इस्लाम
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इस्लाम एक परिचय
अबू मुहम्मद इमामुद्दीन रामनगरी जिस प्रकार संसार मे बहुत-सी जातियॉ और बहुत से धर्म हैं उसी प्रकार मुसलमानों को भी एक जाति समझ लिया गया है और इस्लाम को केवल उन्ही का धर्म। लेकिन यह एक भ्रम है। सच यह है कि मुसलमान इस अर्थ मे एक जाति नही है, जिस अर्थ में वंश, वर्ण और देश के सम्बन्ध से जातियॉं बना करती हैं और इस अर्थ में इस्लाम भी किसी विशेष जाति का धर्म नही है। यह समस्त मानव जाति और पूरे संसार का एक प्राकृतिक धर्म और स्वाभाविक जीवन सिद्धांत है।

शांति और सम्मान
जिस धर्म या संस्कृति की आधारशिला सत्य न हो उसकी कोई भी क़ीमत नहीं। जीवन को मात्र दुख और पीड़ा की संज्ञा देना जीवन और जगत् दोनों ही का तिरस्कार है। क्या आपने देखा नहीं कि संसार में काँटे ही नहीं होते, फूल भी खिलते हैं। जीवन में बुढ़ापा ही नहीं यौवन भी होता है। जीवन निराशा द्वारा नहीं, बल्कि आशाओं और मधुर कामनाओं द्वारा निर्मित हुआ है। हृदय की पवित्र एवं कोमल भावनाएँ निरर्थक नहीं हो सकतीं। क्या बाग़ के किसी सुन्दर महकते फूल को निरर्थक कह सकते हैं?

मानव जीवन और परलोक
मृत्यु-पश्चात् जीवन (परलोक, ईश्वरीय न्याय, कर्मों का पूरा बदला, स्वर्ग पाने की ललक, नरक से बचने की चिंता) की इस्लामी अवधारणा ने सांसारिक जीवन के किसी भी पहलू को अछूता, किसी भी क्षेत्र को अप्रभावित न छोड़ा। इतिहास दुनिया की सबसे उजड्ड, बेढब, अनपढ़, असभ्य, शराबी, दुराचारी, दुष्चरित्र, बद्दू क़ौम के सदाचरण, ईमानदारी, सभ्यता, दयालुता, क्षमाशीलता, जन-सेवा, परमार्थ, त्याग, उत्सर्ग, ज्ञान-विज्ञान तथा मानवीय-मूल्यों की श्रेष्ठता व उत्कृष्टता को रिकार्ड में ले आने पर विवश हो गया। यह बदलाव, यह सम्पूर्ण क्रान्ति लाने में इस्लाम की मूलधारणा ‘विशुद्ध' एकेश्वरवाद के साथ लगी हुई ‘परलोकवाद-अवधारणा' की ही अस्ल भूमिका व अस्ल योगदान है।

इस्लाम का आरम्भ
इस्लाम की शुरुआत उसी वक़्त से है, जब से इंसान की शुरुआत हुई है। इस्लाम के मायने हैं, ‘‘ख़ुदा के हुक्म का पालन''। और इस तरह यह इंसान का पैदाइशी धर्म है। क्योंकि ख़ुदा ही इंसान का पैदा करने वाला और पालने वाला है इंसान का अस्ल काम यही है कि वह अपने पैदा करने वाले के हुक्म का पालन करे। जिस दिन ख़ुदा ने सब से पहले इंसान यानी हज़रत आदम और उन की बीवी, हज़रत हव्वा को ज़मीन पर उतारा उसी दिन उसने उन्हें बता दिया कि देखो: ‘‘तुम मेरे बन्दे हो और मैं तुम्हारा मालिक हूँ। तुम्हारे लिए सही तरीक़ा यह है कि तुम मेरे बताये हुए रास्ते पर चलो।

इस्लाम क्या है
जयपुर राज-महल में चल रहे एक विशेष कार्यक्रम में 11 जून 1971 ई0 की रात में इस्लाम का परिचय कराने हेतु यह निबन्ध प्रस्तुत किया गया। कार्यक्रम में गणमान्य जनों के अतिरिक्त स्वंय राजमाता गायत्री देवी भी उपस्थित थीं।

