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इस्लाम धर्म

इस्लाम धर्म

हमारे आम देशबंधुओं का सामान्य विचार है कि इस्लाम ‘सिर्फ़ मुसलमानों’ का धर्म है। इसके ‘प्रवर्तक’ हज़रत मुहम्मद साहब हैं जो मुसलमानों के पैग़म्बर, महापुरुष हैं। कु़रआन ‘सिर्फ़ मुसलमानों’ का धर्म ग्रन्थ है। लेकिन सच्चाई इस से भिन्न है। स्वयं मुसलमानों के रवैये और आचार-व्यवहार की वजह से यह भ्रम उत्पन्न हो गया है वरना अस्ल बात तो यह है कि इस्लाम पूरी मानवजाति के लिए है, हज़रत मुहम्मद (ईश्वर की कृपा और शान्ति हो उन पर) सारे इंसानों के पैग़म्बर, शुभचिन्तक, उद्धारक और मार्गदर्शक हैं और इस्लाम के प्रवर्तक (Founder) नहीं बल्कि इस शाश्वत (Eternal) धर्म के आह्वाहक हैं। क़ुरआन पूरी मानवजाति के लिए अवतरित ईशग्रन्थ है।

इस्लाम का अर्थ
‘इस्लाम’, अरबी वर्णमाला के मूल अक्षर स, ल, म, से बना शब्द है। इन अक्षरों से बनने वाले शब्द दो अर्थ रखते हैं: एक—शांति, दो—आत्मसमर्पण। इस्लामी परिभाषा में इस्लाम का अर्थ होता है: ईश्वर के हुक्म, इच्छा, मर्ज़ी और आदेश-निर्देश के सामने पूर्ण आत्मसमर्पण करके सम्पूर्ण व शाश्वत शान्ति प्राप्त करना...अपने व्यक्तित्व व अन्तरात्मा के प्रति शान्ति, दूसरे तमाम इन्सानों के प्रति शान्ति, अन्य जीवधारियों के प्रति शान्ति, ईश्वर की विशाल सृष्टि के प्रति शान्ति, ईश्वर के प्रति शान्ति, इस जीवन के बाद परलोक-जीवन में शान्ति।

नामकरण का कारण
संसार में जितने भी धर्म हैं, उनमें से अधिकतर का नाम या तो किसी विशेष व्यक्ति के नाम पर रखा गया है या उस जाति के नाम पर जिसमें वह धर्म पैदा हुआ। मिसाल के तौर पर ईसाई धर्म का नाम इसलिए ईसाई धर्म है कि उसका सम्बन्ध हज़रत ईसा (अलैहि॰) से है। बुद्ध मत का नाम इसलिए बुद्ध मत है कि इसके प्रवर्तक महत्मा बुद्ध थे। ज़रदुश्ती धर्म (Zoroastrianism) का नाम अपने प्रवर्तक ज़रदुश्त (Zoroaster) के नाम पर है। यहूदी धर्म एक विशेष क़बीले में पैदा हुआ, जिसका नाम यहूदाह (Judha) था। ऐसा ही हाल दूसरे लगभग सारे धर्मों के नामों का भी है, परन्तु इस्लाम की विशेषता यह है कि वह किसी व्यक्ति या जाति से सम्बन्धित नहीं है, बल्कि उसका नाम एक विशेष गुण को ज़ाहिर करता है जो ‘‘इस्लाम’’ शब्द के अर्थ में पाया जाता है। इस नाम से स्वयं विदित है कि यह किसी व्यक्ति के मस्तिष्क की उपज नहीं है, न किसी विशेष जाति तक सीमित है। इसका सम्पर्क व्यक्ति, देश या जाति से नहीं, केवल ‘‘इस्लाम’’ का गुण लोगों में पैदा करना इसका उद्देश्य है, प्रत्येक युग और प्रत्येक जाति के जिन सच्चे और नेक लोगों में यह गुण पाया गया है, वे सब ‘‘मुस्लिम’’ थे, मुस्लिम हैं और भविष्य में भी होंगे।

