اَنْفُسِہِمْ اَنَّہُمْ كَانُوْا كٰفِرِيْنَ۝۱۳۰

"ऐ जिन्नों और मनुष्यों के गिरोह! क्या तुम्हारे पास तुम्हीं में से रसूल नहीं आए थे जो तुम्हें मेरी आयतें सुनाते और इस दिन के पेश आने से तुम्हें डराते थे?" वे कहेंगे, "क्यों नहीं! (रसूल तो आए थे) हम स्वयं अपने विरुद्ध गवाह है।" उन्हें तो सांसारिक जीवन ने धोखे में रखा। मगर अब वे स्वयं अपने विरुद्ध गवाही देने लगे कि वे इनकार करनेवाले थे॥130॥

ذٰلِكَ اَنْ لَّمْ يَكُنْ رَّبُّكَ مُہْلِكَ الْقُرٰي بِظُلْمٍ وَّاَہْلُہَا غٰفِلُوْنَ۝۱۳۱

यह (रसूलो को भेजने का कार्य ) इस लिये हुआ कि तुम्हारा रब ज़ुल्म करके बस्तियों को विनष्ट करनेवाला न था, जबकि उनके निवासी गाफिल रहे हों॥131॥

وَلِكُلٍّ دَرَجٰتٌ مِّمَّا عَمِلُوْا۝۰ۭ وَمَا رَبُّكَ بِغَافِلٍ عَمَّا يَعْمَلُوْنَ۝۱۳۲

सभी के दर्जें उनके कर्मों के अनुसार है। और जो कुछ वे करते है उससे तुम्हारा रब अनभिज्ञ नहीं है॥132॥

وَرَبُّكَ الْغَنِيُّ ذُو الرَّحْمَۃِ۝۰ۭ اِنْ يَّشَاْ يُذْہِبْكُمْ وَيَسْتَخْلِفْ مِنْۢ بَعْدِكُمْ مَّا يَشَاۗءُ كَـمَآ اَنْشَاَكُمْ مِّنْ ذُرِّيَّۃِ قَوْمٍ اٰخَرِيْنَ۝۱۳۳ۭ

तुम्हारा रब निस्पृह, दयावान है। यदि वह चाहे तो तुम्हें (दुनिया से) ले जाए और तुम्हारे स्थान पर जिसको चाहे तुम्हारे बाद ले आए, जिस प्रकार उसने तुम्हें कुछ और लोगों की सन्तति से उठाया है॥133॥

اِنَّ مَا تُوْعَدُوْنَ لَاٰتٍ۝۰ۙ وَّمَآ اَنْتُمْ بِمُعْجِزِيْنَ۝۱۳۴

जिस चीज़ का तुमसे वादा किया जाता है उसे अवश्य आना है और तुममें उसे मात देने की सामर्थ्य नहीं॥134॥

قُلْ يٰقَوْمِ اعْمَلُوْا عَلٰي مَكَانَتِكُمْ اِنِّىْ عَامِلٌ۝۰ۚ فَسَوْفَ تَعْلَمُوْنَ۝۰ۙ مَنْ تَكُوْنُ لَہٗ عَاقِبَۃُ الدَّارِ۝۰ۭ اِنَّہٗ لَا يُفْلِحُ الظّٰلِمُوْنَ۝۱۳۵

कह दो, "ऐ मेरी क़ौम के लोगो! तुम अपनी जगह कर्म करते रहो, मैं भी अपनी जगह कर्मरत हूँ। शीघ्र ही तुम्हें मालूम हो जाएगा कि घर (लोक-परलोक) का परिणाम किसके हित में होता है। निश्चय ही अत्याचारी सफल नहीं होते।"॥135॥

وَجَعَلُوْا لِلہِ مِمَّا ذَرَاَ مِنَ الْحَرْثِ وَالْاَنْعَامِ نَصِيْبًا فَقَالُوْا ھٰذَا لِلہِ بِزَعْمِہِمْ وَھٰذَا لِشُرَكَاۗىِٕنَا۝۰ۚ فَمَا كَانَ لِشُرَكَاۗىِٕہِمْ فَلَا يَصِلُ اِلَى اللہِ۝۰ۚ وَمَا كَانَ لِلہِ فَہُوَيَصِلُ اِلٰي شُرَكَاۗىِٕہِمْ۝۰ۭ سَاۗءَ مَا يَحْكُمُوْنَ۝۱۳۶

उन्होंने अल्लाह के लिए स्वयं उसी की पैदा की हुई खेती और चौपायों में से एक भाग निश्चित किया है और अपने ख़याल से कहते है, "यह हिस्सा अल्लाह का है और यह हमारे ठहराए हुए साझीदारों का है।" फिर जो उनके साझीदारों का (हिस्सा) है, वह अल्लाह को नहीं पहुँचता, परन्तु जो अल्लाह का है वह उनके साझीदारों को पहुँच जाता है। कितना बुरा है जो फ़ैसला वे करते है!॥136॥

وَكَذٰلِكَ زَيَّنَ لِكَثِيْرٍ مِّنَ الْمُشْرِكِيْنَ قَتْلَ اَوْلَادِہِمْ شُرَكَاۗؤُہُمْ لِيُرْدُوْہُمْ وَلِيَلْبِسُوْا عَلَيْہِمْ دِيْنَہُمْ۝۰ۭ وَلَوْ شَاۗءَ اللہُ مَا فَعَلُوْہُ فَذَرْہُمْ وَمَا يَفْتَرُوْنَ۝۱۳۷

इसी प्रकार बहुत-से बहुदेववादियों के लिए उनके लिए साझीदारों ने उनकी अपनी सन्तान की हत्या को सुहाना बना दिया है, ताकि उन्हें विनष्ट कर दें और उनके लिए उनके धर्म को संदिग्ध बना दें। यदि अल्लाह चाहता तो वे ऐसा न करते; तो छोड़ दो उन्हें और उनके झूठ घड़ने को॥137॥

وَقَالُوْا ہٰذِہٖٓ اَنْعَامٌ وَّحَرْثٌ حِجْرٌ۝۰ۤۖ لَّا يَطْعَمُہَآ اِلَّا مَنْ نَّشَاۗءُ بِزَعْمِہِمْ وَاَنْعَامٌ حُرِّمَتْ ظُہُوْرُہَا وَاَنْعَامٌ لَّا يَذْكُرُوْنَ اسْمَ اللہِ عَلَيْہَا افْتِرَاۗءً عَلَيْہِ۝۰ۭ سَيَجْزِيْہِمْ بِمَا كَانُوْا يَفْتَرُوْنَ۝۱۳۸

और वे कहते है, "ये जानवर और खेती वर्जित और सुरक्षित है। इन्हें तो केवल वही खा सकता है, जिसे हम चाहें।" - ऐसा वे स्वयं अपने ख़याल से कहते है - और कुछ चौपाए ऐसे है, जिनकी पीठों को (सवारी के लिए) हराम ठहरा लिया है और कुछ जानवर ऐसे है जिनपर अल्लाह का नाम नहीं लेते। यह सब उन्होंने अल्लाह पर झूठ घढा है, और वह शीघ्र ही उन्हें उनके झूठ घढने का बदला देगा॥138॥

وَقَالُوْا مَا فِيْ بُطُوْنِ ہٰذِہِ الْاَنْعَامِ خَالِصَۃٌ لِّذُكُوْرِنَا وَمُحَرَّمٌ عَلٰٓي اَزْوَاجِنَا۝۰ۚ وَاِنْ يَّكُنْ مَّيْتَۃً فَہُمْ فِيْہِ شُرَكَاۗءُ۝۰ۭ سَيَجْزِيْہِمْ وَصْفَہُمْ۝۰ۭ اِنَّہٗ حَكِيْمٌ عَلِيْمٌ۝۱۳۹

और वे कहते है, "जो कुछ इन जानवरों के पेट में है वह बिल्कुल हमारे पुरुषों ही के लिए है और वह हमारी पत्नियों  के लिए वर्जित है। परन्तु यदि वह मुर्दा हो तो वे सब उसमें शरीक है।" शीघ्र ही वह उन्हें उनके ऐसा कहने का बदला देगा। निस्संदेह वह तत्वदर्शी, सर्वज्ञ है॥139॥

قَدْ خَسِرَ الَّذِيْنَ قَتَلُوْٓا اَوْلَادَہُمْ سَفَہًۢا بِغَيْرِ عِلْمٍ وَّحَرَّمُوْا مَا رَزَقَہُمُ اللہُ افْتِرَاۗءً عَلَي اللہِ۝۰ۭ قَدْ ضَلُّوْا وَمَا كَانُوْا مُہْتَدِيْنَ۝۱۴۰ۧ

वे लोग कुछ जाने-बूझे बिना घाटे में रहे, जिन्होंने मूर्खता के कारण अपनी सन्तान की हत्या की और जो कुछ अल्लाह ने उन्हें प्रदान किया था, उसे अल्लाह पर झूठ घड़कर हराम ठहरा दिया। वास्तव में वे भटक गए और वे सीधा मार्ग पानेवाले न हुए॥140॥

۞ وَہُوَالَّذِيْٓ اَنْشَاَ جَنّٰتٍ مَّعْرُوْشٰتٍ وَّغَيْرَ مَعْرُوْشٰتٍ وَّالنَّخْلَ وَالزَّرْعَ مُخْتَلِفًا اُكُلُہٗ وَالزَّيْتُوْنَ وَالرُّمَّانَ مُتَشَابِہًا وَّغَيْرَ مُتَشَابِہٍ۝۰ۭ كُلُوْا مِنْ ثَمَرِہٖٓ اِذَآ اَثْمَرَ وَاٰتُوْا حَقَّہٗ يَوْمَ حَصَادِہٖ۝۰ۡۖ وَلَا تُسْرِفُوْا۝۰ۭ اِنَّہٗ لَا يُحِبُّ الْمُسْرِفِيْنَ۝۱۴۱ۙ

और वही है जिसने बाग़ पैदा किए; कुछ जालियों पर चढ़ाए जाते है और कुछ नहीं चढ़ाए जाते, और खजूर और खेती भी जिनकी पैदावार विभिन्न प्रकार की होती है, और ज़ैतून और अनार जो एक-दूसरे से मिलते-जुलते भी है और नहीं भी मिलते है। जब वह फल दे, तो उसका फल खाओ और उसका हक़ अदा करो जो उस (फ़सल) की कटाई के दिन वाजिब होता है। और हद से आगे न बढ़ो, क्योंकि वह हद से आगे बढ़नेवालों को पसन्द नहीं करता॥141॥

وَمِنَ الْاَنْعَامِ حَمُوْلَۃً وَّفَرْشًا۝۰ۭ كُلُوْا مِمَّا رَزَقَكُمُ اللہُ وَلَا تَتَّبِعُوْا خُطُوٰتِ الشَّيْطٰنِ۝۰ۭ اِنَّہٗ لَكُمْ عَدُوٌّ مُّبِيْنٌ۝۱۴۲ۙ

और चौपायों में से कुछ बोझ उठानेवाले बड़े और कुछ छोटे जानवर पैदा किए। अल्लाह ने जो कुछ तुम्हें दिया है, उसमें से खाओ और शैतान के क़दमों पर न चलो। निश्चय ही वह तुम्हारा खुला हुआ शत्रु है॥142॥

ثَمٰنِيَۃَ اَزْوَاجٍ۝۰ۚ مِنَ الضَّاْنِ اثْنَيْنِ وَمِنَ الْمَعْزِ اثْنَيْنِ۝۰ۭ قُلْ ءٰۗالذَّكَرَيْنِ حَرَّمَ اَمِ الْاُنْثَـيَيْنِ اَمَّا اشْـتَمَلَتْ عَلَيْہِ اَرْحَامُ الْاُنْثَـيَيْنِ۝۰ۭ نَبِّــــُٔــوْنِيْ بِعِلْمٍ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ۝۱۴۳ۙ

आठ नर-मादा पैदा किए - दो भेड़ की जाति से और दो बकरी की जाति से - कहो, "क्या उसने दोनों नर हराम किए है या दोनों मादा को? या उसको जो इन दोनों मादा के पेट में हो? किसी ज्ञान के आधार पर मुझे बताओ, यदि तुम सच्चे हो।"॥143॥

وَمِنَ الْاِبِلِ اثْنَيْنِ وَمِنَ الْبَقَرِ اثْنَيْنِ۝۰ۭ قُلْ ءٰۗالذَّكَرَيْنِ حَرَّمَ اَمِ الْاُنْثَـيَيْنِ اَمَّا اشْتَمَلَتْ عَلَيْہِ اَرْحَامُ الْاُنْثَـيَيْنِ۝۰ۭ اَمْ كُنْتُمْ شُہَدَاۗءَ اِذْ وَصّٰىكُمُ اللہُ بِھٰذَا۝۰ۚ فَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنِ افْتَرٰي عَلَي اللہِ كَذِبًا لِّيُضِلَّ النَّاسَ بِغَيْرِ عِلْمٍ۝۰ۭ اِنَّ اللہَ لَا يَہْدِي الْقَوْمَ الظّٰلِـمِيْنَ۝۱۴۴ۧ

और दो ऊँट की जाति से और दो गाय की जाति से, कहो, "क्या उसने दोनों नर हराम किए है या दोनों मादा को? या उसको जो इन दोनों मादा के पेट में हो? या तुम उपस्थित थे जब अल्लाह ने तुम्हें इसका आदेश दिया था? फिर उस व्यक्ति से बढ़कर अत्याचारी कौन होगा जो लोगों को पथभ्रष्ट करने के लिए अज्ञानता-पूर्वक अल्लाह पर झूठ घड़े? निश्चय ही, अल्लाह अत्याचारी लोगों को मार्ग नहीं दिखाता।"॥144॥

قُلْ لَّآ اَجِدُ فِيْ مَآ اُوْحِيَ اِلَيَّ مُحَرَّمًا عَلٰي طَاعِمٍ يَّطْعَمُہٗٓ اِلَّآ اَنْ يَّكُوْنَ مَيْتَۃً اَوْ دَمًا مَّسْفُوْحًا اَوْ لَحْمَ خِنْزِيْرٍ فَاِنَّہٗ رِجْسٌ اَوْ فِسْقًا اُہِلَّ لِغَيْرِ اللہِ بِہٖ۝۰ۚ فَمَنِ اضْطُرَّ غَيْرَ بَاغٍ وَّلَا عَادٍ فَاِنَّ رَبَّكَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ۝۱۴۵

कह दो, "जो कुछ मेरी ओर प्रकाशना की गई है उसमें तो मैं नहीं पाता कि किसी खानेवाले पर उसका कोई खाना हराम किया गया हो, सिवाय इसके लिए वह मुर्दार हो, यह बहता हुआ रक्त हो, या ,सुअर का मांस हो - कि वह निश्चय ही नापाक है - या वह चीज़ जो मर्यादा से हटी हुई हो, जिसपर अल्लाह के अतिरिक्त किसी और का नाम लिया गया हो। इसपर भी जो बहुत विवश और लाचार हो जाए; परन्तु वह अवज्ञाकारी न हो और न हद से आगे बढ़नेवाला हो, तो निश्चय ही तुम्हारा रब अत्यन्त क्षमाशील, दयाबान है।"॥145॥

وَعَلَي الَّذِيْنَ ہَادُوْا حَرَّمْنَا كُلَّ ذِيْ ظُفُرٍ۝۰ۚ وَمِنَ الْبَقَرِ وَالْغَنَمِ حَرَّمْنَا عَلَيْہِمْ شُحُوْمَہُمَآ اِلَّا مَا حَمَلَتْ ظُہُوْرُہُمَآ اَوِ الْحَــوَايَآ اَوْ مَا اخْتَلَطَ بِعَظْمٍ۝۰ۭ ذٰلِكَ جَزَيْنٰہُمْ بِبَغْيِہِمْ۝۰ۡۖ وَاِنَّا لَصٰدِقُوْنَ۝۱۴۶

और उन लोगों के लिए, जो यहूदी हुए हमने नाख़ूनवाला जानवर हराम किया और गाय और बकरी में से इन दोनों की चरबियाँ उनके लिए हराम कर दी थीं, सिवाय उस (चर्बी) के जो उन दोनों की पीठों या आँखों से लगी हुई या हड़्डी से मिली हुई हो। यह बात ध्यान में रखो। हमने उन्हें उनकी सरकशी का बदला दिया था और निश्चय ही हम सच्चे है॥146॥

فَاِنْ كَذَّبُوْكَ فَقُلْ رَّبُّكُمْ ذُوْ رَحْمَۃٍ وَّاسِعَۃٍ۝۰ۚ وَلَا يُرَدُّ بَاْسُہٗ عَنِ الْقَوْمِ الْمُجْرِمِيْنَ۝۱۴۷

फिर यदि वे तुम्हें झुठलाएँ तो कह दो, "तुम्हारा रब व्यापक दयालुतावाला है और अपराधियों से उसकी यातना नहीं फिरती।"॥147॥

سَيَقُوْلُ الَّذِيْنَ اَشْرَكُوْا لَوْ شَاۗءَ اللہُ مَآ اَشْرَكْنَا وَلَآ اٰبَاۗؤُنَا وَلَا حَرَّمْنَا مِنْ شَيْءٍ۝۰ۭ كَذٰلِكَ كَذَّبَ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِہِمْ حَتّٰي ذَاقُوْا بَاْسَـنَا۝۰ۭ قُلْ ہَلْ عِنْدَكُمْ مِّنْ عِلْمٍ فَتُخْرِجُوْہُ لَنَا۝۰ۭ اِنْ تَتَّبِعُوْنَ اِلَّا الظَّنَّ وَاِنْ اَنْتُمْ اِلَّا تَخْرُصُوْنَ۝۱۴۸

