
सत्य धर्म की खोज
-
इस्लाम
- at 04 November 2021
सत्य धर्म की खोज हर इंसान का बुनियादी काम है ।
मुहम्मद इक़बाल मुल्ला
पुस्तिका
"अल्लाह के नाम से जो अत्यन्त दयावान, बड़ा कृपाशील है"
भूमिका
यह किताब सत्य की खोज में लगे हुए भाइयों और बहनों के लिए लिखी गई है। सत्य को पाना मानो ईश्वर को पाना है। सत्य ईश्वर की तरफ़ से होता है और सारे इनसानों के लिए होता है। ईश्वर ने इनसान को जितनी नेमतें भी प्रदान की हैं, उनमें सत्य सबसे ज़्यादा कीमती और महत्वपूर्ण है।
सत्य की व्यवस्था को कोई एक इनसान, चाहे वह इतिहास का सबसे बड़ा विचारक, चिंतक और विद्वान ही क्यों न हो या सारे इनसान मिलकर भी नहीं बना सकते। इनसान ने जीवन-व्यवस्था बनाने की बार-बार कोशिशें की हैं, लेकिन नाकाम रहा है। उसने सत्य के नाम पर स्वनिर्मित विचारधाराओं और धर्मों का निर्माण किया है, लेकिन सच यह है कि वह सत्य नहीं है।
यह काम ईश्वर ने इनसान को सौंपा ही नहीं है कि वह सत्य-मार्ग का निर्माण करे। सबके स्रष्टा और वास्तविक उपास्य ईश्वर ने पहले दिन से इनसान को यह महान अनुग्रह (नेमत) प्रदान किया था। जिन महान हस्तियों के ज़रिए से यह अनुग्रह (नेमत) यानी धर्म इनसानों को दिया गया, वे ईश्वर के दूत थे। बहुत सम्भव है कि भारत में भी विभिन्न कालों में ईशदूत आए होंगे। इनसान अपनी शरारत और दूसरों पर अत्याचार करने के लिए इस सत्य धर्म को गुम और बरबाद करता रहा इसमें घटा-बढ़ाकर विभिन्न धर्म बना लिए। अन्तिम बार मुहम्मद (सल्ल.) सारे इनसानों के लिए व्यापक और पूर्ण रूप में आज से 1450 साल पहले सत्य (धर्म) लेकर आए।
उन्होंने इस सत्य धर्म को सारे इनसानों के लिए प्रस्तुत किया। इसी सत्य धर्म की बुनियाद पर एक नया मनुष्य, नया परिवार, नया समाज और एक नई व्यवस्था बनाई। इस कारनामे के सम्पूर्ण सैद्धान्तिक और छोटे-बड़े विवरण इतिहास के रिकॉर्ड में सुरक्षित हैं।
ईश्वर के जिन बन्दों के पास पहले से यह धर्म मौजूद है, उनका बड़ा और महत्वपूर्ण कर्तव्य यह है कि दिल व जान से इसका सम्मान करें, इसपर अमल करें और इसको अपने देश के भाइयों तक अपनी कथनी-करनी, आचरण और चरित्र के द्वारा पहुँचाएँ। उनके जीवन का उद्देश्य भी अस्ल में इन्हीं ज़िम्मेदारियों को पूरा करना है।
जिनके पास यह धर्म नहीं है, इसका मतलब यह नहीं है कि उनके लिए खुदा ने धर्म नहीं भेजा और इसका मतलब यह भी नहीं है कि जिनके पास पहले से यह धर्म मौजूद है वे मानो उसके मालिक और एकाधिकारी हैं। नहीं, बल्कि वे केवल इस मार्गदर्शन के अमीन व संरक्षक हैं। इसलिए हमारे देश के भाइयों और बहनों के लिए ज़रूरी है कि वे खुले दिमाग के साथ इसे समझने की कोशिश करें, मानव-स्वभाव, बुद्धि और दलील की रौशनी में चिन्तन-मनन और विचार-विमर्श करें। अपने फ़ायदे, कल्याण और परलोक की मुक्ति को सामने रखकर मौत आने से पहले इसको अपनाकर ज़िन्दगी का सबसे बड़ा और अहम फैसला करें। खुदा से दुआ है कि जिस उद्देश्य के यह किताब लिखी गई है, वह पूरा हो।
मैं डॉ. मुहम्मद रफ़अत चेयरमैन तसनीफ़ी अकादमी और डॉ. मुहम्मद रज़ीउल-इस्लाम नदवी सेक्रेट्री तसनीफ़ी अकादमी का आभारी हूँ कि इन्होंने इस किताब की तैयारी में दिलचस्पी ली और फ़ायदेमन्द मशवरे दिए। खुदा इन्हें अच्छा बदला प्रदान करे आमीन (तथास्तु) !
-मुहम्मद इक़बाल मुल्ला
20 नवम्बर 2014 ई॰
26 मुहर्रमुल-हराम, 1436 हि॰
E-mail: mdiqbal.jih@gmail.com
कुछ ज़रूरी बातें
सत्य की खोज में सक्रिय मेरे भाई और बहनो!
ईश्वर आपका मार्गदर्शन करे और आप जीवन के सच्चे रास्ते की तलाश में क़ामयाब हों। शान्ति और सलामती हो उनपर जिन्होंने हिदायत के रास्ते को अपनाया।
हमारे देश में मुसलमान अपने हिन्दू, दलित, सिख, ईसाई, बौद्ध और जैनी आदि भाइयों के साथ सदियों से मिल-जुलकर मुहब्बत और भाईचारा की ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं। मिलने-जुलने और के इस अवसर पर हम सबको ईश्वर का आभारी होना मुसलमानों का कुछ हद तक परिचय तो आप भाइयों को है, क्योंकि साथ मिल-जुलकर रहने के कारण स्वाभाविक रूप से आप उनकी अच्छाइयों और कमजोरियों को जानते हैं। निश्चय ही कुछ ग़लतफ़हमियाँ भी विभिन्न कारणों से पाई जाती हैं, जिन्हें दूर करने की कोशिश समय-समय पर होती रहती है। इस विषय में दोनों ओर से और अधिक कोशिश की ज़रूरत है, लेकिन इस्लाम का सही परिचय आपके सामने नहीं है। स्वाभाविक रूप से बहुत-से भाई समझते हैं कि मुसलमान जिस तरह की धार्मिक आस्थाओं को प्रकट करते हैं, जिस तरह पूजा के काम करते हैं, जैसे रस्म-रिवाज और त्योहार मनाते हैं और कुल मिलाकर जो जीवन-शैली उन्होंने अपना रखी है, यही पूरा-का-पूरा अस्ल इस्लाम है, लेकिन सच्चाई यह है कि आज मुसलमानों का सामूहिक व्यवहार विशुद्ध इस्लामी नहीं रह गया है। अच्छे और सच्चे मुसलमान तो हमेशा और हर जगह मौजूद रहे हैं और आज हैं, लेकिन एक गरोह की हैसियत से एक मुसलमान की कार्य-शैली और व्यवहार बिलकुल विशुद्ध इस्लाम की पूर्ण नुमाइन्दगी नहीं करती। इतिहास के हर दौर में इस्लाम का सही परिचय कराने की और को दूर करने की कोशिशें होती रही हैं। इनके कुछ अच्छे असर भी हुए हैं, लेकिन केवल इस्लाम का परिचय और ग़लतफ़हमियों को दूर करना काफ़ी नहीं था मुसलमानों को यह एक दावत देनेवाले गरोह की हैसियत से काम करना चाहिए था। इसमें उनसे कोताहियाँ होती रही हैं। कई अच्छे और सच्चे मुसलमान और कुछ संगठन ग़लतफ़हमियों और बदगुमानियों को दूर करने की लगातार कोशिशें करते रहे हैं। इस उद्देश्य के लिए लिट्रेचर का प्रकाशन भी एक लाभदायक साधन है, लेकिन आज भी करोड़ों देश-बन्धु और बहनों के सामने इस्लाम का सही परिचय नहीं हो पा रहा है। इस सिलसिले में एक अहम सच्चाई यह भी है कि मुसलमान अपने व्यावहारिक जीवन को इस्लाम का आदर्श बनाएँ और देश के ग़ैर-मुस्लिम भाइयों के साथ इस्लामी आचरण और अच्छे सुलूक का रवैया अपनाएँ, तो यह इस्लाम का सही परिचय होगा।
इस्लाम के हवाले से ये कुछ अहम बातें आपकी सेवा में पेश की गईं, ताकि आप हर तरह के पक्षपातों से ऊपर उठकर सत्य की खोज की सच्ची भावना से खोज के महत्व और ज़रूरत को महसूस करें। आपको पेश की गई बातों से सहमति या असहमति रखने की पूरी आज़ादी है, लेकिन हर इनसान को बहरहाल यह सोचना चाहिए कि सत्य-धर्म कौन-सा है, क्योंकि सत्य का इनकार करने के बाद इनसान कैसे क़ामयाब हो सकता है और परलोक की ज़िन्दगी में अपने पैदा करनेवाले के सामने वह क्या कारण पेश कर सकेगा? वहाँ वह स्रष्टा की नाराज़ी और उसके नतीजे में जहन्नम के भयंकर अज़ाब का ख़तरा क्यों मोल ले!
ज़ाहिर है कि सत्य पर किसी आदमी या धार्मिक वर्ग का एकाधिकार नहीं है। वह भौगोलिक सीमाओं तक भी सीमित नहीं है। सत्य तो सभी इनसानों के लिए सौभाग्य, कल्याण और मोक्ष की प्रतिभूति है। सत्य का इनकार किया जाए और उसे झुठलाया जाए तो सत्य नाकाम नहीं होता, बल्कि इसे झुठलानेवाला इनसान या जाति नाकाम होती है। सत्य को झुठलाने के बाद जिस मार्ग को भी अपनाया जाता है, वह अस्ल में खुदा की अवज्ञा का मार्ग है। इसका अंजाम मौत के बाद हमेशा की ज़िन्दगी में निजात या मुक्ति से वंचित होना) और नरक की आग की यातना है।
आप केवल यह न देखें कि इन बातों को पेश करने वाला कौन और कैसा है, बल्कि यह देखें कि इन बातों में सच्चाई कितनी है, जो बातें पेश की जा रही हैं क्या वे बुद्धि और दलील पर वजन रखती हैं? इनसानी स्वभाव के अनुसार हैं? क्या इनसान के अस्तित्व और सृष्टि में पाई जानेवाली अनगिनत निशानियाँ इन बातों की पुष्टि करती हैं? यह भी देखें कि कहनेवाला ये बातें क्यों कह रहा है? क्या इस पैगाम से उसका कोई व्यक्तिगत या जातिगत स्वार्थ जुड़ा है? खुले और साफ़ दिमाग से इन सवालों पर गौर किया जाए तो निश्चित रूप से आपका दिल पुकार उठेगा कि यह सच्चा पैगाम है, इसका इनकार एक अस्वाभाविक और अनुचित रवैया है।
इनसान को यह ज़िन्दगी एक ही बार प्रदान की गई है मौत आने से पहले वह अपनी भलाई, बुराई, लाभ और हानि के बारे में सोच-विचार कर सकता है और फ़ैसला भी, लेकिन जहाँ एक बार मौत आ गई, आँखें बन्द हो गई और उसके परलोक के सफ़र की शुरुआत हो गई तो वह अपने लिए कुछ नहीं कर सकता। हर इनसान का सबसे बड़ा मसला मौत के बाद हमेशा की ज़िन्दगी में कामयाबी पाने का और नाकामी से बचने का है। इस मसले को बुनियादी और अहम मसला समझना चाहिए। इसकी उपेक्षा करके दुनिया में लापरवाही की ज़िन्दगी बसर करना ज़बरदस्त चलती है। परलोक की नाकामी का अंजाम नरक की आग में जलने के रूप में सामने आएगा। कितना भयानक है यह अंजाम! क्या इससे बचने की कोशिश करना, हर इनसान की ज़िम्मेदारी नहीं है?
इनसान की अहम ज़िम्मेदारी
इनसान की यह बहुत ही अहम ज़िम्मेदारी है कि वह अपने पैदा करनेवाले की हिदायत और रहनुमाई (धर्म) को तलाश करे। उसे अपनी तरफ़ से कोई नया धर्म या नया रास्ता बनाने की ज़रूरत नहीं है। अतीत में इनसान ने यह कोशिश की है और सैकड़ों धर्म खोज निकाले हैं। घर्म की यह बहुलता, इस कोशिश की नाकामी का सबसे बड़ा सुबूत है।
इनसान के अन्दर नैतिक शक्ति होनी चाहिए। अगर उसके बाप-दादा तक सत्य की रौशनी नहीं पहुंच सकी तो सत्य जहाँ से भी मिले, सोच-विचार और बुद्धि और दलील की बुनियाद पर उसे क़बूल कर ले। इसमें किसी भी प्रकार की रुकावट पैदा न होने दे। आमतौर पर लोग समझते हैं कि धर्म के मामले में बाप-दादा के रास्ते या ज़िन्दगी के तरीक़े और धार्मिक विचारधाराओं को नहीं छोड़ना चाहिए। उनका यह भी ख़याल है कि दूसरी धार्मिक विचारधाराओं को, चाहे वे कितने ही सच और उचित हों स्वीकार नहीं करना चाहिए। इस रवैए पर विचार करने की ज़रूरत है। अगर हमारे बाप-दादा सत्य-मार्ग के राही थे तो उस रास्ते पर चलते रहने और उनकी धार्मिक विचारधाराओं को स्वीकार करने में कोई गलत बात नहीं है, लेकिन अगर किसी वजह से उन्हें सत्य नहीं मिल सका, या वे उससे बेखबर रहे और फिर भी हम अपने बाप-दादाओं के रास्ते पर ही चलें तो क्या होगा? इनसान अस्ल में ईश्वर का दास है। बाप-दादा या किसी और इनसान का दास नहीं है। इसके लिए तो एक ही रास्ता सही है और वह यह है कि एक ईश्वर की पूरी बन्दगी और आज्ञापालन करे खुद को बिना किसी शर्त के खुदा हवाले कर दे। इसी को ईश्वर पर ईमान या एकेश्वरवाद कहते हैं। इस विचारधारा में बहुदेववाद से बचना बहुत ज़रूरी है, इसकी चर्चा अगले पन्नों में आएगी।
एक अहम सच्चाई यह है कि खुदा पर ईमान का मतलब केवल उसको मान लेना नहीं है, बल्कि ईश्वर की सही अवधारणा सामने होनी चाहिए, उसके सारे गुण और उसकी अपेक्षाएँ मालूम होनी चाहिए। इसी तरह उसकी पसन्दीदा ज़िन्दगी के तरीके को जानना और मानना ज़रूरी है। ये सारी बातें ईश्वर ने हर इनसान को सीधे तौर पर नहीं बताई हैं, बल्कि इसकी एक समुचित व्यवस्था की है। वह पैग़म्बरों का सिलसिला है, जो आदम (अलैहिस्सलाम) से शुरू होकर आख़िरी पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल.) पर ख़त्म हुआ। इसलिए तमाम पैगम्बरों को मानना और मुहम्मद (सल्ल.) को आख़िरी पैगम्बर स्वीकार करना ज़रूरी है। किसी एक पैगम्बर का इनकार सभी पैगम्बरों का इनकार है, क्योंकि सभी पैगम्बर ईश्वर के भेजे हुए थे। पैगम्बर का इनकार आखिरकार ईश्वर ही का इनकार हैं।
सत्य सामने आ जाने के बाद ज़िद और हठधर्मी, पक्षपात, नफ़रत या स्वार्थपरता और केवल बाप-दादा के अनुकरण के लिए उसे झुठला देना बहुत बड़ी नाकामी है। इस तरह इनसान परलोक की ज़िन्दगी में नरक की यातना का ख़तरा मोल लेता है।
ईश्वर ने इनसान को बुद्धि और चेतना प्रदान की है। इसी के साथ उसे इरादा और अमल की आज़ादी और अधिकार भी दिया गया है। वह दूसरे प्राणियों की तरह मात्र मजबूर नहीं है। इनसान को ये योग्यताएँ और विशेष क्षमताएं सिर्फ दुनिया की जरूरतों को पूरा करने और इच्छाओं की पूर्ति के लिए नहीं दी गई हैं। इस तरह तो वह केवल जानवर बनकर रह जाएगा। जिस स्रष्टा ने ज़िन्दगी जैसा बहुमूल्य अनुग्रह और विशेष योग्यताएँ उसे प्रदान की हैं, उसकी खुशी को पाना, उसकी मर्जी और पसन्दीदा ज़िन्दगी के तरीके को (अपनी आज़ादी और स्वच्छन्दता से मुक्त होकर) अपनाना इनसान की ज़िम्मेदारी है। इतना ही नहीं, ऐसे दोस्त, मेहरबान और उपकारी ईश्वर की नाराज़ी से बचने की कोशिश करना ज़रूरी है उसके साथ गद्दारी और बेवफ़ाई न करना ही इनसान की सबसे बड़ी और अहम ज़िम्मेदारी है।
इनसान यह मालूम करने की कोशिश तो करे कि आख़िर ईश्वर ने उसे ज़िन्दगी और विभिन्न योग्यताएँ और क्षमताएँ किस लिए प्रदान की हैं? मान लीजिए कि किसी आदमी ने दुनिया में खुदा की दी हुई सलाहियतों के बल पर बड़े-बड़े कारनामे अंजाम दिए, लेकिन उसने अपने सृष्टि के बताए हुए ज़िन्दगी के मक़सद को पूरा नहीं किया, तो यह उसकी सबसे बड़ी नाकामी होगी। मौत के बाद इस कोताही की क्षतिपूर्ति का कोई मौक़ा उसे नहीं मिलेगा। ऐसी स्थिति में क्या यह हर इनसान की अहम और बुनियादी ज़िम्मेदारी नहीं है कि अपनी मौत आने से पहले ज़िन्दगी के वास्तविक उद्देश्य को मालूम करे और उसे इस दुनिया में पूरा करने की कोशिश करे, ताकि दुनिया में सुख व शान्ति की ज़िन्दगी बसर कर सके और मौत के बाद खुदा की खुशी पाकर जन्नत के शाश्वत आनन्द का हक़दार बन सके।
ईश्वर के बारे में यह बदगुमानी नहीं की जा सकती उसने इनसानों को पैदा किया। उन्हें जिन्दगी प्रदान की और बुद्धि और चेतना के ख़ास अनुग्रह और योग्यताएँ दे दीं, लेकिन उन्हें ज़िन्दगी का कोई उद्देश्य नहीं बताया और दुनिया में यूँ ही मनमानी ज़िन्दगी बसर करने के लिए आज़ाद और बेलगाम छोड़ दिया। फिर मौत के बाद उनका हिसाब भी न लेगा।
एक और पहलू से गौर करें। इनसान बुद्धि और चेतना से काम ले तो क्या यह बात ठीक मालूम होती है कि हिसाब का ऐसा दिन नहीं आएगा, जब इनसान मरने के बाद दोबारा ज़िन्दगी पाकर अल्लाह के सामने हाजिर हो और उससे नेमतों और अधिकारों के बारे में बेलाग पूछताछ हो। ईश्वर हिसाब-किताब ले। कामयाब होनेवालों को अपनी खुशी और इनाम प्रदान करे और नाकाम होनेवालों को कठोर सज़ा दे। बुद्धि तो कहती है कि ऐसा ज़रूर ही होना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है तो यह अल्लाह की रहमत, इनसाफ़ और हिकमत के ख़िलाफ़ होगा। बुद्धि का यह फ़ैसला बिलकुल ठीक है।