इस्लाम और सन्यास
आख़िरत की मुक्ति और कल्याण के सम्बन्ध में धर्मो का सामान्य मत यह है कि इस संसार से विमुख होकर पुर्णतः एकांत ग्रहण कर लिया जाए और दुनिया के समस्त आस्वादनों और कामनाओं से अपने आप को मुक्त करके जंगलों, पहाड़ों और गुफाओं में जीवन व्यतीत किया जाए। लेकिन इस्लाम दुनिया में रहने और उसकी नेमतों से लाभान्वित होने को पारलौकिक मोक्ष की प्राप्ति में कोई बाधा नहीं समझता, बल्कि इस्लाम तो आया ही इसीलिए है कि वह मानव को दुनिया में रहना सिखाए।

ईशदूतत्व की धारणा विभिन्न धर्मों में
मानव जाति को ऐसे मार्गदर्शन और सिद्धांतों की आवश्यकता है, जिससे कि वह अपने व्यक्तिगत व सामूहिक जीनव का निर्माण कर सके और अपना जीवन सुखमय एवं शान्तिपूर्वक व्यतीत करें और साथ ही साथ उसका इस प्रकार सर्वांगीण विकास हो कि उसके भौतिक एवं आर्थिक जीवन और आध्यात्मिक एवं नैतिक पहलुओं के बीच आपसी टकराव न हो और न ही संतुलन बिगड़े।

एकेश्वरवाद की मौलिक धारणा
वही अकेला और यह समस्त कार्य वह ‘अकेले' ही कर रहा है। इसका प्रमाण वह अति उत्तम समन्वय है जो प्रकृति में पाया जाता है। समुद्र के पानी का बादलों के रूप में उठना, इन बादलों का हवाओं द्वारा धरती के विभिन्न भागों तक पहुंचना, फिर वहाँ वर्षा होना और इसी प्रकार दूसरी अनेक प्रक्रियाएँ जिस समन्वित ढंग से संपन्न हो रही हैं वह ईश्वर के एक होने पर दलील हैं। कालेज के कई प्रधानचार्य, किसी फ़ैक्ट्री के कई मुख्य प्रबंधक यदि संभव नहीं हैं, तो इस सृष्टि के कई ईश्वर कैसे संभव हैं? ईश्वर के अस्तित्व में संदेह करना अथवा उसके अधिकारों में किसी दूसरे/दूसरों को साझी ठहराता न तो तर्कसंगत है और न ही न्यायसंगत।

सत्य धर्म की खोज
सत्य धर्म की खोज हर इंसान का बुनियादी काम है । मुहम्मद इक़बाल मुल्ला

ईमान और इताअत
"दीन को अल्लाह ही के लिए ख़ालिस करो।" (क़ुरआन, सूरा-98 बैयिनह, आयत-5) "वे तो यह चाहते हैं कि जिस तरह वे ख़ुद ख़ुदा के नाफ़रमान हैं उसी तरह तुम भी ख़ुदा के नाफ़रमान हो जाओ और फिर तुम सब एक समान हो जाओ।" (क़ुरआन, सूरा-4 निसा, आयत-89 ) ऐसे लोगों के बारे में क़ुरआन में कहा गया है कि “इनमें से किसी को अपना राज़दार दोस्त न बनाओ।” (क़ुरआन, सूरा-4 निसा, आयत-89)

ईमान की कसौटी
क़ुरआन के मुताबिक़ इनसान की गुमराही के तीन सबब हैं— एक यह कि वह ख़ुदा के क़ानून को छोड़कर अपने मन की ख़ाहिशों का ग़ुलाम बन जाए। दूसरा यह कि ख़ुदाई क़ानून के मुक़ाबले में अपने ख़ानदान के रस्म-रिवाज और बाप-दादा के तौर-तरीक़ों को तरजीह (प्राथमिकता) दे। तीसरा यह कि ख़ुदा और उसके रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने जो तरीक़ा बताया है उसको छोड़कर इनसानों की पैरवी करने लगे, चाहे वे इनसान ख़ुद उसकी अपनी क़ौम के बड़े लोग हों या ग़ैर-क़ौमों के लोग।