बहुदेववादी कहेंगे, "यदि अल्लाह चाहता तो न हम साझीदार ठहराते और न हमारे पूर्वज ही; और न हम किसी चीज़ को (बिना अल्लाह के आदेश के) हराम ठहराते।" ऐसे ही उनसे पहले के लोगों ने भी झुठलाया था, यहाँ तक की उन्हें हमारी यातना का मज़ा चखना पड़ा। कहो, "क्या तुम्हारे पास कोई ज्ञान है कि उसे हमारे पास पेश करो? तुम लोग केवल गुमान पर चलते हो और निरे अटकल से काम लेते हो।"॥148॥

قُلْ فَلِلّٰہِ الْحُجَّۃُ الْبَالِغَۃُ۝۰ۚ فَلَوْ شَاۗءَ لَہَدٰىكُمْ اَجْمَعِيْنَ۝۱۴۹

कह दो, "पूर्ण तर्क तो अल्लाह ही का है। अतः यदि वह चाहता तो तुम सबको सीधा मार्ग दिखा देता।"॥149॥

قُلْ ہَلُمَّ شُہَدَاۗءَكُمُ الَّذِيْنَ يَشْہَدُوْنَ اَنَّ اللہَ حَرَّمَ ھٰذَا۝۰ۚ فَاِنْ شَہِدُوْا فَلَا تَشْہَدْ مَعَہُمْ۝۰ۚ وَلَا تَتَّبِعْ اَہْوَاۗءَ الَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا وَالَّذِيْنَ لَا يُؤْمِنُوْنَ بِالْاٰخِرَۃِ وَہُمْ بِرَبِّہِمْ يَعْدِلُوْنَ۝۱۵۰ۧ

कह दो, "अपने उन गवाहों को लाओ जो इसकी गवाही दें कि अल्लाह ने इसे हराम किया है।" फिर यदि वे गवाही दें तो तुम उनके साथ गवाही न देना, औऱ उन लोगों की इच्छाओं का अनुसरण न करना जिन्होंने हमारी आयतों को झुठलाया और जो आख़िरत को नहीं मानते और (जिनका) हाल यह है कि वे दूसरो को अपने रब के समकक्ष ठहराते है॥150॥

۞ قُلْ تَعَالَوْا اَتْلُ مَا حَرَّمَ رَبُّكُمْ عَلَيْكُمْ اَلَّا تُشْرِكُوْا بِہٖ شَـيْــــًٔـا وَّبِالْوَالِدَيْنِ اِحْسَانًا۝۰ۚ وَلَا تَقْتُلُوْٓا اَوْلَادَكُمْ مِّنْ اِمْلَاقٍ۝۰ۭ نَحْنُ نَرْزُقُكُمْ وَاِيَّاہُمْ۝۰ۚ وَلَا تَقْرَبُوا الْفَوَاحِشَ مَا ظَہَرَ مِنْہَا وَمَا بَطَنَ۝۰ۚ وَلَا تَقْتُلُوا النَّفْسَ الَّتِيْ حَرَّمَ اللہُ اِلَّا بِالْحَقِّ۝۰ۭ ذٰلِكُمْ وَصّٰىكُمْ بِہٖ لَعَلَّكُمْ تَعْقِلُوْنَ۝۱۵۱

कह दो, "आओ, मैं तुम्हें सुनाऊँ कि तुम्हारे रब ने तुम्हारे ऊपर क्या पाबन्दियाँ लगाई है: यह कि किसी चीज़ को उसका साझीदार न ठहराओ और माँ-बाप के साथ सद্व्यनवहार करो और निर्धनता के कारण अपनी सन्तान की हत्या न करो; हम तुम्हें भी रोज़ी देते है और उन्हें भी। और अश्लील बातों के निकट न जाओ, चाहे वे खुली हुई हों या छिपी हुई हो। और किसी जीव की, जिसे अल्लाह ने आदरणीय ठहराया है, हत्या न करो। यह और बात है कि हक़ के लिए ऐसा करना पड़े। ये बाते है जिनकी ताकीद उसने तुम्हें की है, शायद कि तुम बुद्धि से काम लो।॥151॥

وَلَا تَقْرَبُوْا مَالَ الْيَتِيْمِ اِلَّا بِالَّتِيْ ہِىَ اَحْسَنُ حَتّٰي يَبْلُغَ اَشُدَّہٗ۝۰ۚ وَاَوْفُوا الْكَيْلَ وَالْمِيْزَانَ بِالْقِسْطِ۝۰ۚ لَا نُكَلِّفُ نَفْسًا اِلَّا وُسْعَہَا۝۰ۚ وَاِذَا قُلْتُمْ فَاعْدِلُوْا وَلَوْ كَانَ ذَا قُرْبٰي۝۰ۚ وَبِعَہْدِ اللہِ اَوْفُوْا۝۰ۭ ذٰلِكُمْ وَصّٰىكُمْ بِہٖ لَعَلَّكُمْ تَذَكَّرُوْنَ۝۱۵۲ۙ

"और अनाथ के धन को हाथ न लगाओ, किन्तु ऐसे तरीक़े से जो उत्तम हो, यहाँ तक कि वह अपनी युवावस्था को पहुँच जाए। और इनसाफ़ के साथ पूरा-पूरा नापो और तौलो। हम किसी व्यक्ति पर उसी काम की ज़िम्मेदारी का बोझ डालते हैं जो उसकी सामर्थ्य में हो। और जब बात कहो, तो न्याय की कहो, चाहे मामला अपने नातेदार ही का क्यों न हो, और अल्लाह की प्रतिज्ञा को पूरा करो। ये बातें हैं जिनकी उसने तुम्हें ताकीद की है। आशा है तुम ध्यान रखोगे॥152॥

وَاَنَّ ھٰذَا صِرَاطِيْ مُسْتَقِـيْمًا فَاتَّبِعُوْہُ۝۰ۚ وَلَا تَتَّبِعُوا السُّـبُلَ فَتَفَرَّقَ بِكُمْ عَنْ سَبِيْلِہٖ۝۰ۭ ذٰلِكُمْ وَصّٰىكُمْ بِہٖ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُوْنَ۝۱۵۳

और यह कि यही मेरा सीधा मार्ग है, तो तुम इसी पर चलो और दूसरे मार्गों पर न चलो कि वे तुम्हें उसके मार्ग से हटाकर इधर-उधर कर देंगे। यह वह बात है जिसकी उसने तुम्हें ताकीद की है, ताकि तुम (पथभ्रष्ट ता से) बचो॥153॥

ثُمَّ اٰتَيْنَا مُوْسَى الْكِتٰبَ تَمَامًا عَلَي الَّذِيْٓ اَحْسَنَ وَتَفْصِيْلًا لِّكُلِّ شَيْءٍ وَّہُدًى وَّرَحْمَۃً لَّعَلَّہُمْ بِلِقَاۗءِ رَبِّہِمْ يُؤْمِنُوْنَ۝۱۵۴ۧ

फिर (देखो) हमने मूसा को किताब दी थी, (धर्म को) पूर्णता प्रदान करने के लिए, जिसे उसने उत्तम रीति से ग्रहण किया था; और हर चीज़ को स्पष्ट‍रूप से बयान करने, मार्गदर्शन देने और दया करने के लिए, ताकि वे लोग अपने रब से मिलने पर ईमान लाएँ॥154॥

وَھٰذَا كِتٰبٌ اَنْزَلْنٰہُ مُبٰرَكٌ فَاتَّبِعُوْہُ وَاتَّقُوْا لَعَلَّكُمْ تُرْحَمُوْنَ۝۱۵۵ۙ

और यह किताब भी हमने उतारी है, जो बरकतवाली है; तो तुम इसका अनुसरण करो और डर रखो, ताकि तुमपर दया की जाए,॥155॥

اَنْ تَقُوْلُوْٓا اِنَّمَآ اُنْزِلَ الْكِتٰبُ عَلٰي طَاۗىِٕفَتَيْنِ مِنْ قَبْلِنَا۝۰۠ وَاِنْ كُنَّا عَنْ دِرَاسَتِہِمْ لَغٰفِلِيْنَ۝۱۵۶ۙ

कि कहीं ऐसा न हो कि तुम कहने लगो, "किताब तो केवल हमसे पहले के दो गिरोहों पर उतारी गई थी और हमें तो उनके पढ़ने-पढ़ाने की ख़बर तक न थी।"॥156॥

اَوْ تَقُوْلُوْا لَوْ اَنَّآ اُنْزِلَ عَلَيْنَا الْكِتٰبُ لَكُنَّآ اَہْدٰي مِنْہُمْ۝۰ۚ فَقَدْ جَاۗءَكُمْ بَيِّنَۃٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ وَہُدًى وَّرَحْمَۃٌ۝۰ۚ فَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنْ كَذَّبَ بِاٰيٰتِ اللہِ وَصَدَفَ عَنْہَا۝۰ۭ سَنَجْزِي الَّذِيْنَ يَصْدِفُوْنَ عَنْ اٰيٰتِنَا سُوْۗءَ الْعَذَابِ بِمَا كَانُوْا يَصْدِفُوْنَ۝۱۵۷

या यह कहने लगो, "यदि हमपर किताब उतारी गई होती तो हम उनसे बढकर सीधे मार्ग पर होते।" तो अब तुम्हारे पास रब की ओर से एक स्पष्ट प्रमाण, मार्गदर्शन और दयालुता आ चुकी है। अब उससे बढ़कर अत्याचारी कौन होगा जो अल्लाह की आयतों को झुठलाए और दूसरों को उनसे फेरे? जो लोग हमारी आयतों से रोकते हैं, उन्हें हम इस रोकने के कारण जल्द बुरी यातना देंगे॥157॥

ہَلْ يَنْظُرُوْنَ اِلَّآ اَنْ تَاْتِـيَہُمُ الْمَلٰۗىِٕكَۃُ اَوْ يَاْتِيَ رَبُّكَ اَوْ يَاْتِيَ بَعْضُ اٰيٰتِ رَبِّكَ۝۰ۭ يَوْمَ يَاْتِيْ بَعْضُ اٰيٰتِ رَبِّكَ لَا يَنْفَعُ نَفْسًا اِيْمَانُہَا لَمْ تَكُنْ اٰمَنَتْ مِنْ قَبْلُ اَوْ كَسَبَتْ فِيْٓ اِيْمَانِہَا خَيْرًا۝۰ۭ قُلِ انْتَظِرُوْٓا اِنَّا مُنْتَظِرُوْنَ۝۱۵۸

क्या ये लोग केवल इसी की प्रतीक्षा कर रहे है कि उनके पास फ़रिश्ते आ जाएँ या स्वयं तुम्हारा रब आ जाए या तुम्हारे रब की कोई निशानी आ जाए?, जिस दिन तुम्हारे रब की कोई निशानी आ जाएगी, फिर किसी ऐसे व्यक्ति को उसका ईमान कुछ लाभ न पहुँचाएगा जो पहले ईमान न लाया हो या जिसने अपने ईमान में कोई भलाई न कमाई हो। कह दो, ?"तुम भी प्रतीक्षा करो, हम भी प्रतीक्षा करते है।"॥158॥

اِنَّ الَّذِيْنَ فَرَّقُوْا دِيْنَہُمْ وَكَانُوْا شِيَعًا لَّسْتَ مِنْہُمْ فِيْ شَيْءٍ۝۰ۭ اِنَّمَآ اَمْرُہُمْ اِلَى اللہِ ثُمَّ يُنَبِّئُہُمْ بِمَا كَانُوْا يَفْعَلُوْنَ۝۱۵۹

जिन लोगों ने अपने धर्म के टुकड़े-टुकड़े कर दिए और स्वयं गिरोहों में बँट गए, तुम्हारा उनसे कोई सम्बन्ध नहीं। उनका मामला तो बस अल्लाह के हवाले है। फिर वह उन्हें बता देगा जो कुछ वे किया करते थे॥159॥

مَنْ جَاۗءَ بِالْحَسَـنَۃِ فَلَہٗ عَشْرُ اَمْثَالِہَا۝۰ۚ وَمَنْ جَاۗءَ بِالسَّيِّئَۃِ فَلَا يُجْزٰٓى اِلَّا مِثْلَہَا وَہُمْ لَا يُظْلَمُوْنَ۝۱۶۰

जो कोई अच्छा चरित्र लेकर आएगा उसे उसका दस गुना बदला मिलेगा और जो व्यक्ति बुरा चरित्र लेकर आएगा, उसे उसका बस उतना ही बदला मिलेगा, उनके साथ कोई अन्याय न होगा॥160॥

قُلْ اِنَّنِيْ ہَدٰىنِيْ رَبِّيْٓ اِلٰي صِرَاطٍ مُّسْتَقِيْمٍ۝۰ۥۚ دِيْنًا قِــيَمًا مِّلَّۃَ اِبْرٰہِيْمَ حَنِيْفًا۝۰ۚ وَمَا كَانَ مِنَ الْمُشْرِكِيْنَ۝۱۶۱

कहो, "मेरे रब ने मुझे सीधा मार्ग दिखा दिया है, बिल्कुल ठीक धर्म, इबराहीम के पंथ की ओर, जो सबसे कटकर एक (अल्लाह) का हो गया था और वह बहुदेववादियों में से न था।"॥161॥

قُلْ اِنَّ صَلَاتِيْ وَنُسُكِيْ وَمَحْيَايَ وَمَمَاتِيْ لِلہِ رَبِّ الْعٰلَمِيْنَ۝۱۶۲ۙ

कहो, "मेरी नमाज़ और मेरी क़ुरबानी और मेरा जीना और मेरा मरना सब अल्लाह के लिए है जो सारे संसार का रब है॥162॥

لَا شَرِيْكَ لَہٗ۝۰ۚ وَبِذٰلِكَ اُمِرْتُ وَاَنَا اَوَّلُ الْمُسْلِـمِيْنَ۝۱۶۳

"उसका कोई साझी नहीं है। मुझे तो इसी का आदेश मिला है और सबसे पहला मुस्लिम (आज्ञाकारी) मैं हूँ।"॥163॥

قُلْ اَغَيْرَ اللہِ اَبْغِيْ رَبًّا وَّہُوَرَبُّ كُلِّ شَيْءٍ۝۰ۭ وَلَا تَكْسِبُ كُلُّ نَفْسٍ اِلَّا عَلَيْہَا۝۰ۚ وَلَا تَزِرُ وَازِرَۃٌ وِّزْرَ اُخْرٰي۝۰ۚ ثُمَّ اِلٰي رَبِّكُمْ مَّرْجِعُكُمْ فَيُنَبِّئُكُمْ بِمَا كُنْتُمْ فِيْہِ تَخْتَلِفُوْنَ۝۱۶۴

कहो, "क्या मैं अल्लाह से भिन्न कोई और रब ढूढूँ, जबकि हर चीज़ का रब वही है!" और यह कि प्रत्येक व्यक्ति जो कुछ कमाता है उसका फल वही भोगेगा; कोई बोझ उठानेवाला किसी दूसरे का बोझ नहीं उठाएगा। फिर तुम्हें अपने रब की ओर लौटकर जाना है। उस समय वह तुम्हें बता देगा, जिसमें परस्पर तुम्हारा मतभेद और झगड़ा था॥164॥

وَہُوَالَّذِيْ جَعَلَكُمْ خَلٰۗىِٕفَ الْاَرْضِ وَرَفَعَ بَعْضَكُمْ فَوْقَ بَعْضٍ دَرَجٰتٍ لِّيَبْلُوَكُمْ فِيْ مَآ اٰتٰىكُمْ۝۰ۭ اِنَّ رَبَّكَ سَرِيْعُ الْعِقَابِ۝۰ۡۖ وَاِنَّہٗ لَغَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ۝۱۶۵ۧ

वही है जिसने तुम्हें धरती में ख़लीफ़ा (अधिकारी, उत्ताराधिकारी) बनाया और तुममें से कुछ लोगों के दर्जे कुछ लोगों की अपेक्षा ऊँचे रखे, ताकि जो कुछ उसने तुमको दिया है उसमें वह तम्हारी परीक्षा ले। निस्संदेह तुम्हारा रब जल्द सज़ा देनेवाला है। और निश्चय ही वही बड़ा क्षमाशील, दयावान है॥165॥

 

     

 

 

 

  1. अल-आराफ़

(मक्का में उतरी – आयतें 206)

بِسْمِ اللہِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ

अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील, अत्यन्त दयावान है।

۞ الۗمّۗصۗ۝۱ۚ

अलिफ़-लाम-मीम-सॅाद ॥1॥

كِتٰبٌ اُنْزِلَ اِلَيْكَ فَلَا يَكُنْ فِيْ صَدْرِكَ حَرَجٌ مِّنْہُ لِتُنْذِرَ بِہٖ وَذِكْرٰي لِلْمُؤْمِنِيْنَ۝۲

यह एक किताब है जो तुम्हारी ओर उतारी गई है - अतः इससे तुम्हारे सीने में कोई तंगी न हो - ताकि तुम इसके द्वारा सचेत करो और यह ईमानवालों के लिए एक (याददिहानी) प्रबोधन है;॥2॥