इनसान की भलाई इसमें है कि दुनिया की ज़िन्दगी और उसकी नेमतों और संसाधनों को ईश्वर की मेहरबानी और कृपा समझे, उनका सम्मान करें। ईश्वर का शुक्रगुज़ार बन्दा बनकर उसकी पूरी गुलामी और बन्दगी अपनाए। उसके आखिरी पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल.) के ज़रिए से जो हिदायत और रहनुमाई इनसानों को दी गई है, उसपर ईमान लाए और मुहम्मद (सल्ल.) की पूरी पैरवी अपनाए। दुनिया की भलाई और परलोक की मुक्ति का यह एकमात्र रास्ता है।
एक ईश्वर को मानना ज़रूरी है
ईश्वर का इनकार करनेवाले हर दौर में कम ही रहे हैं। अधिकांश धर्मों में ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है, लेकिन विभिन्न धर्मों में इसकी अवधारणा एक समान नहीं है, बल्कि कई पहलुओं से अलग है यूँ भी सिर्फ ईश्वर को एक मान लेना काफ़ी नहीं। ईश्वर से सम्बन्ध को इनसान सिर्फ अपनी बुद्धि, अनुभव और देखने-परखने से समझने की कोशिश करता है, तो उसके भटक जाने की आशंका है, क्योंकि ईश्वर सूँघने, चखने, देखने की चीज़ नहीं है। पैदा करनेवाले को अपनी आँखों से नहीं देखा जा सकता, बल्कि उसको बिना देखे उन निशानियों पर गौर करना है, उसके अस्तित्व की ओर इशारा करती हैं और पूरी सृष्टि में फैली हुई हैं। इनपर चिन्तन-मनन करके एक ईश्वर को मानना यही बड़ी परीक्षा है। इनसान की अस्ल ज़रूरत यह है कि उसे खुदा का परिचय प्राप्त हो। ईश्वर के गुण और उनकी अपेक्षाएँ उसे ठीक ढंग से मालूम हों और उसकी मर्जी और उसकी ज़िन्दगी के पसन्दीदा तरीकों को अच्छी तरह से जान ले, ताकि उसपर एकनिष्ठा के साथ आचरण कर सके।
यह भी एक अहम ज़रूरत है कि अल्लाह ने इनसानी ज़िन्दगी का जो मक़सद तय किया है, इनसान उसको जान ले और उसे पाने में कामयाब हो। इसी के नतीजे में वह आख़िरत में ईश्वर की खुशी पाकर जन्नत प्राप्त कर सकता है। इस अहम ज़रूरत को ईश्वर ने खुद पूरा किया है। उसने इनसान को इस मुश्किल में नहीं डाला कि वह बुद्धि और अनुमानों के घोड़े दौड़ाकर मालूम करे कि ईश्वर कौन है, उसके गुण क्या हैं? केवल बुद्धि के ज़रिए से इन सवालों का जवाब ढूँढ़ने में इनसान भटक जाता और शैतान का शिकार हो जाता है। अल्लाह ने इनसानों को अपनी हस्ती और खूबियों का परिचय और अपेक्षाओं का ज्ञान देने के लिए नबियों और पैगम्बरों को दुनिया में मेजा। उनके ऊपर किताबें और सहीफ़े उतारे। आख़िरी पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल.) हैं और अल्लाह की किताब क़ुरआन मजीद है। इनसान की शान्ति और सलामती इसी में है कि वह ईश्वर की किताबों और उसके पैगम्बरों पर ईमान लाए और आख़िरी पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल.) के बताए हुए रास्ते पर चले।
कुछ लोगों की तरफ़ से ईश्वर का इनकार करने के सिलसिले में एक दलील दी जाती है कि वह हमें नहीं आता, लेकिन यह दलील बहुत कमज़ोर है, क्योंकि ईश्वर को मानने के लिए उसको देखना शर्त नहीं है। हम कितनी ही ऐसी चीज़ों को मानते हैं, जिन्हें खुली आँखों से नहीं देखते। जैसे अन्तरिक्ष (Space) के अस्तित्व को वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं, लेकिन अदृश्य अन्तरिक्ष हमें नज़र नहीं आता। यही मामला आत्मा और गुरुत्वाकर्षक बल वगैरा का है।
इन सबको हम अपनी आँखों से नहीं देखते, लेकिन इनकी तरफ़ इशारा करनेवाली सच्चाइयों पर गौर करके उनके अस्तित्व को मान लेते हैं। इनसान की आँखों में इतनी क्षमता नहीं है कि ईश्वर को देख सके। साथ ही तेज़ धूप में सूरज पूरी आन-बान से चमक रहा हो, तो अगर कोई नंगी आँखों से उसे देखने की कोशिश करेगा तो उसकी आँखों की रौशनी ख़राब हो जाएगी। इसी तरह बिजली जब कड़क और चमक के साथ आसमान पर आती है, तो उसे नज़र जमाकर देखने की कोशिश में आँख की रौशनी ख़त्म हो सकती है। ऐसी और भी बहुत-सी मिसालें हो सकती हैं।
मुहम्मद (सल्ल.) ने बताया कि ईमान और अच्छे काम करनेवाले लोग मौत के बाद जब स्वर्ग में जाएंगे तो वहाँ उनकी आँखों में इतनी ताक़त होगी कि वे ईश्वर को देख सकेंगे कुछ धार्मिक गरोह दावा करते हैं कि वे इसी दुनिया में ईश्वर को दिखाएँगे, लेकिन यह दावा सही नहीं है। क़ुरआन में कहा गया है कि ईश्वर और आसमानों का प्रकाश (नूर) है।
ईश्वर अपने बन्दों पर अत्यन्त दयावान है कि उसने उन्हें अपना बोध कराया और अपने गुणों का परिचय पैगम्बरों के ज़रिए से इनसानों को प्रदान किया और उन गुणों और खूबियों की व्यावहारिक अपेक्षाएँ बताई। जीवन पर उनके प्रभाव की ओर इशारा किया। ईश्वर की इबादत करने और ज़िन्दगी में उसे याद रखने के सारे तरीक़े इनसानों को बता पैगम्बर की ज़िम्मेदारी थी कि वह उन बातों पर अमल करके इनसानों के लिए अपनी ज़िन्दगी का नमूना पेश इसके विपरीत कितने ही धार्मिक गरोह इतिहास में ऐसे गुज़रे हैं, जिन्होंने अपनी सीमित बुद्धि और अनुमान पर भरोसा किया। ईश्वर की इबादत के खुद ही तय करने की नाकाम कोशिश की और भटक गए। कुछ नादान कहते हैं कि उद्देश्य तो एक ईश्वर की ही पूजा और उपासना करना है, लेकिन बीच में माध्यम के रूप में कुछ और ज़रिए अपना लिए गए हैं। जैसे मूर्तियाँ या महापुरुष या कुछ आकृतियाँ (Forms)। इनकी पूजा और उपासना करके वास्तविक पूज्य तक पहुँचा जा सकता है। सवाल यह कि क्या ईश्वर ने यह सब करने का आदेश दिया है या कम-से-कम इसकी दी है? अगर दिया है तो किस धार्मिक किताब या किस पैगम्बर या महापुरुष की शिक्षा में आदेश हमें मिलता है? यह सवाल भी पैदा होता है कि क्या ईश्वर ने यह बात किसी धार्मिक किताब या किसी पैगम्बर के बताई है कि इनसान सीधे-सीधे वास्तविक स्रष्टा की इबादत और बन्दगी नहीं कर सकता और उससे दुआएँ नहीं माँग सकता है। क़ुरआन के अनुसार ये दोनों बातें सही नहीं हैं। हर इनसान ईश्वर पर ईमान लाकर उसकी बन्दगी और इबादत कर सकता है। उससे सीधे दुआ माँग सकता है, बल्कि सिर्फ उसी से माँगना सही है ।
जो लोग पैगम्बरों की साफ़ और सही शिक्षाओं को दलीलों की मौजूदगी बावजूद नहीं मानना चाहते, उनका रवैया सही नहीं है, बल्कि और हठधर्मी का पता देता है। ऐसे लोग मौत के बाद की ज़िन्दगी में अपनी आँखों इन छिपी हुई सच्चाइयों को देख लेंगे, तो दंग रह जाएँगे और इनकार करने की हिम्मत होगी, लेकिन उस समय पैगम्बरों की शिक्षा के मानने का कोई फ़ायदा नहीं होगा। मौत के बाद की ज़िंदगी का दिन कर्मों और फैसले और बदले का दिन होगा। इनसान अपनी पैदाइश और अपने व्यक्तित्व पर सोच-विचार और सृष्टि की सच्चाई पर गौर करे, तो उसे अनगिनत निशानियाँ मिलेंगी, जिन्हें देखकर वह सहसा पुकार उठेगा कि
यक़ीनन एक अल्लाह (ईश्वर) सबका पैदा करनेवाला और मालिक है। इन निशानियों की विस्तृत जानकारी के लिए क़ुरआन का अध्ययन ज़रूर करना चाहिए। विभिन्न भाषाओं में क़ुरआन के अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं और आसानी से उपलब्ध भी हो सकते हैं।
प्रोफ़ेसर खुर्शीद अहमद अपनी किताब 'इस्लामी नज़रिया-ए-हयात' में लिखते हैं –
"सच्चाई तो यह है कि हर वह आदमी जो देखनेवाली आँख और सोचनेवाला दिमाग रखता हो, इस सृष्टि की सच्चाइयों को देखकर सहसा पुकार उठता है कि कोई भी सृष्टि एक तत्वदर्शी और सर्वज्ञ रचयिता और शासक के बिना न अस्तित्व में आ सकती थी और न बाक़ी रह सकती है। ज़मीन से लेकर आसमानों तक सारी सृष्टि एक पूर्ण व्यवस्था है और यह पूरी व्यवस्था एक ज़बरदस्त क़ानून के तहत चल रही है, जिसमें हर तरफ़ एक सर्वव्यापी सत्ता, एक निर्दोष नीति-नियम और एक त्रुटिरहित ज्ञान के लक्षण नज़र आते हैं। ये लक्षण इस बात की पुष्टि करते हैं कि इस व्यवस्था का एक चलानेवाला (संचालक) है। व्यवस्था की कल्पना एक व्यवस्थापक के बिना, क़ानून की कल्पना एक शासनाधिकारी के बिना तत्वदर्शिता की कल्पना एक तत्वदर्शी के बिना और ज्ञान की कल्पना एक विद्वान के बिना और सबसे बढ़कर रचना की कल्पना एक रचनाकार के बिना आख़िर किस तरह की जा सकती है! यह सृष्टि एक योजना के तहत काम कर रही है। क्या यह योजना, एक योजनाकार के बिना ही जारी हो गई है। इस ब्रह्माण्ड में अत्यन्त ऊँचे दरजे का सौन्दर्य और सन्तुलन है। यह सौन्दर्य और सन्तुलन एक संचालक के बिना कैसे सम्भव है! इसके अलावा हम खुदा के अस्तित्व को स्वीकार न करें, सृष्टि का सर्वेसर्वा किसी और को करार दें तो इनसानी और हैवानी अस्तित्व की व्याख्या बड़ी मुश्किल नज़र आती हैं। सरसरी तौर पर बड़ी आसानी से कहा जा सकता है कि विभिन्न तत्व एक अनुपात से मिले और जानवर या इनसान अस्तित्व में आ गए लेकिन आधुनिक वैज्ञानिक विकास के कारण ऐसे संयोगों को मानना बड़ा मुश्किल हो गया है (या सम्भव नहीं रहा है।)।" (पृष्ठ : 191 से 193)
एक अत्यन्त सुन्दर और सुगठित, व्यवस्थित और स्थिर ब्रह्माण्ड (कायनात) यहाँ मौजूद है, इसमें ज़मीन से एक करोड़ गुणा बड़े सितारे तक पाए जाते हैं। ऐसी आकाशगंगाएँ हैं, जिनमें करोड़ों और अरबों नक्षत्र घूम रहे हैं। ब्रह्माण्ड की व्यापकता का वैज्ञानिक आज तक पूरा अन्दाजा नहीं लगा सके हैं। कुछ समय पहले मशहूर अंग्रेज़ी पत्रिका 'रीडर्स डाइजेस्ट' ने बड़े साइज़ में ब्रह्माण्ड में ग्रहों, उपग्रहों और आकाशगंगाओं का चित्र प्रकाशित किया था। उसमें एक तरफ़ एक बारीक-सा नुक्ता लगाकर उसकी तरफ़ तीर का निशान बनाकर उसके नीचे लिखा था:
"Our Solar System lies somewhere between here."
(हमारा सौरमण्डल यहीं कहीं है।)
इस वाक्य को पढ़कर ब्रह्माण्ड की नाकाबिले-पैमाइश विशालता का अन्दाज़ा किया जा सकता। इस तरह के विशाल ब्रह्माण्ड की रचना का कारण क्या कोई आकस्मिक घटना हो सकती है? एक अच्छा शेअर हमारे सामने कोई कह दे तो हम पूछते हैं कि यह किस शायर की रचना है? इसी तरह एक अच्छी-सी तस्वीर (Painting) हम देखते हैं तो सवाल होता है कि किस कलाकार (Artist) ने इसको बनाया है? एक खूबसूरत-सी इमारत (Building) को देखकर मन उसके इंजीनियर और आर्किटेक्ट की तरफ़ जाता है। पूरा ब्रह्माण्ड, जिसमें हमारी विशाल दुनिया भी शामिल है, इसको देखकर इसके बनानेवाले और मालिक का ध्यान नहीं आएगा? क्या कोई सही बुद्धि और समझ रखनेवाला इनसान इस तरह की बात स्वीकार कर सकता है? यह कितनी अनुचित और अतार्किक बात है, अगर कोई कहे कि यह ब्रह्माण्ड ईश्वर के बनाए बिना बन गया है और अपने-आप या संयोगवश चल भी रहा है। प्रोफ़ेसर जोड ने कहा है –
"सर जेम्स जींस और सर आर्ट वाइंड मिक्सन की किताब हमें बताती है कि बीसवीं सदी के भौतिक विज्ञान ने भौतिक जगत् के बारे में उन्नीसवीं सदी की धारणाओं में क्रान्ति पैदा कर दी है और यह क्रान्ति धर्म से समझौता और समरूपता की दिशा में है। आज विज्ञान और धर्म ब्रह्माण्ड की सच्चाई के बारे में एक ही तरह की बात कह रहे हैं, जबकि अपने नतीजों तक पहुँचने के लिए दोनों के शोध और अध्ययन के तरीक़े अलग-अलग हैं। हम कह सकते हैं कि आज विज्ञान ने ख़ुदा की अवधारणा स्वीकार कर ली है।"
(इस्लामी नज़रिया-ए-हयात (उर्दू), पृष्ठ-191,
(God and Evil by Jode P-140 से उद्धृत)
इस संक्षिप्त विश्लेषण के बाद यह नतीजा सामने आता है कि ईश्वर का अस्तित्व यक़ीनी है और उसे मानना हमारी ज़िन्दगी के लिए बहुत ज़रूरी है। यह बात स्पष्ट है कि उसके बारे में सही जानकारी प्राप्त करने और उसका बोध हासिल करने से इनसान की सीमित बुद्धि, दर्शन और विज्ञान असमर्थ है। इस बुनियादी ज्ञान के लिए ईश्वर ने पैगम्बरों का सिलसिला जारी किया। आख़िरी पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल.) पर आज से साढ़े चौदह सौ साल पहले प्रकाशना (वह्य) के द्वारा क़ुरआन अवतरित किया गया क़ुरआन में ईश्वर का परिचय कराया गया है। उसकी हस्ती और खूबियाँ बयान की गई हैं और बताया गया है कि अल्लाह को मान लेने की अपेक्षाएँ क्या हैं और इनसान की ज़िन्दगी पर इस अवधारणा के असर क्या पड़ते हैं? क़ुरआन में विस्तार से बताया गया है कि कौन-सी आस्थाएँ (अक़ीदे) ईश्वर को मानने के विरुद्ध हैं। उन आस्थाओं और कर्मों के नतीजे दुनिया और आख़िरत में किस तरह सामने आएँगे? उन नतीजों से बचने का तरीक़ा क्या है? ईश्वर की इबादत किस तरह की जाए?
इन सभी सच्चाइयों को स्वीकार करने के लिए किसी विशेष नस्ल, रंग, भाषा और इलाक़े से सम्बन्ध रखने की कोई शर्त नहीं है। दुनिया का हर एक इनसान इन पर सोच-विचार करके बुद्धि और स्वभाव और दलील की बुनियाद पर इन्हें कबूल कर सकता है और इन्हें अपना भी सकता है। क़ुरआन किसी भी सच्चाई को आँखें बन्द करके मानने के लिए नहीं कहता। इन अवधारणाओं को क़बूल या रद्द करने की आज़ादी और अधिकार इनसान को हासिल है। क़ुरआन बताता है कि इस अधिकार के इस्तेमाल की पूरी ज़िम्मेदारी इनसान पर ही होगी। स्वीकार करने की स्थिति में कामयाबी मिलेगी और रद्द करने की स्थिति में ज़बरदस्त नाकामी का सामना उसे खुद करना पड़ेगा।
इस्लाम में ईश्वर की धारणा
पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल.) ने जब अरब के निवासियों में एक अल्लाह (ईश्वर) की बन्दगी का पैगाम पहुँचाया तो लोगों में स्वाभाविक रूप से यह जिज्ञासा पैदा हुई कि ईश्वर कैसा है? किस चीज़ से बना है? उसकी विशेषताएँ क्या हैं? वह उनके पूज्यों से क्यों और किस तरह भिन्न है?
मुहम्मद (सल्ल.) ने ईश्वर का पूर्ण परिचय कराया, उसके गुणों की संग्राहक और विस्तृत चर्चा ही नहीं की, बल्कि उसकी अपेक्षाओं को भी बयान किया। इस बात को भी स्पष्ट किया कि ईश्वर को मानने के प्रभाव जिन्दगी पर क्या पड़ने चाहिए।
गौर करना चाहिए कि ईश्वर के बारे में जानने का हमारे पास क्या ज़रिआ है? बुद्धि, अनुभव, विज्ञान और अवलोकन के ज़रिए से इनसान ने ईश्वर को जानने और मालूम करने की जो भी कोशिशें कीं, उनमें वह भटक गया। यह भी एक महत्वपूर्ण सवाल है कि ईश्वर के सम्बन्ध में इनसान को क्या जानना चाहिए और किस चीज़ की कुरेद में नहीं पड़ना चाहिए? सरष्टा को जानने के सिलसिले में इनसान की अस्ली और सच्ची ज़रूरत क्या है? कुछ लोग दावा करते हैं कि वे ईश्वर को इसी ज़िन्दगी में दिखाएँगे। यह बहुत ही गुमराह करनेवाली बात है। यह अवलोकन इस जिन्दगी में सम्भव नहीं है।
ईश्वर के बारे में जानने की जो अस्ल ज़रूरत है, वह यह है कि उसके गुण और उसके अधिकार क्या हैं, वह इनसान से क्या चाहता है? वह किन कामों से खुश होता है और किनसे नाराज़? इस दुनिया में इनसान, ईश्वर की मर्जी को कैसे पूरा कर सकता है और परलोक में उसकी पूछगछ और पकड़ से कैसे बच सकता है। ईश्वर की इबादत करने और पूरी ज़िन्दगी उसके पसन्द के कामों में बसर करने के लिए उसका मार्गदर्शन क्या है?