इस्लाम का अस्ल मेयार
आख़िरत में इनसान की नजात और उसका मुस्लिम व मोमिन क़रार दिया जाना और अल्लाह के मक़बूल बन्दों में गिना जाना इस क़ानूनी इक़रार पर मुन्हसिर नहीं है, बल्कि वहाँ अस्ल चीज़ आदमी का क़ल्बी इक़रार, उसके दिल का झुकाव और उसका राज़ी-ख़ुशी अपने आपको पूरे तौर पर ख़ुदा के हवाले कर देना है। दुनिया में जो ज़बानी इक़रार किया जाता है, वह तो सिर्फ़ शरई क़ाज़ी के लिए और आम इनसानों और मुसलमानों के लिए है, क्योंकि वे सिर्फ़ ज़ाहिर ही को देख सकते हैं। मगर अल्लाह आदमी के दिल को और उसके बातिन को देखता है और उसके ईमान को नापता है।

इस्लाम का संदेश
हमारे विश्वास के अनुसार इस्लाम किसी ऐसे धर्म का नाम नहीं, जिसे पहली बार मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने पेश किया हो और इस कारण आप को इस्लाम का संस्थापक कहना उचित हो। क़ुरआन इस बात को पूरी तरह स्पष्ट करता है कि अल्लाह की ओर से मानव-जाति के लिए हमेशा एक ही धर्म भेजा गया है और वह है इस्लाम, अर्थात अल्लाह के आगे नत-मस्तक हो जाना। संसार के विभिन्न भागों तथा विभिन्न जातियों में जो नबी भी अल्लाह के भेजे हुये आये थे, वे अपने किसी अलग धर्म के संस्थापक नहीं थे कि उनमें से किसी के धर्म को नूहवाद और किसी के धर्म को इब्राहीमवाद या मूसावाद या ईसावाद कहा जा सके, बल्कि हर आने वाला नबी उसी एक धर्म को पेश करता रहा, जो उससे पहले के नबी पेश करते चले आ रहे थे।

आत्मा और परमात्मा
आत्मा और परमात्मा, एक ऐसा विषय है जिसपर सदैव विचार किया जाता रहा है। अपना और अपने स्रष्टा का यदि समुचित ज्ञान न हो तो मनुष्य और पत्थर में अन्तर ही क्या रह जाता है। हमने विशेष रूप से भारत के परिप्रेक्ष्य में उपरोक्त विषय पर विचार व्यक्त करने की कोशिश की है और इस पर दृष्टि डाली है कि भारत के ऋषियों और दार्शनिकों की इस सम्बन्ध में क्या धारणा रही है। पुस्तक के अन्त में यह दिखाया गया है कि उपरोक्त विषय में इस्लाम का मार्गदर्शन क्या है।

इस्लाम कैसे फैला?
आमतौर से इस्लाम के बारे में यह ग़लतफ़हमी पाई और फैलाई जाती है कि “इस्लाम तलवार के ज़ोर से फैला है।" लेकिन इतिहास गवाह है कि इस बात में कोई सच्चाई नहीं है। क्योंकि इस्लाम ईश्वर की ओर से भेजा हुआ सीधा और शान्तिवाला रास्ता है। ईश्वर ने इसे अपने अन्तिम दूत हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़रिए तमाम इनसानों के मार्गदर्शन के लिए भेजा। हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इसे केवल लोगों तक पहुँचाया ही नहीं बल्कि इसके आदेशों के अनुसार अमल करके और एक समाज को इसके अनुसार चलाकर भी दिखाया। इस्लाम चूँकि अपने माननेवालों पर यह ज़िम्मेदारी डालता है कि वे इसके सन्देश को लोगों तक पहुँचाएँ, अत: इसके माननेवालों ने इस बात को अहमियत दी। उन्होंने इस पैग़ाम को लोगों तक पहुँचाया भी। जब लोगों ने इस सन्देश को सुना और सन्देशवाहकों के किरदार को देखा तो उन्होंने दिल से इसे स्वीकार किया।