اِتَّبِعُوْا مَآ اُنْزِلَ اِلَيْكُمْ مِّنْ رَّبِّكُمْ وَلَا تَتَّبِعُوْا مِنْ دُوْنِہٖٓ اَوْلِيَاۗءَ۝۰ۭ قَلِيْلًا مَّا تَذَكَّرُوْنَ۝۳

जो कुछ तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारी ओर अवतरित हुआ है उस पर चलो और उसे छोड़कर दूसरे संरक्षक मित्रों का अनुसरण न करो। तुम लोग नसीहत थोड़े ही मानते हो॥3॥

وَكَمْ مِّنْ قَرْيَۃٍ اَہْلَكْنٰہَا فَجَاۗءَہَا بَاْسُـنَا بَيَاتًا اَوْ ہُمْ قَاۗىِٕلُوْنَ۝۴

कितनी ही बस्तियाँ थीं जिन्हें हमने विनष्टम कर दिया। उनपर हमारी यातना रात को सोते समय आ पहुँची या (दिन-दहाड़े) आई, जबकि वे दोपहर में विश्राम कर रहे थे॥4॥

فَمَا كَانَ دَعْوٰىہُمْ اِذْ جَاۗءَہُمْ بَاْسُـنَآ اِلَّآ اَنْ قَالُوْٓا اِنَّا كُنَّا ظٰلِـمِيْنَ۝۵

जब उनपर यातना आ गई तो इसके सिवा उनके मुँह से कुछ न निकला कि वे पुकार उठे, "वास्तव में हम अत्याचारी थे।"॥5॥

فَلَنَسْــــَٔـلَنَّ الَّذِيْنَ اُرْسِلَ اِلَيْہِمْ وَلَنَسْــــَٔـلَنَّ الْمُرْسَلِيْنَ۝۶ۙ

अतः हम उन लोगों से अवश्य पूछेंगे, जिनके पास रसूल भेजे गए थे, और हम रसूलों से भी अवश्य पूछेंगे॥6॥

فَلَنَقُصَّنَّ عَلَيْہِمْ بِعِلْمٍ وَّمَا كُنَّا غَاۗىِٕبِيْنَ۝۷

फिर हम पूरे ज्ञान के साथ उनके सामने सब बयान कर देंगे। हम कही ग़ायब नहीं थे॥7॥

وَالْوَزْنُ يَوْمَىِٕذِۨ الْحَقُّ۝۰ۚ فَمَنْ ثَقُلَتْ مَوَازِيْنُہٗ فَاُولٰۗىِٕكَ ہُمُ الْمُفْلِحُوْنَ۝۸

और बिल्कुल पक्का-सच्चा वज़न उसी दिन होगा। अतः जिनके कर्म वज़न में भारी होंगे, वही सफलता प्राप्त करेंगे॥8॥

وَمَنْ خَفَّتْ مَوَازِيْنُہٗ فَاُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ خَسِرُوْٓا اَنْفُسَہُمْ بِمَا كَانُوْا بِاٰيٰتِنَا يَظْلِمُوْنَ۝۹

और वे लोग जिनके कर्म वज़न में हलके होंगे, तो वही वे लोग हैं, जिन्होंने अपने आपको घाटे में डाला, क्योंकि वे हमारी आयतों का इनकार औऱ अपने ऊपर अत्याचार करते रहे॥9॥

وَلَقَدْ مَكَّنّٰكُمْ فِي الْاَرْضِ وَجَعَلْنَا لَكُمْ فِيْہَا مَعَايِشَ۝۰ۭ قَلِيْلًا مَّا تَشْكُرُوْنَ۝۱۰ۧ

और हमने धरती में तुम्हें अधिकार दिया और उसमें तुम्हारे लिए जीवन-सामग्री रखी। तुम कृतज्ञता थोड़े ही दिखाते हो॥10॥

وَلَقَدْ خَلَقْنٰكُمْ ثُمَّ صَوَّرْنٰكُمْ ثُمَّ قُلْنَا لِلْمَلٰۗىِٕكَۃِ اسْجُدُوْا لِاٰدَمَ۝۰ۤۖ فَسَجَدُوْٓا اِلَّآ اِبْلِيْسَ۝۰ۭ لَمْ يَكُنْ مِّنَ السّٰجِدِيْنَ۝۱۱

हमने तुम्हें पैदा करने का निश्चय किया; फिर तुम्हे रूप देने का इरादा किया; (और तुम्हारे आदि पिता आदम को पैदा किया) फिर हमने फ़रिश्तों से कहो, "आदम को सजदा करो।" तो उन्होंने सजदा किया, सिवाय इबलीस के। वह (इबलीस) सदजा करनेवालों में से न हुआ॥11॥

قَالَ مَا مَنَعَكَ اَلَّا تَسْجُدَ اِذْ اَمَرْتُكَ۝۰ۭ قَالَ اَنَا خَيْرٌ مِّنْہُ۝۰ۚ خَلَقْتَنِيْ مِنْ نَّارٍ وَّخَلَقْتَہٗ مِنْ طِيْنٍ۝۱۲

कहा, "तुझे किसने सजका करने से रोका, जबकि मैंने तुझे आदेश दिया था?" बोला, "मैं उससे अच्छा हूँ। तूने मुझे आग से बनाया और उसे मिट्टी से बनाया।"॥12॥

قَالَ فَاہْبِطْ مِنْہَا فَمَا يَكُوْنُ لَكَ اَنْ تَتَكَبَّرَ فِيْہَا فَاخْرُجْ اِنَّكَ مِنَ الصّٰغِرِيْنَ۝۱۳

कहा, "उतर जा यहाँ से! तुझे कोई हक़ नहीं है कि यहाँ घमंड करे, तो अब निकल जा; निश्चय ही तू अपमानित है।"॥13॥

قَالَ اَنْظِرْنِيْٓ اِلٰي يَوْمِ يُبْعَثُوْنَ۝۱۴

बोला, "मुझे एक दिन तक मुहल्लत दे, जबकि लोग उठाए जाएँगे।"॥14॥

قَالَ اِنَّكَ مِنَ الْمُنْظَرِيْنَ۝۱۵

कहा, "निस्संदेह तुझे मुहल्लत है।"॥15॥

قَالَ فَبِمَآ اَغْوَيْتَنِيْ لَاَقْعُدَنَّ لَہُمْ صِرَاطَكَ الْمُسْتَقِيْمَ۝۱۶ۙ

बोला, "अच्छा, इस कारण कि तूने मुझे गुमराही में डाला है, मैं भी तेरे सीधे मार्ग पर उनके लिए घात में अवश्य बैठूँगा॥16॥

ثُمَّ لَاٰتِيَنَّہُمْ مِّنْۢ بَيْنِ اَيْدِيْہِمْ وَمِنْ خَلْفِہِمْ وَعَنْ اَيْمَانِہِمْ وَعَنْ شَمَاۗىِٕلِہِمْ۝۰ۭ وَلَا تَجِدُ اَكْثَرَہُمْ شٰكِرِيْنَ۝۱۷

"फिर उनके आगे और उनके पीछे और उनके दाएँ और उनके बाएँ से उनके पास आऊँगा। और तू उनमें अधिकतर को कृतज्ञ न पाएगा।"॥17॥

قَالَ اخْرُجْ مِنْہَا مَذْءُوْمًا مَّدْحُوْرًا۝۰ۭ لَمَنْ تَبِعَكَ مِنْہُمْ لَاَمْلَــــَٔـنَّ جَہَنَّمَ مِنْكُمْ اَجْمَعِيْنَ۝۱۸

कहा, "निकल जा यहाँ से! निन्दित ठुकराया हुआ। उनमें से जिस किसी ने भी तेरा अनुसरण किया, मैं अवश्य तुम सबसे जहन्नम को भर दूँगा।"॥18॥

وَيٰٓاٰدَمُ اسْكُنْ اَنْتَ وَزَوْجُكَ الْجَنَّۃَ فَكُلَا مِنْ حَيْثُ شِـئْتُمَا وَلَا تَقْرَبَا ہٰذِہِ الشَّجَرَۃَ فَتَكُوْنَا مِنَ الظّٰلِـمِيْنَ۝۱۹

और "ऐ आदम! तुम और तुम्हारी पत्नी दोनों जन्नत में रहो-बसो, फिर जहाँ से चाहो खाओ, लेकिन इस वृक्ष से न संसर्गित न होना, अन्यथा अत्याचारियों में से हो जाओगे।"॥19॥

فَوَسْوَسَ لَہُمَا الشَّيْطٰنُ لِيُبْدِيَ لَہُمَا مَا وٗرِيَ عَنْہُمَا مِنْ سَوْاٰتِہِمَا وَقَالَ مَا نَہٰىكُمَا رَبُّكُمَا عَنْ ہٰذِہِ الشَّجَرَۃِ اِلَّآ اَنْ تَكُوْنَا مَلَكَيْنِ اَوْ تَكُوْنَا مِنَ الْخٰلِدِيْنَ۝۲۰

फिर शैतान ने दोनों को बहकाया, ताकि उनकी शर्मगाहों को, जो उन दोनों से छिपी थीं, उन दोनों के सामने खोल दे। और उसने (इबलीस ने) कहा, "तुम्हारे रब ने तुम दोनों को जो इस वृक्ष से रोका है, तो केवल इसलिए कि ऐसा न हो कि तुम कहीं फ़रिश्ते हो जाओ या कही ऐसा न हो कि तुम्हें अमरता प्राप्त हो जाए।"॥20॥

وَقَاسَمَہُمَآ اِنِّىْ لَكُمَا لَمِنَ النّٰصِحِيْنَ۝۲۱ۙ

और उसने उन दोनों के आगे क़समें खाई कि "निश्चय ही मैं तुम दोनों का हितैषी हूँ।"॥21॥

فَدَلّٰىہُمَا بِغُرُوْرٍ۝۰ۚ فَلَمَّا ذَاقَا الشَّجَرَۃَ بَدَتْ لَہُمَا سَوْاٰتُہُمَا وَطَفِقَا يَخْصِفٰنِ عَلَيْہِمَا مِنْ وَّرَقِ الْجَنَّۃِ۝۰ۭ وَنَادٰىہُمَا رَبُّہُمَآ اَلَمْ اَنْہَكُمَا عَنْ تِلْكُمَا الشَّجَرَۃِ وَاَقُلْ لَّكُمَآ اِنَّ الشَّيْطٰنَ لَكُمَا عَدُوٌّ مُّبِيْنٌ۝۲۲

इस प्रकार धोखा देकर उसने उन दोनों को झुका लिया। अन्ततः जब उन्होंने उस वृक्ष का स्वाद लिया तो उनकी शर्मगाहे एक-दूसरे के सामने खुल गए और वे अपने ऊपर बाग़ के पत्ते जोड़-जोड़कर रखने लगे। तब उनके रब ने उन्हें पुकारा, "क्या मैंने तुम दोनों को इस वृक्ष से रोका नहीं था और तुमसे कहा नहीं था कि शैतान तुम्हारा खुला शत्रु है?"॥22॥

قَالَا رَبَّنَا ظَلَمْنَآ اَنْفُسَـنَا۝۰۫ وَاِنْ لَّمْ تَغْفِرْ لَنَا وَتَرْحَمْنَا لَنَكُوْنَنَّ مِنَ الْخٰسِرِيْنَ۝۲۳

दोनों बोले, "हमारे रब! हमने अपने आप पर अत्याचार किया। अब यदि तूने हमें क्षमा न किया और हम पर दया न दर्शाई, फिर तो हम घाटा उठानेवालों में से होंगे।"॥23॥

قَالَ اہْبِطُوْا بَعْضُكُمْ لِبَعْضٍ عَدُوٌّ۝۰ۚ وَلَكُمْ فِي الْاَرْضِ مُسْتَقَرٌّ وَّمَتَاعٌ اِلٰي حِيْنٍ۝۲۴

कहा, "उतर जाओ! तुम परस्पर एक-दूसरे के शत्रु हो और एक अवधि कर तुम्हारे लिए धरती में ठिकाना और जीवन-सामग्री है।"॥24॥

قَالَ فِيْہَا تَحْيَوْنَ وَفِيْہَا تَمُوْتُوْنَ وَمِنْہَا تُخْرَجُوْنَ۝۲۵ۧ

कहा, "वहीं तुम्हें जीना और वहीं तुम्हें मरना है और उसी में से तुमको निकाला जाएगा।"॥25॥

يٰبَنِيْٓ اٰدَمَ قَدْ اَنْزَلْنَا عَلَيْكُمْ لِبَاسًا يُّوَارِيْ سَوْاٰتِكُمْ وَرِيْشًا۝۰ۭ وَلِبَاسُ التَّقْوٰى۝۰ۙ ذٰلِكَ خَيْرٌ۝۰ۭ ذٰلِكَ مِنْ اٰيٰتِ اللہِ لَعَلَّہُمْ يَذَّكَّرُوْنَ۝۲۶

ऐ आदम की सन्तान! हमने तुम्हारे लिए वस्त्र उतारा है कि तुम्हारी शर्मगाहों को छुपाए और रक्षा और शोभा का साधन हो। और धर्मपरायणता का वस्त्र - वह तो सबसे उत्तम है, यह अल्लाह की निशानियों में से है, ताकि वे ध्यान दें॥26॥

يٰبَنِيْٓ اٰدَمَ لَا يَفْتِنَنَّكُمُ الشَّيْطٰنُ كَـمَآ اَخْرَجَ اَبَوَيْكُمْ مِّنَ الْجَنَّۃِ يَنْزِعُ عَنْہُمَا لِبَاسَہُمَا لِيُرِيَہُمَا سَوْاٰتِہِمَا۝۰ۭ اِنَّہٗ يَرٰىكُمْ ہُوَوَقَبِيْلُہٗ مِنْ حَيْثُ لَا تَرَوْنَہُمْ۝۰ۭ اِنَّا جَعَلْنَا الشَّيٰطِيْنَ اَوْلِيَاۗءَ لِلَّذِيْنَ لَا يُؤْمِنُوْنَ۝۲۷

ऐ आदम की सन्तान! कहीं शैतान तुम्हें बहकावे में न डाल दे, जिस प्रकार उसने तुम्हारे माँ-बाप को जन्नत से निकलवा दिया था; उनके वस्त्र उनपर से उतरवा दिए थे, ताकि उनकी शर्मगाहें एक-दूसरे के सामने खोल दे। निस्सदेह वह और उसका गिरोह उस स्थान से तुम्हें देखता है, जहाँ से तुम उन्हें नहीं देखते। हमने तो शैतानों को उन लोगों का मित्र बना दिया है, जो ईमान नहीं रखते॥27॥

وَاِذَا فَعَلُوْا فَاحِشَۃً قَالُوْا وَجَدْنَا عَلَيْہَآ اٰبَاۗءَنَا وَاللہُ اَمَرَنَا بِہَا۝۰ۭ قُلْ اِنَّ اللہَ لَا يَاْمُرُ بِالْفَحْشَاۗءِ۝۰ۭ اَتَقُوْلُوْنَ عَلَي اللہِ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ۝۲۸

और उनका हाल यह है कि जब वे लोग कोई अश्लील कर्म करते है तो कहते है कि "हमने अपने बाप-दादा को इसी तरीक़े पर पाया है और अल्लाह ही ने हमें इसका आदेश दिया है।" कह दो, "अल्लाह कभी अश्लील बातों का आदेश नहीं दिया करता। क्या अल्लाह पर थोपकर ऐसी बात कहते हो, जिसका तुम्हें ज्ञान नहीं?"॥28॥

قُلْ اَمَرَ رَبِّيْ بِالْقِسْطِ۝۰ۣ وَاَقِيْمُوْا وُجُوْہَكُمْ عِنْدَ كُلِّ مَسْجِدٍ وَّادْعُوْہُ مُخْلِصِيْنَ لَہُ الدِّيْنَ۝۰ۥۭ كَـمَا بَدَاَكُمْ تَعُوْدُوْنَ۝۲۹ۭ

कह दो, "मेरे रब ने तो न्याय का आदेश दिया है और यह कि इबादत के प्रत्येक अवसर पर अपना रुख़ ठीक रखो और निरे उसी के भक्त एवं आज्ञाकारी बनकर उसे पुकारो। जैसे उसने तुम्हें पहली बार पैदा किया, वैसे ही तुम फिर पैदा होगे।"॥29॥

فَرِيْقًا ہَدٰي وَفَرِيْقًا حَقَّ عَلَيْہِمُ الضَّلٰلَۃُ۝۰ۭ اِنَّہُمُ اتَّخَذُوا الشَّيٰطِيْنَ اَوْلِيَاۗءَ مِنْ دُوْنِ اللہِ وَيَحْسَبُوْنَ اَنَّہُمْ مُّہْتَدُوْنَ۝۳۰

एक गिरोह को उसने मार्ग दिखाया। परन्तु दूसरा गिरोह ऐसा है, जिसके लोगों पर गुमराही चिपककर रह गई। निश्चय ही उन्होंने अल्लाह को छोड़कर शैतानों को अपने मित्र बनाए और समझते यह है कि वे सीधे मार्ग पर हैं॥30॥

۞ يٰبَنِيْٓ اٰدَمَ خُذُوْا زِيْنَتَكُمْ عِنْدَ كُلِّ مَسْجِدٍ وَّكُلُوْا وَاشْرَبُوْا وَلَا تُسْرِفُوْا۝۰ۚ اِنَّہٗ لَا يُحِبُّ الْمُسْرِفِيْنَ۝۳۱ۧ