एक सवाल यह भी है कि क्या ईश्वर इनसान से सिर्फ़ अपनी पूजा (परस्तिश) ही चाहता है? इसके अलावा उसने इनसान की व्यक्तिगत और सामूहिक ज़िन्दगी के लिए कोई हिदायत और रहनुमाई नहीं दी है। जैसा कि कहा गया, ईश्वर की हस्ती और गुणों और उसकी अपेक्षाओं को जानने और उसकी इबादत के तरीकों को मालूम करने का कोई बौद्धिक साधन हमारे पास नहीं। लेकिन ईश्वर इनसान पर बहुत दयावान है। उसने इनसानों को इस परेशानी में नहीं डाला, बल्कि अपने बारे में हमारे लिए जो ज़रूरी था, हमें बता दिया। उस स्रष्टा के बारे में जो जानकारी हमारे लिए जरूरी नहीं, उसकी कुरेद में हमें नहीं पड़ना चाहिए। इनसानी इतिहास में पैगम्बरों और नबियों का पवित्र गरोह ही है, जिसने ईश्वर की हस्ती, उसके गुणों और अधि कारों को विस्तार से हमें बता दिया है। उन पवित्र हस्तियों ने इनसानों को बताया कि उनके पास ईश्वर की तरफ़ से वह ज्ञान आया है जो आम इनसानों को हासिल नहीं है। ईश्वर की महान हस्ती के बारे में जो सच्चाइयाँ वे बताते हैं, वे सब ईश्वर की तरफ़ से भेजी गई हैं।
क़ुरआन के अवतरण के दौरान आज से 1450 साल पहले दुनिया में ईश्वर के बारे में निम्नलिखित धारणाएँ पाई जाती थीं –
एक धारणा यह थी कि वह रचयिता है, लेकिन दुनिया की रचना के बाद दुनिया से अलग होकर बैठ गया है। उसे अपने बन्दों की भलाई और बुराई से कोई दिलचस्पी नहीं है। वह (ईश्वर माफ़ करे!) एक खेल के रूप में दुनिया के कारोबार को देखकर केवल आनन्दित हो रहा है।
दूसरी तरफ़ कहीं ईश्वर को एक माना गया, मगर उसके साझी और समकक्षी बना लिए गए। इसके साथ उसके अधीन कई खुदाओं को मान लिया गया। अधीनस्थ खुदाओं के अलग-अलग काम तय कर लिए। मिसाल के तौर पर बारिश व हवा, ज़मीन व आसमानों की व्यवस्था और देखभाल वगैरा।
एक विचार यह पेश किया गया कि ईश्वर अपनी औलाद रखता है। मिसाल के तौर पर फ़रिश्तों को उसकी बेटियाँ स्वीकार किया गया। कम-से- कम यह हुआ कि उसका एक बेटा मान लिया गया उसे भी खुदा माना गया। कहने का मतलब यह कि खुदा एक नहीं रहा, बल्कि ख़ुदाओं के खानदान मान लिए गए।
एक धारणा यह थी कि खुदा को इनसान की तरह समझा गया। इनसानों जैसी उसकी तस्वीरें, प्रतिमाएँ और मूर्तियाँ बना ली गई। हालाँकि खुदा को किसी ने कभी देखा ही नहीं और न यह कहा जा सकता है कि उसका कोई शरीर इनसानों की तरह है। यह भी कहा गया कि ज़ुल्म-अत्याचार, फ़साद और बिगाड़ को दूर करने के लिए ईश्वर खुद इनसानी शरीर या किसी जानवर के रूप में आता है और समाज सुधार का काम करके चला जाता है।
खुदा के बारे में यह विचार पेश किया गया कि वह अपने ही एक बन्दे से रात-भर कुश्ती लड़ता है और सुबह के समय हार जाता है और अपने बन्दे से कहता है कि अब मुझे जाने दो।
एक धारणा यह थी कि पैदा करनेवाले और बन्दों के बीच सीधे सम्पर्क नहीं हो सकता, बीच में कुछ हस्तियाँ हैं जिनकी वह सुनता है, उनकी सिफ़ारिशें स्वीकार करता है और उनकी खुशी और पसन्द को प्रिय रखता है।
ये और इस तरह की और बहुत-सी धारणाएँ मौजूद थीं। ये सब त्रुटिपूर्ण, अबौद्धिक और अस्वाभाविक धारणाएँ हैं। ये मात्र गलत धारणाएँ ही नहीं हैं, बल्कि व्यावहारिक ज़िन्दगी पर इनके हानिकारक प्रभाव पड़ते हैं। इन धारणाओं के नतीजे में इनसानों के अन्दर त्रुटिपूर्ण, असन्तुलित चरित्र और विशेषताएँ पैदा होती हैं।
आज सारी दुनिया में इस्लाम एकमात्र धर्म है, जिसमें एक ईश्वर की स्पष्ट और दिल और दिमाग को मुत्मइन करनेवाली धारणा पेश की गई है।
इसकी व्यापक विशेषताएँ बताई गई हैं और व्यावहारिक ज़िन्दगी में उनकी अपेक्षाओं से परिचित कराया गया है। दलीलों की रौशनी में शिर्क (बहुदेववाद) का भरपूर खण्डन किया गया है, क्योंकि बहुदेववाद, एकेश्वरवाद के बिलकुल विपरीत है। एकेश्वरवाद को सही रूप में समझने के लिए बहुदेववाद को जान लेना बहुत ज़रूरी है (अगले पन्नों में इन बातों पर रौशनी डाली जाएगी)। इस्लाम में ईश्वर की धारणा के सम्बन्ध में मौलाना सैयद जलालुद्दीन उमरी लिखते हैं –
"क़ुरआन इनसान को ईश्वर को जानने की सही कसौटी प्रदान करता है। खुदा क्या है? उसकी विशेषताएं या गुण क्या हैं? उसकी हिदायत क्या है? उसके नियम-क़ानून क्या हैं? वह अपने बन्दों से क्या चाहता है? क़ुरआन में (ईश्वर की) बन्दगी के उसूल मिलेंगे, नैतिक शिक्षा मिलेगी, सांस्कृतिक, सामाजिक शिक्षाएँ और राजनीति के आदेश मिलेंगे इसी तरह आप क़ुरआन में स्वर्ग और नरक का ज़िक्र पाएँगे। क़ौमों के उत्थान-पतन की घटनाएँ पढ़ेंगे। लेकिन इन सबका मक़सद सिर्फ यह है कि इनसान को खुदा की सही धारणा मिले और वह उसकी मर्जी और नामर्जी से परिचित हो जाए।"
(ख़ुदा और रसूल का तसव्वुर, इस्लामी तालीमात में, पृ.-157)
इसी किताब में दूसरी जगह लिखते हैं –
"क़ुरआन खोलते ही पहली सूरा, जिसका आप अध्ययन करेंगे, वह ख़ुदा का परिचय इस तरह कराती है कि वही पूज्य है, वही सबका सबकुछ है। सारी तारीफें उसी के लिए हैं। वह पालनहार है और सारे जहान का पालन-पोषण कर रहा है। वह कृपाशील और दयावान है और सारा संसार उसी की दयालुता और मेहरबानी के सहारे जिन्दा है। वह आख़िरत के दिन का मालिक है। इनसानों का आखिरी हिसाब-किताब उसी के हाथ में है। इसके बाद इनसान को दावत दी गई है कि वह खुदा की तरफ़ लपके और अपने-आपको उसके सामने डाल दे। उसी की तरफ़ बढ़े, उसी से मदद चाहे, क्योंकि यही सीधा रास्ता है। जो आदमी इस राह से भटक जाए, उसको खुदा के गज़ब से कोई चीज़ बचा नहीं सकती। दुनिया और आख़िरत में उसका नाकाम होना यक़ीनी है। इस तरह क़ुरआन की इस (सूरा) भूमिका में खुदा का परिचय भी है और उसकी तरफ़ बुलावा भी।" (वही, पृ॰ 160)
इस्लाम में ईश्वर की धारणा के सम्बन्ध में एक व्यापक लेख मौलाना सैयद हामिद अली की किताब 'एकेश्वरवाद और बहुदेववाद' में मौजूद है। उसका सारांश निम्नलिखित है –
ईश्वर ही स्रष्टा है
इस्लाम में ईश्वर की धारणा के अनुसार ईश्वर ही हर चीज़ का पैदा करनेवाला है। जिन दूसरों को लोगों ने स्रष्टा मान रखा है, वे सब ईश्वर की रचना हैं और रचना रचनाकार कैसे हो सकती हैं?
ईश्वर ही मालिक है
कायनात (ब्रह्माण्ड) और उसकी सारी चीजों का मालिक वही अकेला है। क़ुरआन में कहा गया है –
“आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है सब ईश्वर का है।" (क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, आयत-284)
“प्रशंसा ईश्वर ही के लिए है जो सारे जहान का रब है।" (क़ुरआन, सूरा-1 बक़रा, आयत-1)
रब अस्ल में मालिक, परवरदिगार और शासक को कहते हैं। एक जगह क़ुरआन में कहा गया है –
"(ऐ नबी!) कहो जिनको तुम ईश्वर के सिवा अपना खुदा मानते हो, उन्हें पुकारकर देखो। वे न आसमानों में कण-भर किसी चीज़ के मालिक हैं न ज़मीन में।" (क़ुरआन, सूरा-34 सबा, आयत-22)
ईश्वर ही शासक है
ईश्वर ब्रह्माण्ड का रचनाकार और मालिक है, तो फिर ईश्वर ही को शासन करने का अधिकार पहुंचता है। उसके सिवा कोई दूसरा सृष्टि का शासक नहीं हो सकता। क़ुरआन में कहा गया है
"तुम चाहे कोई बात व्यक्त करो या छिपाओ, अल्लाह को हर बात का ज्ञान है।" (क़ुरआन, सूरा-33 अहजाब, आयत-54) दूसरी जगह क़ुरआन में कहा गया है –
“न बादशाही में उसका कोई सहभागी है और न ऐसा ही है कि वह बेबस हो जिसके कारण बचाव के लिए उसका कोई सहायक मित्र हो। और बड़ाई बयान करो उसकी, पूर्ण बड़ाई।"
(क़ुरआन, सूरा-17 बनी इसराईल, आयत-111)
ईश्वर ही परवरदिगार है
क़ुरआन की निम्नलिखित आयतों पर विचार करें –
"क्या तुमने देखा नहीं कि अल्लाह ने आसमान से पानी उतारा तो उसे झरनों, सोतों और नदियों के रूप में ज़मीन में प्रवाहित कर दिया। फिर वह उससे रंग-बिरंगी खेती पैदा करता है।" (क़ुरआन, सूरा-39 जुमर, आयत-21)
एक और जगह कहा गया है –
"उनसे पूछो, कौन आसमान और ज़मीन से रोज़ी देता है? ये सुनने और देखने की शक्तियाँ किसके अधिकार में हैं? कौन बेजान में से जानदार को और जानदार में से बेजान को निकालता है? कौन इस विश्व की व्यवस्था का उपाय कर रहा है? वे ज़रूर कहेंगे कि ईश्वर।"
(क़ुरआन, सूरा-10 यूनुस, आयत-31)
कहने का मतलब यह है कि सेहत और तन्दुरुस्ती, औलाद, हानि-लाभ ज्ञान, धन-सम्पत्ति और सारे अनुग्रह उसी के दिए हुए हैं। उसके अनुग्रहों को कोई गिन नहीं सकता।
ईश्वर ही ज़रूरतों को पूरी करनेवाला है
ईश्वर स्रष्टा, मालिक, परवरदिगार, शासक और हाकिम है। सब कुछ उसी के पास है। इसलिए ज़रूरतों को पूरी करनेवाला, मुसीबतों और मुश्किलों को दूर करनेवाला भी वही है। क़ुरआन में कहा गया है –
"ईश्वर के सिवा जिन्हें तुम पुकारते और पूजते हो, वे सब-के-सब तुम ही जैसे ईश्वर के बन्दे और मुहताज हैं।" (कुरआन, सूरा-7 आराफ़, आयत-194)
जिस किसी को जो कुछ मिलता है, उसी के देने से मिलता है। वही ज़रूरतों को पूरी करनेवाला और मुश्किलों को दूर करनेवाला है। ईश्वर ही क़ानून देनेवाला है।
इनसान को आदेश देने और उसके लिए क़ानून बनाने का अधिकार सिर्फ़ ईश्वर को है। यह अधिकार ईश्वर के सिवा किसी और को हासिल नहीं है। क़ुरआन में कहा गया है –
"आदेश सिर्फ ईश्वर के लिए है, किसी और के लिए नहीं। उसने आदेश दिया है कि उसकी बन्दगी करो, किसी और की न करो।" (क़ुरआन, सूरा-12 यूसुफ़, आयत-40)
बन्दगी का मतलब पूजा और गुलामी दोनों है। बन्दा और गुलाम का काम यह है कि मालिक की मर्जी पर चले और उसका हुक्म माने और उसके हुक्म के ख़िलाफ़ किसी का हुक्म न माने।
ज़िन्दगी और मौत अल्लाह के हाथ में है
क़ुरआन में कहा गया है –
"तुम अल्लाह के आज्ञापालन से कैसे इनकार करते हो, हालांकि तुम्हारा वुजूद (अस्तित्व)
नहीं था। उसने तुम्हें जीवन प्रदान किया। फिर वह तुम्हें मौत देगा। फिर वह तुम्हें
ज़िन्दा करेगा। फिर तुम उसी के पास पलटाए जाओगे।" (क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, आयत-28)
लाभ-हानि ईश्वर के हाथ में है
क़ुरआन में कहा गया है –
"और उन्होंने ईश्वर के सिवा दूसरे खुदा बना रखे हैं, जो कुछ भी पैदा नहीं करते और खुद पैदा किए जाते हैं। उनके हाथ में अपना लाभ-हानि भी नहीं है, न मौत, न ज़िन्दगी, न दोबारा उठाया जाना उनके बस में है।" (क़ुरआन, सूरा-25 फुरकान, आयत-3)
पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल.) ने कहा है कि जब माँगो तो ईश्वर से माँगो, और जब मदद चाहो तो ईश्वर से चाहो और विश्वास रखो, अगर सब लोग मिलकर तुम्हें कोई फ़ायदा पहुँचाना चाहें तो हरगिज़ न पहुँचा सकेंगे, मगर जितना कि ईश्वर ने तुम्हारे लिए लिख दिया है। और अगर सारे लोग इकट्ठा होकर तुम्हें कोई नुकसान पहुंचाना चाहें तो हरगिज़ न पहुँचा सकेंगे मगर जितना कि ईश्वर ने तुम्हारे हिस्से में लिख दिया है। (हदीस: तिरमिज़ी)
ईश्वर ही हर चीज़ का ज्ञान रखता है
क़ुरआन में कहा गया है –
“और तुम बात चुपके से करो यार ज़ोर से (वह सब सुनता है)। वह तो दिलों का हाल तक जानता है। क्या वही न जानेगा जिसने पैदा किया। और वह सूक्ष्मदर्शी है, हर चीज़ की ख़बर रखता है।" (कुरआन, सूरा-67 मुल्क, आयतें-13, 14)
क़ुरआन में एक और जगह कहा गया है –
"और उसी के पास गैब (परोक्ष) की कुंजियाँ हैं, जिन्हें उसके सिवा कोई नहीं जानता, मगर सिर्फ वह। जल और थल की हर चीज़ को वह जानता है। जो पत्ता भी गिरता है, उसे जानता है और ज़मीन के अंधकारमय परदों में जो दाना गिरता है और जो गीली या सूखी चीज़ गिरती है वह सब अल्लाह के स्पष्ट रिकॉर्ड में है।" (क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, आयत-59)
ईश्वर के समकक्ष कोई नहीं
ब्रह्माण्ड की सारी चीजें अल्लाह की रचना हैं। इसलिए ब्रह्माण्ड की कोई चीज़ अल्लाह के बराबर नहीं हो सकती। क़ुरआन में कहा गया है "संसार की कोई चीज़ उसके सदृश नहीं।" (क़ुरआन, सूरा-12 शूरा आयत-11)
दूसरी आयत –
"और कोई उसके बराबर का नहीं।" (क़ुरआन, सूरा-112 इख़लास, आयत-4)
ईश्वर के सामने कोई सिफ़ारिश करनेवाला नहीं
सिफ़ारिश आमतौर पर इसलिए की जाती है कि अपराधी को अपराध की पकड़ से बचा लिया जाए या किसी आदमी को वह चीज़ दिलवा दी जाए जिसका वह हक़दार नहीं है। यह खुला हुआ भ्रष्टाचार है। किसी स्वाभिमानी व्यक्ति से यह आशा नहीं रखनी चाहिए कि वह इस तरह की सिफ़ारिश करेगा या क़बूल करेगा। लेकिन कुछ लोग खुद के बनाए हुए खुदाओं के बारे में यह धारणा रखते हैं कि खुदा के सामने उनकी अनुचित सिफ़ारिश करेंगे या खुदा की पकड़ से उन्हें बचा लेंगे, हालाँकि खुदा के यहाँ इस तरह की सिफ़ारिश मुमकिन नहीं है। वह न किसी का दबाव क़बूल करता है और न गलत फैसले करता है और न उसे धोखा दिया जा सकता है। वह अपने ज्ञान की रौशनी में सही फैसले करता है। क़ुरआन में कहा गया है –
"ईश्वर के सामने ज़ालिमों (बागियों) का न कोई दोस्त होगा, न सिफ़ारिशी कि उसकी
बात मान ली जाए। वह आँखों की आपराधिक गतिविधियों और दिलों के छिपे इरादों
को भी जानता है और वह सही फ़ैसला ही फ़रमाता है।" (क़ुरआन, सूरा-40 मोमिन, आयतें-18 से 20)
ईश्वर का साझी ठहराना सबसे बड़ा गुनाह है
ईश्वर को सिर्फ एक मानना काफ़ी नहीं है। ईश्वर स्रष्टा, मालिक, सारे जहान का रब, हाकिम, रोज़ी देनेवाला और वास्तविक पूज्य है। उसके सिवा सभी दूसरे खुदा जो इनसानों ने खुद बना लिए हैं, उनका इनकार भी ज़रूरी है।
ईश्वर को एक मानना, लेकिन दूसरों को उसकी हस्ती, उसके गुण और अधिकारों में साझी ठहराना सबसे बड़ा गुनाह है। इसी को शिर्क यानी बहुदेववाद कहते हैं। एकेश्वरवाद यह है कि ईश्वर को एक मानकर पूरे तौर पर उसकी बन्दगी अपनाई जाए दूसरी तरफ़ दूसरे सारे खुदाओं का इनकार करना और उनकी बन्दगी और आज्ञापालन से पूरी तरह बचकर रहना एकेश्वरवाद में शामिल है।
शिर्क या बहुदेववाद क्या है?