इस्लाम की सत्यता
आप देखते हैं कि दुनिया में जितनी चीज़ें हैं, सब एक नियम और क़ानून के अधीन हैं। चाँद और तारे सब एक ज़बरदस्त नियम में बँधे हुए हैं, जिसके विरुद्ध वे तनिक भी हिल नहीं सकते। ज़मीन अपनी विशेष गति के साथ घूम रही है, इसके लिए जो समय, गति और मार्ग नियत किया गया है, उसमें तनिक भी अन्तर नहीं आता। जल और वायु, प्रकाश और ताप सब एक नियम और क़ानून के पाबन्द हैं। जड़-पदार्थ, वनस्पति और जानवरों में से हर एक के लिए जो नियम नियत है, उसी के अनुसार ये सब पैदा होते हैं, बढ़ते हैं और घटते हैं, जीते हैं और मरते हैं। स्वयं मनुष्य की हालत पर भी आप विचार करेंगे तो आपको मालूम होगा कि वह भी प्राकृतिक नियम के अधीन है। जो नियम उसकी पैदाइश के लिए नियत किया गया है, उसी के अनुसार वह पैदा होता है, साँस लेता है, जल, आहार, ताप और प्रकाश प्राप्त करता है। उसकी हृदय-गति, उसका ख़ून-संचार, उसके साँस लेने और निकालने की क्रिया, उसी नियमऔर क़ानून के तहत होती है। उसका मस्तिष्क, उसका आमाशय, उसके फेफड़े,उसके स्नायु और मांसपेशियाँ, उसके हाथ-पाँव, ज़ुबान, आँखें, कान और नाक,तात्पर्य यह है कि उसके शरीर का एक-एक भाग वही काम कर रहा है, जो उसकेलिए निश्चित है। और उसी तरीके़ से कर रहा है, जो उसको बता दिया गया है।
यह प्रबल नियम जिसमें बड़े-बड़े ग्रहों से लेकर धरती का एक छोटे-से-छोटा कण तक जकड़ा हुआ है, एक महान शासक का बनाया हुआ नियम है। सम्पूर्ण जगत और जगत की प्रत्येक वस्तु उस शासक के आदेश और उसकी आज्ञा का पालन करती है, क्योंकि वह उसी के बनाए हुए नियम का पालन कर रही है, इसलिए सम्पूर्ण जगत का धर्म इस्लाम है, जैसा कि हम ऊपर बयान कर चुके हैं कि ईश्वर के आज्ञापालन और उसके आदेशानुवर्तन ही को इस्लाम कहते हैं। सूर्य, चन्द्र और तारे सब मुस्लिम हैं। पृथ्वी भी मुस्लिम है, जल, वायु और प्रकाश भी मुस्लिम हैं। पेड़, पत्थर और जानवर भी मुस्लिम हैं और वह मनुष्य भी जो ईश्वर को नहीं पहचानता, जो ईश्वर का इन्कार करता है, जो ईश्वर के सिवा दूसरों को पूजता है, जो अल्लाह के साथ दूसरों को शरीक करता है, हाँ, वह भी अपनी प्रकृति और मनोवृत्ति की दृष्टि से मुस्लिम ही है, क्योंकि उसका पैदा होना, जीवित रहना और मरना सब कुछ ईश्वरीय नियम के अन्तर्गत होता है, उसके समस्त अंगों और उसके शरीर के रोम-रोम का धर्म इस्लाम है, क्योंकि वे सब ईश्वरीय नियम के अनुसार बनते, बढ़ते और गतिशील होते हैं, यहाँ तक कि उसकी वह ज़ुबान भी वास्तव में मुस्लिम है, जिससे वह नादानी के साथ ‘‘शिर्क’’ (अनेकेश्वरवाद) और ‘‘कुफ़्र’’ (अधर्म)सम्बन्धी विचार व्यक्त करता है। उसका वह सिर भी जन्मजात मुस्लिम है, जिसको वह ज़बरदस्ती अल्लाह के सिवा दूसरों के सामने झुकाता है। उसका वह दिल भी स्वभावतः मुस्लिम है, जिसमें वह अज्ञानता के कारण अल्लाह के सिवा दूसरों का आदर और प्रेम रखता है, क्योंकि ये सब चीज़ें ईश्वरीय नियम ही कापालन करती हैं और इनकी प्रत्येक क्रिया ईश्वरीय नियम ही के अन्तर्गत होती है।
अब एक दूसरे पहलू से देखिए:
मनुष्य की एक हैसियत तो यह है कि वह सृष्टि की अन्य वस्तुओं की तरह प्रकृति के ज़बरदस्त नियमों में जकड़ा हुआ है और उनकी पाबन्दी के लिए मजबूर है।
दूसरी हैसियत यह है कि उसके पास बुद्धि है, सोचने और समझने और निर्णय करने की शक्ति है। वह स्वतंत्रतापूर्वक एक बात को मानता है, दूसरी को नहीं मानता। एक तरीके़ को पसन्द करता है, दूसरे तरीके़ को पसन्द नहीं करता। जीवन सम्बन्धी मामलों में अपनी इच्छा से स्वयं एक नियम और क़ानून बनाता है या दूसरों के बनाए हुए नियम और क़ानून को अपनाता है। इस हैसियत में वह संसार की दूसरी चीज़ों की तरह किसी निश्चित क़ानून का पाबन्द नहीं किया गया है। बल्कि उसको अपने विचार, अपनी राय और अपने व्यवहार में चयन सम्बन्धी स्वतंत्रता प्रदान की गई है।
मनुष्य के जीवन में ये दोनों हैसियतें अलग-अलग पाई जाती हैं।
पहली हैसियत में वह संसार की दूसरी सारी चीज़ों के साथ जन्मजात मुस्लिम है और मुस्लिम होने के लिए मजबूर है, जैसा कि अभी आपको मालूम हो चुका है।
दूसरी हैसियत में मुस्लिम होना या न होना उसके अधिकार में है और इसी अधिकार के कारण मनुष्य दो वर्गों में बँट जाता है।
एक मनुष्य वह है जो अपने सृष्टिकर्ता और पैदा करने वाले को पहचानता है, उसको अपना स्वामी और प्रभु मानता है और अपने जीवन के ऐच्छिक कार्यों में भी उसी के पसन्द किए हुए क़ानून पर चलता है। वह पूरा मुस्लिम है, उसका इस्लाम पूर्ण हो गया; क्योंकि अब उसका जीवन पूर्ण रूप से इस्लाम है। अब वह जान-बूझकर भी उसी का आज्ञाकारी बन गया, जिसका आज्ञापालन वह अनजाने में कर रहा था। अब वह अपने इरादे और मर्ज़ी से भी उसी अल्लाह का आज्ञाकारी है जिसका आज्ञाकारी वह बिना इरादे और संकल्प के था। अब उसका ज्ञान सच्चा है, क्योंकि वह उस अल्लाह को जान गया, जिसने उसे जानने और ज्ञान प्राप्त करने की शक्ति दी है। अब उसकी बुद्धि और उसकी राय ठीक है क्योंकि उसने सोच-समझकर उस अल्लाह के आज्ञापालन का निर्णय किया, जिसने उसे सोचने-समझने और निर्णय करने की योग्यता प्रदान की है। अब उसकी ज़ुबान सच्ची है, क्योंकि वह उसी अल्लाह को मान रही है, जिसने उसको बोलने की शक्ति प्रदान की है। अब उसके सम्पूर्ण जीवन में सत्यता-ही-सत्यता है, क्योंकि ऐच्छिक हो या अनैच्छिक दोनों हालतों में वह अल्लाह के क़ानून का पाबन्द है। अब सम्पूर्ण जगत के साथ उसकी आत्मीयता हो गई, क्योंकि जगत की सारी चीज़ें जिसकी बन्दगी कर रही हैं, उसी की बन्दगी वह भी कर रहा है। अब वह ज़मीन पर अल्लाह का प्रतिनिधि (ख़लीफ़ा) है। सम्पूर्ण संसार उसका है और वह अल्लाह का है।