ऐ आदम की सन्तान! इबादत के प्रत्येक अवसर पर शोभा धारण करो; खाओ और पियो, परन्तु हद से आगे न बढ़ो। निश्चय ही, वह हद से आगे बदनेवालों को पसन्द नहीं करता॥31॥

قُلْ مَنْ حَرَّمَ زِيْنَۃَ اللہِ الَّتِيْٓ اَخْرَجَ لِعِبَادِہٖ وَالطَّيِّبٰتِ مِنَ الرِّزْقِ۝۰ۭ قُلْ ہِىَ لِلَّذِيْنَ اٰمَنُوْا فِي الْحَيٰوۃِ الدُّنْيَا خَالِصَۃً يَّوْمَ الْقِيٰمَۃِ۝۰ۭ كَذٰلِكَ نُفَصِّلُ الْاٰيٰتِ لِقَوْمٍ يَّعْلَمُوْنَ۝۳۲

कहो, "अल्लाह की उस शोभा को जिसे उसने अपने बन्दों के लिए उत्पन्न किया है औऱ आजीविका की पवित्र, अच्छी चीज़ो को किसने हराम कर दिया?" कह दो, "यह सांसारिक जीवन में भी ईमानवालों के लिए हैं; क़ियामत के दिन तो ये केवल उन्हीं के लिए होंगी। इसी प्रकार हम आयतों को उन लोगों के लिए सविस्तार बयान करते है, जो जानना चाहे।"॥32॥

قُلْ اِنَّمَا حَرَّمَ رَبِّيَ الْفَوَاحِشَ مَا ظَہَرَ مِنْہَا وَمَا بَطَنَ وَالْاِثْمَ وَالْبَغْيَ بِغَيْرِ الْحَقِّ وَاَنْ تُشْرِكُوْا بِاللہِ مَا لَمْ يُنَزِّلْ بِہٖ سُلْطٰنًا وَّاَنْ تَقُوْلُوْا عَلَي اللہِ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ۝۳۳

कह दो, "मेरे रब ने केवल अश्लील कर्मों को हराम किया है - जो उनमें से प्रकट हो उन्हें भी और जो छिपे हो उन्हें भी - और हक़ मारना, नाहक़ ज़्यादती और इस बात को कि तुम अल्लाह का साझीदार ठहराओ, जिसके लिए उसने कोई प्रमाण नहीं उतारा और इस बात को भी कि तुम अल्लाह पर थोपकर ऐसी बात कहो जिसका तुम्हें ज्ञान न हो।"॥33॥

وَلِكُلِّ اُمَّۃٍ اَجَلٌ۝۰ۚ فَاِذَا جَاۗءَ اَجَلُہُمْ لَا يَسْـتَاْخِرُوْنَ سَاعَۃً وَّلَا يَسْتَقْدِمُوْنَ۝۳۴

प्रत्येक समुदाय के लिए एक नियत अवधि है। फिर जब उसका नियत समय आ जाता है, तो एक घड़ी भर न पीछे हट सकते है और न आगे बढ़ सकते है॥34॥

يٰبَنِيْٓ اٰدَمَ اِمَّا يَاْتِيَنَّكُمْ رُسُلٌ مِّنْكُمْ يَـقُصُّوْنَ عَلَيْكُمْ اٰيٰتِيْ۝۰ۙ فَمَنِ اتَّقٰى وَاَصْلَحَ فَلَا خَوْفٌ عَلَيْہِمْ وَلَا ہُمْ يَحْزَنُوْنَ۝۳۵

ऐ आदम की सन्तान! यदि तुम्हारे पास तुम्हीं में से कोई रसूल आएँ; तुम्हें मेरी आयतें सुनाएँ, तो जिसने डर रखा और सुधार कर लिया तो ऐसे लोगों के लिए न कोई भय होगा और न वे शोकाकुल होंगे॥35॥

وَالَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا وَاسْـتَكْبَرُوْا عَنْہَآ اُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ۝۰ۚ ہُمْ فِيْہَا خٰلِدُوْنَ۝۳۶

रहे वे लोग जिन्होंने हमारी आयतों को झुठलाया और उनके मुक़ाबले में अकड़ दिखाई; वही आगवाले हैं, जिसमें वे सदैव रहेंगे॥36॥

فَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنِ افْتَرٰي عَلَي اللہِ كَذِبًا اَوْ كَذَّبَ بِاٰيٰتِہٖ۝۰ۭ اُولٰۗىِٕكَ يَنَالُہُمْ نَصِيْبُہُمْ مِّنَ الْكِتٰبِ۝۰ۭ حَتّٰٓي اِذَا جَاۗءَتْہُمْ رُسُلُنَا يَتَوَفَّوْنَہُمْ۝۰ۙ قَالُوْٓا اَيْنَ مَا كُنْتُمْ تَدْعُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللہِ۝۰ۭ قَالُوْا ضَلُّوْا عَنَّا وَشَہِدُوْا عَلٰٓي اَنْفُسِہِمْ اَنَّہُمْ كَانُوْا كٰفِرِيْنَ۝۳۷

अब उससे बढ़कर अत्याचारी कौन है, जिसने अल्लाह पर मिथ्यारोपण किया या उसकी आयतों को झुठलाया? ऐसे लोगों को उनके लिए लिखा हुआ हिस्सा पहुँचता रहेगा, यहाँ तक कि जब हमारे भेजे हुए (फ़रिश्ते) उनके प्राण ग्रस्त करने के लिए उनके पास आएँगे तो कहेंगे, "कहाँ हैं, वे जिन्हें तुम अल्लाह को छोड़कर पुकारते थे?" कहेंगे, "वे तो हमसे गुम हो गए।" और वे स्वयं अपने विरुद्ध गवाही देंगे कि वास्तव में वे इनकार करनेवाले थे॥37॥

قَالَ ادْخُلُوْا فِيْٓ اُمَمٍ قَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلِكُمْ مِّنَ الْجِنِّ وَالْاِنْسِ فِي النَّارِ۝۰ۭ كُلَّمَا دَخَلَتْ اُمَّۃٌ لَّعَنَتْ اُخْتَہَا۝۰ۭ حَتّٰٓي اِذَا ادَّارَكُوْا فِيْہَا جَمِيْعًا۝۰ۙ قَالَتْ اُخْرٰىہُمْ لِاُوْلٰىہُمْ رَبَّنَا ہٰٓؤُلَاۗءِ اَضَلُّوْنَا فَاٰتِہِمْ عَذَابًا ضِعْفًا مِّنَ النَّارِ۝۰ۥۭ قَالَ لِكُلٍّ ضِعْفٌ وَّلٰكِنْ لَّا تَعْلَمُوْنَ۝۳۸

वह कहेगा, "जिन्न और इनसान के जो गिरोह तुमसे पहले गुज़रे हैं, उन्हीं के साथ सम्मिलित होकर तुम भी आग में प्रवेश करो।" जब भी कोई जमाअत प्रवेश करेगी, तो वह अपनी बहन पर लानत करेगी, यहाँ तक कि जब सब उसमें रल-मिल जाएँगे तो उनमें से बाद में आनेवाले अपने से पहलेवाले के विषय में कहेंगे, "हमारे रब! हमें इन्हीं लोगों ने गुमराह किया था; तो तू इन्हें आग की दोहरी यातना दे।" वह कहेगा, "हरेक के लिए दोहरी ही है। किन्तु तुम नहीं जानते।"॥38॥

وَقَالَتْ اُوْلٰىہُمْ لِاُخْرٰىہُمْ فَمَا كَانَ لَكُمْ عَلَيْنَا مِنْ فَضْلٍ فَذُوْقُوا الْعَذَابَ بِمَا كُنْتُمْ تَكْسِبُوْنَ۝۳۹ۧ

और उनमें से पहले आनेवाले अपने से बाद में आनेवालों से कहेंगे, "फिर हमारे मुक़ावाले में तुम्हें कोई श्रेष्ठता प्राप्त नहीं, तो जैसी कुछ कमाई तुम करते रहे हो, उसके बदले में तुम यातना का मज़ा चखो!"॥39॥

اِنَّ الَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا وَاسْـتَكْبَرُوْا عَنْہَا لَا تُفَتَّحُ لَہُمْ اَبْوَابُ السَّمَاۗءِ وَلَا يَدْخُلُوْنَ الْجَـنَّۃَ حَتّٰي يَـلِجَ الْجَمَلُ فِيْ سَمِّ الْخِيَاطِ۝۰ۭ وَكَذٰلِكَ نَجْزِي الْمُجْرِمِيْنَ۝۴۰

जिन लोगों ने हमारी आयतों को झुठलाया और उनके मुक़ाबले में अकड़ दिखाई, उनके लिए आकाश के द्वार नहीं खोले जाएँगे और न वे जन्नत में प्रवेश करेंग जब तक कि ऊँट सुई के नाके में से न गुज़र जाए। हम अपराधियों को ऐसा ही बदला देते है॥40॥

لَہُمْ مِّنْ جَہَنَّمَ مِہَادٌ وَّمِنْ فَوْقِہِمْ غَوَاشٍ۝۰ۭ وَكَذٰلِكَ نَجْزِي الظّٰلِــمِيْنَ۝۴۱

उनके लिए बिछौना जहन्नम का होगा और ओढ़ना भी उसी का। अत्याचारियों को हम ऐसा ही बदला देते है॥41॥

وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ لَا نُكَلِّفُ نَفْسًا اِلَّا وُسْعَہَآ۝۰ۡاُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ الْجَنَّۃِ۝۰ۚ ہُمْ فِيْہَا خٰلِدُوْنَ۝۴۲

इसके विपरित जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए - हम किसी पर उसकी सामर्थ्य से बढ़कर बोझ नहीं डालते - वही लोग जन्नतवाले है, वे उसमें सदैव रहेंगे॥42॥

وَنَزَعْنَا مَا فِيْ صُدُوْرِہِمْ مِّنْ غِلٍّ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِہِمُ الْاَنْھٰرُ۝۰ۚ وَقَالُوا الْحَمْدُ لِلہِ الَّذِيْ ہَدٰىنَا لِـھٰذَا۝۰ۣ وَمَا كُنَّا لِنَہْتَدِيَ لَوْلَآ اَنْ ہَدٰىنَا اللہُ۝۰ۚ لَقَدْ جَاۗءَتْ رُسُلُ رَبِّنَا بِالْحَقِّ۝۰ۭ وَنُوْدُوْٓا اَنْ تِلْكُمُ الْجَنَّۃُ اُوْرِثْتُمُوْہَا بِمَا كُنْتُمْ تَعْمَلُوْنَ۝۴۳

उनके सीनों में एक-दूसरे के प्रति जो रंजिश होगी, उसे हम दूर कर देंगे; उनके नीचें नहरें बह रही होंगी और वे कहेंगे, "प्रशंसा अल्लाह के लिए है, जिसने इसकी ओर हमारा मार्गदर्शन किया। और यदि अल्लाह हमारा मार्गदर्शन न करतो तो हम कदापि मार्ग नहीं पा सकते थे। हमारे रब के रसूल निस्संदेह सत्य लेकर आए थे।" और उन्हें आवाज़ दी जाएगी, "यह जन्नत है, जिसके तुम वारिस बनाए गए। उन कर्मों के बदले में जो तुम करते रहे थे।"॥43॥

وَنَادٰٓي اَصْحٰبُ الْجَنَّۃِ اَصْحٰبَ النَّارِ اَنْ قَدْ وَجَدْنَا مَا وَعَدَنَا رَبُّنَا حَقًّا فَہَلْ وَجَدْتُّمْ مَّا وَعَدَ رَبُّكُمْ حَقًّا۝۰ۭ قَالُوْا نَعَمْ۝۰ۚ فَاَذَّنَ مُؤَذِّنٌۢ بَيْنَہُمْ اَنْ لَّعْنَۃُ اللہِ عَلَي الظّٰلِــمِيْنَ۝۴۴ۙ

जन्नतवाले आगवालों को पुकारेंगे, "हमसे हमारे रब ने जो वादा किया था, उसे हमने सच पाया। तो क्या तुमसे तुम्हारे रब ने जो वादा कर रखा था, तुमने भी उसे सच पाया?" वे कहेंगे, "हाँ।" इतने में एक पुकारनेवाला उनके बीच पुकारेगा, "अल्लाह की फिटकार है अत्याचारियों पर।"॥44॥

الَّذِيْنَ يَصُدُّوْنَ عَنْ سَبِيْلِ اللہِ وَيَبْغُوْنَہَا عِوَجًا۝۰ۚ وَہُمْ بِالْاٰخِرَۃِ كٰفِرُوْنَ۝۴۵ۘ

जो अल्लाह के मार्ग से रोकते और उसे टेढ़ा करना चाहते है और जो आख़िरत का इनकार करते है,॥45॥

وَبَيْنَہُمَا حِجَابٌ۝۰ۚ وَعَلَي الْاَعْرَافِ رِجَالٌ يَّعْرِفُوْنَ كُلًّۢابِسِيْمٰىہُمْ۝۰ۚ وَنَادَوْا اَصْحٰبَ الْجَنَّۃِ اَنْ سَلٰمٌ عَلَيْكُمْ۝۰ۣ لَمْ يَدْخُلُوْہَا وَہُمْ يَطْمَعُوْنَ۝۴۶

और इन दोनों के मध्य एक ओट होगी। और ऊँचाइयों पर कुछ लोग होंगे जो प्रत्येक को उसके लक्षणों से पहचानते होंगे, और जन्नतवालों से पुकारकर कहेंगे, "तुम पर सलाम है।" वे अभी जन्नत में दाखिल तो नहीं हुए होंगे, यद्यपि वे आस लगाए होंगे॥46॥

۞ وَاِذَا صُرِفَتْ اَبْصَارُہُمْ تِلْقَاۗءَ اَصْحٰبِ النَّارِ۝۰ۙ قَالُوْا رَبَّنَا لَا تَجْعَلْنَا مَعَ الْقَوْمِ الظّٰلِـمِيْنَ۝۴۷ۧ

और जब उनकी निगाहें आगवालों की ओर फिरेंगी, तो कहेंगे, "हमारे रब, हमें अत्याचारी लोगों में न सम्मिलित न करना।"॥47॥

وَنَادٰٓي اَصْحٰبُ الْاَعْرَافِ رِجَالًا يَّعْرِفُوْنَہُمْ بِسِيْمٰىہُمْ قَالُوْا مَآ اَغْنٰى عَنْكُمْ جَمْعُكُمْ وَمَا كُنْتُمْ تَسْتَكْبِرُوْنَ۝۴۸

और ये ऊँचाइयोंवाले कुछ ऐसे लोगों से, जिन्हें ये उनके लक्षणों से पहचानते होगे, कहेंगे, "तुम्हारे जत्थे तो तुम्हारे कुछ काम न आए और न तुम्हारा अकड़ते रहना ही।॥48॥

اَہٰٓؤُلَاۗءِ الَّذِيْنَ اَقْسَمْتُمْ لَا يَنَالُہُمُ اللہُ بِرَحْمَۃٍ۝۰ۭ اُدْخُلُوا الْجَنَّۃَ لَا خَوْفٌ عَلَيْكُمْ وَلَآ اَنْتُمْ تَحْزَنُوْنَ۝۴۹

"क्या ये वही हैं ना, जिनके विषय में तुम क़समें खाते थे कि अल्लाह उनपर अपनी दया-दॄष्टि न करेगा।" "जन्नत में प्रवेश करो, तुम्हारे लिए न कोई भय है और न तुम्हें कोई शोक होगा।"॥49॥

وَنَادٰٓي اَصْحٰبُ النَّارِ اَصْحٰبَ الْجَنَّۃِ اَنْ اَفِيْضُوْا عَلَيْنَا مِنَ الْمَاۗءِ اَوْ مِمَّا رَزَقَكُمُ اللہُ۝۰ۭ قَالُوْٓا اِنَّ اللہَ حَرَّمَہُمَا عَلَي الْكٰفِرِيْنَ۝۵۰ۙ

आगवाले जन्नतवालों को पुकारेंगे कि "थोड़ा पानी हमपर बहा दो, या उन चीज़ों में से कुछ दे दो जो अल्लाह ने तुम्हें दी हैं।" वे कहेंगे, "अल्लाह ने तो ये दोनों चीज़ें इनकार करनेवालों के लिए वर्जित कर दी है।"॥50॥

الَّذِيْنَ اتَّخَذُوْا دِيْنَہُمْ لَہْوًا وَّلَعِبًا وَّغَرَّتْہُمُ الْحَيٰوۃُ الدُّنْيَا۝۰ۚ فَالْيَوْمَ نَنْسٰـىہُمْ كَـمَا نَسُوْا لِقَاۗءَ يَوْمِہِمْ ھٰذَا۝۰ۙ وَمَا كَانُوْا بِاٰيٰتِنَا يَجْحَدُوْنَ۝۵۱

उनके लिए जिन्होंने अपना धर्म खेल-तमाशा ठहराया और जिन्हें सांसारिक जीवन ने धोखे में डाल दिया, तो आज हम भी उन्हें भुला देंगे, जिस प्रकार वे अपने इस दिन की मुलाक़ात को भूले रहे और हमारी आयतों का इनकार करते रहे॥51॥