ईश्वर अपने व्यक्तित्व या हस्ती, गुणों और अधिकारों में भी अकेला है। यानी वह इन सब पहलुओं से भी अकेला है, उसका कोई साझी नहीं। उसको एक मानने का मतलब यह है कि उसके सिवा किसी भी दूसरे खुदा या खुदाई गुण रखनेवाली किसी हस्ती का इनकार किया जाए सचमुच उसके सिवा जिनको खुदा या खुदाई गुण रखनेवाली हस्ती ठहराया जाता है, अस्ल में उनमें खुदाई की कोई विशेषता है ही नहीं। शिर्क या बहुदेववाद सबसे बड़ा गुनाह ही नहीं, एक बहुत बड़ा झूठ भी है। इस झूठ पर ज़िन्दगी की बुनियाद रखने का मतलब सत्य के मार्ग से भटक जाना है। ईश्वर की हस्ती, उसके गुणों और अधिकारों में किसी भी दूसरी ज़िन्दा या मुर्दा हस्ती को या किसी चीज़ को साझी बनाना और शामिल करना शिर्क यानी बहुदेववाद है। क़ुरआन ने शिर्क यानी बहुदेववाद को सबसे बड़ा गुनाह ठहराया है और इसे सबसे बड़ा अत्याचार कहा है। शिर्क या बहुदेववाद की माफ़ी नहीं होगी। ईश्वर अपनी हस्ती, अपने गुणों और अधिकारों में एकमात्र, अकेला और तनहा है। क़ुरआन में है –
"कहो, वह ईश्वर है, यकता। ईश्वर सबसे निरपेक्ष है और सब उसके मुहताज हैं। न उसकी
कोई सन्तान है और न वह किसी की सन्तान और कोई उसका समकक्ष नहीं है।" (क़ुरआन, सूरा-112 इख़लास, आयत-1 से 4)
ईश्वर को एक मानकर कितने ही लोगों ने किसी को उसका बेटा, किसी को उसकी बेटियाँ और किसी को उसकी माँ करार दिया, जबकि सचमुच उसकी कोई औलाद नहीं है और न वह किसी की औलाद है। वह हमेशा से है और हमेशा रहनेवाला है। उसका कोई ख़ानदान और बिरादरी नहीं। वह हर तरह की कमज़ोरी से पाक है। उसे किसी की मदद और सहारे की ज़रूरत नहीं है। और इनसान और दुनिया की दूसरी सारी रचनाएँ उसी की मुहताज हैं, उसी के सहारे की ज़रूरतमन्द हैं। क़ुरआन की निम्नलिखित आयतों के अनुवाद पर गौर कीजिए –
"ईश्वर ही के लिए सबसे उच्चतर गुण हैं और वही प्रभुत्वशाली और तत्वदर्शी है।" (क़ुरआन, सूरा-16 नहल, आयत-60)
"ईश्वर इस अपराध को हरगिज़ माफ़ नहीं करता कि किसी को उसका साझी ठहराया जाए और इसके सिवा दूसरे जितने गुनाह हैं वह जिसके लिए चाहता है, माफ़ कर देता है और जिसने ईश्वर के साथ किसी और को साझी ठहराया, उसने बहुत ही बड़ा झूठ गढ़ा और सख्त गुनाह की बात की।" (क़ुरआन, सूरा-4 निसा, आयत-18)
“वही एक आसमान में भी ईश्वर है और ज़मीन में भी ईश्वर और वही तत्वदर्शी और सर्वज्ञ है।" (क़ुरआन, सूरा-43 जुख़रुफ़, आयत-84)
"अगर ज़मीन और आसमान में ईश्वर के सिवा दूसरे पूज्य भी होते तो (ज़मीन और आसमान) दोनों की व्यवस्था बिगड़ जाती। अतः पाक है ईश्वर, सिंहासन का अधिकारी उन बातों से जो ये लोग बना रहे हैं।" (क़ुरआन, सूरा-21 अंबिया, आयत-22)
"क्या वह जो हर चीज़ को पैदा करता है और जो किसी चीज को पैदा नहीं करता, दोनों बराबर हो सकते हैं? तो क्या तुम नसीहत हासिल नहीं करते?" (क़ुरआन, सूरा-16 नहल, आयत-17)
"ये जिन लोगों को ईश्वर के सिवा पुकारते हैं, वे किसी चीज़ को पैदा नहीं करते, बल्कि वे ख़ुद पैदा किए गए हैं। वे मुरदा हैं, ज़िन्दा नहीं हैं। वे यह भी नहीं जानते कि दोबारा कब उठाए जाएँगे।" (क़ुरआन, सूरा-16 नहल, आयतें-20, 21)
"क्या उन्होंने ईश्वर के सिवा दूसरे पूज्य बना रखे हैं? उनसे कहो, तुम अपनी दलील तो लाओ।" (क़ुरआन, सूरा-21 अंबिया, आयत-24)
यह सच है कि ईश्वर ने अपनी सृष्टि और उसकी सारी चीजों की व्यवस्था सहायक खुदाओं के सिपुर्द नहीं की है। उसे किसी सहायक और मददगार की ज़रूरत नहीं है। ये तो लोगों की बनाई हुई धारणाएँ हैं। जैसे दुनिया में वे देखते हैं कि किसी सरकार में प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति की मदद के लिए सहायक मंत्रियों की एक टीम रहती है, तो उसी पर वे ईश्वर का अनुमान लगाते हैं। ईश्वर इन तमाम कमज़ोरियों से पाक है। किसी की मदद का मुहताज होना तो ऐब और कमज़ोरी है। ईश्वर हर कमज़ोरी और ऐब से पाक है और सबसे बेनियाज़ (निस्पृह) है।
सृष्टि और उसकी तमाम चीज़ों की पैदाइश, उसकी व्यवस्था, उसके पालन-पोषण, निगरानी और सुरक्षा में किसी की साझेदारी का कोई सुबूत और दलील नहीं है मौलाना सैयद जलालुद्दीन उमरी कहते हैं –
"खुदा के एक होने की दलील यह है कि इस कायनात (ब्रह्माण्ड) में उसी का इरादा पूरा हो रहा है। जिस तरफ़ देखो, उसी का हुक्म चलता है। ज़मीन, आसमान, चाँद, सूरज, दिन और रात हर चीज़ पर उसी की सत्ता है और किसी में उसकी नाफ़रमानी की ताकत नहीं है। लेकिन अगर किसी का विचार है कि सृष्टि के बहुत-से ख़ुदा हैं, तो आख़िर सृष्टि के किस हिस्से में उनका शासन चलता है और कौन-सी चीज उनके आदेशों के अधीन है? और वह शासन और सत्ता हमें नजर क्यों नहीं आती।" (ख़ुदा और रसूल का तसव्वुर, पृ॰ 258)
शिर्क यानी बहुदेववाद अस्ल में बाप-दादा के रास्ते पर आँखें बन्द करके चलने का नाम है। क़ुरआन में बताया गया है –
"अतः (ऐ नबी!) जिनको ये पूज रहे हैं, उनके विषय में तुझे कोई सन्देह न हो। ये तो बस उसी तरह पूजा किए जा रहे हैं, जिस तरह इससे पहले इनके बाप-दादा पूजा करते रहे हैं।" (क़ुरआन, सूरा-11 हूद, आयत-109)
"और उन लोगों ने ईश्वर के कुछ साझीदार ठहरा लिए, ताकि वे उन्हें ईश्वर के रास्ते से भटका दें। उनसे कहो: कर लो कुछ मज़े, आखिरकार तुम्हें पलटकर जाना जहन्नम (नरक) में ही है।" (क़ुरआन, सूरा-14 इबराहीम, आयत-30)
यह बहुदेववाद (शिर्क) का कितना भयंकर अंजाम है! मौलाना बहुदेववाद (शिर्क) के बारे में आगे कहते हैं –
अगर यहाँ बहुत-से खुदा होते तो इसका सुबूत हमें टकराव के रूप में मिलना चाहिए था। एक खुदा की मर्जी दूसरे खुदा की मर्जी से टकराती, एक खुदा जो काम करना चाहता, दूसरा उसकी राह में रुकावट पैदा करता, क्योंकि ऐसी कोई स्थिति नहीं है कि सृष्टि पर इच्छा और अधिकार रखनेवाले खुदाओं की सत्ता हो और उनमें मतभेद और टकराव न पाया जाए। खुदा वह है जिसकी मर्जी इस सृष्टि में पूरी हो और अगर उसकी मर्जी पूरी नहीं होती है, तो इसका मतलब यह है कि वह खुदा नहीं है। सृष्टि के बहुत-से-ख़ुदा हैं तो उनके अलग-अलग और परस्पर विरोधी इरादे एक ही समय में यहाँ पूरे होने चाहिए थे, जिसका नतीजा निश्चित रूप से बिगाड़ और फ़साद के रूप में सामने आता। लेकिन स्थिति यह नहीं है, बल्कि सृष्टि में हर तरफ़ व्यवस्था सम्बन्धी शान्ति और समरूपता पाई जाती है। सृष्टि में टकराव और विरोध का न होना क़ुरआन की दृष्टि में स्पष्ट रूप से खुदा के एक होने की दलील है। क़ुरआन में बताया गया है –
“न तो खुदा की कोई औलाद है और न कोई दूसरा ख़ुदा यहाँ मौजूद है। अगर ऐसा होता तो हर खुदा अपनी सृष्टि (मख़लूक़) के साथ अलग-अलग दुनिया बसा लेते और वे एक-दूसरे पर चढ़ दौड़ते। अल्लाह उनकी बातों से पाक है।" (क़ुरआन, सूरा-23 मोमिनून, आयत-91)
इन वाक्यों में (कि ख़ुदा उनके शिर्क से बुलन्द व पाक है) उस सच्चाई की तरफ़ इशारा है कि इनसान शिर्क यानी बहुदेववाद से उसी समय बच सकता है, जबकि वह खुदा की अत्यन्त ऊंची धारणा रखता हो। इसलिए जो लोग इस कायनात में अनगिनत खुदाओं की खुदाई को मानते हैं, उनके मन में अस्ल में खुदाई की बहुत ही गिरी हुई और घटिया धारणा होती है। (वही, पृ॰ 260)
बहुदेववाद (शिर्क) के सम्बन्ध में कुछ सवाल
लोगों में बहुदेववाद की शुरुआत इस तरह हुई थी कि नेक लोगों के प्रति प्रेम और श्रद्धा में बहुत आगे बढ़ जाने की वजह से पहले उनकी प्रतिमा बनाई गई, ताकि उनको याद रखा जाए, लेकिन बाद की पीढ़ियों में उनकी पूजा और उपासना होने लगी। फिर उन नेक हस्तियों को विधिवत रूप से खुदाई में शामिल कर दिया गया। हालांकि उन्होंने कभी यह नहीं कहा था कि वे खुदाई में साझीदार हैं या ईश्वर ने अपनी कुछ शक्तियों और अधिकारों को उनकी तरफ़ हस्तान्तरित किया है। खुद उन हस्तियों ने अपनी ज़िन्दगी में एक ख़ुदा की पूरी तरह बन्दगी और आज्ञापालन किया था। लेकिन लोगों ने उन हस्तियों को (इनसान होने के बावजूद) खुदाई के मक़ाम पर बिठा दिया, जबकि उन महापुरुषों ने हमेशा खुद को अल्लाह के बन्दो में गिना। गौर करने की बात यह है कि वे अल्लाह की रचना और बन्दे होते हुए खुदाई में कैसे साझी हो सकते हैं?
जो इनसान अपनी पैदाइश से पहले माँ के पेट में नौ महीने रहा हो, बच्चा बनकर पैदा हुआ हो, नौजवानी और बुढ़ापे की मंज़िलों से गुज़रकर या जवानी ही में उसकी मौत हो गई हो, वह अपनी ज़िन्दगी में दुख सहता रहा हो, बीमारी, खुशी, गुम और हादसों से उसका सामना होता रहा हो, जाहिर है कि इन सभी परिस्थितियों पर वह अपना कोई अधिकार नहीं रखता था, बल्कि अधिकारहीन था। इन सब कमज़ोरियों के बावजूद वह ख़ुदा या ख़ुदाई में साझी कैसे बन गया? वह खुदा या खुदाई में साझी होता तो कम-से-कम अपनी मौत को टाल सकता था।
(1) क्या ईश्वर ने कहीं यह बताया है कि अपनी मदद और सृष्टि की व्यवस्था के लिए उसने सहायक खुदा नियुक्त कर रखे हैं? इसी तरह क्या उसने यह बताया है कि उसने फुलाँ-फुलाँ अधिकार अपने मददगार खुदाओं को सौंपे हैं। ये बातें किस धार्मिक किताब में लिखी हुई हैं? और उनकी दलील क्या है?
(2) कुछ लोगों की दलील यह है कि आम इनसान खुदा की सही तरीक़े से इबादत नहीं कर सकते या उसकी कल्पना उनके लिए दुर्लभ है। इसी लिए उसकी मूर्ति या किसी और तस्वीर वगैरा के रूप में उसकी पूजा और उपासना की जाती है। इस दलील पर गौर करने की ज़रूरत है। खुदा की जो भी मूर्ति प्रतिमा तस्वीर या कोई और रूप की कल्पना कर ली गई है आम तौर पर वह इनसानों या जानवरों की तरह है। तो क्या ख़ुदा इनसान या जानवर है? इस सिलसिले में बुनियादी सवाल यह भी है कि क्या ख़ुदा ने ऐसा करने का हुक्म भी दिया है? कहाँ दिया है? उसकी दलील या सुबूत क्या है? क्या खुदा इस बात को गवारा कर सकता है कि अपनी पूजा, उपासना और इबादत का तरीक़ा तो इनसानों को न बताए, लेकिन इतनी सख़्त आज़माइश में उन्हें डाल दे कि इनसान ये सारे तरीके ख़ुद ही मालूम करे और जिस तरह चाहे वैसे उसकी इबादत, उपासना और पूजा कर ले। फिर केवल इबादत, उपासना और पूजा काफ़ी नहीं, बल्कि इनसान का अपनी व्यक्तिगत और सामूहिक ज़िन्दगी में खुदा के आदेशों पर अमल करना भी ज़रूरी है और पूरी ज़िन्दगी को उसकी पूर्ण इच्छा के अधीन कर देना अनिवार्य है और सचमुच इबादत का सही अभिप्राय यही है, जिसके लिए इनसान को पैदा किया गया।
एक अहम रहनुमाई क़ुरआन में यह की गई है कि दुनिया का हर इनसान अल्लाह पर ईमान लाकर (बीच में किसी माध्यम को लाए बिना) उसकी इबादत और उपासना कर सकता है और उससे दुआएँ माँग सकता है। अल्लाह उसकी इबादत और दुआओं को जानता है और उन्हें क़बूल भी करता है।
(3) एक खुदा के सिवा जिनको भी खुदा मानकर या खुदाई में साझी ठहराकर उनकी इबादत और पूजा की जा रही है, उन साझीदारों के रूप मर्द या औरत दोनों की तरह मान लिए गए। क्या खुदा इनसान की तरह मर्द या औरत जैसे शरीर या अंग रखता है? फिर अन्याय की हद यह कि उन सहायक खुदाओं की तरफ़ तमाम इनसानी कमजोरियाँ भी जोड़ दी गई हैं। इस सिलसिले में बहुत-सी शर्मनाक दास्तानें बयान की जाती हैं। इन तमाम कमजोरियों के साथ ये साझीदार या इनसानों के बनाए हुए ख़ुदा क्या हमारे लिए आइडियल और नमूना हो सकते हैं ? उनकी पैरवी कैसे की जा सकती है?
(4) पूरी दुनिया में बहुदेववादियों ने खुदा और उसके साझीदारों के अलग-अलग नाम रखे हैं और उनकी तरह-तरह की दास्तानें बना ली हैं। ये विवरण भी एक-दूसरे से बिलकुल भिन्न हैं। उदाहरण के रूप में भारत, चीन, यूनान, रूम, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया वगैरा में बहुदेववादी धारणाएँ बिलकुल अलग-अलग हैं। इनसानों के उपासकों की हस्ती और विशेषताएँ दुनिया के तमाम बहुदेववादियों की नज़र में एक समान नहीं हैं। सबकी यहाँ अलग-अलग विचार हैं, जो परस्पर भिन्न हैं। तो सवाल यह है कि आखिर इन सबके बीच वास्तविक खुदा और उपास्य किसे कहा जाए? खुदा तो वह हो सकता है जो वास्तव में सारी सृष्टि और समस्त रचनाओं का अकेला ही स्रष्टा और उपास्य है। दुनिया के विभिन्न देशों में उसका नाम वहाँ की भाषा में लिया जाएगा, लेकिन वह वास्तव में एक ही हस्ती है और उसकी विशेषताएँ और गुण एक समान हैं।
(5) सामान्य परिस्थितियों में बहुदेववादी दुनिया में अपनी धारणा के अनुसार बनाए हुए बहुत सारे खुदाओं को मानकर उनकी पूजा और उपासना में लगे रहते हैं, लेकिन बड़ी मुसीबतों और विपदा के मौकों पर वे उन सबको भूलकर एक अस्ली और वास्तविक खुदा को मदद के लिए पुकारते हैं। इसका साफ़ मतलब यह है कि हर इनसान की प्रकृति एकेश्वरवाद पर क़ायम है। उसकी आत्मा की गहराइयों में एक वास्तविक खुदा और सच्चे उपास्य की धारणा बैठी हुई है। उसी से मदद चाहना, अपनी मुश्किलों और परेशानियों में उसी को पुकारना, उसी की ओर से अपनी हालतों की बेहतरी की उम्मीद रखना और उसी से आशा और उम्मीदें लगाए रखना, ये इनसान की प्रकृति की माँग है। इसके विपरीत खुदा के ऐसे साझी ठहराना, जिनकी उसने कोई ख़बर नहीं दी है और उनको पुकारना, उनसे दुआएँ माँगना वगैरा अप्राकृतिक और अबौद्धिक काम है। सब एक मरुमरीचिका की तरह है, जिसका कोई आदमी पानी की तलाश में पीछा करे, मगर उस जगह पहुँचे तो एक बूंद पानी न मिले।
(6) दुनिया भर के बहुदेववादी अपनी-अपनी धारणाओं के अनुसार काल्पनिक खुदाओं को मानकर उनकी पूजा और उपासना करते हैं, मगर एक मुद्दत गुज़र जाने के बाद उनको छोड़कर दूसरे खुदा बना लेते हैं और उनकी पूजा और उपासना करने लगते हैं। क्या इस तरह खुदा निर्धारित करने और एक अवधि के बाद उनको खुदाई के मक़ाम से हटाकर उनकी जगह दूसरे ख़ुदाओं को निर्धारित करने का अधिकार इनसानों को हासिल है! जबकि सच्चाई यह है कि जिनको खुदा मानकर पूजा और उपासना की जाती है, फिर उनको भुलाकर दूसरे खुदाओं की इबादत होने लगती है। सचमुच उनमें कोई भी ख़ुदा नहीं है। एक और पहलू गौर करने लायक़ है कि बहुदेववादी धारणा में खुदा से सम्बन्ध केवल पूजा और उपासना की हद तक ही रहता। इस सीमित क्षेत्र के बाद पूरी ज़िन्दगी में इनसान खुदा का बागी और नाफ़रमान हो जाता है। यानी इनसान की पूरी ज़िन्दगी के लिए हिदायत देने, कामयाबी हासिल करने और आख़िरत में मुक्ति पाने के सिलसिले में ये ख़ुदा कोई रहनुमाई नहीं करते।
वेदों में बहुदेववाद की मनाही
हिन्दू धर्म की बुनियाद वेदों पर है, हालांकि उनमें कहीं भी हिन्दू धर्म का शब्द नहीं आया है। चार वेद मशहूर है-ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद।
इनमें ऋग्वेद सबसे प्राचीन है। वेदों की अस्ली शिक्षा एक ख़ुदा को मानने, उसी की पूजा और उपासना और पूरी तरह बन्दगी करने और उसकी नाफ़रमानी से बचकर ज़िन्दगी बसर करने की थी। ईश्वर को छोड़कर किसी दूसरी ज़िन्दा या मुर्दा हस्ती और चीज़, जैसे सूरज, चाँद, सितारे, पेड़, पत्थर वगैरा को किसी भी रूप या फॉर्म में पूजने से वेदों में सख्ती से मना किया गया है। वेदों की निम्नलिखित शिक्षाओं पर गौर कीजिए –
स पर्यागाच्छुक्रमकायम् (यजुर्वेद 40:8)
"वह (ब्रह्म) शीघ्रकारी, सर्वशक्तिमान, स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर से रहित और सब ओर से व्याप्त है।”
ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदुः। यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत् तद् विदुस्ते इमे समासते।। (ऋ॰ 1/164/39)
"परम आकाश के समान व्यापक और ऋचाओं के अक्षर के समान अविनाशी परमात्मा है, जिसमें सम्पूर्ण देवगण स्थित हैं। जो उस परम ब्रह्म को नहीं जानता, वह इन वेद मंत्रों से क्या करेगा। जो उस परमतत्व को जानते हैं, वे ये विद्वान उत्तम स्थान में बैठते हैं।"
ईशा वास्यमिदर्थ सर्व यत्किं च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।। (यजुर्वेद 40:1)
“हे मनुष्य! जो कुछ इस संसार में जगत् है उस सब में व्याप्त होकर नियन्ता है वह ईश्वर कहता है। उससे डर कर तू अन्याय से किसी के धन की आकांक्षा मत कर। उस अन्याय के त्याग और न्यायाचरणरूप धर्म से अपने आत्मा से आनंद को भोग।"
इस श्लोक में साफ़ तौर पर इनसानों को एक ईश्वर के मानने और उससे डर कर जीवन व्यतीत करने और अन्याय से बचने का आदेश दिया गया है और बताया गया है कि इसी नीति पर चलकर सच्चा सुख प्राप्त हो सकता है।
अहमिन्द्रो न परा जिग्य इद्धनं न मृत्यवेऽव तस्थे कदा चन। सोममिन्मा सुवन्तो याचता वसु न मे पूरवः सख्ये रिपाथन । (ऋ॰ 10/48/5)
"मैं परमैश्वर्यवान सूर्य के सदृश जगत् का प्रकाशक हूँ। कभी पराजय को प्राप्त नहीं होता और न कभी मृत्यु को प्राप्त होता हूँ। मैं ही जगत् रूप धन का निर्माता हूँ। सब जगत् की उत्पत्ति करनेवाले मुझ ही को जानो। हे जीवो! ऐश्वर्य प्राप्ति के यत्न करते हुए तुम लोग विज्ञानादि धन को मुझ माँगो और तुम लोग मेरी मित्रता से अलग मत होओ।" (उपर्युक्त
अहं दां गृणते पू्य वस्वहं ब्रह्म कृणवं मह्यं वर्धनम् ।
अहं भुवं यजमानस्य चोदिताऽयज्वनः साक्षि विश्वस्मिन् भरे। (ऋग्वेद 10/49/1)
"हे मनुष्यो! मैं सत्य भाषणरूप स्तूति करनेवाले मनुष्य को सनातन ज्ञानादि धन को देता हूँ। मैं ब्रह्म अर्थात् वेद का प्रकाश करनेहारा और मुझको वह वेद यथावत कहता उससे सबके ज्ञान को मैं बढ़ाता, मैं सत्यपुरुष का प्रेरक यज्ञ करनेहार को फलप्रदाता और इस विश्व में जो कुछ है उस सब कार्य का बनाने और धारण करनेवाला हूँ। इसलिए तुम लोग मुझको छोड़ किसी दूसरे को मेरे स्थान में मत पूजो, मत मानो और मत जानो।
अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽसंभूतिमुपासते। ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्याध रताः।। (यजुर्वेद 40:9)
"जो असंभूति अर्थात् अनुत्पन्न अनादि प्रकृति कारण की ब्रह्म के स्थान में उपासना करते हैं वे अन्धकार अर्थात् अज्ञान और दुःख सागर में डूबते हैं। और संभूति जो कारण से उत्पन्न हुए कार्यरूप पृथ्वी आदि भूत, पाषाण और वृक्षादि अवयव और मनुष्यादि के शरीर की उपासना ब्रह्म के स्थान में करते हैं वे उस अन्धकार से भी अधिक अन्धकार अर्थात् महामूर्ख चिरकाल योर दुःख रूप नरक में गिरके महाक्लेश भोगते हैं।" (सत्यार्थ प्रकाश अध्याय 11, पृष्ठ 223 प्रकाशक: आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट दिल्ली-6)
यहाँ भी हम देखते हैं कि एक परमेश्वर को छोड़कर किसी अन्य की
उपासना करनेवाले को वेद में नरक की यातना की सूचना दी गई है।
न तस्य प्रतिमा अस्ति। (यजु. 32/3)
"उस परमेश्वर की प्रतिमा नहीं है।" (उपर्युक्त)
यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षु...पि पश्यति।
तदेव ब्रहमत्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।
(केनोपनिषद् 1:6)
“जिसे चक्षु (आँख) के द्वारा नहीं देखा जा सकता, अपितु चक्षु (आँख) जिसकी महिमा से दखने में सक्षम होता है, उसे ही तुम ब्रह्म जानो। चक्षु (आँख) के द्वारा द्रष्टव्य (दिखनेवाले) जिस तत्व की लोग उपासना करते हैं, वह ब्रह्म नहीं है।” [अनुवाद-पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य, शान्तिकुंज, हरिद्वार, (यू.पी.)]