‘कुफ़्र’ की वास्तविकता
इसके मुक़ाबले में दूसरा मनुष्य वह है जो मुस्लिम पैदा हुआ और अपने जीवन भर अचेतन रूप में मुस्लिम ही रहा; परन्तु अपने ज्ञान और बुद्धि की शक्ति से काम लेकर, उसने ईश्वर को न पहचाना और अपने स्वतंत्रा क्षेत्र में उसने अल्लाह का हुक्म मानने से इन्कार कर दिया। यह व्यक्ति काफ़िर है। ‘‘कुफ़्र’’ मूल रूप से अरबी का शब्द है जिसका मौलिक अर्थ है छिपाना और परदा डालना। ऐसे व्यक्ति को इसलिए ‘काफ़िर’ कहा जाता है कि उसने अपनी सहज प्रकृति पर नादानी का परदा डाल रखा है। उसकी जन्मजात प्रकृति और स्वभाव इस्लाम की प्रकृति के अनुरूप है। उसका सारा शरीर और शरीर का हर भाग इस्लाम की प्रकृति के अनुसार काम कर रहा है। उसके चारों ओर सारी दुनिया इस्लाम पर चल रही है; परन्तु उसकी अक़्ल पर परदा पड़ गया है। सम्पूर्ण संसार की और स्वयं अपनी प्रकृति उससे छिप गई है। वह उसके विरुद्ध सोचता है और उसके विरुद्ध चलने की कोशिश करता है।
अब आप समझ सकते हैं कि जो व्यक्ति काफ़िर है, वह कितनी बड़ी गुमराही में पड़ा हुआ है।

स्रोत

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