وَلَقَدْ جِئْنٰہُمْ بِكِتٰبٍ فَصَّلْنٰہُ عَلٰي عِلْمٍ ہُدًى وَّرَحْمَۃً لِّقَوْمٍ يُّؤْمِنُوْنَ۝۵۲

और निश्चय ही हम उनके पास एक ऐसी किताब ले आए है जिसे हमने ज्ञान के आधार पर विस्तृत किया है, जो ईमान लानेवालों के लिए मार्गदर्शन और दयालुता है॥52॥

ہَلْ يَنْظُرُوْنَ اِلَّا تَاْوِيْلَہٗ۝۰ۭ يَوْمَ يَاْتِيْ تَاْوِيْلُہٗ يَقُوْلُ الَّذِيْنَ نَسُوْہُ مِنْ قَبْلُ قَدْ جَاۗءَتْ رُسُلُ رَبِّنَا بِالْحَقِّ۝۰ۚ فَہَلْ لَّنَا مِنْ شُفَعَاۗءَ فَيَشْفَعُوْا لَنَآ اَوْ نُرَدُّ فَنَعْمَلَ غَيْرَ الَّذِيْ كُنَّا نَعْمَلُ۝۰ۭ قَدْ خَسِرُوْٓا اَنْفُسَہُمْ وَضَلَّ عَنْہُمْ مَّا كَانُوْا يَفْتَرُوْنَ۝۵۳ۧ

क्या वे लोग केवल इसी की प्रतीक्षा में है कि उसकी वास्तविकता और परिणाम प्रकट हो जाए? जिस दिन उसकी वास्तविकता सामने आ जाएगी, तो वे लोग इससे पहले उसे भूले हुए थे, बोल उठेंगे, "वास्तव में, हमारे रब के रसूल सत्य लेकर आए थे। तो क्या हमारे कुछ सिफ़ारिशी है, जो हमारी सिफ़ारिश कर दें या हमें वापस भेज दिया जाए कि जो कुछ हम करते थे उससे भिन्न कर्म करें?" उन्होंने अपने आपको घाटे में डाल दिया और जो कुछ वे झूठ घढ़ते थे, वे सब उनसे गुम होकर रह गए॥53॥

اِنَّ رَبَّكُمُ اللہُ الَّذِيْ خَلَقَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ فِيْ سِـتَّۃِ اَيَّامٍ ثُمَّ اسْتَوٰى عَلَي الْعَرْشِ۝۰ۣ يُغْشِي الَّيْلَ النَّہَارَ يَطْلُبُہٗ حَثِيْثًا۝۰ۙ وَّالشَّمْسَ وَالْقَمَرَ وَالنُّجُوْمَ مُسَخَّرٰتٍؚبِاَمْرِہٖ۝۰ۭ اَلَا لَہُ الْخَلْقُ وَالْاَمْرُ۝۰ۭ تَبٰرَكَ اللہُ رَبُّ الْعٰلَمِيْنَ۝۵۴

निस्संदेह तुम्हारा रब वही अल्लाह है, जिसने आकाशों और धरती को छह दिनों में पैदा किया - फिर राजसिंहासन पर विराजमान हुआ। वह रात को दिन पर ढाँकता है जो तेज़ी से उसका पीछा करने में सक्रिय है। और सूर्य, चन्द्रमा और तारे भी बनाए, इस प्रकार कि वे उसके आदेश से काम में लगे हुए है। सावधान रहो, उसी की सृष्टि है और उसी का आदेश है। अल्लाह सारे संसार का रब, बड़ी बरकतवाला है॥54॥

اُدْعُوْا رَبَّكُمْ تَضَرُّعًا وَّخُفْيَۃً۝۰ۭ اِنَّہٗ لَا يُحِبُّ الْمُعْتَدِيْنَ۝۵۵ۚ

अपने रब को गिड़गिड़ाकर और चुपके-चुपके पुकारो। निश्चय ही वह हद से आगे बढ़नेवालों को पसन्द नहीं करता॥55॥

وَلَا تُفْسِدُوْا فِي الْاَرْضِ بَعْدَ اِصْلَاحِہَا وَادْعُوْہُ خَوْفًا وَّطَمَعًا۝۰ۭ اِنَّ رَحْمَتَ اللہِ قَرِيْبٌ مِّنَ الْمُحْسِـنِيْنَ۝۵۶

और धरती में उसके सुधार के पश्चात बिगाड़ न पैदा करो। भय और आशा के साथ उसे पुकारो। निश्चय ही, अल्लाह की दयालुता सत्कर्मी लोगों के निकट है॥56॥

وَہُوَالَّذِيْ يُرْسِلُ الرِّيٰحَ بُشْرًۢا بَيْنَ يَدَيْ رَحْمَتِہٖ۝۰ۭ حَتّٰٓي اِذَآ اَقَلَّتْ سَحَابًا ثِقَالًا سُقْنٰہُ لِبَلَدٍ مَّيِّتٍ فَاَنْزَلْنَا بِہِ الْمَاۗءَ فَاَخْرَجْنَا بِہٖ مِنْ كُلِّ الثَّمَرٰتِ۝۰ۭ كَذٰلِكَ نُخْرِجُ الْمَوْتٰى لَعَلَّكُمْ تَذَكَّرُوْنَ۝۵۷

और वही है जो अपनी दयालुता से पहले शुभ सूचना देने को हवाएँ भेजता है, यहाँ तक कि जब वे बोझल बादल को उठा लेती है तो हम उसे किसी निर्जीव भूमि की ओर चला देते है, फिर उससे पानी बरसाते है, फिर उससे हर तरह के फल निकालते है। इसी प्रकार हम मुर्दों को मृत अवस्था से निकालेगे - ताकि तुम्हें ध्यान हो॥57॥

وَالْبَلَدُ الطَّيِّبُ يَخْرُجُ نَبَاتُہٗ بِـاِذْنِ رَبِّہٖ۝۰ۚ وَالَّذِيْ خَبُثَ لَا يَخْرُجُ اِلَّا نَكِدًا۝۰ۭ كَذٰلِكَ نُصَرِّفُ الْاٰيٰتِ لِقَوْمٍ يَّشْكُرُوْنَ۝۵۸ۧ

और अच्छी भूमि के पेड़-पौधे उसके रब के आदेश से निकलते है और जो भूमि ख़राब हो गई है तो उससे निकम्मी पैदावार के अतिरिक्त कुछ नहीं निकलता। इसी प्रकार हम निशानियों को उन लोगों के लिए तरह-तरह से बयान करते है, जो कृतज्ञता दिखानेवाले है॥58॥

لَقَدْ اَرْسَلْنَا نُوْحًا اِلٰي قَوْمِہٖ فَقَالَ يٰقَوْمِ اعْبُدُوا اللہَ مَا لَكُمْ مِّنْ اِلٰہٍ غَيْرُہٗ۝۰ۭ اِنِّىْٓ اَخَافُ عَلَيْكُمْ عَذَابَ يَوْمٍ عَظِيْمٍ۝۵۹

हमने नूह को उसकी क़ौम के लोगों की ओर भेजा, तो उसने कहा, "ऐ मेरी क़ौम के लोगो! अल्लाह की बन्दगी करो। उसके अतिरिक्त तुम्हारा कोई पूज्य नहीं। मैं तुम्हारे लिए एक बड़े दिन का यातना से डरता हूँ।" ॥59॥

قَالَ الْمَلَاُ مِنْ قَوْمِہٖٓ اِنَّا لَنَرٰىكَ فِيْ ضَلٰلٍ مُّبِيْنٍ۝۶۰

उसकी क़ौम के सरदारों ने कहा, "हम तो तुम्हें खुली गुमराही में पड़ा देख रहे है।"॥60॥

قَالَ يٰقَوْمِ لَيْسَ بِيْ ضَلٰلَۃٌ وَّلٰكِـنِّيْ رَسُوْلٌ مِّنْ رَّبِّ الْعٰلَمِيْنَ۝۶۱

उसने कहा, "ऐ मेरी क़ौम के लोगों! किसी गुमराही का मुझसे सम्बन्ध नहीं, बल्कि मैं सारे संसार के रब का एक रसूल हूँ। - ॥61॥

اُبَلِّغُكُمْ رِسٰلٰتِ رَبِّيْ وَاَنْصَحُ لَكُمْ وَاَعْلَمُ مِنَ اللہِ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ۝۶۲

"अपने रब के सन्देश तुम्हेव पहुँचता हूँ और तुम्हारा हित चाहता हूँ, और मैं अल्लाह की ओर से वह कुछ जानता हूँ, जो तुम नहीं जानते।"॥62॥

اَوَعَجِبْتُمْ اَنْ جَاۗءَكُمْ ذِكْرٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ عَلٰي رَجُلٍ مِّنْكُمْ لِيُنْذِرَكُمْ وَلِتَتَّقُوْا وَلَعَلَّكُمْ تُرْحَمُوْنَ۝۶۳

क्या (तुमने मुझे झूठा समझा) और तुम्हें इस पर आश्चर्य हुआ कि तुम्हारे पास तुम्हीं में से एक आदमी के द्वारा तुम्हारे रब की नसीहत आई? ताकि वह तुम्हें सचेत कर दे और ताकि तुम डर रखने लगो और शायद कि तुमपर दया की जाए॥63॥

فَكَذَّبُوْہُ فَاَنْجَيْنٰہُ وَالَّذِيْنَ مَعَہٗ فِي الْفُلْكِ وَاَغْرَقْنَا الَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا۝۰ۭ اِنَّہُمْ كَانُوْا قَوْمًا عَمِيْنَ۝۶۴ۧ

किन्तु उन्होंने झुठला दिया। अन्ततः हमने उसे और उन लोगों को जो उसके साथ एक नौका में थे बचा लिया और जिन लोगों ने हमारी आयतों को ग़लत समझा, उन्हें हमने डूबो दिया। निश्चय  ही वे अन्धे लोग थे॥64॥

۞ وَاِلٰي عَادٍ اَخَاہُمْ ہُوْدًا۝۰ۭ قَالَ يٰقَوْمِ اعْبُدُوا اللہَ مَا لَكُمْ مِّنْ اِلٰہٍ غَيْرُہٗ۝۰ۭ اَفَلَا تَتَّقُوْنَ۝۶۵

और आद की ओर उनके भाई हूद को भेजा। उसने कहा, "ऐ मेरी क़ौम के लोगो! अल्लाह की बन्दगी करो, उसके अतिरिक्त तुम्हारा कोई पूज्य नहीं। तो क्या (इसे सोचकर) तुम डरते नहीं?"॥65॥

قَالَ الْمَلَاُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْ قَوْمِہٖٓ اِنَّا لَنَرٰىكَ فِيْ سَفَاہَۃٍ وَّاِنَّا لَنَظُنُّكَ مِنَ الْكٰذِبِيْنَ۝۶۶

उसकी क़ौम के इनकार करनेवाले सरदारों ने कहा, "वास्तव में, हम तो देखते है कि तुम बुद्धिहीनता में ग्रस्त हो और हम तो तुम्हें झूठा समझते है।"॥66॥

قَالَ يٰقَوْمِ لَيْسَ بِيْ سَفَاہَۃٌ وَّلٰكِـنِّيْ رَسُوْلٌ مِّنْ رَّبِّ الْعٰلَمِيْنَ۝۶۷

उसने कहा, "ऐ मेरी क़ौम के लोगो! मैं बुद्धिहीनता में कदापि ग्रस्त नहीं हूँ। परन्तु मैं सारे संसार के रब का रसूल हूँ।- ॥67॥

اُبَلِّغُكُمْ رِسٰلٰتِ رَبِّيْ وَاَنَا لَكُمْ نَاصِحٌ اَمِيْنٌ۝۶۸

"तुम्हें अपने रब के संदेश पहुँचता हूँ और मैं तुम्हारा विश्वस्त हितैषी हूँ॥68॥

اَوَعَجِبْتُمْ اَنْ جَاۗءَكُمْ ذِكْرٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ عَلٰي رَجُلٍ مِّنْكُمْ لِيُنْذِرَكُمْ۝۰ۭ وَاذْكُرُوْٓا اِذْ جَعَلَكُمْ خُلَفَاۗءَ مِنْۢ بَعْدِ قَوْمِ نُوْحٍ وَّزَادَكُمْ فِي الْخَلْقِ بَصْۜطَۃً۝۰ۚ فَاذْكُرُوْٓا اٰلَاۗءَ اللہِ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ۝۶۹

"क्या (तुमने मुझे झूठा समझा) और तुम्हें इसपर आश्चर्य हुआ कि तुम्हारे पास तुम्हीं में से एक आदमी के द्वारा तुम्हारे रब की नसीहत आई, ताकि वह तुम्हें सचेत करे? और याद करो, जब उसने नूह की क़ौम के पश्चात तुम्हें उसका उत्तराधिकारी बनाया और शारीरिक दॄष्टि से भी तुम्हें अधिक विशालता प्रदान की। अतः अल्लाह की सामर्थ्य के चमत्कारो को याद करो, ताकि तुम्हें सफलता प्राप्त हो।"॥69॥

قَالُوْٓا اَجِئْتَنَا لِنَعْبُدَ اللہَ وَحْدَہٗ وَنَذَرَ مَا كَانَ يَعْبُدُ اٰبَاۗؤُنَا۝۰ۚ فَاْتِنَا بِمَا تَعِدُنَآ اِنْ كُنْتَ مِنَ الصّٰدِقِيْنَ۝۷۰

वे बोले, "क्या तुम हमारे पास इसलिए आए हो कि अकेले अल्लाह की हम बन्दगी करें और जिनको हमारे बाप-दादा पूजते रहे है उन्हें छोड़ दें? अच्छा, तो जिसकी तुम हमें धमकी देते हो उसे हमपर ले आओ, यदि तुम सच्चे हो।"॥70॥

قَالَ قَدْ وَقَعَ عَلَيْكُمْ مِّنْ رَّبِّكُمْ رِجْسٌ وَّغَضَبٌ۝۰ۭ اَتُجَادِلُوْنَنِيْ فِيْٓ اَسْمَاۗءٍ سَمَّيْتُمُوْہَآ اَنْتُمْ وَاٰبَاۗؤُكُمْ مَّا نَزَّلَ اللہُ بِہَا مِنْ سُـلْطٰنٍ۝۰ۭ فَانْتَظِرُوْٓا اِنِّىْ مَعَكُمْ مِّنَ الْمُنْتَظِرِيْنَ۝۷۱

उसने कहा, "तुम पर तो तुम्हारे रब की ओर से नापाकी थोप दी गई है और प्रकोप टूट पड़ा है। क्या तुम मुझसे उन नामों के लिए झगड़ते हो जो तुमने और तुम्हारे बाप-दादा ने रख छोड़े है, जिनके लिए अल्लाह ने कोई प्रमाण नहीं उतारा? अच्छा, तो तुम भी प्रतीक्षा करो, मैं भी तुम्हारे साथ प्रतीक्षा करता हूँ।"॥71॥

فَاَنْجَيْنٰہُ وَالَّذِيْنَ مَعَہٗ بِرَحْمَۃٍ مِّنَّا وَقَطَعْنَا دَابِرَ الَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا وَمَا كَانُوْا مُؤْمِنِيْنَ۝۷۲ۧ

फिर हमने अपनी दयालुता से उसको और जो लोग उसके साथ थे उन्हें बचा लिया और उन लोगों की जड़ काट दी, जिन्होंने हमारी आयतों को झुठलाया था और ईमानवाले न थे॥72॥

وَاِلٰي ثَمُوْدَ اَخَاہُمْ صٰلِحًا۝۰ۘ قَالَ يٰقَوْمِ اعْبُدُوا اللہَ مَا لَكُمْ مِّنْ اِلٰہٍ غَيْرُہٗ۝۰ۭ قَدْ جَاۗءَتْكُمْ بَيِّنَۃٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ۝۰ۭ ہٰذِہٖ نَاقَۃُ اللہِ لَكُمْ اٰيَۃً فَذَرُوْہَا تَاْكُلْ فِيْٓ اَرْضِ اللہِ وَلَا تَمَسُّوْہَا بِسُوْۗءٍ فَيَاْخُذَكُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ۝۷۳

और समूद की ओर उनके भाई सालेह को भेजा। उसने कहा, "ऐ मेरी क़ौम के लोगो! अल्लाह की बन्दगी करो। उसके अतिरिक्त तुम्हारा कोई पूज्य नहीं। तुम्हारे पास तुम्हारे रब की ओर से एक स्पष्ट  प्रमाण आ चुका है। यह अल्लाह की ऊँटनी तुम्हारे लिए एक निशानी है। अतः इसे छोड़ दो कि अल्लाह की धरती में खाए। और तकलीफ़ पहुँचाने के लिए इसे हाथ न लगाना, अन्यथा तुम्हें एक दुखद यातना आ लेगी।-॥73॥

وَاذْكُرُوْٓا اِذْ جَعَلَكُمْ خُلَفَاۗءَ مِنْۢ بَعْدِ عَادٍ وَّبَوَّاَكُمْ فِي الْاَرْضِ تَتَّخِذُوْنَ مِنْ سُہُوْلِہَا قُصُوْرًا وَّتَنْحِتُوْنَ الْجِبَالَ بُيُوْتًا۝۰ۚ فَاذْكُرُوْٓا اٰلَاۗءَ اللہِ وَلَا تَعْثَوْا فِي الْاَرْضِ مُفْسِدِيْنَ۝۷۴