हम देखते हैं कि उपर्युक्त श्लोकों में एक ईश्वर ही को मानने की शिक्षा दी गई है और अनेकेश्वरवाद और मूर्तिपूजा से स्पष्ट रूप से रोका गया है और इसपर यातना से भी डराया गया है। इस प्रकार की शिक्षाएँ वेदों में बहुतायत से मौजूद हैं।
हिन्दू समाज के एक बड़े सुधारक और विद्वान स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने भी अनेकेश्वरवाद और मूर्तिपूजा की भीषण हानियों और अति भयानक परिणाम से लोगों को सावधान किया है। और इन कमों को समाज और स्वयं इनसानों के लिए घातक बताया है।
कुरआन पर ईमान लाना ज़रूरी है
क्या क़ुरआन के अलावा दूसरी धार्मिक किताबों, जैसे वेदों या बाइबल को मानकर ज़िन्दगी बसर करना सांसारिक कल्याण और पारलौकिक मुक्ति के लिए काफ़ी? इस अहम सवाल पर भावनाओं और पहले से प्रचलित विचारों से ऊपर उठकर ठण्डे दिल और दिमाग से सोचने-समझने की ज़रूरत है। इसी सोच-विचार के नतीजे में सत्य की तलाश में कामयाबी नसीब होगी। कुछ विद्वानों और धर्म गुरुओं का विचार है कि क़ुरआन से पहले की धार्मिक किताबें अपने मौजूदा रूप में खुदा के कलाम (ईश-वाणी) ही की हैसियत रखती हैं। उनमें क़ुरआन ही की तरह एक ख़ुदा को मानने और उसकी दी हुई शिक्षाओं पर चलने की दावत दी गई है। इसलिए पिछली धार्मिक किताबों को मानकर उनकी शिक्षाओं पर चलना कामयाबी और मुक्ति के लिए काफ़ी है।
उनका यह भी विचार है कि क़ुरआन पर ईमान लाना, उसकी शिक्षाओं पर चलना, साथ ही आख़िरी पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल॰) पर ईमान लाना कुछ ज़रूरी नहीं। हालांकि जो लोग क़ुरआन को अल्लाह की किताब और मुहम्मद (सल्ल.) को आखिरी पैगम्बर मानकर ज़िन्दगी बसर करते हैं, वे भी सत्य पर हैं और वे भी कामयाब होंगे। यह एक संवेदनशील और महत्वपूर्ण बहस है।
आज दुनिया में जिनको धार्मिक किताबें कहा जाता है, उनमें प्रमुख किताबें हैं: वेद, गीता, बाइबल और क़ुरआन आदि। धार्मिक किताबें और भी हैं, लेकिन उन सबका उल्लेख करना विस्तार का कारण बनेगा इसलिए उनमें से केवल वेद, बाइबल और क़ुरआन पर गौर करना ही अपेक्षाकृत आसान है।
वेदों में सबसे प्राचीन ऋग्वेद है इसके बाद अथर्ववेद, यजुर्वेद, सामवेद हैं। वेदों का निर्माणकाल कम-से-कम तीन हज़ार साल पूर्व का है। कुछ शोधार्थी इससे भी अधिक प्राचीन बताते हैं। बाइबल का निर्माणकाल कम-से-कम दो हज़ार साल पुराना है। एक बात यक़ीनी तौर पर कही जा सकती है कि ये किताबें सुरक्षित नहीं रही हैं। सवाल पैदा होता है कि इनकी अस्ली शिक्षाएँ क्या थीं? क्या वे शिक्षाएँ हर दौर के लिए थीं? आज के दौर में धर्म और इनसानी ज़िन्दगी के बारे में पैदा होनेवाले सवालों का जवाब क्या इन किताबों में मौजूद है? क्या ये किताबें मतभेदों और विरोधाभासों से पाक हैं? जिस किताब या वाणी में मतभेद और विरोधाभास पाया जाए, वह ईश-वाणी या ईश-ग्रंथ नहीं हो सकती। मतभेद और विरोधाभासों के मौजूद होने की स्थिति में इनसान इस मुश्किल से दोचार होता है कि किस बात को माने और किसको न माने।
एक और पहलू से गौर करें कि आज धर्म के हवाले से इनसान को सिर्फ़ आस्था की ज़रूरत नहीं है, बल्कि धर्म ऐसा होना चाहिए जो ज़िन्दगी और ब्रह्माण्ड के बारे में पैदा होनेवाले महत्वपूर्ण सवालों के जवाब उपलब्ध करता हो। उसका दृष्टिकोण बुद्धि और स्वभाव को अपील करे और इनसान के अपने अस्तित्व और उसके बाहर फैली हुई कहानियों के अनुसार हो। इसी के साथ यह ज़रूरी है कि धर्म, व्यक्ति, परिवार और समाज को बनाने-सँवारने का काम करे और पूर्ण मार्गदर्शन की ज़रूरत को पूरा करनेवाला हो, यानी धर्म को अस्ल में एक पूर्ण जीवन-व्यवस्था (System of Life) और आचार -संहिता (Code of Conduct) होना चाहिए।
सभी धार्मिक किताबों का सम्मान करते हुए यह बात लिखनी ज़रूरी है कि वेद और बाइबल दोनों इस बारे में एक ही पोज़ीशन रखते हैं। यानी उनमें कोई जीवन-व्यवस्था और पूर्ण जीवन-विधान (शरीअत) नहीं पाया जाता। इसी लिए अनुमान लगाया जा सकता है कि वेदों और बाइबल की शिक्षा एक ख़ास ज़माने के लिए थी सम्भव है कि ये किताबें खुदाई हिदायतनामे (ईश-मार्गदर्शन) पर आधारित रही हों। लेकिन आज वे परिवर्तनों, मतभेदों और विरोधाभासों के कारण मानव-जीवन का मार्गदर्शन करने में असमर्थ हैं। विश्वव्यापी और शाश्वत मार्गदर्शन का सामान उनमें नहीं मिलता और एक पूर्ण जीवन-व्यवस्था का नक्शा नहीं पाया जाता। हाँ, कुछ नैतिक शिक्षाएँ मिलती हैं। इसलिए उन किताबों का सम्मान करना चाहिए, लेकिन क़ुरआन के बाद वे किताबें निरस्त हैं। ज़िन्दगी की हिदायत और रहनुमाई का सामान, ज़िन्दगी की समस्याओं का हल और पारलौकिक मुक्ति का रास्ता सिर्फ क़ुरआन में मिलेगा।
एक महत्वपूर्ण सच्चाई यह है कि क़ुरआन मजीद को मानने में पिछली धार्मिक किताबों को मानना शामिल है। इसी तरह क़ुरआन मजीद के इनकार का मतलब यह होगा कि पिछली धार्मिक किताबों को न माना जाए। बाइबल में Old Testament और New Testament दोनों शामिल हैं, इनमें कोई पूर्ण जीवन-विधान (शरीअत) नहीं पाया जाता, क्योंकि मौजूदा ईसाई धर्म के संस्थापक सेंट पॉल ने शरीअत को निरस्त ठहरा दिया था। इसलिए ज़िन्दगी बसर करने के लिए ईश्वरीय आदेशों की बुनियाद ही ख़त्म हो गई आज दुनिया में सत्तर से कुछ अधिक अलग-अलग बाइबल के नुस्खे पाए जाते हैं, जिनको विभिन्न मसीही संप्रदाय अस्ली बाइबल मानते हैं और दूसरी बाइबल का इनकार करते हैं। क़ुरआन के अलावा अधिकतर धार्मिक किताबों में संन्यास, एकाकी और ब्रह्मचर्य-जीवन बसर करने को आदर्श कहा गया है। ज़ाहिर है कि अगर सभी लोग संन्यास ग्रहण कर लें, संन्यासी हो जाएँ तो परिवार, समाज और सभ्यता-संस्कृति की ज़रूरत नहीं रहेंगी। दूसरी तरफ़ कुछ धार्मिक विचारों में प्रबल भौतिकवाद और सांसारिकता का रुझान भी मिलता है। इसलिए इस स्थिति में सच्ची ईश्वर-भक्ति की गुंजाइश कहाँ बाक़ी रह सकती है?
क़ुरआन के बारे में गौर करें, आज 1450 साल पहले मुहम्मद (सल्ल.) पर अरब के शहर मक्का में क़ुरआन का अवतरण आरम्भ हुआ। तेईस सालों में थोड़ा-थोड़ा करके इसका अवतरण पूर्ण हुआ। मुहम्मद (सल्ल.) ने अन्तिम ईश-वाणी की हैसियत से इसको पेश किया आप (सल्ल.) की ज़िन्दगी में ही इसका संकलन पूरा हुआ। क़ुरआन मजीद अपने-आपको ईश-वाणी की हैसियत से पेश करता है। यह एलान कि क़ुरआन कोई इनसानी रचना नहीं है, बल्कि इनसानियत के नाम ईश्वर का पैगाम और हिदायतनामा है, क़ुरआन मजीद में बार-बार दोहराया गया है। मुहम्मद (सल्ल.) की कही हुई बातों को या उनके अमल (कर्म और आचरण) को 'हदीस' कहा जाता है। क़ुरआन मजीद प्रामाणिक और सुरक्षित है।
क़ुरआन मजीद पिछली किताबों की पुष्टि करता है। पिछली किताबों में जो सच्चाइयाँ पेश की गई थीं वे गुम होकर रह गई और मनमाने बदलाव का शिकार होने के कारण सच्चाई गुम हो गई। इसलिए क़ुरआन मजीद को फुरकान (कसौटी) कहा गया। यानी क़ुरआन मजीद पिछली किताबों की शिक्षाओं को परखने के लिए कसौटी भी है और वह निगराँ (निगरानी करने वाली) भी है। क़ुरआन मजीद आख़िरी किताब होने के कारण सारे इनसानों के लिए है। इस किताब में बार-बार यह बात बताई गई है कि सारे इनसानों की हिदायत और रहनुमाई अब सिर्फ क़ुरआन मजीद के ज़रिए से सम्भव है।
क़ुरआन की एक विशेषता यह है कि इसका अवतरण किसी विशेष जाति, ज़माने या नस्ल के लिए नहीं हुआ है, बल्कि इसमें रहती दुनिया तक सारे इनसानों की हिदायत और रहनुमाई का सामान मौजूद है। इसका केन्द्रीय विषय इनसान है यानी वह इनसान की सफलता और मुक्ति की राह खोलता है। नाकामी और नरक की यातना से बचने के लिए उसकी रहनुमाई करता है। क़ुरआन बुद्धि और स्वभाव को बुनियाद बनाता है अपने व्यक्तित्व से लेकर ब्रह्माण्ड में फैली हुई अनगिनत निशानियों पर सोच-विचार करने के बाद सत्य-सन्देश को स्वीकार करने की दावत देता है। इसकी हर बात दलील की रौशनी में है। वह आँखें बन्द करके अपनी किसी शिक्षा या रहनुमाई को स्वीकार करने के लिए नहीं कहता। बुद्धि से काम लेने और सोच-विचार करने के बाद फैसला करने की शिक्षा देता है। क़ुरआन में कहीं भी कोई मतभेद या विरोधाभास नहीं पाया जाता। इसमें एक मज़बूत और सच्ची आस्था, इबादतों की सुव्यवस्थित और व्यापक व्यवस्था, नैतिकता, चरित्र और ज़िन्दगी के मामलों के बारे में समुचित और सन्तुलित रहनुमाई मिलती है। इतना ही नहीं, बल्कि इनसानी ज़िन्दगी के सामूहिक विभागों, जैसे शिक्षा, संस्कृति-सभ्यता, राजनीति, अर्थव्यवस्था, सामाजिक ज़िन्दगी और जीवन के दूसरे विभागों के बारे में इसमें सर्वव्यापी मार्गदर्शन मौजूद है।
क़ुरआन इंसानी ज़िन्दगी की समस्याओं का हल पेश करता है। क़ुरआन की बुनियाद पर मुहम्मद (सल्ल.) ने व्यक्ति, परिवार समाज और व्यवस्था का निर्माण किया।
अरब में मुहम्मद (सल्ल.) ने एक पूर्ण क्रान्ति पैदा कर दी। सभी बड़ी-छोटी बुराइयों से समाज पाक हो गया। शराब, जुआ, बलात्कार, बच्चियों की अकारण हत्या, चोरी-लूटमार, हत्या और खून-खराबा इत्यादि बुराइयों को आज सभ्य सरकारें करोड़ों-अरबों रुपये खर्च करके और पुलिस, क़ैदखानों और अदालती व्यवस्था करके भी मिटाने में नाकाम हैं। इतना ही नहीं, बल्कि गरीबी, भूख, बीमारी, अज्ञानता और अकाल को पंचवर्षीय योजना बनाकर भी दूर नहीं कर सकी हैं, लेकिन मुहम्मद (सल्ल॰) की क्रान्ति में इन सब बुराइयों की समाप्ति हुई। समाज में सुख-शान्ति, न्याय और इनसानी बराबरी का वातावरण क़ायम हुआ। इनसानियत बाहर आई। इतिहास में इसकी कोई मिसाल नहीं मिलती। खासतौर पर पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल.) ने औरतों, कमज़ोरों और गुलामों का इनसानी मक़ाम ऊँचा किया। उनके अधिकार निर्धारित किए और अधिकारों के हनन पर सबके लिए एक समान क़ानून लागू किए। यह क्रान्ति सिर्फ भौतिक या आर्थिक नहीं थी, बल्कि एक समय में नैतिक, आध्यात्मिक और शैक्षिक और राजनीतिक क्रान्ति थी। यह एक सर्वव्यापी क्रान्ति थी, जिसकी इनसानियत को आज भी बहुत ज़रूरत है। इस क्रान्ति को बरपा करने के लिए पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल॰) के सिद्धांतों और व्यावहारिक नमूने से फ़ायदा उठाने की ज़रूरत है।
अवतारवाद या रिसालत
हमारे देश के गैर-मुस्लिम भाइयों की आस्था 'अवतारवाद' पर है। इसका अर्थ यह बताया जाता है कि जब जमीन में बिगाड़ पैदा होता है और ज़मीन अत्याचार और फ़साद से भर जाती है तो सुधार के लिए ईश्वर खुद ज़मीन पर किसी रूप में प्रकट होता है और बिगाड़, अत्याचार और फ़साद को दूर करके चला जाता है।
विष्णु जी के निम्नलिखित दस अवतार माने गए हैं-
राम, परशुराम, कृष्ण, बलराम, महावीर जैन, गौतम बुद्ध, नरसिंह (आधा नर यानी इनसान आधा सिंह) मछली, कछुआ और सूअर।
कुछ लोगों ने अवतारों की संख्या चौबीस या उससे भी अधिक बताई है। शिव जी के भी अवतार माने गए हैं।
लेकिन कुछ धार्मिक विशेषज्ञों का कहना है कि 'अवतार' का अर्थ खुदा का खुद प्रकट होना नहीं है, बल्कि अवतरित होना है। यानी किसी सन्देश का अवतरित किया जाना या उतरना है। मतलब यह कि शब्द 'अवतार' का अर्थ सन्देश लानेवाले का ज़मीन पर भेजा जाना या अवतरित होना है।
डॉ. एम. ए. श्रीवास्तव लिखते हैं –
"अवतार का यह अर्थ नहीं है कि खुदा खुद ज़मीन पर साक्षात स-शरीर आता है, बल्कि सच्चाई यह है कि वह अपने पैगम्बर (अवतार) भेजता है। उसने इनसानों के कल्याण, मार्गदर्शन और मुक्ति के लिए अवतार या पैगम्बर भेजे। यह सिलसिला मुहम्मद (सल्ल.) पर ख़त्म कर दिया गया। स्वामी विवेकानन्द और गुरु नानक जैसी महान हस्तियों ने भी पैगम्बरी और रिसालत की पुष्टि की है। पंडित सुन्दरलाल, डॉ. वेदप्रकाश उपाध्याय, डॉ. पी. एच. चौबे, डॉ. रमेश प्रसाद गर्ग और पं. दुर्गाशंकर सत्यार्थी जैसे योग्य शोधार्थियों ने अवतार का अर्थ खुदा के ज़रिए से इनसानियत के कल्याण और मुक्ति के लिए अपने पैगम्बर और रसूल भेजना बताया है।" (हज़रत मुहम्मद सल्ल॰ और भारतीय धर्मग्रन्थ, पृ॰-5)
अन्तिम अवतार को 'कल्कि अवतार' या 'नराशंस' कहा गया है।
उल्लेखनीय बात यह कि 'अवतार' की धारणा वेदों में नहीं है। सम्भवतः अवतारवाद हिन्दू धर्म की धारणा नहीं थी। इसे बाहर से लाकर शामिल कर लिया गया हालांकि गीता और पुराणों में अवतारवाद का उल्लेख मौजूद है। अवतारवाद के बारे में निम्नलिखित सवाल पैदा होते हैं
- धार्मिक किताबों, वेदों और विशेषकर क़ुरआन मजीद के अनुसार खुदा सभी इनसानी कमज़ोरियों से पाक है। वह ज़िन्दगी और मौत से परे है। उस जैसा कोई नहीं है और न हो सकता है, लेकिन अवतार की आम लोकप्रिय अवधारणा में सभी कमज़ोरियाँ खुदा की हस्ती में पाई जाती हैं। ज़रा सोचिए कि ब्रह्माण्ड के स्रष्टा की यह कितनी अपमानजनक अवधारणा है कि वह किसी नर का वीर्य बनकर किसी नारी के गर्भ में नौ महीने रहकर बच्चा बनकर पैदा हो। बचपन और जवानी के मरहलों से गुज़रे, फिर इनसानी समाज में अत्याचार और बिगाड़ को खत्म करके और सुधार कार्य को अंजाम देकर मृत्यु की गोद में सो जाए क्या ख़ुदा की महानता इस विचार की अनुमति देती है कि उसका अवतार मछली, सूअर और नरसिंह हो।
- खुदा की जो विशेषताएँ धार्मिक किताबों में बताई गई हैं और ख़ुदा की महानता और शान की जो अवधारणा पाई जाती है, अवतारवाद की अवधारणा उसके बिलकुल ख़िलाफ़ है। यह पहलू भी विचारणीय है कि खुदा खुद आकर सब काम करके चला जाता है, तो वह इनसान के लिए कोई नमूना नहीं हो सकता। इनसानों के लिए तो इनसान ही नमूना और मॉडल बन सकते हैं। इस सिलसिले में वेदों पर गौर करें तो मालूम होता है कि इनसानों की हिदायत के लिए नराशंस के आने की भविष्यवाणियाँ मौजूद हैं। वेदों में सबसे पुराना ऋग्वेद है। सबसे आखिर में अथर्ववेद है। पंडित वेदप्रकाश उपाध्याय ने वेदों के हवाले देकर साबित किया है कि 'नराशंस' और 'अन्तिम ऋषि' की यह भविष्यवाणी मुहम्मद (सल्ल.) के सम्बन्ध में है। वेदों में 'मुहम्मद' और 'अहमद' दो नाम आए हैं। नराशंस की विशेषताएँ जो वेदों में बताई गई हैं, वे मात्र मुहम्मद (सल्ल.) पर पूरी उतरती हैं।
इसी तरह पुराणों और उपनिषदों में अन्तिम अवतार का उल्लेख 'कल्कि अवतार' के नाम से मिलता है।
कल्कि अवतार की जो विशेषताएँ और निशानियाँ बताई गई हैं वे सिर्फ मुहम्मद (सल्ल.) पर चरितार्थ होती है। पुराणों में विशेषकर भविष्य पुराण और भगवत पुराण में कल्कि अवतार के रूप में हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के आगमन की भविष्यवाणियाँ मौजूद हैं।