और याद करो जब अल्लाह ने आद के बाद तुम्हें उसका उत्तराधिकारी बनाया और धरती में तुम्हें ठिकाना प्रदान किया। तुम उसके समतल मैदानों में महल बनाते हो और पहाड़ो को काट-छाँट कर भवनों का रूप देते हो। अतः अल्लाह की सामर्थ्य के चमत्कारों को याद करो और धरती में बिगाड़ पैदा करते न फिरो।"॥74॥

قَالَ الْمَلَاُ الَّذِيْنَ اسْـتَكْبَرُوْا مِنْ قَوْمِہٖ لِلَّذِيْنَ اسْتُضْعِفُوْا لِمَنْ اٰمَنَ مِنْہُمْ اَتَعْلَمُوْنَ اَنَّ صٰلِحًا مُّرْسَلٌ مِّنْ رَّبِّہٖ۝۰ۭ قَالُوْٓا اِنَّا بِمَآ اُرْسِلَ بِہٖ مُؤْمِنُوْنَ۝۷۵

उसकी क़ौम के सरदार, जो बड़े बने हुए थे, उन कमज़ोर लोगों से, जो उनमें ईमान लाए थे, कहने लगे, "क्या तुम जानते हो कि सालेह अपने रब का भेजा हुआ (पैग़म्बर) है?" उन्होंने कहा, "निस्संदेह जिस चीज़ के साथ वह भेजा गया है, हम उसपर ईमान रखते है।"॥75॥

قَالَ الَّذِيْنَ اسْتَكْبَرُوْٓا اِنَّا بِالَّذِيْٓ اٰمَنْتُمْ بِہٖ كٰفِرُوْنَ۝۷۶

उन घमंड करनेवालों ने कहा, "जिस चीज़ पर तुम ईमान लाए हो, हम तो उसको नहीं मानते।"॥76॥

فَعَقَرُوا النَّاقَۃَ وَعَتَوْا عَنْ اَمْرِ رَبِّہِمْ وَقَالُوْا يٰصٰلِحُ ائْتِنَا بِمَا تَعِدُنَآ اِنْ كُنْتَ مِنَ الْمُرْسَلِيْنَ۝۷۷

फिर उन्होंने उस ऊँटनी की कूचें काट दीं और अपने रब के आदेश की अवहेलना की और बोले, "ऐ सालेह! हमें तू जिस चीज़ की धमकी देता है उसे हमपर ले आ, यदि तू वास्तव में रसूलों में से है।"॥77॥

فَاَخَذَتْہُمُ الرَّجْفَۃُ فَاَصْبَحُوْا فِيْ دَارِہِمْ جٰثِمِيْنَ۝۷۸

अन्ततः एक हिला मारनेवाली आपदा ने उन्हें आ लिया और वे अपने घरों में औंधे पड़े रह गए॥78॥

فَتَوَلّٰى عَنْہُمْ وَقَالَ يٰقَوْمِ لَقَدْ اَبْلَغْتُكُمْ رِسَالَۃَ رَبِّيْ وَنَصَحْتُ لَكُمْ وَلٰكِنْ لَّا تُحِبُّوْنَ النّٰصِحِيْنَ۝۷۹

फिर वह यह कहता हुआ उनके यहाँ से फिरा, "ऐ मेरी क़ौम के लोगों! मैं तो तुम्हें अपने रब का संदेश पहुँचा चुका और मैंने तुम्हारा हित चाहा। परन्तु तुम्हें अपने हितैषी पसन्द ही नहीं आते।"॥79॥

وَلُوْطًا اِذْ قَالَ لِقَوْمِہٖٓ اَتَاْتُوْنَ الْفَاحِشَۃَ مَا سَبَقَكُمْ بِہَا مِنْ اَحَدٍ مِّنَ الْعٰلَمِيْنَ۝۸۰

और हमने लूत को भेजा। जब उसने अपनी क़ौम से कहा, "क्या तुम वह प्रत्यक्ष अश्लील कर्म करते हो, जिसे दुनिया में तुमसे पहले किसी ने नहीं किया?"॥80॥

اِنَّكُمْ لَتَاْتُوْنَ الرِّجَالَ شَہْوَۃً مِّنْ دُوْنِ النِّسَاۗءِ۝۰ۭ بَلْ اَنْتُمْ قَوْمٌ مُّسْرِفُوْنَ۝۸۱

तुम स्त्रियों को छोड़कर मर्दों से कामेच्छा पूरी करते हो, बल्कि तुम नितान्त मर्यादाहीन लोग हो॥81॥

وَمَا كَانَ جَوَابَ قَوْمِہٖٓ اِلَّآ اَنْ قَالُوْٓا اَخْرِجُوْہُمْ مِّنْ قَرْيَتِكُمْ۝۰ۚ اِنَّہُمْ اُنَاسٌ يَّتَطَہَّرُوْنَ۝۸۲

उसकी क़ौम के लोगों का उत्तर इसके अतिरिक्त और कुछ न था कि वे बोले, "निकालो, उन लोगों को अपनी बस्ती से। ये ऐसे लोग है जो बड़े पाक-साफ़ है!"॥82॥

فَاَنْجَيْنٰہُ وَاَہْلَہٗٓ اِلَّا امْرَاَتَہٗ۝۰ۡۖ كَانَتْ مِنَ الْغٰبِرِيْنَ۝۸۳

फिर हमने उसे और उसके लोगों को छुटकारा दिया, सिवाय उसकी स्त्री के कि वह पीछे रह जानेवालों में से थी॥83॥

وَاَمْطَرْنَا عَلَيْہِمْ مَّطَرًا۝۰ۭ فَانْظُرْ كَيْفَ كَانَ عَاقِبَۃُ الْمُجْرِمِيْنَ۝۸۴ۧ

और हमने उनपर एक बरसात बरसाई, तो देखो अपराधियों का कैसा परिणाम हुआ॥84॥

وَاِلٰي مَدْيَنَ اَخَاہُمْ شُعَيْبًا۝۰ۭ قَالَ يٰقَوْمِ اعْبُدُوا اللہَ مَا لَكُمْ مِّنْ اِلٰہٍ غَيْرُہٗ۝۰ۭ قَدْ جَاۗءَتْكُمْ بَيِّنَۃٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ فَاَوْفُوا الْكَيْلَ وَالْمِيْزَانَ وَلَا تَبْخَسُوا النَّاسَ اَشْـيَاۗءَہُمْ وَلَا تُفْسِدُوْا فِي الْاَرْضِ بَعْدَ اِصْلَاحِہَا۝۰ۭ ذٰلِكُمْ خَيْرٌ لَّكُمْ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ۝۸۵ۚ

और मदयनवालों की ओर हमने उनके भाई शुऐब को भेजा। उसने कहा, "ऐ मेरी क़ौम के लोगों! अल्लाह की बन्दगी करो। उसके अतिरिक्त तुम्हारा कोई पूज्य नहीं। तुम्हारे पास तुम्हारे रब की ओर से एक स्पष्ट प्रमाण आ चुका है। तो तुम नाप और तौल पूरी-पूरी करो, और लोगों को उनकी चीज़ों में घाटा न दो, और धरती में उसकी सुधार के पश्चात बिगाड़ पैदा न करो। यही तुम्हारे लिए अच्छा है, यदि तुम ईमानवाले हो॥85॥

وَلَا تَقْعُدُوْا بِكُلِّ صِرَاطٍ تُوْعِدُوْنَ وَتَصُدُّوْنَ عَنْ سَبِيْلِ اللہِ مَنْ اٰمَنَ بِہٖ وَتَبْغُوْنَہَا عِوَجًا۝۰ۚ وَاذْكُرُوْٓا اِذْ كُنْتُمْ قَلِيْلًا فَكَثَّرَكُمْ۝۰۠ وَانْظُرُوْا كَيْفَ كَانَ عَاقِبَۃُ الْمُفْسِدِيْنَ۝۸۶

"और प्रत्येक मार्ग पर इसलिए न बैठो कि धमकियाँ दो और उस व्यक्ति को अल्लाह के मार्ग से रोकने लगो जो उसपर ईमान रखता हो और न उस मार्ग को टेढ़ा करने में लग जाओ। याद करो, वह समय जब तुम थोड़े थे, फिर उसने तुम्हें अधिक कर दिया। और देखो, बिगाड़ पैदा करनेवालो का कैसा परिणाम हुआ॥86॥

وَاِنْ كَانَ طَاۗىِٕفَۃٌ مِّنْكُمْ اٰمَنُوْا بِالَّذِيْٓ اُرْسِلْتُ بِہٖ وَطَاۗىِٕفَۃٌ لَّمْ يُؤْمِنُوْا فَاصْبِرُوْا حَتّٰي يَحْكُمَ اللہُ بَيْنَنَا۝۰ۚ وَہُوَخَيْرُ الْحٰكِمِيْنَ۝۸۷

"और यदि तुममें एक गिरोह ऐसा है जो उसपर ईमान लाया है जिसके साथ मैं भेजा गया हूँ और एक गिरोह ऐसा है जो उसपर ईमान लाया है जिसके साथ मैं भेजा गया हूँ और एक गिरोह ईमान नहीं लाया, तो धैर्य से काम लो, यहाँ तक कि अल्लाह हमारे बीच फ़ैसला कर दे। और वह सबसे अच्छा फ़ैसला करनेवाला है।"॥87॥

(9) ۞ قَالَ الْمَلَاُ الَّذِيْنَ اسْـتَكْبَرُوْا مِنْ قَوْمِہٖ لَنُخْرِجَنَّكَ يٰشُعَيْبُ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مَعَكَ مِنْ قَرْيَتِنَآ اَوْ لَتَعُوْدُنَّ فِيْ مِلَّتِنَا۝۰ۭ قَالَ اَوَلَوْ كُنَّا كٰرِہِيْنَ۝۸۸ۣ

उनकी क़ौम के सरदारों ने, जो घमंड में पड़े थे, कहा, "ऐ शुऐब! हम तुझे और तेरे साथ उन लोगों को, जो ईमान लाए है अपनी बस्ती से निकालकर रहेंगे। या फिर तुम हमारे पंथ में लौट आओ।" उसने कहा, "क्या (तुम यही चाहोगे) यद्यपि यह हमें अप्रिय हो जब भी?॥88॥

قَدِ افْتَرَيْنَا عَلَي اللہِ كَذِبًا اِنْ عُدْنَا فِيْ مِلَّتِكُمْ بَعْدَ اِذْ نَجّٰىنَا اللہُ مِنْہَا۝۰ۭ وَمَا يَكُوْنُ لَنَآ اَنْ نَّعُوْدَ فِيْہَآ اِلَّآ اَنْ يَّشَاۗءَ اللہُ رَبُّنَا۝۰ۭ وَسِعَ رَبُّنَا كُلَّ شَيْءٍ عِلْمًا۝۰ۭ عَلَي اللہِ تَوَكَّلْنَا۝۰ۭ رَبَّنَا افْتَحْ بَيْنَنَا وَبَيْنَ قَوْمِنَا بِالْحَقِّ وَاَنْتَ خَيْرُ الْفٰتِحِيْنَ۝۸۹

"हम अल्लाह पर झूठ आरोपित करनेवाले होगे यदि तुम्हारे पन्थ में लौट आएँ, इसके बाद कि अल्लाह ने हमें उससे छुटकारा दे दिया है। यह हमसे तो होने का नहीं कि हम उसमें पलट कर जाएँ, बल्कि हमारे रब अल्लाह की इच्छा ही क्रियान्वित है। हमारे रब का ज्ञान  हर चीज़ को अपने घेरे में लिए हुए है। हमने अल्लाह ही पर भरोसा किया है। हमारे रब, हमारे और हमारी क़ौम के बीच निश्चित अटल फ़ैसला कर दे। और तू सबसे अच्छा फ़ैसला करनेवाला है।"॥89॥

وَقَالَ الْمَلَاُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْ قَوْمِہٖ لَىِٕنِ اتَّبَعْتُمْ شُعَيْبًا اِنَّكُمْ اِذًا لَّـخٰسِرُوْنَ۝۹۰

उसकी क़ौम के सरदार, जिन्होंने इनकार किया था, बोले, "यदि तुम शुऐब के अनुयायी बने तो तुम घाटे में पड़ जाओगे।"॥90॥

فَاَخَذَتْہُمُ الرَّجْفَۃُ فَاَصْبَحُوْا فِيْ دَارِہِمْ جٰثِمِيْنَ۝۹۱ۚۖۛ

अन्ततः एक दहला देनेवाली आपदा ने उन्हें आ लिया। फिर वे अपने घर में औंधे पड़े रह गए,॥91॥

الَّذِيْنَ كَذَّبُوْا شُعَيْبًا كَاَنْ لَّمْ يَغْنَوْا فِيْہَا۝۰ۚۛ اَلَّذِيْنَ كَذَّبُوْا شُعَيْبًا كَانُوْا ہُمُ الْخٰسِرِيْنَ۝۹۲

शुऐब को झुठलानेवाले, मानो कभी वहाँ बसे ही न थे। शुऐब को झुठलानेवाले ही घाटे में रहे॥92॥

فَتَوَلّٰي عَنْہُمْ وَقَالَ يٰقَوْمِ لَقَدْ اَبْلَغْتُكُمْ رِسٰلٰتِ رَبِّيْ وَنَصَحْتُ لَكُمْ۝۰ۚ فَكَيْفَ اٰسٰي عَلٰي قَوْمٍ كٰفِرِيْنَ۝۹۳ۧ

तब वह उनके यहाँ से यह कहता हुआ फिरा, "ऐ मेरी क़ौम के लोगो! मैंने अपने रब के सन्देश तुम्हें पहुँचा दिए और मैंने तुम्हारा हित चाहा। अब मैं इनकार करनेवाले लोगो पर कैसे अफ़सोस करूँ!"॥93॥

وَمَآ اَرْسَلْنَا فِيْ قَرْيَۃٍ مِّنْ نَّبِيٍّ اِلَّآ اَخَذْنَآ اَہْلَہَا بِالْبَاْسَاۗءِ وَالضَّرَّاۗءِ لَعَلَّہُمْ يَضَّرَّعُوْنَ۝۹۴

हमने जिस बस्ती में भी कभी कोई नबी भेजा, तो वहाँ के लोगों को तंगी और मुसीबत में डाला, ताकि वे (हमारे सामने) गिड़गि़ड़ाए॥94॥

ثُمَّ بَدَّلْنَا مَكَانَ السَّيِّئَۃِ الْحَسَـنَۃَ حَتّٰي عَفَوْا وَّقَالُوْا قَدْ مَسَّ اٰبَاۗءَنَا الضَّرَّاۗءُ وَالسَّرَّاۗءُ فَاَخَذْنٰہُمْ بَغْتَۃً وَّہُمْ لَا يَشْعُرُوْنَ۝۹۵

फिर हमने बदहाली को ख़ुशहाली में बदल दिया, यहाँ तक कि वे ख़ूब फले-फूले और कहने लगे, "ये दुख और सुख तो हमारे बाप-दादा को भी पहुँचे हैं।" अन्नँतः जब वे बेखबर थे, हमने अचानक उन्हें पकड़ लिया॥95॥

وَلَوْ اَنَّ اَہْلَ الْقُرٰٓي اٰمَنُوْا وَاتَّقَوْا لَفَتَحْنَا عَلَيْہِمْ بَرَكٰتٍ مِّنَ السَّمَاۗءِ وَالْاَرْضِ وَلٰكِنْ كَذَّبُوْا فَاَخَذْنٰہُمْ بِمَا كَانُوْا يَكْسِبُوْنَ۝۹۶

यदि बस्तियों के लोग ईमान लाते और डर रखते तो अवश्य ही हम उनपर आकाश और धरती की बरकतें खोल देते, परन्तु उन्होंने तो झुठलाया। तो जो कुछ कमाई वे करते थे, उसके बदले में हमने उन्हें पकड़ लिया॥96॥

اَفَاَمِنَ اَہْلُ الْقُرٰٓي اَنْ يَّاْتِـيَہُمْ بَاْسُـنَا بَيَاتًا وَّہُمْ نَاۗىِٕمُوْنَ۝۹۷ۭ

फिर क्या बस्तियों के लोगों को इस और से निश्चिन्त रहने का अवसर मिल सका कि रात में उनपर हमारी यातना आ जाए, जबकि वे सोए हुए हो?॥97॥

اَوَاَمِنَ اَہْلُ الْقُرٰٓي اَنْ يَّاْتِـيَہُمْ بَاْسُـنَا ضُـحًى وَّہُمْ يَلْعَبُوْنَ۝۹۸

और क्या बस्तियों के लोगो को इस ओर से निश्चिन्त रहने का अवसर मिल सका कि दिन चढ़े उनपर हमारी यातना आ जाए, जबकि वे खेल रहे हों?॥98॥

اَفَاَمِنُوْا مَكْرَ اللہِ۝۰ۚ فَلَا يَاْمَنُ مَكْرَ اللہِ اِلَّا الْقَوْمُ الْخٰسِرُوْنَ۝۹۹ۧ

आख़िर क्या वे अल्लाह की चाल से निश्चिन्त हो गए थे? तो (समझ लो उन्हें टोटे में पड़ना ही था, क्योंकि) अल्लाह की चाल से तो वही लोग निश्चित होते है, जो टोटे में पड़नेवाले होते है॥99॥