(देखें, डॉ. वेदप्रकाश उपाध्याय की पुस्तकें 'नराशंस और अन्तिम ऋषि' और कल्कि अवतार और मुहम्मद साहब)
प्रबल सम्भावना है कि अतीत के विभिन्न कालखण्डों में भारत में पैगम्बर और नबी आए होंगे, जिन्होंने ईश्वर का पैगाम पेश किया होगा। अवतार और ऋषि जिन महापुरुषों को कहा जाता है वे अस्ल में पैगम्बर और नबी रहे होंगे। पैगंबर और नबियों के भारत में आगमन को स्वीकार नहीं किया जाए तो इन धार्मिक किताबों में मुहम्मद (सल्ल.) के आगमन की भविष्यवाणियों की क्या व्याख्या की जाएगी। यह एक कड़वा सच है कि कुछ होशियार लोगों ने पैगम्बरों और नबियों की शिक्षाओं को छिपाया, अपने विशेष गरोह के अलावा किसी को उन शिक्षाओं का पता नहीं दिया। कुछ निरपेक्ष शोधार्थियों ने संस्कृत सीखकर और वेदों और दूसरी किताबों का अध्ययन करके दुनिया को उनसे परिचित कराया। उनकी शिक्षाओं से बहुदेववाद, आवागमन (पुनर्जन्म) और अवतारवाद की लोकप्रिय व्याख्या की इमारत ढह जाती है।
मुसलमानों ने भारत में अपने आगमन के बाद अपने दीर्घ शासनकाल में देशवासियों के धर्म के बारे में जानने की पूरी कोशिश नहीं की संस्कृत भाषा सीखकर धार्मिक किताबों का गहरा अध्ययन किया जाता और मुहम्मद (सल्ल.) के आगमन की भविष्यवाणियों पर शोध किया जाता तो देशवासियों की बड़ी संख्या इन सच्चाइयों से परिचित होकर सत्य-धर्म से क़रीब हो जाती।
अवतारवाद की प्रचलित व्याख्या के विपरीत इस्लाम ने जो अवधारणा पेश की है, उसे रिसालत की अवधारणा कहते हैं। यह बात स्पष्ट है कि इनसान सिर्फ रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और इलाज इत्यादि का मुहताज नहीं है, बल्कि वह अपने लिए हिदायत और मार्गदर्शन का (जो एक पूर्ण जीवन-व्यवस्था के रूप में हो) इन सबसे बढ़कर मुहताज है। सवाल यह है कि हिदायत और मार्गदर्शन कहाँ से आए? कौन हिदायत दे, क्योंकि रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, इलाज जैसी ज़रूरतों की पूर्ति के लिए तो एक हद तक बुद्धि, अनुभव और इनसान की योग्यताएँ भी काफ़ी हैं, लेकिन ज्ञान के साधन-संसाधन हिदायत और मार्गदर्शक और जीवन-व्यवस्था भी दे सकते हैं? इसका जवाब नहीं में है। इनसान ने अपनी बुद्धि, अनुभवों और पिछले इतिहास से फ़ायदा उठाकर जितने दृष्टिकोण, दर्शनशास्त्र और धर्म बनाए वे सब नाकाम हो गए।
ईश्वर स्रष्टा, मालिक और पालनहार ही नहीं, बल्कि वह बेहतरीन हिदायत देने वाले और मार्गदर्शन करने वाला भी है। उसने इंसान को प्रतिनिधि, खलीफ़ा और सर्वश्रेष्ठ प्राणी बनाया उसे वह अपनी दयालुता प्रदान करता है। उसकी विशेषता इनसाफ़ और हुकूमत और ईश्वरत्व से अपेक्षित है कि वह अपने बन्दों को हिदायत और मार्गदर्शन दे। इसलिए ईश्वर ने आदम (अलैहिस्सलाम), जो पहले इनसान और पहले पैगम्बर थे और उनकी नस्ल को आरम्भ से ही हिदायत और मार्गदर्शन प्रदान की।
समय गुज़रने के साथ इनसानी आबादी फैलती गई तो ईश्वर ने विभिन्न क़ौमों की हिदायत और मार्गदर्शन के लिए अपने चुने हुए बन्दों को अपना रसूल (ईशदूत) बनाया उनको नबी और पैगम्बर कहते हैं। इस सिलसिले को रिसालत या नुबूवत का सिलसिला कहा जाता है। मशहूर रिवायत अगर सही हो तो मुहम्मद (सल्ल.) का समय आने तक लगभग एक लाख चौलीस हज़ार पैगम्बर और नबी दुनिया में आ चुके थे। आप (सल्ल.) के ज़माने में संचार-माध्यम और यातायात के साधनों में इतनी तरक्की हो चुकी थी कि एक विश्वव्यापी समाज अस्तित्व में आ गया था इसी लिए अब अलग-अलग क़ौमों के लिए नबियों और पैगम्बरों को भेजने के बजाय एक ही पैगम्बर का सारे इनसानों के लिए नियुक्त किया जाना काफ़ी था। मुहम्मद (सल्ल.) और उनपर अवतरित की हुई किताब क़ुरआन मजीद केवल अरब क़ौम के लिए नहीं, बल्कि सारे इनसानों के लिए है।
मुहम्मद (सल्ल.) को इनसानों की हिदायत और मार्गदर्शन का अन्तिम, सर्वव्यापी और पूर्ण एडिशन इस्लाम धर्म के नाम से प्रदान किया गया आप (सल्ल.) इतिहास की पूरी रोशनी में तशरीफ़ लाए। आप (सल्ल.) की जीवनी और कथन सुरक्षित हैं, जो किताब आप (सल्ल॰) पर 23 वर्षो में थोड़ी-थोड़ी करके ईश्वर की ओर से अवतरित हुई थी, वह पूरी तरह सुरक्षित है। क़ुरआन मजीद का संकलन आप (सल्ल॰) की ज़िन्दगी में पूरा हो चुका था। इस कारण अब किसी नए पैगम्बर या नबी और नई किताब की कोई ज़रूरत इनसानों की हिदायत के लिए बाक़ी नहीं रही।
नराशंस और कल्कि अवतार
विभिन्न धार्मिक किताबों में मुहम्मद (सल्ल॰) के आगमन की भविष्य वाणियाँ मौजूद हैं। आप (सल्ल.) के हुलिए के बारे में साफ़ और स्पष्ट निशानियों का उल्लेख है। कुछ ऐसी निशानियाँ भी बताई गई हैं, जो सिर्फ मुहम्मद (सल्ल.) पर चरितार्थ होती हैं। आप (सल्ल.) के सिवा कोई दूसरी हस्ती इन भविष्यवाणियों और निशानियों को धारण नहीं करती है।
दुनिया में हमेशा यह होता रहा है कि पिछले पैगम्बरों की शिक्षाएँ मिटा दी गई और उनकी किताबों इतने बदलाव हो गए कि आज उनकी अस्ली शिक्षाओं का पता लगाना सम्भव नहीं रहा उन किताबों में मनमानी बढ़ोत्तरी की गई और बहुत-सी शिक्षाओं को निरस्त कर दिया गया। कभी- कभी इनसानी व्याख्याओं को ईश-वाणी में इस तरह मिला दिया गया कि मिलावट के नतीजे में ईश्वर की वाणी विकृत होकर रह गई। इन सबके बावजूद वेदों में (जो प्राचीनतम् धर्म-ग्रंथ समझे जाते मुहम्मद (सल्ल.) का उल्लेख पाया जाता है। वेदों के अलावा तौरात, इंजील और साथ ही बुद्धमत और जैनमत के धर्म-ग्रंथों में ये भविष्यवाणियाँ पाई जाती हैं। पुराणों में मुहम्मद (सल्ल.) का कल्कि अवतार के नाम से उल्लेख हुआ है। इस सिलसिले में कुछ हिन्दू विद्वानों ने अपने लेखनों में प्रमाण के साथ साबित किया है कि जिस महान हस्ती के आगमन के सम्बन्ध में ये भविष्यवाणियाँ और निशानियाँ अंकित हैं, वे सिर्फ़ मुहम्मद (सल्ल.) हैं। वेदों में आप (सल्ल॰) को नराशंस कहा गया है। मुहम्मद और अहमद, जो आप (सल्ल.) के दो नाम हैं, विधिवत अंकित हैं। नराशंस संस्कृत शब्द है। यह दो शब्दों का योग है 'नर' और 'आशंस'। नर का अर्थ इनसान होता है और आशंस का अर्थ है जिसकी प्रशंसा की गई हो। नराशंस के बारे में चारों वेदों में 31 स्थानों पर उल्लेख किया गया है।
पंडित वेदप्रकाश उपाध्याय अपनी किताब 'नराशंस और अन्तिम ऋषि' में कहते हैं –
"हमें एक ऐसे व्यक्ति को प्रमाणित करना है, जो मनुष्य भी हो, और वह यह प्रशासित भी हो। मुहम्मद साहब मनुष्य भी थे, इसलिए उनमें नरत्व और आशंसल्व दोनों गुण घटित हो जाते हैं। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि नराशंस शब्द अरबी में मोहम्मद शब्द से अभिहित व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हुआ है।" (पृष्ठ-14)
अथर्ववेद में मुहम्मद (सल्ल.) के स्थान का स्पष्टीकरण निम्नलिखित शब्दों में किया गया है –
इससे स्पष्ट होता है कि मुहम्मद (सल्ल॰) जिस इलाके में आएँगे, वहाँ ऊँट सवारी के लिए इस्तेमाल किए जाते होंगे। इसलिए यह सत्य है कि मुहम्मद (सल्ल.) का इलाक़ा रेगिस्तानी था और सवारी के लिए आप (सल्ल.) ने ऊँट का इस्तेमाल किया है।
डॉ. एम.ए. श्रीवास्तव अपनी किताब हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) और भारतीय धर्म-ग्रंथ (पृ. 30) में आलोपनिषद से निम्नलिखित मंत्र उद्धृत करते हैं ।
"उस देवता का नाम अल्लाह है। वह एक है। मित्र, वरुण इत्यादि उसके गुण हैं। वास्तव में अल्लाह वरुण है, जो सम्पूर्ण सृष्टि का बादशाह है। दोस्तो! उस अल्लाह को अपना उपास्य समझो। ...अल्लाह सबसे बड़ा, सबसे बेहतर, सबसे सर्वाधिक पूर्ण और सर्वाधिक पवित्र है। मुहम्मद अल्लाह के श्रेष्ठतर रसूल हैं। अल्लाह आदि, अन्त और सारे संसार का पालनहार है। सारे अच्छे काम अल्लाह के लिए हैं। वास्तव में अल्लाह ही है, जिसने सूरज, चाँद और तारे पैदा किए हैं।" (1,2,3)
मुहम्मद (सल्ल.) के बारे में और अधिक निशानियों का विवरण निम्नलिखित है – अथर्ववेद के निम्नलिखित इबारत पर ध्यान दें –
"हे जनो-लोगो! नरों (इद्रादि देवों) की प्रशंसा में स्तवन किए जाते हैं, उन्हें सुनो। हे कौरम (कर्मठ-नायक)! हम छः हजार नब्बे रूशमों (वीरों) को पाते या नियुक्त करते
हैं।" (20/127/1)
"बीस ऊँट अपनी वधुओं (शक्तियों) सहित उस (नर) के रथ को खींचते हैं। उस रथ के सिर द्युलोक को स्पर्स करने की इच्छा के साथ चलते हैं। इस (नर श्रेष्ठ ने) मामह ऋषि को सौ स्वर्ण मुद्राओं, दस हारों, तीन सौ अश्वों तथा दस
हज़ार गौओं का दान दिया।" (20/127/2-3)
इन मंत्रों के बारे में पंडित वेदप्रकाश उपाध्याय ने अपनी किताब 'नराशंस और अन्तिम ऋषि' में सिद्ध किया है कि सौ दीनार का मतलब सुफ़्फ़ावाले साथी (रज़ि.), तीन सौ तेरह घोड़ों से तात्पर्य बद्र की लड़ाई के प्यारे साथी (रज़ि.) और दस हज़ार गांवों का मतलब मक्का-विजय की सेना है।
कल्कि अवतार
इस शीर्षक के अन्तर्गत जो बातें नीचे लिखी जा रही हैं, वे डॉ एम. ए. श्रीवास्तव की किताब 'हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) और भारतीय धर्म ग्रंथ' (पृ. 32 से 36) का सारांश हैं। जो पाठक विस्तार से जानना चाहें, उन्हें मूल किताब का अध्ययन करना चाहिए।
अवतार का मतलब इनसानों को ईश्वर का पैगाम पहुँचानेवाले महात्मा का ज़मीन पर पैदा होना है या दूसरे शब्दों में ईश्वर से सम्बन्ध रखनेवाले व्यक्ति का ज़मीन पर भेजा जाना है। ख़ुदा से सबसे ज़्यादा सम्बन्ध रखनेवाला, उसका भक्त या बन्दा ही हो सकता है। प्राचीनकाल में एक अवतार से पूरी दुनिया का सुधार सम्भव नहीं था। इसलिए हर देश या ज़माना के लिए अलग-अलग अवतार हुए हैं। क़ुरआन में है –
"हर क़ौम के लिए एक मार्गदर्शक है।" (क़ुरआन, सूरा-13 रअद, आयत-7)
आख़िरी अवतार कल्कि की विशेषता विशिष्ट है, क्योंकि वह किसी एक भूभाग के लिए नहीं, बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिए भेजे गए हैं। जब लोग सत्य-धर्म से हट या भटककर अधार्मिकता की राह अपना लेते हैं या धर्म को अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए विकृत कर देते हैं तो उन्हें सही रास्ता दिखाने के लिए खुदा अपने अवतार या पैगम्बर भेजता है।
आख़िरी अवतार के आगमन के लक्षण और निशानियाँ
कल्कि के आने के समय के वातावरण का चित्रांकन इस तरह किया गया है कि हर तरफ़ बर्बरता का वर्चस्व होगा, लोगों में हिंसा, अराजकता और विधिहीनता का बोलबाला होगा दूसरों को मारकर उनका माल लूट लिया जाएगा। लड़कियों के पैदा होते ही उन्हें जमीन में गाड़ दिया जाएगा। एक ईश्वर को छोड़कर सैकड़ों खुदाओं की पूजा और उपासना आम होगी।
मुहम्मद (सल्ल.) के आगमन के ज़माने में लोगों ने मूल धर्म को भुला दिया था और एक ख़ुदा की जगह कहीं तीन, कहीं सैकड़ों खुदा बना लिए गए थे। धर्म का मतलब अंधविश्वासों पर विश्वास और मूर्ति-पूजा था। यह बात ध्यान देने योग्य है कि अन्तिम अवतार का ज़माना युद्धों में घोड़ों और तलवारों के इस्तेमाल का ज़माना था तलवारों और घोड़ों का दौर तो अब ख़त्म हो चुका है। अब युद्धों में टैंकों और आधुनिक शास्त्रों का इस्तेमाल होता है। चौदह सौ साल पूर्व तलवार और घोड़े इस्तेमाल किए जाते थे।
कल्कि अवतार का स्थान कल्कि पुराण और भागवत पुराण में सम्भल गाँव बताया गया है। सम्भल गाँव का नाम है या गाँव की विशेषताएँ, यह शोध का विषय है। इसी लिए शोधार्थियों ने बताया है कि सम्भल अस्ल में गाँव की विशेषताएँ हैं। यानी वह स्थान जिसके आसपास पानी हो और वह स्थान अत्यन्त सुन्दर, आकर्षक और सुख-शांति वाला हो। सम्भल का शाब्दिक अर्थ है शान्ति की जगह। मक्का को दारुल-अमान यानी शान्ति-गृह कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ 'शान्ति का घर' होता है.
कल्कि पुराण के दूसरे अध्याय के श्लोकों में अन्तिम अवतार की जन्म तिथि और उनके माता-पिता के नामों का उल्लेख है। यह भी बताया गया है कि उसकी पैदाइश से दुखी इनसानियत को मुक्ति नसीब होगी। उसकी पैदाइश वसन्त ऋतु के रबी फ़सल चाँद की 12वीं तारीख को होगी।
मुहम्मद (सल्ल.) की पैदाइश 12 रबीउल-अव्वल को मक्का में हुई। रबी का अर्थ है वसन्त ऋतु का महीना। कल्कि के माता-पिता का नाम विष्णुयशसः बताया गया है। मुहम्मद (सल्ल.) के बाप का नाम अब्दुल्लाह था। विष्णु यानी अल्लाह और यश यानी बन्दा। कल्कि की माँ का नाम सुमति आया है। इसका अर्थ है शान्ति और सोच-विचार का गुण रखनेवाली। मुहम्मद (सल्ल.) की माँ का नाम आमिना था, जिसका अर्थ शान्तिवाली होता है।
कल्कि अवतार की विशेषताएँ
* वह घोड़े पर सवारी करनेवाला होगा।
* वह अत्याचारियों का ज़ोर ख़त्म करेगा।
* चार भाइयों के सहयोग से सुशोभित होगा (कल्कि चार भाइयों के सहयोग से शैतान से
निबटेगा।) हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के चार साथी अबू-बक्र (रज़ी.), उमर (रज़ि.), उसमान
(रज़ि.) और अली (रज़ी.) थे।
* कल्कि को अन्तिम समय का अवतार बताया गया है। भागवत पुराण के चौबीस अवतारों में कल्कि सबसे आख़िरी अवतार हैं। मुहम्मद (सल्ल.) ने एलान किया कि वह खुदा के आखिरी पैगम्बर (अवतार) हैं।
कल्कि की आठ विशेषताएँ
कल्कि अवतार को भागवत पुराण के स्कंध बारह, अध्याय दो में आठ विशेषताओं से सुशोभित किया गया है। इन विशेषताओं का उल्लेख महाभारत में भी हुआ है। ये विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
(1) वह बड़ा विद्वान होगा।
(2) वह उच्च कुल का होगा।
(3) वह इंद्रिय-निग्रह करनेवाला और परहेज़गार होगा।
(4) प्रकाशना (वय) का ज्ञान रखनेवाला होगा।
(5) वह बहादुर और हौसलामन्द होगा।
(6) वह अल्पभाषी होगा।
(7) वह दानी होगा।
(8) वह कृतज्ञ होगा।
उपयुक्त विशेषताओं को मुहम्मद (सल्ल.) के पवित्र जीवन में पूरी तरह से देखा जा सकता है।
आवागमन या परलोक की इस्लामी धारणा
मौत के बाद ज़िन्दगी के बारे में हमारे देश के भाइयों और बहनों की लोकप्रिय विचारधारा आवागमन की अवधारणा है, इसका एक बौद्धिक और शोधपरक विश्लेषण नीचे पेश किया जाता है –
मौत एक ऐसी सच्चाई है जिसे आज तक किसी ने नहीं झुठलाया मौत के बाद ज़िन्दगी है या नहीं? अगर है तो वह कैसी होगी? क्या वह हमेशा की ज़िन्दगी होगी? वहाँ कामयाबी पाने के लिए इस दुनिया की ज़िन्दगी में क्या करना होगा? मौत के बाद ज़िन्दगी नहीं है तो क्या यह दुनिया की ज़िन्दगी ही इनसान की आखिरी मंज़िल है और मौत इस जिन्दगी का ख़ातिमा कर देती है?
मौत के बाद क्या होगा? इसे अवलोकन या अनुभव या किसी और तरीक़े से मालूम करने का हमारे पास कोई ज़रिआ नहीं है। इनसान लोगों को मरते हुए देखता है और यह भी देखता है कि मरकर जानेवाला कभी लौटकर नहीं आता। वह खुद भी एक दिन मर जाता है, लेकिन मालूम नहीं कर सकता की मौत के बाद लोग कहाँ जाते हैं? जहाँ जाते हैं वहाँ कब तक रहेंगे? यह केवल दार्शनिक सवाल नहीं, बौद्धिक या अकादमिक मसला नहीं, बल्कि हर इनसान की हमेशा की कामयाबी और नाकामी का मसला है। यह इतना अहम मसला है कि इनसान इसको दूसरों का मसला कहकर टाल नही सकता। मान लीजिए मौत के बाद कोई ज़िन्दगी बिलकुल नहीं है। न क्षणिक और न हमेशा रहनेवाली तो इस स्थिति में इनसान को मौत के बाद की ज़िन्दगी के बारे में न सोचने की ज़रूरत है, न कुछ करने की जो कुछ है वह सिर्फ़ इस दुनिया की ज़िन्दगी है और यहाँ की कामयाबी और नाकामी आख़िरी चीज़ है। बस इसी को सामने रखकर इनसान अपनी ज़िन्दगी बसर करेगा। लेकिन अगर मौत के बाद ज़िन्दगी है और वह हमेशा के लिए होगी तो वहाँ कामयाबी हासिल करने के लिए दुनिया की ज़िन्दगी में कुछ करना होगा। सत्य पर आधारित आस्थाओं, उसूलों, आदेशों और नियमों को स्वीकार करके उनके अनुसार कार्य-शैली अपनाना ज़रूरी होगा किसी ने इन सबको स्वीकार किए बिना ज़िन्दगी बसर की होगी तो उसे मौत के बाद ज़बरदस्त नाकामी का सामना करना पड़ेगा। यह सबसे बड़ी महरूमी और बदनसीबी होगी। मौत के बाद ज़िन्दगी को न माननेवाले इतनी बात यक़ीनन कह सकते हैं कि मौत के बाद क्या होगा, हम नहीं जानते, लेकिन वे यह नहीं कह सकते कि हाँ, हम जानते हैं कि मौत के बाद कोई ज़िन्दगी नहीं है।
हमारे देश में मौत के बाद की ज़िन्दगी के बारे में पुराने ज़माने से निम्नलिखित विचारधाराएँ पाई जाती हैं –
एक विचारधारा यह है कि ज़िन्दगी और मौत जो कुछ है, बस इसी दुनिया की हद तक है। यानी जो इनसान मर गया, वह हमेशा के लिए खत्म हो गया। इसलिए कामयाबी और नाकामी दोनों का सम्बन्ध इसी दुनिया से है। कर्मों की पूछताछ, परलोक, स्वर्ग और नरक वास्तव में कोई चीज़ नहीं, इसी लिए इनसान को इस दुनिया में ज़्यादा-से-ज्यादा ऐश और मौज की ज़िन्दगी बसर करनी चाहिए और अपनी इच्छाओं की पूर्ति करनी चाहिए। यह विचार रखनेवाले लोग कुछ ज़्यादा नहीं हैं।
एक दूसरी विचारधारा यह है कि इनसान मरने के बाद कर्मों की बुनियाद पर अच्छी या बुरी योनी लेकर दुनिया में नई देह पाएगा आत्मा मरती नहीं है। इनसान को अपने कर्मों का नतीजा भुगतना ही पड़ता है। जन्म, मौत और फिर उसके बाद जन्म का यह सिलसिला लगातार जारी रहता है। 84 लाख योनियों को इनसान अपनाता है और अन्त में अच्छा इनसान बनकर पैदा होता है, फिर इस चक्कर से उसे मुक्ति मिलती है या मुक्ति की यह स्थिति बनती है कि आत्मा जाकर परमात्मा में मिल जाती है। इस विचारधारा के अनुसार मौत के बाद लगातार जन्म और फिर मौत के इस चक्कर में इनसान कर्मों की बुनियाद पर एक-दूसरे इनसान, जानवर, पेड़ या कीड़े-मकोड़े इत्यादि किसी भी काया में पैदा हो सकता है। यह यहाँ की आबादी के अधिकांश लोगों की विचारधारा है।
तीसरी विचारधारा यह है कि आदम (अलैहिस्सलाम) से जन्नत में एक गुनाह हो गया। उस गुनाह का दाग पैदा होनेवाले हर बच्चे के साथ लगा हुआ है। इसके अलावा भी इनसान से ज़िन्दगी में गुनाह होते हैं। मौत के बाद ज़िन्दगी यक़ीनन है और वहाँ मुक्ति (मोक्ष) और कामयाबी की सूरत यह है कि ईसा (अलैहिस्सलाम), खुदा के पैगम्बर, को खुदा का बेटा होने और खुद खुदा होने की हैसियत से माना जाए। यहाँ तक कि सभी इनसानों के गुनाहों के प्रायश्चित के रूप में सूली पर चढ़ाए जाने पर ईमान लाया जाए। मौत के बाद की ज़िन्दगी में यही मुक्ति का एकमात्र रास्ता है। यह विचारधारा ईसाइत पेश करती है।
एक विचारधारा इस्लाम प्रस्तुत करता है। वह विचारधारा यह है कि दुनिया की ज़िन्दगी आज़माइश और क्षणिक है, लेकिन मौत के बाद एक और ज़िन्दगी होगी, जो हमेशा के लिए होगी। इनसान को यहाँ इम्तिहान के लिए रखा गया है। यह दुनिया परलोक की खेती है। इनसान सही आस्था और सत्कर्म अपना करके नेकियों की जो फ़सल बोएगा, परलोक में उसका बदला स्वर्ग के रूप में पाएगा। बाप की गलती की सज़ा औलाद को नहीं दी जाएगी। हर आदमी अपने अच्छे-बुरे कर्मों के लिए खुद ज़िम्मेदार होगा। कोई इनसान दूसरे इनसानों के कर्मों का बोझ नहीं उठाएगा। मौत नष्ट होने या मर जाने का नाम नहीं है, बल्कि दुनिया और मौत से गुज़रकर ही इनसान परलोक का शाश्वत सफ़र करता है। परलोक की ज़िन्दगी का प्रबन्ध सांसारिक उसूलों से भिन्न होगा। परलोक इसलिए ज़रूरी है कि दुनिया में इनसाफ़ और न्याय की अपेक्षाएँ पूर्ण रूप से पूरी नहीं रही हैं। कितने ही वंचित, बिगाड़ फैलानेवाले और उद्दंड लोग साफ़ बच निकलते हैं या पूरी सज़ा नहीं पाते।
परलोक इसलिए भी ज़रूरी है कि खुदा ने सृष्टि के अन्दर हर चीज़ का जोड़ा पैदा किया है। जोड़ा अपने जोड़े से मिलकर एक मक़सद को पूरा करता है और कोई नतीजा निकलता है। मिसाल के तौर पर धूप और छाँव, रात और दिन, अन्धेरा और उजाला इत्यादि। इसी तरह दुनिया का जोड़ा परलोक है। परलोक के बिना दुनिया उद्देश्यहीन, निष्फल और और अन्धेर नगरी चौपट राजा के समान होगी।
एक पहलू और भी है। खुदा ने इनसान को दुनिया में नेमतें, अधिकार और सीमित आज़ादी प्रदान की है। एक दिन ज़रूर ऐसा आना चाहिए कि जब इन सबके सम्बन्ध में उससे सवाल हो कि उसने इन सबका इस्तेमाल ईश्वर के हुक्म के अनुसार किया या उसकी मर्जी और उसके हुक्म के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करके उससे गद्दारी और नाफ़रमानी करता रहा।
आधुनिक विज्ञान बताता है कि दुनिया क्रमशः अपने विनाश की तरफ़ बढ़ रही है। इस्लाम में यह शिक्षा दी गई है कि एक ख़ास वक्त पर क़ियामत घटित हो जाएगी। उसे अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता। यह पूरी व्यवस्था टूट-फूट जाएगी। उसको क़ियामत कहा गया है। इसके बाद मरे हुए इनसान दोबारा अल्लाह के हुक्म से जी उठेंगे और उनके सभी कमों का हिसाब-किताब होगा। जो लोग अल्लाह पर ईमान रखते थे और उसके आदेशों पर चलकर पूरी ज़िन्दगी में उसके वफ़ादार थे, वे जन्नत में जाएँगे और जिन्होंने अल्लाह से बगावत की होगी, वे जहन्नम की आग में डाले जाएँगे।
आधुनिक विज्ञान कहता है कि दुनिया में हर इनसान की सारी गतिविधियाँ, बातचीत वगैरा अन्तरिक्ष में सुरक्षित रहती हैं। उसको रिकॉर्ड किया जा सकता है। इस्लामी विचारधारा की अहमियत और सच्चाई का यह पहलू अहम है कि आधुनिक विज्ञान इसकी पुष्टि करता है। इसके अलावा इनसानी इतिहास अखण्डनीय सुबूत पेश करता है। यानी पैगम्बरों और नबियों ने मौत के बाद एक हमेशा की जिन्दगी की ख़बर दी है। ये नबी और पैगम्बर निहायत ही सच्चे और अच्छे चरित्र के इनसान थे अपनी पूरी ज़िन्दगी में उन्होंने कभी एक बार भी झूठ बात नहीं कही।
हिन्दू धर्म की बुनियाद चार वेदों पर है। उनमें आवागमन की विचारधारा नहीं पाई जाती, बल्कि मौत के बाद ज़िन्दगी, स्वर्ग और नरक की अवधारणा पाई जाती है। विभिन्न प्रकार के गुनाहों की सज़ाएँ, विभिन्न नामों के नरक में दी जाएंगी। वेदों में पितरलोक' की चर्चा भी मिलती है जिसे आलमे-बरज़ख भी कहा जा सकता है। यानी मौत के बाद क़ियामत तक इनसानों का दोबारा जिन्दा होना, हिसाब-किताब और जज़ा-सज़ा का फैसला होने तक बरज़ज़ के क्षणिक मरहले की चर्चा उपनिषद, महाभारत और गीता वगैरा में मौजूद है।
आवागमन पर गौर करने से निम्नलिखित सवाल पैदा होते हैं –
- सृष्टि में सबसे पहले किस चीज़ का निर्माण हुआ? अगर इनसान का तो ये इनसान किनके कर्मों के नतीजे में पैदा हुए? अगर यह कहा जाए कि इनसान से पहले सृष्टि में जानवर, पेड़-पौधे इत्यादि पहले से पैदा हुए, तो यह किन कर्मों के नतीजे में हुआ?
- वेदों के अनुसार इनसान से पहले वे जीव-जन्तु पैदा हुए जिनको इनसानी गुनाहों का नतीजा करार दिया जाता है यानी पेड़-पौधे, जीव-जन्तु और पशु-पक्षी इत्यादि पहले पैदा हुए और इनसान बाद में पैदा हुआ। वैदिक साहित्य ही इनसान को बताते हैं कि अच्छे कर्म कौन से हैं जिसके नतीजे में अच्छे जन्म मिलेंगे और बुरे कर्म कौन से हैं जिनके कारण बुरे जन्म मिलेंगे?
सवाल यह है कि क्या जज़ा और सज़ा के हुक्म और कानून यानी वैदिकशास्त्र दिए जाने से पहले ही इन जीवों को सज़ा दे दी गई।
- आवागमन के अनुसार गुनाह और पाप जरूरी ठहराया गया है, क्योंकि इसके बिना अनाज और सब्जी, फल-फूल और पेड़-पौधे उग नहीं सकते। एक अजीबो-गरीब पहलू इसका यह भी है कि रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में इनसान को सब्ज़ियाँ, फल-फूल इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह पता नहीं पिछले जन्म में किसी-न-किसी इनसान की आत्मा उसमें बसी होगी जो इस जन्म में सब्जी, फल-फूल इत्यादि बन गए आवागमन के अनुसार किसी मुसीबत या परेशान-हाल की मदद नहीं करनी चाहिए। भूखों को खाना खिलाना, बीमारों की देखभाल करना, नंगों को कपड़ा देना, मतलब यह कि
इनसानों की सेवा का कोई काम नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये लोग पिछले जन्म के गुनाहों की सज़ा भुगत रहे हैं। वे अपनी पूरी सज़ा भुगतें।
- इनसान बुद्धि और चेतना, बोलने की शक्ति, सोचने और कर्म करने की आज़ादी और अधिकार रखता है। नेकी और बदी, भलाई और बुराई, सही और गलत की तमीज़ भी रखता है। ये गुण इनसान के अलावा किसी भी दूसरे प्राणियों में नहीं पाए जाते। लेकिन इनसान गुनाहों के कारण जानवर, कीड़े-मकोड़े और सब्जी, फल-फूल बन जाता है। तो फिर इस काया में नेकी और बदी का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। ये सब मजबूर हैं। प्रकृति ने जो काम उनके जिम्मे कर दिया है और जो उसूल उनके जीने -मरने के लिए तय किए हैं, सब कुछ उसी के अनुसार हो रहा है। इनसान के अलावा सारे प्राणी अपनी स्वतंत्र इच्छा, रुचि और अधिकार से भला या बुरा कुछ भी नहीं कर सकते। उनके सामने मोक्ष या मुक्ति की तलाश का मसला नहीं है।
- इस विवेचन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि आवागमन यानी इनसान की पैदाइश और मौत के चक्कर में खुदा का कोई रोल या उसकी कोई भूमिका है ही नहीं। इसके अलावा वह खुदा भी ऐसा है जो बन्दों से गुनाह होने पर माफ़ करना और दरगुज़र से काम लेना जानता ही नहीं, बल्कि आवागमन के इस चक्कर में वह खुद भी बेबस नज़र आता है।
मतलब यह कि आवागमन की अवधारणा बुद्धि और दलील की किसी कसौटी पर पूरी नहीं उतरती। यह अप्राकृतिक और अस्वाभाविक है। ऐसा मालूम होता है कि यह हिन्दू धर्म में बाहर से लाकर शामिल की गई है वेदों में इसका उल्लेख नहीं मिलता।
स्वर्ग और नरक के दृश्य
पिछले पन्नों में यह बात बताई जा चुकी है कि इनसान की मौत के बाद उसके लिए हमेशा की ज़िन्दगी तय है। वहाँ उसके लिए दो में से एक ही ठिकाना होगा यानी स्वर्ग या नरक!
हर प्राणी को मौत का मज़ा चखना है, लेकिन इनसान की मौत का मतलब फल-फूल, पेड़-पौधे या कीड़े-मकोड़े और अन्य प्राणियों की मौत नहीं है। इनसान के अलावा जितने भी प्राणी हैं, उनकी मौत उनका हमेशा के लिए ख़ातिमा है। अपने वुजूद के मक़सद को पूरा करने के बाद उनको मौत आती है। इस दृष्टि से उनकी ज़िन्दगी और उनके वुजूद दोनों का हमेशा के लिए ख़ातिमा हो जाता है, लेकिन इनसान के साथ ऐसा नहीं है। मौत के बाद उसकी हमेशा की ज़िन्दगी का सफ़र शुरू हो जाता है। यह ज़िन्दगी कर्म-क्षेत्र, आज़माइश और परीक्षा का समय है। यह ज़िन्दगी एक खुदा को मानकर उसके आदेशों और उसकी मर्जी पर चलने और उसके रसूल (सल्ल.) की पूरी पैरवी अपनाने के लिए दी गई है क़ुरआन में दलीलों के साथ बताया गया है कि एक निर्धारित समय पर क़ियामत घटित होगी। दुनिया की यह व्यवस्था ख़त्म हो जाएगी। एक नई दुनिया और नई व्यवस्था यहाँ से बिलकुल अलग सिद्धान्तों पर बनाई जाएगी। सभी इनसान ईश्वर के आदेश से दोबारा पैदा किए जाएंगे। सभी इनसानों के ईमान और कर्मों का हिसाब लिया जाएगा। यह इनसान के अस्ली और आखिरी परीक्षा का परिणाम होगा। उस परीक्षा में जो कामयाब होंगे, वे स्वर्ग में और जो नाकाम होंगे, वे नरक में भेज दिए जाएंगे।
क़ियामत
इस सम्बन्ध में क़ियामत, स्वर्ग और नरक के दृश्यों से सम्बन्धित क़ुरआन की आयतों पर गौर करें
"और हमने तो आकाशों और धरती को और जो कुछ उनके मध्य है सोद्देश्य पैदा किया है और निश्चय ही फैसले की घड़ी आकर रहेगी।" (क़ुरआन, सूरा-15 हिज़, आयत-85)
"क्या इनसान ने यह समझ रखा है कि वह यूँ ही आज़ाद छोड़ दिया जाएगा।" (क़ुरआन, सूरा-75 क़ियामह, आयत-36)
"कहता है: कौन हड्डियों में जान डालेगा जबकि ये जीर्ण-शीर्ण हो चुकी होंगी? कह दो: इनमें वही जान डालेगा जिसने पहले इन्हें पैदा किया था और वह पैदा करने का हर काम जानता है।" (क़ुरआन, सूरा-36 या-सीन, आयतें-78, 79)
"ये लोग तुमसे पूछते हैं कि क़ियामत कब आएगी? कह दो कि उसका ज्ञान तो मेरे रब ही को है। अतः उसे अपने समय पर वही प्रकट करेगा। आसमानों और ज़मीन में वह बड़ा कठिन समय होगा बस वह तुमपर अचानक आ जाएगा।" (क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, आयत-187)
क़ियामत का दृश्य
"जब आकाश फट जाएगा और जबकि तारे बिखर जाएंगे और जबकि समुद्र बह पड़ेंगे और जब कब्र उखेड़ दी जाएंगी, उस समय प्रत्येक व्यक्ति को उसका अगला-पिछला सब किया-धरा मालूम हो जाएगा।" (क़ुरआन, सूरा-82 इनफ़ितार, आयतें-1 से 5)
"पूछता है आख़िर क़ियामत का दिन कब आएगा? तो जब आँखें चौदिया जाएँगी और चाँद प्रकाशहीन हो जाएगा और चाँद-सूरज मिलाकर एक कर दिए जाएंगे। उस समय यही इनसान कहेगा, "कहाँ भागकर जाऊँ?" हरगिज़ नहीं, वहाँ पनाह लेने की कोई जगह न होगी उस दिन तेरे रब ही के सामने जाकर ठहरना होगा। उस दिन इनसान को उसका सब अगला-पिछला किया- कराया बता दिया जाएगा।" (क़ुरआन, सूरा-75 क़ियामह, आयतें-6 से 13)
"ये लोग उसे दूर समझते हैं और हम उसे क़रीब देख रहे हैं। (यह अज़ाब उस दिन होगा) जिस दिन आसमान पिघली हुई चाँदी की तरह हो जाएगा और पहाड़ रंग-बिरंग के धुनके हुए ऊन जैसे हो जाएंगे और कोई घनिष्ठ मित्र अपने घनिष्ठ मित्र को न पूछेगा। हालांकि वे एक-दूसरे को दिखाए जाएंगे। अपराधी चाहेगा कि उस दिन के अजाब से बचने के लिए अपनी औलाद को, अपनी बीवी को, अपने भाई को, अपने निकटतम परिवार को जो उसे पनाह देनेवाला था और जमीन के सब लोगों को फ़िदया (मुक्ति-प्रतिदान) के रूप में दे दे और यह उपाय उसे छुटकारा दिला दे। हरगिज़ नहीं, वह तो भड़कती हुई आग की लपट होगी।"
(क़ुरआन, सूरा-70 मआरिज़, आयतें-6 से 15)
"जब ज़मीन इस प्रकार हिला दी जाएगा जैसा उसको हिलाया जाना है और ज़मीन अपने अन्दर के सारे बोझ निकालकर बाहर डाल देगी और इनसान कहेगा कि इसको क्या हो रहा है? उस दिन वह अपने (ऊपर बीते हुए) हालात बयान करेगी, क्योंकि तेरे रब ने उसे (ऐसा करने का आदेश दिया होगा। उस दिन लोग विभिन्न दशा में पलटेंगे हैं, ताकि उनके कर्म उनको दिखाए जाएँ। फिर जिस किसी ने कण-भर नेकी की होगी, वह उसको देख लेगा और जिसने कण-भर बुराई की होगी, वह भी उसको देख लेगा।" (क़ुरआन, सूरा-99 ज़िलज़ाल, आयतें-1-8)
"आखिरकार जब वह कान बहरे कर देनेवाली आवाज़ ऊँची होगी उस दिन आदमी अपने भाई और अपनी माँ और अपने बाप और अपनी पली और अपनी औलाद से भागेगा। उनमें से हर व्यक्ति पर उस दिन ऐसा समय आ पड़ेगा कि उसे अपने सिवा किसी का होश न होगा।" (क़ुरआन, सूरा-80 अ-ब-स, आयतें-33 से 37)
क़ुरआन में स्वर्ग के दृश्य
क़ुरआन में स्वर्ग के दृश्य का एक चित्र देखें –
"स्वर्ग में जिधर भी तुम नज़र डालोगे नेमतें-ही-नेमतें और एक बड़े राज्य की सामग्री तुम्हें दिखाई देगी। उनके ऊपर बारीक रेशम के हरे वस्त्र और अतलस और दीवा के कपड़े होंगे, उनकी चाँदी के कंगन पहनाए जाएंगे और उनका रब उनको अत्यन्त पवित्र पेय पिलाएगा। यह तुम्हारे किए का बदला है और तुम्हारी कोशिशें (ईश्वर के यहाँ) स्वीकृत हुई।" (क़ुरआन, सूरा-76 दहर, आयतें-20 से 22)