اَوَلَمْ يَہْدِ لِلَّذِيْنَ يَرِثُوْنَ الْاَرْضَ مِنْۢ بَعْدِ اَہْلِہَآ اَنْ لَّوْ نَشَاۗءُ اَصَبْنٰہُمْ بِذُنُوْبِہِمْ۝۰ۚ وَنَطْبَعُ عَلٰي قُلُوْبِہِمْ فَہُمْ لَا يَسْمَعُوْنَ۝۱۰۰

क्या जो धरती के, उसके पूर्ववासियों के पश्चात उत्तराधिकारी हुए है, उनपर यह तथ्य प्रकट न हुआ कि यदि हम चाहें तो उनके गुनाहों पर उन्हें आ पकड़े? हम तो उनके दिलों पर मुहर लगा रहे हैं, क्योंकि वे कुछ भी नहीं सुनते॥100॥

تِلْكَ الْقُرٰي نَقُصُّ عَلَيْكَ مِنْ اَنْۢبَاۗىِٕہَا۝۰ۚ وَلَقَدْ جَاۗءَتْہُمْ رُسُلُہُمْ بِالْبَيِّنٰتِ۝۰ۚ فَمَا كَانُوْا لِيُؤْمِنُوْا بِمَا كَذَّبُوْا مِنْ قَبْلُ۝۰ۭ كَذٰلِكَ يَطْبَعُ اللہُ عَلٰي قُلُوْبِ الْكٰفِرِيْنَ۝۱۰۱

ये है वे बस्तियाँ जिनके कुछ हालात हम तुमको सुना रहे है। उनके पास उनके रसूल खुली-खुली निशानियाँ लेकर आए, परन्तु वे ऐसे न हुए कि ईमान लाते। इसका कारण यह था कि वे पहले से झुठलाते रहे थे। इसी प्रकार अल्लाह इनकार करनेवालों के दिलों पर मुहर लगा देता है॥101॥

وَمَا وَجَدْنَا لِاَكْثَرِہِمْ مِّنْ عَہْدٍ۝۰ۚ وَاِنْ وَّجَدْنَآ اَكْثَرَہُمْ لَفٰسِقِيْنَ۝۱۰۲

हमने उनके अधिकतर लोगो में प्रतिज्ञा का निर्वाह न पाया, बल्कि उनके बहुतों को हमने उल्लंघनकारी ही पाया॥102॥

ثُمَّ بَعَثْنَا مِنْۢ بَعْدِہِمْ مُّوْسٰي بِاٰيٰتِنَآ اِلٰى فِرْعَوْنَ وَمَلَا۟ىِٕہٖ فَظَلَمُوْا بِہَا۝۰ۚ فَانْظُرْ كَيْفَ كَانَ عَاقِبَۃُ الْمُفْسِدِيْنَ۝۱۰۳

फिर उनके पश्चात हमने मूसा को अपनी निशानियों के साथ फ़िरऔन और उसके सरदारों के पास भेजा, परन्तु उन्होंने उसका इनका और स्वयं पर अत्याचार किया। तो देखो, इन बिगाड़ पैदा करनेवालों का कैसा परिणाम हुआ!॥103॥

وَقَالَ مُوْسٰي يٰفِرْعَوْنُ اِنِّىْ رَسُوْلٌ مِّنْ رَّبِّ الْعٰلَمِيْنَ۝۱۰۴ۙ

मूसा ने कहा, "ऐ फ़िरऔन! मैं सारे संसार के रब का रसूल हूँ॥104॥

حَقِيْقٌ عَلٰٓي اَنْ لَّآ اَقُوْلَ عَلَي اللہِ اِلَّا الْحَقَّ۝۰ۭ قَدْ جِئْتُكُمْ بِبَيِّنَۃٍ مِّنْ رَّبِّكُمْ فَاَرْسِلْ مَعِيَ بَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ۝۱۰۵ۭ

"मैं इसका अधिकारी हूँ कि अल्लाह से सम्बद्ध करके सत्य के अतिरिक्त कोई बात न कहूँ। मैं तुम्हारे पास तुम्हारे रब की ओर से स्पष्ट प्रमाण लेकर आ गया हूँ। अतः तुम इसराईल की सन्तान को मेरे साथ जाने दो।"॥105॥

قَالَ اِنْ كُنْتَ جِئْتَ بِاٰيَۃٍ فَاْتِ بِہَآ اِنْ كُنْتَ مِنَ الصّٰدِقِيْنَ۝۱۰۶

बोला, "यदि तुम कोई निशानी लेकर आए हो तो उसे पेश करो, यदि तुम सच्चे हो।"॥106॥

فَاَلْقٰى عَصَاہُ فَاِذَا ھِىَ ثُعْبَانٌ مُّبِيْنٌ۝۱۰۷ۚۖ

तब उसने अपनी लाठी डाल दी। क्या देखते है कि वह प्रत्यक्ष अजगर है॥107॥

وَّنَزَعَ يَدَہٗ فَاِذَا ہِىَ بَيْضَاۗءُ لِلنّٰظِرِيْنَ۝۱۰۸ۧ

और उसने अपना हाथ निकाला, तो क्या देखते है कि वह सब देखनेवालों के सामने चमक रहा है॥108॥

قَالَ الْمَلَاُ مِنْ قَوْمِ فِرْعَوْنَ اِنَّ ہٰذَا لَسٰحِرٌ عَلِيْمٌ۝۱۰۹ۙ

फ़िरऔन की क़ौम के सरदार कहने लगे, "अरे, यह तो बडा कुशल जादूगर है!॥109॥

يُّرِيْدُ اَنْ يُّخْرِجَكُمْ مِّنْ اَرْضِكُمْ۝۰ۚ فَمَاذَا تَاْمُرُوْنَ۝۱۱۰

"तुम्हें तुम्हारी धरती से निकाल देना चाहता है। तो अब क्या कहते हो?"॥110॥

قَالُوْٓا اَرْجِہْ وَاَخَاہُ وَاَرْسِلْ فِي الْمَدَاۗىِٕنِ حٰشِرِيْنَ۝۱۱۱ۙ

उन्होंने कहा, "इसे और इसके भाई को प्रतीक्षा में रखो और नगरों में हरकारे भेज दो,॥111॥

يَاْتُوْكَ بِكُلِّ سٰحِرٍ عَلِيْمٍ۝۱۱۲

"कि वे हर कुशल जादूगर को तुम्हारे पास ले आएँ।"॥112॥

وَجَاۗءَ السَّحَرَۃُ فِرْعَوْنَ قَالُوْٓا اِنَّ لَنَا لَاَجْرًا اِنْ كُنَّا نَحْنُ الْغٰلِـبِيْنَ۝۱۱۳

अतएव जादूगर फ़िरऔन के पास आ गए। कहने लगे, "यदि हम विजयी हुए तो अवश्य ही हमें बड़ा बदला मिलेगा?"॥113॥

قَالَ نَعَمْ وَاِنَّكُمْ لَمِنَ الْمُقَرَّبِيْنَ۝۱۱۴

उसने कहा, "हाँ, और बेशक तुम (मेरे) क़रीबियों में से हो जाओगे।"॥114॥

قَالُوْا يٰمُوْسٰٓي اِمَّآ اَنْ تُلْقِيَ وَاِمَّآ اَنْ نَّكُوْنَ نَحْنُ الْمُلْقِيْنَ۝۱۱۵

उन्होंने कहा, "ऐ मूसा! या तुम डालो या फिर हम डालते हैं?"॥115॥

قَالَ اَلْقُوْا۝۰ۚ فَلَمَّآ اَلْقَوْا سَحَرُوْٓا اَعْيُنَ النَّاسِ وَاسْتَرْہَبُوْہُمْ وَجَاۗءُوْ بِسِحْرٍ عَظِيْمٍ۝۱۱۶

उसने कहा, "तुम ही डालो।" फिर उन्होंने डाला तो लोगो की आँखों पर जादू कर दिया और उन्हें भयभीत कर दिया। उन्होंने एक बहुत बड़े जादू का प्रदर्शन किया॥116॥

۞ وَاَوْحَيْنَآ اِلٰى مُوْسٰٓي اَنْ اَلْقِ عَصَاكَ۝۰ۚ فَاِذَا ہِىَ تَلْقَفُ مَا يَاْفِكُوْنَ۝۱۱۷ۚ

हमने मूसा की ओर प्रकाशना कि कि "अपनी लाठी डाल दे।" फिर क्या देखते है कि वह उनके रचें हुए स्वांग को निगलती जा रही है॥117॥

فَوَقَعَ الْحَقُّ وَبَطَلَ مَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ۝۱۱۸ۚ

इस प्रकार सत्य प्रकट हो गया और जो कुछ वे कर रहे थे, मिथ्या होकर रहा॥118॥

فَغُلِبُوْا ہُنَالِكَ وَانْقَلَبُوْا صٰغِرِيْنَ۝۱۱۹ۚ

अतः वे  हार गए और अपमानित होकर रहे॥119॥

وَاُلْقِيَ السَّحَرَۃُ سٰجِدِيْنَ۝۱۲۰ۚۖ

और जादूगर सहसा सजदे में गिर पड़े॥120॥

قَالُوْٓا اٰمَنَّا بِرَبِّ الْعٰلَمِيْنَ۝۱۲۱ۙ

बोले, "हम सारे संसार के रब पर ईमान ले आए;॥121॥

رَبِّ مُوْسٰي وَہٰرُوْنَ۝۱۲۲

"मूसा और हारून के रब पर।"॥122॥

قَالَ فِرْعَوْنُ اٰمَنْتُمْ بِہٖ قَبْلَ اَنْ اٰذَنَ لَكُمْ۝۰ۚ اِنَّ ہٰذَا لَمَكْرٌ مَّكَرْتُمُوْہُ فِي الْمَدِيْنَۃِ لِتُخْرِجُوْا مِنْہَآ اَہْلَہَا۝۰ۚ فَسَوْفَ تَعْلَمُوْنَ۝۱۲۳

फ़िरऔन बोला, "इससे पहले कि मैं तुम्हें अनुमति दूँ, तूम उसपर ईमान ले आए! यह तो एक चाल है जो तुम लोग नगर में चले हो, ताकि उसके निवासियों को उससे निकाल दो। अच्छा, तो अब तुम्हें जल्द की मालूम हुआ जाता है!॥123॥

لَاُقَطِّعَنَّ اَيْدِيَكُمْ وَاَرْجُلَكُمْ مِّنْ خِلَافٍ ثُمَّ لَاُصَلِّبَنَّكُمْ اَجْمَعِيْنَ۝۱۲۴

"मैं तुम्हारे हाथ और तुम्हारे पाँव विपरीत दिशाओं से काट दूँगा; फिर तुम सबको सूली पर चढ़ाकर रहूँगा।"॥124॥

قَالُوْٓا اِنَّآ اِلٰى رَبِّنَا مُنْقَلِبُوْنَ۝۱۲۵ۚ

उन्होंने कहा, "हम तो अपने रब ही की और लौटेंगे॥125॥

وَمَا تَنْقِمُ مِنَّآ اِلَّآ اَنْ اٰمَنَّا بِاٰيٰتِ رَبِّنَا لَمَّا جَاۗءَتْنَا۝۰ۭ رَبَّنَآ اَفْرِغْ عَلَيْنَا صَبْرًا وَتَوَفَّنَا مُسْلِـمِيْنَ۝۱۲۶ۧ

"और तू केवल इस क्रोध से हमें कष्ट पहुँचाने के लिए पीछे पड़ गया है कि हम अपने रब की निशानियों पर ईमान ले आए। हमारे रब! हमपर धैर्य उड़ेल दे और हमें इस दशा में उठा कि हम मुस्लिम (आज्ञाकारी) हो।"॥126॥

وَقَالَ الْمَلَاُ مِنْ قَوْمِ فِرْعَوْنَ اَتَذَرُ مُوْسٰي وَقَوْمَہٗ لِيُفْسِدُوْا فِي الْاَرْضِ وَيَذَرَكَ وَاٰلِہَتَكَ۝۰ۭ قَالَ سَنُقَتِّلُ اَبْنَاۗءَہُمْ وَنَسْتَحْيٖ نِسَاۗءَہُمْ۝۰ۚ وَاِنَّا فَوْقَہُمْ قٰہِرُوْنَ۝۱۲۷

फ़िरऔन की क़ौम के सरदार कहने लगे, "क्या तुम मूसा और उसकी क़ौम को ऐसे ही छोड़ दोगे कि वे ज़मीन में बिगाड़ पैदा करें और वे तुम्हें और तुम्हारे उपास्यों को छोड़ बैठे?" उसने कहा, "हम उनके बेटों को बुरी तरह क़त्ल करेंगे और उनकी स्त्रियों को जीवित रखेंगे। निश्चय ही हमें उनपर पूर्ण अधिकार प्राप्त है।"॥127॥

قَالَ مُوْسٰي لِقَوْمِہِ اسْتَعِيْنُوْا بِاللہِ وَاصْبِرُوْا۝۰ۚ اِنَّ الْاَرْضَ لِلہِ۝۰ۣۙ يُوْرِثُہَا مَنْ يَّشَاۗءُ مِنْ عِبَادِہٖ۝۰ۭ وَالْعَاقِبَۃُ لِلْمُتَّقِيْنَ۝۱۲۸

मूसा ने अपनी क़ौम से कहा, "अल्लाह से सम्बद्ध होकर सहायता प्राप्त  करो और धैर्य से काम लो। धरती अल्लाह की है। वह अपने बन्दों में से जिसे चाहता है, उसका वारिस बना देता है। और अंतिम परिणाम तो डर रखनेवालों ही के लिए है।"॥128॥

قَالُوْٓا اُوْذِيْنَا مِنْ قَبْلِ اَنْ تَاْتِيَنَا وَمِنْۢ بَعْدِ مَا جِئْتَنَا۝۰ۭ قَالَ عَسٰي رَبُّكُمْ اَنْ يُّہْلِكَ عَدُوَّكُمْ وَيَسْتَخْلِفَكُمْ فِي الْاَرْضِ فَيَنْظُرَ كَيْفَ تَعْمَلُوْنَ۝۱۲۹ۧ

उन्होंने कहा, "तुम्हारे आने से पहले भी हम सताए गए और तुम्हारे आने के बाद भी।" उसने कहा, "निकट है कि तुम्हारा रब तुम्हारे शत्रुओं को विनष्ट कर दे और तुम्हें धरती में ख़लीफ़ा बनाए, फिर यह देखे कि तुम कैसे कर्म करते हो।"॥129॥

وَلَقَدْ اَخَذْنَآ اٰلَ فِرْعَوْنَ بِالسِّـنِيْنَ وَنَقْصٍ مِّنَ الثَّمَرٰتِ لَعَلَّہُمْ يَذَّكَّـرُوْنَ۝۱۳۰

और हमने फ़िरऔनियों को कई वर्ष तक अकाल और पैदावार की कमी में ग्रस्त रखा कि वे चेतें॥130॥

فَاِذَا جَاۗءَتْہُمُ الْحَسَـنَۃُ قَالُوْا لَنَا ہٰذِہٖ۝۰ۚ وَاِنْ تُصِبْہُمْ سَيِّئَۃٌ يَّطَّيَّرُوْا بِمُوْسٰي وَمَنْ مَّعَہٗ۝۰ۭ اَلَآ اِنَّمَا طٰۗىِٕرُہُمْ عِنْدَ اللہِ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَہُمْ لَا يَعْلَمُوْنَ۝۱۳۱

फिर जब उन्हें अच्छी हालत पेश आती है तो कहते है, "यह तो है ही हमारे लिए।" और उन्हें बुरी हालत पेश आए तो वे उसे मूसा और उसके साथियों की नहूसत (अशकुन) ठहराएँ। सुन लो, उसकी नहूसत तो अल्लाह ही के पास है, परन्तु उनमें से अधिकतर लोग जानते नहीं॥131॥

وَقَالُوْا مَہْمَا تَاْتِنَا بِہٖ مِنْ اٰيَۃٍ لِّتَسْحَرَنَا بِہَا۝۰ۙ فَمَا نَحْنُ لَكَ بِمُؤْمِنِيْنَ۝۱۳۲

वे बोले, "तू हमपर जादू करने के लिए चाहे कोई भी निशानी हमारे पास ले आए, हम तुझपर ईमान लानेवाले नहीं।"॥132॥

فَاَرْسَلْنَا عَلَيْہِمُ الطُّوْفَانَ وَالْجَرَادَ وَالْقُمَّلَ وَالضَّفَادِعَ وَالدَّمَ اٰيٰتٍ مُّفَصَّلٰتٍ۝۰ۣ فَاسْـتَكْبَرُوْا وَكَانُوْا قَوْمًا مُّجْرِمِيْنَ۝۱۳۳

अन्ततः हमने उनपर तूफ़ान और टिड्डियों और छोटे कीड़े और मेंढक और रक्त, कितनी ही निशानियाँ अलग-अलग भेजी, किन्तु वे घमंड ही करते रहे। वे थे ही अपराधी लोग॥133॥

وَلَمَّا وَقَعَ عَلَيْہِمُ الرِّجْزُ قَالُوْا يٰمُوْسَى ادْعُ لَنَا رَبَّكَ بِمَا عَہِدَ عِنْدَكَ۝۰ۚ لَىِٕنْ كَشَفْتَ عَنَّا الرِّجْزَ لَنُؤْمِنَنَّ لَكَ وَلَنُرْسِلَنَّ مَعَكَ بَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ۝۱۳۴ۚ