"जिस स्वर्ग का परहेज़गार (ईशपरायण) लोगों के लिए वादा किया गया है, उसकी शान तो यह है कि उसमें नहरें बह रही होंगी निथरे हुए पानी की, नहरें बह रही होंगी ऐसे दूध की जिसके मज़े में तनिक भी अन्तर न आया होगा, नहरें बह रही होंगी ऐसी शराब की जो पीनेवालों के लिए स्वादिष्ट होंगी, नहरें बह रही होंगी साफ़-सुथरे शहद की। उसमें उनके लिए हर तरह के फल होंगे और उनके रब की ओर से क्षमा " (क़ुरआन, सूरा-47 मुहम्मद, आयत-15)
"उस दिन उन लोगों से जो हमारी आयतों पर ईमान लाए थे और आज्ञाकारी बनकर रहे थे, कहा जाएगा: 'ऐ मेरे बन्दो! आज तुम्हारे लिए कोई डर नहीं और न तुम्हें कोई चिन्ता सताएगी। दाख़िल हो जाओ स्वर्ग में तुम और तुम्हारी पत्नीयाँ, तुम्हें खुश कर दिया जाएगा।' उनके आगे सोने की थालियाँ और जाम-सागर फिराए जाएंगे और हर मनभावती और नज़रों को लज्जत देनेवाली चीज़ वहाँ मौजूद होगी। उनसे कहा जाएगा तुम अब यहाँ हमेशा रहोगे। तुम इस स्वर्ग के वारिस अपने उन कर्मों के कारण हुए जो तुम दुनिया में करते रहे। तुम्हारे लिए यहाँ ढेर सारे मेवे मौजूद हैं, जिन्हें तुम खाओगे।"
(क़ुरआन, सूरा-43 जुख़रुफ़, आयतें-68 से 73 )
"जो लोग ईमान लाए हैं और उनकी सन्तान भी ईमान के किसी दरजे में उनके पदचिन्हों पर चली है, उनकी उस सन्तान को भी हम (स्वर्ग में) उनके साथ मिला देंगे और उनके कर्म में कोई घाटा उनको न देंगे।" (क़ुरआन, सूरा-52 तूर, आयत-21)
हदीस में स्वर्ग के दृश्य
पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल.) ने स्वर्ग के दृश्य पेश करते "एक पुकारनेवाला स्वर्गवासियों को पुकारकर कहेगा कि यहाँ तुम हुए कहा है सेहतमन्द रहोगे, कभी बीमार न होगे, ज़िन्दा रहोगे, तुम्हें कभी मौत न आएगी। जवान रहोगे, कभी तुमपर बुढ़ापा नहीं आएगा ऐश और आराम में रहोगे, कभी कठिनाई, मुसीबत और दुख न देखोगे।" (हदीस : मुस्लिम)
"स्वर्ग में एक कोड़ा रखने के बराबर जगह दुनिया और उनकी नेमतों से बेहतर है।" (हदीस: बुख़ारी, मुस्लिम)
एक दूसरी हदीस में पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ने कोड़े की जगह कमान रखने के बराबर जगह का उल्लेख किया है। यानी स्वर्ग में किसी को कमान रखने के बराबर भी जगह नसीब हो जाए तो वह पूरे विश्व से बेहतर है –
"जब स्वर्ग में जानेवाले स्वर्ग में चले जाएंगे तो अल्लाह कहेगा: क्या तुम्हें कोई और चीज़ चाहिए? वे निवेदन करेंगे: ऐ अल्लाह! क्या तूने हमारे चेहरे रौशन नहीं किए? क्या तूने हमें स्वर्ग में दाखिल नहीं किया? क्या तूने हमें आग से छुटकारा नहीं दिलाया? (और क्या चाहिए) फिर अचानक परदा उठाया जाएगा और स्वर्गवासियों को अपने रब की तरफ़ देखना हर चीज़ से ज़्यादा प्यारा लगेगा, जो उन्हें स्वर्ग में दी गई थी।" (हदीस: मुस्लिम)
नरक के दृश्य
नरक के दृश्य के सम्बन्ध में अल्लाह का कथन है –
"वास्तविकता यह कि जो अपराधी बनकर अपने रब के सामने हाज़िर होगा, उसके लिए नरक है जिसमें न वह जिएगा, न मरेगा " (क़ुरआन, सूरा-20 ता-हा, आयत-74)
"सत्य का इनकार करनेवालों के लिए आग के कपड़े काटे जा चुके हैं। उनके सिरों पर खौलता हुआ पानी डाला जाएगा, जिससे उनकी खालें ही नहीं, पेट के भीतर के भाग तक गल जाएंगे और उनको सज़ा देने के लिए लोहे के गुर्ज (गदाए) होंगे। जब कभी भी वे घबराकर नरक से निकलने की कोशिश करेंगे, फिर उसी में धकेल दिए जाएंगे कि चखो अब जलने की सज़ा का मज़ा।" (क़ुरआन, सूरा-22 हज, आयतें-19 से 22)
"मगर उनमें से किसी ने माना और कोई उससे मुंह मोड़ गया और मुँह मोड़नेवालों के लिए तो बस नरक की भड़कती आग ही काफी है। जिन लोगों ने हमारी आयतों को मानने से इनकार कर दिया है, उन्हें ज़रूर ही हम आग में झोकेंगे और जब उनके बदन की खाल गल जाएगी तो उसकी जगह दूसरी खाल पैदा कर देंगे, ताकि वे अच्छी तरह यातना का मज़ा चखें, अल्लाह बड़ी सामर्थ्य रखता है और अपने फैसलों को व्यवहार में लाने की हिकमत को खूब जानता है।" (क़ुरआन, सूरा-4 निसा, आयतें-55, 56)
“आज मेरा माल मेरे कुछ काम न आया। मेरा सारा प्रभुत्व समाप्त हो गया। आदेश होगा: पकड़ो इसे और इसका गर्दन में तौक़ डाल दो। इसे नरक में झोंक दो। फिर इसको 70 हाथ लम्बी जंजीर में जकड़ दो। यह न महिमावान ईश्वर पर ईमान लाता था और न मुहताज को खाना खिलाने पर उभारता था। अतः आज न यहाँ इसका कोई हमदर्द मित्र है और न घावों के धोवन के सिवा इसके लिए कोई भोजन जिसे अपराधियों के सिवा कोई नहीं खाएगा।" (क़ुरआन, सूरा-69 हाक़्क़ा, आयतें-28 से 37)
नरक के बारे में पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ने कहा है –
"नरक में सबसे हलकी यातनावाला वह आदमी होगा जिसकी चप्पलें और फीते (तसमे) आग के होंगे, जिनकी वजह से उसका दिमाग इस तरह खौलेगा जिस तरह देगची चूल्हे पर खौलती है और वह यह नहीं समझेगा कि कोई उससे बढ़कर अज़ाब में है। हालांकि वह सभी नरकवासियों से हलकी यातना में होगा।" (हदीस: बुख़ारी, मुस्लिम)
"ज़क्कूम (नरक में पैदा होनेवाला पेड़) नरकवासियों का भोजन बनेगा। अगर उसकी बूंद दुनिया में टपक जाए तो ज़मीन पर बसनेवालों की ज़िन्दगी के सारे सामान को खराब कर दे। अतः क्या गुज़रेगी उस आदमी पर जिसका खाना वही जक्कूम होगा।" (हदीस : तिरमिज़ी)
कलिमा-ए-शहादत (इस्लाम का मूल मंत्र)
इस्लाम की बुनियाद जन्म, रंग-नस्ल, भाषा और क्षेत्र पर नहीं है। ये सारी बातें ऐसी हैं, जो इनसान के अधिकार-क्षेत्र से बाहर हैं। दुनिया में कोई इनसान अपनी मर्जी और पसन्द से पैदा नहीं होता और न किसी खास रंग-नस्ल या भाषा और इलाके को अपना सकता है। उसकी मर्जी और पसन्द का कोई दख़ल इन मामलों में नहीं है।
इस्लाम एक स्वाभाविक, विश्वव्यापी और मानवतापूर्ण धर्म है। इसलिए दुनिया का कोई इनसान, चाहे वह किसी रंग-नस्ल, खानदान और इलाक़े से सम्बन्ध रखता हो इस्लाम पर अमल कर सकता है। शर्त यह है कि उसे इस्लाम की सच्चाई पर विश्वास हो। अगर किसी आदमी ने केवल किसी से शादी करने की नीयत से या किसी आर्थिक फ़ायदे या लालच के कारण या किसी से बदला लेने के लिए सत्य धर्म को अपनाया है, तो इन सब स्थितियों में आशंका है कि अल्लाह की खुशी उसे हासिल न हो।
क़ुरआन में बताया गया है कि ज़ोर-ज़बरदस्ती और बलपूर्वक किसी को इस्लाम अपनाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। दलीलों की रौशनी में इसका सत्य होना स्पष्ट हो चुका है। इसको अपनाने के नतीजे में दुनिया में कामयाब ज़िन्दगी बसर होगी और परलोक में नरक की आग से सुरक्षा हो सकेगी। दूसरी ओर सत्य स्पष्ट होने के बाद उसे झुठलाने के नतीजे में दुनिया में नाकामी नसीब होगी और परलोक में नरक की आग का ख़तरा है।
मुस्लिम होने के लिए कलिमा-ए-शहादत को सोच-समझकर और दिल से मानकर ज़बान से अदा करना होता है।
यह कलिमा-ए-शहादत अस्ल में एक वादा है जो एक बन्दा अपने पैदा करनेवाले और मालिक से करता है। इस वादे को ज़िन्दगी-भर निभाने और इसकी अपेक्षाओं को व्यावहारिक जीवन में पूरा करने की हर मुमकिन कोशिश करनी चाहिए।
कलिमा-ए-शहादत यह है –
अशहदु अल्ला इला-ह इल्लल्लाह व अशहदु अन-न मुहम्मदन अब्दुहू व रसूलुहू।
इसका मतलब यह है –
“मैं गवाही देता हूँ कि ईश्वर के सिवा कोई माबूद (पूज्य) नहीं और मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद (सल्ल॰) ईश्वर के बन्दे और उसके रसूल हैं।"
इस कलिमे में ख़ास बात यह है कि इसमें पहले शिर्क यानी बहुदेववाद का निषेध है यानी नहीं है कोई खुदा', इसके बाद तौहीद यानी एकेश्वरवाद की शिक्षा है यानी 'सिवाय ईश्वर के' । शिर्क यानी बहुदेववाद के पूर्ण निषेध के बिना एकेश्वरवाद की कोई कल्पना नहीं की जा सकती।
कलिमा में अल्लाह (ईश्वर) शब्द प्रयुक्त हुआ है। ईश्वर स्रष्टा, मालिक, पालनहार, दुआओं का सुननेवाला, बन्दों और प्राणियों की रहनुमाई करनेवाला और क़ानून प्रदान करनेवाला है। इन सभी पहलुओं से एक खुदा के वुजूद (अस्तित्व) पर ईमान लाना और व्यावहारिक जीवन में ईमान की अपेक्षाओं को पूरा करना ज़रूरी है।
कलिमे का दूसरा अंश बताता है कि मुहम्मद (सल्ल॰) ईश्वर के पैगम्बर हैं। उन्हीं के ज़रिए से अल्लाह की हिदायत और रहनुमाई या ईश्वर का दीन (धर्म) इनसानों तक पहुँचा। ईश्वर को उपर्युक्त तरीक़े पर मान लेने और मुहम्मद (सल्ल.) को उसका पैगम्बर स्वीकार कर लेने से इस्लाम में दाखिला पूरा हो जाता है।
मुहम्मद (सल्ल.) को अल्लाह का पैगम्बर मानने की अपेक्षाएँ निम्नलिखित हैं-
पैगम्बर (सल्ल.) पर ईमान और यक़ीन के साथ उनसे गहरी मुहब्बत रखी जाए, यह माना जाए कि वे ईश्वर के आखिरी पैगम्बर हैं। ईश्वर ने अपनी आखिरी किताब क़ुरआन मजीद को उनपर अवतरित किया। पैगम्बर (सल्ल.) की पूरी ज़िन्दगी हमारे लिए आदर्श और नमूना है। उनकी पैरवी ईमान की बुनियादी मांग है। ईश्वर ने इनसान की ज़िन्दगी को कामयाब बनाने और परलोक की ज़िन्दगी में नरक की यातना से बचाने के लिए विस्तृत नियम प्रदान किए हैं। मुहम्मद (सल्ल.) ने दीन और शरीअत (धर्म और जीवन-विधान) को लागू करके आदमी का बेहतरीन प्रशिक्षण किया और मिसाली ख़ानदान, समाज और व्यवस्था कायम करके दिखाई। इस हिदायत और रहनुमाई और शरीअत के क़ानून की अवहेलना की जाए तो यह केवल पैगम्बर (सल्ल.) की नाफ़रमानी नहीं है, बल्कि ईश्वर की नाफ़रमानी है। यह ईश्वर से बगावत और सरकशी का रास्ता है।
सच्चाई को अपनाना
सच्चाई को जान लेने के बाद उसे अपना लेने या न अपनाने का अधिकार और आज़ादी हर इनसान को हासिल है। यह अधिकार और आज़ादी खुद ईश्वर ने प्रदान की है। उसने हर इनसान को यह अधिकार दिया है, तो इससे वंचित करने का अधिकार दुनिया में किसी को हासिल नहीं है। हमारे देश में संविधान और क़ानून की दृष्टि से आस्था और धर्म की आज़ादी हासिल है। इसलिए यह ज़रूरी है कि धर्म के मामले में किसी तरह की ज़ोर-ज़बरदस्ती न हो। क़ुरआन में ईश्वर ने कहा है –
"धर्म के मामले में कोई ज़बरदस्ती नहीं।" (क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, आयत-256)
सच्चाई को अपना लेना केवल धार्मिक पहचान के परिवर्तन का नाम नहीं, बल्कि यह अपनी प्रकृति के सबसे महत्वपूर्ण मांगों को पूरा करना है। यह सच है कि हर इनसान की प्रकृति और आत्मा की गहराइयों में एक ही स्रष्टा, परम पूज्य और पालनहार पर ईमान लाने, उसकी पूरी बन्दगी और गुलामी अपनाने का जज़बा शामिल है। अगर उसकी प्रकृति विकृत नहीं हुई है तो वह इनसान जो पहले सच से परिचित नहीं था, या उसके बारे में ग़लतफ़हमियों का शिकार था, सच का सही और पूर्ण परिचय होते ही उसे अपना लेगा। यह मानो अपनी प्रकृति के अहम और बुनियादी माँगों की पूर्ति है। इसे धर्म-परिवर्तन का नाम देना, सत्य की त्रुटिपूर्ण व्याख्या है। गलत प्रोपगंडे के नतीजे में यह एक बदनाम परिभाषा बन गई है। गौर करें तो मालूम होगा कि हर इनसान अपनी ज़िन्दगी के कुछ पहलुओं पर चलने को मजबूर है। यानी वह अल्लाह के बनाए हुए क़ानून पर चल रहा है। मिसाल के तौर पर अपनी आँखों, कानों, ज़बान, मुँह, हाथों और पैरों से वह वही काम ले रहा है जिस काम के लिए ये अंग ईश्वर ने उसे दिए हैं। इस बारे में इनसान बिलकुल मजबूर है। इससे हटकर कोई दूसरा काम लेने या ईश्वर के क़ानून के ख़िलाफ़ अमल करने की आज़ादी उसे हासिल नहीं है। लेकिन ज़िन्दगी के कुछ मामले ऐसे हैं जिन्हें करने या न करने का पूरा अधिकार और आज़ादी उसे प्राप्त है। वह चाहे तो सत्य को स्वीकार करे या उसका इनकार कर दे। दोनों स्थितियों में इसका नतीजा उसे खुद देखना और भुगतना होगा। ईश्वर कहता है –
“और क्या हमने भलाई और बुराई के दोनों-के-दोनों स्पष्ट रास्ते उसे (नहीं) दिखा दिए?" (क़ुरआन, सूरा-90 बलद, आयत-10)
"स्पष्ट कह दो कि यह सत्य है तुम्हारे पालनहार-प्रभु की तरफ़ से।
अब जिसका जी चाहे मान ले और जिसका जी चाहे इनकार कर दे।" (क़ुरआन, सूरा-18 कहफ़, आयत-29)
अब तक के विवेचन से यह बात स्पष्ट हो गई है कि इस्लाम दुनिया के सभी इनसानों को स्वाभाविक आस्थाओं की शिक्षा देता है। इन अक़ीदों (आस्थाओं) की पुष्टि में इनसान के अपने वुजूद से लेकर पूरे विश्व में दलीलें और निशानियाँ पाई जाती हैं। सत्य के विरुद्ध जो भी दूसरी आस्था और धारणा कोई इनसान अपनाता है, वह अप्राकृतिक और अबौद्धिक होती है। मानो इस तरह वह अपनी प्रकृति से खुद ही लड़ता है। अपनी ख़ुद की बनाई हुई आस्थाओं और धारणाओं के समर्थन में आदमी कोई दलील और प्रमाण अपने व्यक्तित्व के अन्दर से या पूरे विश्व से पेश नहीं कर सकता।
कौन लोग सत्य को स्वीकार करते हैं?
- जो लोग सत्य की खोज में लगे रहते हैं और सोच-विचार से काम लेते हैं, अपने स्रष्टा की
खुशी पाने की और उसकी नाराज़गी और पकड़ से बचने की इच्छा रखते हैं।
- जिन्हें अपने अंजाम की चिंता होती है।
- जो पक्षपात और घमण्ड से बचकर ज़िन्दगी गुज़ारते हैं।
- जो परहेज़गारी (ईशपरायणता) की ज़िन्दगी बसर करना चाहते हैं, नेकियों और भलाइयों
को अपनाना चाहते हैं।
- जो अच्छे स्वभाव के होते हैं, जो अपनी अन्तरात्मा और स्वभाव की माँगों को सत्य की
रौशनी में पूरा करना चाहते हैं।
- जिनमें सच को स्वीकार करने के नतीजे में आज़माइशों और क़ुरबानियों को सहन करने
की हिम्मत और हौसला होता है।
इस दुनिया में सच को स्वीकार करने का नतीजा इनसान के कल्याण और छुटकारे, सुख और शान्ति के रूप में सामने आता है। सत्य से जुड़ाव आख़िरत में हमेशा की खुशी और शान्ति के स्थान (स्वर्ग) को पाने का ज़रिआ है और नरक की आग से बचने की गारंटी है।
सत्य को न मानने के कारण
निम्न कारणों से लोग सत्य का इनकार करते हैं –
- ज़िद और हठधर्मी,
- बाप-दादा के रास्ते पर बिना सोचे समझे चलना,
- दुनियापरस्ती,
- मन की इच्छाओं की बेलगाम पैरवी,
- जातीय और नस्लीय श्रेष्ठता की भावना और पक्षपात और संकीर्णता,
- घमण्ड व तकब्बुर।
इसके अलावा और भी कारण हो सकते हैं। सत्य की तलाश करनेवालों को चाहिए कि इन नकारात्मक जज़बों से खुद को बचाने का प्रयत्न करें।
आख़िरी बात
थोड़ी देर के लिए मान लीजिए कि क़ियामत, परलोक, मरने के बाद की ज़िन्दगी, हश्र का मैदान, कर्मों के बारे में पूछ-ताछ, स्वर्ग और नरक कुछ नहीं है। दुनिया की ज़िन्दगी ही एकमात्र आख़िरी सच्चाई है। ऐसी स्थिति में खुदा का इनकार करनेवाले, एक खुदा को माननेवाले या बहुत सारे खुदाओं को माननेवाले, सबका अंजाम एक जैसा होगा किसी के लिए परलोक की नाकामी का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता, क्योंकि मरने के बाद ज़िन्दगी ही न हो तो कैसी कामयाबी और कैसी नाकामी?
लेकिन अगर मामला इसके उलटा हो और सचमुच क़ियामत आ जाती है तो क्या होगा? ईश्वर सारे इनसानों को इकट्ठा करके ईमान और अच्छे कर्मों के बारे में पूछताछ करेगा परलोक की ज़िन्दगी में ईमान और कमों की बुनियाद पर स्वर्ग देगा, खुदा के इनकार या ख़ुदा का साझीदार बनाने की बुनियाद पर नरक का फैसला करेगा
ऐसी स्थिति में जिन लोगों ने परलोक का इनकार किया था, उनका अंजाम कितना दर्दनाक होगा। दुनिया की तरह परलोक की ज़िन्दगी क्षणभंगुर और नाशवान नहीं होगी, बल्कि हमेशा के लिए होगी। क़ुरआन स्पष्ट रूप से बताया है कि परलोक का इनकार करनेवाले गिड़गिड़ाकर फ़रियाद करेंगे कि ईश्वर उन्हें फिर दुनिया में एक बार भेज दे, ताकि वे अच्छे काम करके ईश्वर के इनाम के हक़दार बनें, मगर उस समय उन्हें बता दिया जाएगा कि मौक़ा तो उन्हें दिया जा चुका। दुनिया में उन्हें ज़िन्दगी की मुहलत दी गई थी, ज्ञान, बुद्धि और चेतना की नेमतें प्रदान की गई थीं। उनके अपने व्यक्तित्व और ज़मीन व आसमानों के अन्दर अनगिनत निशानियाँ पैदा की गई थीं। इसके अलावा आख़िरी पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल.) पर क़ुरआन उतारा गया था और आप (सल्ल.) की पूरी ज़िन्दगी का विस्तृत विवरण भी सुरक्षित था, लेकिन उनमें से किसी चीज़ से उन्होंने फ़ायदा नहीं उठाया। अपने परलोक के लिए ईमान और अच्छे काम का रास्ता नहीं अपनाया और मुहम्मद (सल्ल.) की पैरवी नहीं की। इसलिए वे नाकाम और अभागे ठहराए गए और उनका अंजाम नरक की यातना है नाकामी और नरक की यातना का भागी होने की ज़िम्मेदारी उनपर ही लागू होती है।
यह ज़िन्दगी एक ही बार मिली है। मौत अचानक उसका ख़ातिमा कर देगी। इसलिए इनसान को चाहिए कि दुनिया में मिलनेवाले मौके से फ़ायदा उठाए और अपने-आपको परलोक की नाकामी और रुसवाई से बचाए।
ऐ इनसान! खुद को पहचान!!
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