जब कभी उनपर यातना आ पड़ती, कहते है, "ऐ मूसा, हमारे लिए अपने रब से प्रार्थना करो, उस प्रतिज्ञा के आधार पर जो उसने तुमसे कर रखी है। तुमने यदि हमपर से यह यातना हटा दी, तो हम अवश्य ही तुमपर ईमान ले आएँगे और इसराईल की सन्तान को तुम्हारे साथ जाने देंगे।"॥134॥

فَلَمَّا كَشَفْنَا عَنْہُمُ الرِّجْزَ اِلٰٓي اَجَلٍ ہُمْ بٰلِغُوْہُ اِذَا ہُمْ يَنْكُثُوْنَ۝۱۳۵

किन्तु जब हम उनपर से यातना को एक नियत समय के लिए जिस तक वे पहुँचनेवाले ही थे, हटा लेते तो क्या देखते कि वे वचन-भंग करने लग गए॥135॥

فَانْتَقَمْنَا مِنْہُمْ فَاَغْرَقْنٰہُمْ فِي الْيَمِّ بِاَنَّہُمْ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا وَكَانُوْا عَنْہَا غٰفِلِيْنَ۝۱۳۶

फिर हमने उनसे बदला लिया और उन्हें गहरे पानी में डूबो दिया, क्योंकि उन्होंने हमारी निशानियों को ग़लत समझा और उनसे ग़ाफिल हो गए॥136॥

وَاَوْرَثْنَا الْقَوْمَ الَّذِيْنَ كَانُوْا يُسْتَضْعَفُوْنَ مَشَارِقَ الْاَرْضِ وَمَغَارِبَہَا الَّتِيْ بٰرَكْنَا فِيْہَا۝۰ۭ وَتَمَّتْ كَلِمَتُ رَبِّكَ الْحُسْنٰى عَلٰي بَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ۝۰ۥۙ بِمَا صَبَرُوْا۝۰ۭ وَدَمَّرْنَا مَا كَانَ يَصْنَعُ فِرْعَوْنُ وَقَوْمُہٗ وَمَا كَانُوْا يَعْرِشُوْنَ۝۱۳۷

और जो लोग कमज़ोर पाए जाते थे, उन्हें हमने उस भू-भाग के पूरब के हिस्सों और पश्चिम के हिस्सों का उत्तराधिकारी बना दिया, जिसे हमने बरकत दी थी। और तुम्हारे रब का अच्छा वादा इसराईल की सन्तान के हक़ में पूरा हुआ, क्योंकि उन्होंने धैर्य से काम लिया और फ़िरऔन और उसकी क़ौम का वह सब कुछ हमने विनष्ट कर दिया, जिसे वे बनाते और ऊँचा उठाते थे॥137॥

وَجٰوَزْنَا بِبَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ الْبَحْرَ فَاَتَوْا عَلٰي قَوْمٍ يَّعْكُفُوْنَ عَلٰٓي اَصْنَامٍ لَّہُمْ۝۰ۚ قَالُوْا يٰمُوْسَى اجْعَلْ لَّنَآ اِلٰـہًا كَـمَا لَہُمْ اٰلِہَۃٌ۝۰ۭ قَالَ اِنَّكُمْ قَوْمٌ تَجْـہَلُوْنَ۝۱۳۸

और इसराईल की सन्तान को हमने सागर से पार करा दिया, फिर वे ऐसे लोगों को पास पहुँचे जो अपनी कुछ मूर्तियों से लगे बैठे थे। कहने लगे, "ऐ मूसा! हमारे लिए भी कोई ऐसा उपास्य ठहरा दे, जैसे इनके उपास्य है।" उसने कहा, "निश्चय ही तुम बड़े ही अज्ञानी लोग हो॥138॥

اِنَّ ہٰٓؤُلَاۗءِ مُتَبَّرٌ مَّا ہُمْ فِيْہِ وَبٰطِلٌ مَّا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ۝۱۳۹

“निश्चाय ही वह सब कुछ जिसमें ये लोग लगे हुए है, बरबाद होकर रहेगा और जो कुछ ये कर रहे है सर्वथा व्यर्थ है।"॥139॥

قَالَ اَغَيْرَ اللہِ اَبْغِيْكُمْ اِلٰہًا وَّہُوَفَضَّلَكُمْ عَلَي الْعٰلَمِيْنَ۝۱۴۰

उसने कहा, "क्या मैं अल्लाह के सिवा तुम्हारे लिए कोई और उपास्य ढूढूँ, हालाँकि उसी ने सारे संसारवालों पर तुम्हें श्रेष्ठता प्रदान की?"॥140॥

وَاِذْ اَنْجَيْنٰكُمْ مِّنْ اٰلِ فِرْعَوْنَ يَسُوْمُوْنَكُمْ سُوْۗءَ الْعَذَابِ۝۰ۚ يُقَتِّلُوْنَ اَبْنَاۗءَكُمْ وَيَسْتَحْيُوْنَ نِسَاۗءَكُمْ۝۰ۭ وَفِيْ ذٰلِكُمْ بَلَاۗءٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ عَظِيْمٌ۝۱۴۱ۧ

और याद करो जब हमने तुम्हें फ़िरऔन के लोगों से छुटकारा दिया जो तुम्हें बुरी यातना में ग्रस्त रखते थे। तुम्हारे बेटों को मार डालते और तुम्हारी स्त्रियों को जीवित रहने देते थे। और वह (छुटकारा दिलाना) तुम्हारे रब की ओर से बड़ा अनुग्रह है॥141॥

۞ وَوٰعَدْنَا مُوْسٰي ثَلٰثِيْنَ لَيْلَۃً وَّاَتْمَمْنٰہَا بِعَشْرٍ فَتَمَّ مِيْقَاتُ رَبِّہٖٓ اَرْبَعِيْنَ لَيْلَۃً۝۰ۚ وَقَالَ مُوْسٰي لِاَخِيْہِ ہٰرُوْنَ اخْلُفْنِيْ فِيْ قَوْمِيْ وَاَصْلِحْ وَلَا تَتَّبِعْ سَبِيْلَ الْمُفْسِدِيْنَ۝۱۴۲

और हमने मूसा से तीस रातों का वादा ठहराया, फिर हमने दस और बढ़ाकर उसे पूरा किया। इसी प्रकार उसके रब की ठहराई हुई अवधि चालीस रातों में पूरी हुई और मूसा ने अपने भाई हारून से कहा, "मेरे पीछे तुम मेरी क़ौम में मेरा प्रतिनिधित्व करना और सुधारना और बिगाड़ पैदा करनेवालों के मार्ग पर न चलना।"॥142॥

وَلَمَّا جَاۗءَ مُوْسٰي لِمِيْقَاتِنَا وَكَلَّمَہٗ رَبُّہٗ۝۰ۙ قَالَ رَبِّ اَرِنِيْٓ اَنْظُرْ اِلَيْكَ۝۰ۭ قَالَ لَنْ تَرٰىنِيْ وَلٰكِنِ انْظُرْ اِلَى الْجَـبَلِ فَاِنِ اسْـتَــقَرَّ مَكَانَہٗ فَسَوْفَ تَرٰىنِيْ۝۰ۚ فَلَمَّا تَجَلّٰى رَبُّہٗ لِلْجَبَلِ جَعَلَہٗ دَكًّا وَّخَرَّ مُوْسٰي صَعِقًا۝۰ۚ فَلَمَّآ اَفَاقَ قَالَ سُبْحٰنَكَ تُبْتُ اِلَيْكَ وَاَنَا اَوَّلُ الْمُؤْمِنِيْنَ۝۱۴۳

जब मूसा हमारे निश्चित किए हुए समय पर पहुँचा और उसके रब ने उससे बातें की, तो वह करने लगा, "मेरे रब! मुझे देखने की शक्ति प्रदान कर कि मैं तुझे देखूँ।" कहा, "तू मुझे कदापि न देख सकेगा। हाँ, पहाड़ की ओर देख। यदि वह अपने स्थान पर स्थिर रह जाए तो फिर तू मुझे देख लेगा।" अतएव जब उसका रब पहाड़ पर प्रकट हुआ तो उसे चकनाचूर कर दिया और मूसा मूर्छित होकर गिर पड़ा। फिर जब होश में आया तो कहा, "महिमा है तेरी! मैं तेरे समक्ष्ाा तौबा करता हूँ और सबसे पहला ईमान लानेवाला मैं हूँ।"॥143॥

قَالَ يٰمُوْسٰٓي اِنِّى اصْطَفَيْتُكَ عَلَي النَّاسِ بِرِسٰلٰتِيْ وَبِكَلَامِيْ۝۰ۡۖ فَخُذْ مَآ اٰتَيْتُكَ وَكُنْ مِّنَ الشّٰكِرِيْنَ۝۱۴۴

उसने कहा, "ऐ मूसा! मैंने दूसरे लोगों के मुक़ाबले में तुझे चुनकर अपने संदेशों और अपनी वाणी से तुझे (नवाजा) उपकृत किया। अतः जो कुछ मैं तुझे दूँ उसे ले और कृतज्ञता दिखा।"॥144॥

وَكَتَبْنَا لَہٗ فِي الْاَلْوَاحِ مِنْ كُلِّ شَيْءٍ مَّوْعِظَۃً وَّتَفْصِيْلًا لِّكُلِّ شَيْءٍ۝۰ۚ فَخُذْہَا بِقُوَّۃٍ وَّاْمُرْ قَوْمَكَ يَاْخُذُوْا بِاَحْسَنِہَا۝۰ۭ سَاُورِيْكُمْ دَارَ الْفٰسِقِيْنَ۝۱۴۵

और हमने उसके लिए तख़्तियों पर उपदेश के रूप में हर चीज़ और हर चीज़ का विस्तृत वर्णन लिख दिया। अतः उनको मज़बूती से पकड़। उनमें उत्तम बातें है। अपनी क़ौम के लोगों को हुक्म दे कि वे उनको अपनाएँ। मैं शीघ्र ही तुम्हें अवज्ञाकारियों का घर दिखाऊँगा॥145॥

سَاَصْرِفُ عَنْ اٰيٰــتِيَ الَّذِيْنَ يَتَكَبَّرُوْنَ فِي الْاَرْضِ بِغَيْرِ الْحَقِّ۝۰ۭ وَاِنْ يَّرَوْا كُلَّ اٰيَۃٍ لَّا يُؤْمِنُوْا بِہَا۝۰ۚ وَاِنْ يَّرَوْا سَبِيْلَ الرُّشْدِ لَا يَتَّخِذُوْہُ سَبِيْلًا۝۰ۚ وَاِنْ يَّرَوْا سَبِيْلَ الْغَيِّ يَتَّخِذُوْہُ سَبِيْلًا۝۰ۭ ذٰلِكَ بِاَنَّہُمْ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا وَكَانُوْا عَنْہَا غٰفِلِيْنَ۝۱۴۶

जो लोग धरती में नाहक़ बड़े बनते है, मैं अपनी निशानियों की ओर से उन्हें फेर दूँगा। यदि वे प्रत्येक निशानी देख ले तब भी वे उस पर ईमान नहीं लाएँगे। यदि वे सीधा मार्ग देख लें तो भी वे उसे अपना मार्ग नहीं बनाएँगे। लेकिन यदि वे पथभ्रष्ट का मार्ग देख लें तो उसे अपना मार्ग ठहरा लेंगे। यह इसलिए की उन्होंने हमारी आयतों को झुठलाया और उनसे ग़ाफ़िल रहे॥146॥

وَالَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا وَلِقَاۗءِ الْاٰخِرَۃِ حَبِطَتْ اَعْمَالُہُمْ۝۰ۭ ہَلْ يُجْزَوْنَ اِلَّا مَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ۝۱۴۷ۧ

जिन लोगों ने हमारी आयतों को और आख़िरत के मिलन को झूठा जाना, उनका तो सारा किया-धरा उनकी जान को लागू हुआ। जो कुछ वे करते रहे क्या उसके सिवा वे किसी और चीज़ का बदला पाएँगे?॥147॥

وَاتَّخَذَ قَوْمُ مُوْسٰي مِنْۢ بَعْدِہٖ مِنْ حُلِـيِّہِمْ عِجْلًا جَسَدًا لَّہٗ خُوَارٌ۝۰ۭ اَلَمْ يَرَوْا اَنَّہٗ لَا يُكَلِّمُہُمْ وَلَا يَہْدِيْہِمْ سَبِيْلًا۝۰ۘ اِتَّخَذُوْہُ وَكَانُوْا ظٰلِـمِيْنَ۝۱۴۸

और मूसा के पीछे उसकी क़ौम ने अपने ज़ेवरों से अपने लिए एक बछड़ा बना दिया, जिसमें से बैल की-सी आवाज़ निकलती थी। क्या उन्होंने देखा नहीं कि वह न तो उनसे बातें करता है और न उन्हें कोई राह दिखाता है? उन्होंने उसे अपना उपास्य बना लिया, औऱ वे बड़े अत्याचारी थे॥148॥

وَلَمَّا سُقِطَ فِيْٓ اَيْدِيْہِمْ وَرَاَوْا اَنَّہُمْ قَدْ ضَلُّوْا۝۰ۙ قَالُوْا لَىِٕنْ لَّمْ يَرْحَمْنَا رَبُّنَا وَيَغْفِرْ لَنَا لَنَكُوْنَنَّ مِنَ الْخٰسِرِيْنَ۝۱۴۹

और जब (चेताबनी से) उन्हें पश्चाताप हुआ और उन्होंने देख लिया कि वास्तव में वे भटक गए हैं तो कहने लगे, "यदि हमारे रब ने हमपर दया न की और उसने हमें क्षमा न किया तो हम घाटे में पड़ जाएँगे!"॥149॥

وَلَمَّا رَجَعَ مُوْسٰٓي اِلٰى قَوْمِہٖ غَضْبَانَ اَسِفًا۝۰ۙ قَالَ بِئْسَمَا خَلَفْتُمُوْنِيْ مِنْۢ بَعْدِيْ۝۰ۚ اَعَجِلْتُمْ اَمْرَ رَبِّكُمْ۝۰ۚ وَاَلْقَى الْاَلْوَاحَ وَاَخَذَ بِرَاْسِ اَخِيْہِ يَجُرُّہٗٓ اِلَيْہِ۝۰ۭ قَالَ ابْنَ اُمَّ اِنَّ الْقَوْمَ اسْتَضْعَفُوْنِيْ وَكَادُوْا يَقْتُلُوْنَنِيْ ۝۰ۡۖ فَلَا تُشْمِتْ بِيَ الْاَعْدَاۗءَ وَلَا تَجْعَلْنِيْ مَعَ الْقَوْمِ الظّٰلِــمِيْنَ۝۱۵۰

और जब मूसा क्रोध और दुख से भरा हुआ अपनी क़ौम की ओर लौटा तो उसने कहा, "तुम लोगों ने मेरे पीछे मेरी जगह बुरा किया। क्या तुम अपने रब के हुक्म से पहले ही जल्दी कर बैठे?" फिर उसने तख़्तियाँ डाल दी और अपने भाई का सिर पकड़कर उसे अपनी ओर खींचने लगा। वह बोला, "ऐ मेरी माँ के बेटे! लोगों ने मुझे कमज़ोर समझ लिया और निकट था कि मुझे मार डालते। अतः शत्रुओं को मुझपर हुलसने का अवसर न दे और अत्याचारी लोगों में मुझे सम्मिलित न कर।"॥150॥

قَالَ رَبِّ اغْفِرْ لِيْ وَلِاَخِيْ وَاَدْخِلْنَا فِيْ رَحْمَتِكَ ۝۰ۡۖ وَاَنْتَ اَرْحَـمُ الرّٰحِمِيْنَ۝۱۵۱ۧ

उसने कहा, "मेरे रब! मुझे और मेरे भाई को क्षमा कर दे और हमें अपनी दयालुता में दाख़िल कर ले। तू तो सबसे बढ़कर दयावान हैं।"॥151॥

اِنَّ الَّذِيْنَ اتَّخَذُوا الْعِـجْلَ سَيَنَالُہُمْ غَضَبٌ مِّنْ رَّبِّہِمْ وَذِلَّۃٌ فِي الْحَيٰوۃِ الدُّنْيَا۝۰ۭ وَكَذٰلِكَ نَجْزِي الْمُفْتَرِيْنَ۝۱۵۲

जिन लोगों ने बछड़े को अपना उपास्य बनाया वे अपने रब की ओर से प्रकोप और सांसारिक जीवन में अपमान से ग्रस्त होकर रहेंगे; और झूठ घड़नेवालों को हम ऐसा ही बदला देते है॥152॥

وَالَّذِيْنَ عَمِلُوا السَّيِّاٰتِ ثُمَّ تَابُوْا مِنْۢ بَعْدِہَا وَاٰمَنُوْٓا۝۰ۡاِنَّ رَبَّكَ مِنْۢ بَعْدِہَا لَغَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ۝۱۵۳

रहे वे लोग जिन्होंने बुरे कर्म किए फिर उसके पश्चात तौबा कर ली और ईमान ले आए, तो इसके बाद तो तुम्हारा रब बड़ा ही क्षमाशील, दयाशील है॥153॥

وَلَمَّا سَكَتَ عَنْ مُّوْسَى الْغَضَبُ اَخَذَ الْاَلْوَاحَ۝۰ۚۖ وَفِيْ نُسْخَتِہَا ہُدًى وَّرَحْمَۃٌ لِّلَّذِيْنَ ہُم